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जैनधर्म और समाजवाद
(प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) धर्मपुरुषार्थ ?
सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि जिन विवाह, सम्पत्तिका वैदिक परम्परामें सामाजिक विधि-विधान, विवाह:
उत्तराधिकार आदि लौकिक व्यवहारोंको वर्ण-व्यवस्थाकी प्रथा, उत्तराधिकार-विधि, आदि लौकिक कार्योंके नियम
विषमताकी मोटमें धर्मका नाम दिया जाता था और धर्मउपनियम वर्णव्यवस्थाकी भित्तिपर संगठित किये गये हैं
पुरुषार्थ कहा जाता था उसका अस्तित्व ही श्रमणपरम्पराने
नहीं माना। इस परम्पराने मनुष्यमात्रको दुखोसे छुड़ाकर और इन सबको वर्णधर्म कहकर धर्मपुरुषार्थ में शामिल किया है । धर्मशास्त्र और धर्मसूत्रोंमें इन्ही लोक-व्यवहारोंके
सुखके मार्गको समानभावसे खोला । इन सन्तोंने एक बातविधि-निषेध दंड-प्रायश्चित आदिका निरूपण है। इसीलिये
का स्पष्ट दर्शन किया कि परिग्रहकी तृष्णा ही समस्त अशान्ति वैदिक-परम्परामें मोक्षसे भिन्न धर्म नामका पुरुषार्थ गिनाया
और दुःखोंकी जड़ है। इस परिग्रहकी तृष्णा बोर
संग्रहवृत्तिसे ही सत्ता और प्रभुत्वका अहंकार फूटता है। गया है । मोक्ष-पुरुषार्थमें कर्म-सन्न्यास और त्यागकी मुख्यता
उसीमेंसे जाति, वर्ण, रंग, वंश बादिकी विषवेलोंके अंकुर है जबकि धर्म-पुरुषार्थ प्रवृत्तिमय है। श्रमण-परम्परामें
निकलते हैं। हिंसा, संघर्ष, युद्ध और विनाशके तांडव होते चारपुरुषार्थवाली पद्धति वैदिकोके प्रभाववश बादको आई।
है। अतः व्यक्तिकी मुक्ति और जगत्की शान्तिका प्रथम वस्तुतः वर्णधर्मपर जिसका भवन रचा हुआ है ऐसा धर्मपुरुषार्थ तो वर्ण-व्यवस्थाको जन्मसे न माननेके कारण
और मूल मार्ग है तृष्णाका नाश करना । तृष्णाकी उत्पति
अज्ञानसे होती है। यह मोही प्राणी अज्ञानवश पर-पदापों श्रमण-परम्परामें हो ही नहीं सकता । श्रमणपरम्परा तो
पर अधिकार करनेकी अनधिकार चेष्टा करके हिंसाका समताके आधारसे मोक्षपुरुषार्थका ही समर्थन करनेवाली
अवसर लाता है । अतः अज्ञान और तृष्णाके नाशसे ही है। शूद्रके लिये सन्न्यास और व्रतोका प्रतिषेध करनेवाली
सुख-शांतिके अमृतदर्शन हो सकते हैं। उनने इन हिंसा वैदिक परम्पराका मोक्षपुरुषार्थ भी वर्णव्यवस्थाकी विषमता
परिग्रह और संघर्षरत सांसारिक प्राणियोंको कहा किसे सीमाबद्ध है, जबकि श्रमणपरम्पराका मोक्षमार्ग मनुष्य
संसारके एक 'परमाणु' पर भी तुम्हारा अधिकार नहीं है, मात्रके लिये उन्मुक्त है। श्रमण-परम्पराके दो प्रधान ज्यो
सब स्वतन्त्र है, सबकी परिणति अपनी-अपनी योग्यतासे तिधरोंने आजसे २६०० वर्ष पूर्व विहारकी पुण्य भूमिमें
होती है, जिसे हम सम्पत्ति कहते है वे अचेतन पदार्थ भी अपनेइसी समताधर्मकी ज्योति जगाई थी। इन्होंने अपने श्रमण
में परिपूर्ण है, अतः उनपर अधिकार जमानेकी चेष्टा ही संघोंमें नाई माली चांडालों तकको समभूमिकासे दीक्षित
हिंसा है। तात्पर्य यह कि वर्णधर्मके नामपर सत्ता और किया था। जिन शूद्रोंको व्रत धारण करने का अधिकार नहीं
अहंकार तथा विषम विशेषाधिकारोंके समर्थक विधि-विधान था उन्हें श्रमणसंघका उच्चतम पद भी अपनी साधनासे
कभी 'धर्म' नही हो सकते । उन उस समयकी समाज-व्यवस्थाउसी पर्यायमें मिल जाता था। मनुष्यमात्रको व्रत-चारित्र
के कानूनोंको धर्मका जामा पहिनाकर मानवताके सहनबंर देनेवाली परम्पराका वेदोंमें 'व्रात्य' शब्दसे उल्लेख किया
करना धर्मपुरुषार्थ नहीं कहा जा सकता। गया है। सामाजिक विधि-विधानोंके विषयमें श्रमणपरम्पराका अपना कोई खास मत और विषि-शास्त्र नहीं रहा। पर चरम व्यक्तिस्वातन्त्र्यउसने जो समत्वपूर्ण और वर्णविहीन सर्वोदय संघकी स्थापना जैनधर्मने मूलतः समस्त जगत्को स्वभावसिड माना की उसका असर समाजव्यवस्थापर पड़े बिना नहीं रहा। है, इसका रचनेवाला कोई ईपवर नहीं है। ऐसी कोई सत्ता