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________________ किरण १ सर्वोदय और सामाजिकता तुम्हारी ही तरह स्वतन्त्र चेतन है। इनके अधिकारको कहता है कि यह अधिकार स्वीकृति ही मूलतः भान्त है। मत हड़पो। यद्यपि भौतिक साधनोंके बिना हमारा जीवन-यवहार नहीं आदर्शकी सर्वोदयी उच्चता पलता और उनके आहार-व्यवहारके लिये स्वीकार करना आजके समाजवादका उदय सामन्तशाही और राज लाजिमी है फिर भी हमें यह तो मानना ही चाहिये कि इन तन्त्रकी प्रतिक्रियाके फलस्वरूप हुआ है। अतः उसकी यह पदार्थापर हमारा निसर्गतः कोई अधिकार नहीं, यह परवशता घोषणा स्वाभाविक है कि भौतिक सम्पत्ति पर प्रत्येक है जो हम इनको स्वीकार किये हैं। मतः जितना कम हो मागरिकका समान अधिकार है, सम्पत्ति राष्ट्र या समाज सके उतना कम इनका सहारा लिया जाय क्योंकि ये परकी है व्यक्ति की नहीं । पर सिद्धान्ततः आदर्श तो जैनधर्म पदार्थ है । जब प्रत्येक प्राणीको यह सम्यक्दर्शन होगा तो का ही उच्च है जो संपत्तिपर क्या, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य परिग्रहके संग्रहकी तृष्णाको जड़ ही कट जाती है, उसके पर मूलतः कोई अधिकार ही स्वीकार नहीं करता । अतः संग्रहकी होड़ समाप्त होकर अन्तर्दष्टिका विशुद्ध वातावरण जबतक कोई भी प्राणी परपदार्थको ग्रहण करनेकी तृष्णा तैयार होता है और जीवन में सग्रहकी 'नही त्यागकी प्रतिष्ठा होती है। जैनधर्मने आदर्शके स्थानपर परमव्यक्तिस्वातन्त्र्य भी करता है तबतक वह अनधिकार-चेष्टा करनेवाला और त्यागनिष्ठाको रखा है, समता और अहिंसाको उसका हिंसक है। और यही कारण है कि इस परम्पराके सन्तोंने सर्वस्व-त्यागका उपदेश दिया और कम-से-कम परका सहारा प्राण माना है और माना है निर्ग्रन्थताको स्वावलम्बनकी लेकर परमस्वतन्त्र निर्ग्रन्थजीवन बितानेका आदर्श उपस्थित पराकाष्ठा। किया। आदर्श उच्च और महान होनेपर ही उसका व्यवहार इस तरह जैनधर्म उस परमस्वातन्त्र्यका सर्वोदयी उच्चशुद्ध हो सकता है । समाजवाद जहां सम्पत्तिपर समाज और तम बादशं उपस्थित कर समाजवादको आध्यात्मिक भूमिका राष्ट्रका अधिकार मानकर समाजघटक और राष्ट्रघटक तथा दार्शनिक आधारको सुन्दरतम-अकलंक-व्याख्या करता होनेके नाते व्यक्तिका अधिकार मान लेता है वहां जैनधर्म है। उसकी अन्तर्द ष्टि समाजवादकी अहिंसक प्रसाधना है। सर्वोदय और सामाजिकता (श्री रिषभदास रांका) व्यक्तिसे समाज बनता है और समाजकी भूमिकापर मानवका स्वभाव है कि वह सुख चाहता है, दुःख कोई व्यक्तिका विकास होता है। हजारों वर्षोंसे सन्त, शानी और नही चाहता। लेकिन दिखाई तो यह देता है कि सुख चाहनेविचारक विचार करते आये है कि समाजकी व्यवस्था ठीक वाले स्वयं दुःखमें डूबे है। मानव मनका अध्ययन करनेरहने,लोगोंमें योग्य गुणोंका विकास होने और सुखपूर्वक जीवन से यही ज्ञात होता है कि इस दुखके मूलमें हर व्यक्तिका वितानेके लिये किन-किन गुणों या नियमोंकी आवश्यकता दूसरे व्यक्तिके सुखकी उपेक्षा करना है। अपने सुखके है। सन्त और ज्ञानी प्रायः सार्वकालिक और सार्वजनिक होते लिये आदमी दूसरेको दुःख देने में संकोच नहीं करता। इसी इं। वे जो कुछ सोचते हैं सबके लिये सोचते हैं। हम उनके लिये संसारमें दुःखकी वृद्धि होती है, पारस्परिक अशान्ति उपदेशको 'सर्वोदय' कह सकते है या 'सर्वोदयतीर्ष' कह बढ़ती है, स्पर्षा लग जाती है, तरह-तरहकी नैतिक, सामासकते हैं। जिक और कानूनी व्यवस्थायें बनती है, परन्तु सुबहाथ नहीं
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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