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________________ महाकवि रह [३२१ इस ग्रन्थके शुरूमें कथिने अपने पूर्ववर्ती अनेक पंनियांका एक दूसरा लेब भी अंकित किया हुआ मिला है प्राचार्यों का उनकी कृतियांके नामोल्लम्बपूर्वक म्मरण किया जो सं. ११५२ की वैशाग्व शुक्ला पंचमीको उत्कीर्ण किया है । ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है यदि गया है। उसी स्तम्भके बीच भागमें एक भग्न मनि उसके मध्य कुछ विद्वानांका उल्लंग्व और उपलब्ध हो भी है जिसपर 'श्री देवसन' लिम्वा हुया है । वह लेख इम जाय तो फिर भगवान महावीरसे उक्त ग्रन्यकर्ता जिनसेना- प्रकार है:चार्य तककी एक अविच्छिन्न गुरु परम्पराका भी संकलन " मं० ११२ वैशाम्बसुदि पंचम्यां हो सकता है. जो ऐतिहासिक विद्वानांके लिये एक गौरवकी वस्तु होगी। २ श्री काष्ठासंघ महाचार्य वर्य श्री देव देवपेन-यह निंडिदेवकं प्रशिष्य और विमलसन __ ३ मन पादुका युगलम्।" गणधरक शिष्य थे तथा 'मलधारी दव, के नामसे लोकम इस लग्वस म्पष्ट है कि उस स्तूपवाले देवमन प्रसिद्धि को प्राप्त थे । मदन विजयी, तपस्वी, धर्मकै उए काष्ठासंघके प्राचार्य थे। अब दम्बना यह है कि क्या इन देशक, संयमक परिपालक और भव्यजन रूप कमलांकी देवमनके माथ सुलोचना चरितके कर्ताका मामंजस्य ठीक विकसित करनेक लिय मर्यक समान थे। बैठ सकता है पिटर्मन माहबकी रिपोर्ट में दर्शनमारके कर्ताआपने 'मुलांचनाचरित्र को अन्तिम प्रशस्ति में देवमनको रामपनका शिघ्य सूचित किया गया है । इसका अपनी गुरु परम्पराका जो उल्लंग्ख किया है उसमे आपने उनके पास क्या श्राधार था, हम सम्बन्धमे कुछ ज्ञात संघ और गण-गच्छादिका कोई उल्लेख नहीं है. जिमर्म नहीं हो सका। पर इतना सुनिश्चित है कि दर्शनमारक दवमन नामके अन्य विद्वानांसं पापका पार्थक्य सिद्ध करने- कर्ता देवमन मुलांचना चरितके काम पूर्ववर्ती विद्वान है। में मुविधा होती। हो सकता है कि प्रशस्तिम संघका उल्लेख न किया भावसंग्रह प्राकृत और आराधनामार यादि ग्रंथोंक जामका हो । रचयिता दंचमन भी विमलमन गणधरके शिष्य बनलार्य प्रस्तुत देवसनने अपने ग्रंथम अपने पूर्ववर्ती जिन गा है। उन्होंने भी अपने ग्रंथाकै अन्नमें अपने मंध और । विद्वानांका उल्लेख किया है, उनमे अपभ्रंश भाषांक महागगा गछतिका कोई उल्लेख नहीं किया। और न गुरु कवि पुप्परन्त ही सबसे बादक विद्वान जात होते है। परम्पराक माथ अपने गुरुकी किमी उपाधि विशेषका ही इनका समय विक्रमकी 10वीं वीं शताबी है । वसननं सकन किया है. जिसमें उनकी पृथकनाका महज बांध हो मुलांचनाचरितको गक्षम संवन्मरम श्रावण शुक्ला चतु. सकता। प्रस्नुन मुलांचनारितम अापने अपने गुरुकी देशी बुधवारको बनाकर समाप्त किया है जैयाकि उनकी उपाधि मलधारी बतलाई है जबकि भावसंग्रहादिक कर्ना प्रशस्तिक निम्न पदमे स्पष्ट है:देवसनने उसका कोई उल्लन नहीं किया। इसमें दोनों विमलामना की भिन्नता नो जान पड़ती है.पर उसमे उनक रवम संवत्सर वुदिवमाए, मुकचदिमिमावणमायण । संघ और गणगच्छादिकी भिवताका कोई मंकत नहीं चरिउ मुलायमाहि णिप्पण्णउ, पत्थ-ग्रन्थ-बरिणणसंपुण्णर। मिलना। ज्योतिषकी गणना अनुसार माठ संवरमाम राक्षम ___सं० १६४५ के 'दबकुण्ड' वाले शिलालंग्व में देव- संवत्यर स्वां है। जो दो उल्लेखाम मिलता है। मेनका उल्लंम्ब निहित है । उसमें भी बिमलमन गणधर प्रथम राक्षस मवत्सर मन १०७५ (वि० सं० ११३२) और उनक संघाटिका कोई उल्लेग्ब अंकित नहीं है जिसमें २६ जुलाईका श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार पड़ता है। म्पष्ट है कि मुलोचना चरितके कर्ता देवमेन उममे भिन्न है। और दमग मन् १३१ वि० सं० १३७२ का १६ जुलाईहां, उसी 'दबकण्ड' के एक 'जैन स्तूप' पर तीन के दिन बुधवार और उक्त चतुर्दशीका दिन पड़ता है। अतः इन दोनों में पहला संवन्मर उपयुक जान पड़ना x Edigraphica IndcaY.L.11.P.237-248 है। उममे स्पष्ट हो जाता है। कि मुलाचनाचरितक का # See Archaelogical survey of India Y.L.20P 102 दवमेन काष्ठा मंधके विद्वान थे। उन्होंने प्राचार्य कुन्द
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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