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अनेकान्त
[ वर्ष ११
नहीं है जिसके इशारेपर जगत्का अणु-परमाणु स्थावर- इसीलिये वह गुट बनाता है, समाज बनाता है, रक्तसम्बन्धअंगम नाचते हों। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जिसमें किसी के नामपर जाति और वर्णोकी रचना करके सामन्तशाही वर्गविशेषको ईश्वर जन्मना विशेषाधिकार देकर उत्पन्न बार राजतन्त्रको जन्म देता है। जैनतीथंकरोंने कहा—यह करता हो। ऐसा कोई विषान स्वीकृत नहीं जिससे वर्णविशेष- मार्ग गलत है। जब मूलतः सब मनुष्य स्वतन्त्र द्रव्य है, मनुष्य को सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक संरक्षण-प्राप्त हों। ही नही पशु-पक्षी और प्रत्येक चेतन स्वतन्त्र द्रव्य है और संसारमें अनन्त चेतन अनादिसिद्ध स्वतन्त्र और परिपूर्ण एकका दूसरेको गुलाम बनानेका, उसपर अपनी प्रभुता असंड द्रव्य हैं। अनन्त, जड़ परमाणु बादि बचेतन पदार्थ स्थापन करनेका कोई अधिकार नहीं तब यह गिरोहबाजी भी अनादिसिद्ध अखंड द्रव्य है। एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर विषम समाजव्यवस्था वर्गसर्जक वर्णव्यवस्था आदि, जिनसे कोई निसर्गसिद्ध अधिकार नहीं । सब अपने परिणमन एक दूसरेकी गुलामीमें पड़ता है, हिंसा है, अनधिकार-वेष्टा अपनी उपादान-योग्यताके अनुसार करते रहते है, योग्यताके है, मिथ्यात्व है और पाप है । सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक प्राणी विकासमें अवश्य ही एक दूसरेको प्रभावित करते है, पर का मूलतः समान अस्तित्व और समान अधिकार स्वीकार इससे व्यक्ति (द्रव्य) के परिणमन और अस्तित्वकास्वातन्त्र्य किये जायें। जब तक यह समानाधिकार स्वीकार नही किया मष्ट नहीं होता। जहां तक अचेतन पदार्थोंका प्रश्न है- जाता तब तक जगत्में अहिंसाका बीज पनप नही सकता। अपनी सामग्रीके अनुसार प्रतिक्षण परिणत होते रहते हैं, और हिंसा तथा युद्धकी तेजी कम नहीं की जा सकती। इसी उनमें परस्पर कोई झगड़ा या छीना-झपटी नहीं होती। तरह सम्पत्ति जिसमें मुख्यतः भौतिकपदार्थ है, किसीकी वैज्ञानिक कार्यकारणभावके नियमानुसार जिस और जैसे नही है, उसका अणु परमाणु भी स्वतन्त्र है। पर यदि प्राणियों परिणमनकी सामग्री उपस्थित होती है वह और वैसा का उसके बिना काम नहीं चलता, उनका जीवन-धारण सम्भव परिणमन हो जाता है। एक हाइड्रोजनका परमाणु है। उसका नहीं है तो काम चलाने के लिये व्यवहार निर्वाहके लिये यह निसर्गसिद्ध स्वभाव है कि प्रतिक्षण पूर्वपर्यायको सब मिलकर सब समानभावसे बैठकर उसे व्यवहारमें छोड़कर नई पर्यायको धारण करना। अब यदि संयोगवश लानेका रास्ता निकालो। छीन-झपट कर व्यक्तिविशेष उसका आक्सिजनके परमाणुसे संयोग हो जाता है तो दोनों परिवारविशेष, जातिविशेष, समाजविशेष और प्रान्तविशेष का जलरूप परिणमन हो जायगा। और यदि नही, तो वह आदिकी गिरोहबाजी कर उसे हड़पनेकी चेष्टा न करो और हाइड्रोजन का हाइड्रोजन बना रह सकता है या जो सामग्री जगत्में संघर्ष और युद्धका अवसर न आने दो। तात्पर्य जुटेगी उसके अनुसार कोई-न-कोई सदृश या विसदृश परिणमन यह किकरेगा ही। परिणमन-चक्रसे बाहर नही जा सकेगा। अतः
मूलतः सम्पत्तिपर किसीका अधिकार नहीं है पर जब अचेतन जगत्में संघर्ष हिंसा या युद्धका प्रश्न नही । जैसी
व्यवहारनिर्वाहार्य उसका उपयोग करना अत्यावश्यक है सामग्री मिली तदनुसार परस्पर प्रभावित होकर उनका
तब जगत्के प्रत्येक प्राणीको उसके उपयोगकी समान सुविधा कार्यक्रम चलता रहता है। परन्तु चेतन जगत्में वृक्ष कीड़े.
होना ही अहिंसा है। आजका समाजवाद मनुष्य-समाजकी मकोड़े पशु-पक्षी आदिसे मनुष्यमें चेतना और बुद्धिका विकास
सुविधा और शान्तिका विचार करता है पर जैनधर्मने अत्यधिक होनेसे उसमें संग्रह और प्रभुता-स्थापनकी वृत्ति
पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े तकके पृथक और समान अस्तित्वभी जाग्रत होती है। उसमें रागद्वेष और तृष्णाका प्रकट
को स्वीकार कर उन्हें भी जीनेका अहिंसक वातावरण बनाया विकास होता है। वह अपना गिरोह बांधता है और दूसरे है और कहा है कि अय मनुष्यो, तुममें यदि अधिक चेतनागिरोहोंसे संघर्ष और युद्धका प्रसंग लाता है और जमत्- का विकास है तो वह इसलिये है कि तुम अपने सजातीय में अशान्ति और हिंसाको जन्म देता है। चाहता है कि संसार- मनुष्योंमें जिस प्रकार समानताका व्यवहार करना के अधिक-से-अधिक अचेतन पदार्थ उसकी मालिकीमें या चाहते हो-उन्हें जीने देना चाहते हो-उसी तरह इन बांब और अधिक-से-अधिक चेतन उसके गुलाम बनें। किंचित् विजातीय पशु-पक्षी बादिको भी जीने दो, ये भी