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अनेकान्त
वर्ष ११
लगता इसलिये सन्तोंने जो कहा है कि सबकी भलाईमें पर एक बात है, ऊंची दृष्टि और भावना होनेपर भी अपनी भलाई माननेसे ही सुख हाथ लग सकता है, इसमें यदि ऐसे आदमीमें सद्गुण नहीं हुए, अनुकूल वातावरण बहुत बड़ा तथ्य है। जो बादमी संकीर्ण सीमाको न हुआ तो उससे कोई भलाईका प्रत्यक्ष काम नहीं हो सकेगा। लांपकर व्यापक क्षेत्रमें आ जाता है या कि 'मैं को छोड़कर सबकी भलाईका काम है सर्वोदय और ऐसे मार्गको हम तीर्थ सबका हो जाता है उसके दुःखको खेलने के लिये दुनिया गांखें कह सकते है। सर्वोदयतीर्थपर चलनेवालेमें इन गुणोंबिछा देती है। किसीने सच ही कहा है कि सुख बांटनेसे का होना आवश्यक है। बढ़ता है और दुःख बांटनेसे घटता है।
(१) अहिंसा-सभी लोग अपनी तरह सुखके ___ शान्तिके लिये राज्य व्यवस्थायें, लोकतन्त्र, समाजवाद, अभिलाषी है इसलिये हम अपने प्रति जैसी अपेक्षा दूसरोंसाम्यवाद जैसी कई विचारधारायें, अपने-अपने ढंगपर से रखते है वैसा ही सबके साथ व्यहार करना अहिंसा है। प्रयत्न कर रही है और सब यही चाहते है कि किसी तरह (२) संयम-ऐसी अहिंसाका पालन करनेके लिये शान्ति स्थापित हो, परन्तु संसारमें अशान्ति ही फैली हुई है। संयम अत्यन्त आवश्यक है। संयमके अभावमें मोह या लोभघरसे लेकर विश्व तक अपनी-अपनी सीमाओंके भीतर से मुक्ति नही मिल सकती। अहिंसाकी साधनामें कभी-कभी कोम्बिक, सामाजिक, जातीय, धार्मिक, प्रांतीय, राष्ट्रीय, सहन भी करना पड़ता है, श्रम भी उठाना पड़ता है, लेकिन और अन्तर्राष्ट्रीय प्रगड़े, युद्ध, कलह, पक्ष और अशान्ति छाई यह सहन करना और श्रम संतोष देता है। अन्तमें उससे हुई मिलेगी। और स्पष्ट है कि यहां मूलमें स्वार्थ है। स्वार्थ, हित ही होता है। मोह और लोभके कारण ही वातावरणमें विषमता आती (३) समन्वयवृष्टि-संयमका पालन समन्वयहै और पारस्परिक टकराहट होती है। दूसरेकी भलाईमें दृष्टिके बिना नही हो सकता। दूसरोंके दृष्टिकोणको अपनी भलाई मानकर वैसा आचरण करें तो उससे हमारा समझनेका धीरज और उदारता होनी चाहिये। समन्वयमें भी हित ही होगा। हम जिस तरहका बर्ताव दूसरोंके साथ हठ का आग्रह नहीं होता। अपने विचारों या सिद्धान्तोंके करेंगे उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होगी। जब हम दूसरोंका प्रति दृढ़ निष्ठा होनेपर भी दूसरोंपर लादनेकी वृत्तिसे दूर हित देखेंगे तब दूसरे भी हमारे हित का ध्यान रखेंगे। लेकिन रहना पड़ता है। जीवन में समझौतेका भी एक स्थान होता है। खींचातानीमें तो सबका ही अहित है। एक रस्सेको अगर दो अगर यह न हो तो द्वंद्व खड़े हो जाते है। एकाकी जीवनके व्यक्ति बराबर खींचते रहे तो घंटो व्यतीत होनेपर भी सिवा लिये शायद यह उतना आवश्यक न हो, पर सामाजिकतामें परेशानीके किसीके हाथ कुछ न आयेगा।
रहनेवालेके लिये तो यह अत्यन्त आवश्यक है। सुख-प्राप्तिकी पहली शर्त यह है कि आदमी अपने लिये (४) विवेक-परन्तु किस समय, कहां क्या करना कम-से-कम लेकर दूसरोंको अधिक-से-अधिक सेवा दें। आवश्यक है, यह विवेक यदि न हो तो सद्गुणोंका समन्वय ऐसा आदमी जहां जायगा आदर पायेगा और वहां सुखकी न होकर एकांगी विकास होता है जिससे व्यक्तिके सामाजिक बढ़वारी ही होगी। उससे किसीको कष्ट नहीं होगा। कुटम्ब- विकासमें बाधा उपस्थित होती है और समाजके लिये में रहकर वह बड़ोंकी सेवा करेगा, छोटोंपर प्रेम और वात्सल्य ऐसा विकास प्रायः हितकर नही हो जाता। रखेगा । समाजमें भी वह अप्रमत्त भावसे अपने कर्तव्य- (५) पुरुषार्च-उपर्युक्त सभी गुणोंके होते हुए भी को पूरा करेगा। कुटुम्ब और समाजके लिये की हुई उसकी अगर पुरुषार्थ नही हुआ, शक्ति न हुई तो भी सद्गुणोंका सेवा देशके लिये पूरक ही होगी; क्योंकि ऐसा आदमी अपनी सर्वागीण विकास नहीं हो पाता और फिर समाजका भी मर्यादाको जानता है और किस क्षेत्रमें कितनी सेवा करनी पालण-पोषण भली-भांति नहीं हो सकता है। चाहे व्यक्तिगत पाहिये यह विवेक उसे होता है। उसका ध्येय सबकी भलाई भलाईका काम हो या समाज-हितका जबतक पूरी ताकतहोनेसे किसी एकको भलाईके लिये वह दूसरोंको कष्ट नहीं के साथ नहीं जुटाया जायगा तबतक उसके परिणामसे बेगा । एककी सेवाके लिये दूसरोंकी कुसेवा नहीं करेगा। हम वंचित ही रहेंगे।