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अनेकान्त
वादियोंकी तरह गांधी लौकिक सर्वोदयके समर्थक थे- महावीर, कबीर और गांधी युगके सभी सामाजिक और पर उनके साधनोंसे वे सहमत नहीं थे, उनके सर्वोदयके दार्शनिक आदर्श उस समाजकी उपज है जिसमें उत्पादन सिद्धांतकी प्रतिक्रिया भारतके राजनीतिक क्षेत्रमें उतनी और उसके साधनोंका स्वामित्व व्यक्तिगत था। प्राचीन नहीं हुई जितनी कि सांस्कृतिक क्षेत्रमें, वह राजनीतिज्ञों- आदोंमें सामूहिक उत्पादनको हेय दृष्टिसे तो देखा गया, की नहीं अपितु थामिकोंकी चर्चाका विषय बन गया, पर उसके विरुद्ध कोई नैतिक कड़ा विधान नहीं लगाया प्रत्येक नवीन विचारधाराको अपने सीमित धार्मिक सिद्धांतों- गया। गांधीजीकी अर्थनीतिके अनुसार वर्तमान व्यवस्थामें की परिधिमें ले आना भारतीयोंका स्वाभाविक गुण है, व्यक्तिके लिये उत्पादनके स्वामित्वकी नैतिक छूट है, और इसीसे साम्यवादकी तरह सर्वोदयके सिद्धातका भी हां उससे यह आशा अवश्य है कि वह पूंजीको जनताकी प्राचीन दार्शनिक दृष्टिसे आकलन हुआ। मै भी इसे अशुभ थाती समझ कर उसका व्यक्तिगत उपयोग न करे। जिन नहीं समझता; क्योंकि इससे हमारी दृष्टिकी लौकिकता परिस्थितियोमें गांधीजीने इन विचारोंका प्रचार किया था लक्षित होती है, पहले भी इस देशमें अनेक तीर्थोंकी कल्पना उसमें एक सीमा तक अपने युगका प्रतिनिधित्व था, होती रही है, पर उसका लक्ष्य अपरलोक था किंतु आज पर गांधीजी सर्वोदयके लिये विकेन्द्रीकरण अनिवार्य जो हम सर्वोदयतीर्थको बांधना चाहते हैं वह शुद्ध प्रत्यक्ष मानते थे। काग्रेस राजमें गांधीजीकी पूजा चाहे जितनी भी लौकिक जीवनके ही उन्नयनके लिये है । और में हुई हो पर सरकारी योजनाएं उनके आदशोंसे एक दम समझता है कि इस विचारसे गांधीके सर्वोदय और अछूती है। नेहरू सरकार उस भारतीय समाजका सक्रिय साम्यवादमें अधिक स्थूल अन्तर नही है, साम्यवादकी स्वप्न देख रही है जो नदीके बांधोंके विद्युत्प्रवाहसे प्रस्तुत व्यवस्थामें 'समाज' मुख्य है व्यक्ति गौण । पर आलोकित होगा और जो वाष्पचालित यंत्रोंकी सहायतासे सर्वोदयमें सबके उदयकी भावनाके साथ व्यक्तिके अशन-वसनकी समस्या सुलझाएगा। उस यांत्रिक समाजकी विकासका लक्ष्य भी निहित है। यह बात सच है कि रूसी खट-पट और धूल-धकड़में बैलगाड़ीकी टिकटिक कोलकी यांत्रिक साम्यवादमें व्यक्तिका बहुविध विकास संभव ची-बी और तन्तुवायकी भिन्नभिन्न सुननेके लिये भारतीय नहीं। और 'निजोदय के बिना 'सर्वोदय तक पहुंचना कान प्रस्तुत न होंगे। श्रद्धेय आचार्य विनोबाने जो भूमिदान कठिन ही नही असंभव है। किंतु ठीक इसके विरुद्ध यह भी यज्ञ रचा है उससे पुराने यज्ञ शब्दका पुनरुद्धार चाहे हो सच है कि प्रस्तुत विषमता-मूलक समाजमें व्यक्तिका जाय पर भूमिहीनोंकी अवस्थामें कोई विशेष सुधार नही स्वविकास या निजोदय असंभव है। और समाजको होगा। जहां तक भारतीय संस्कृतिका सम्बन्ध है वह एक बामल बदलनेके लिये पहले निजोदय चाहिए न कि विशेष ऐतिहासिक परम्परा और परिणतिमें व्यक्तित्वसमाजोदय । उसपर भी भारतीय समाज दुहरी विषमता- का विकास और हृदयशुद्धिपर जोर देती आई है। के कोढसे ग्रस्त है। आर्थिक विषमता तो व्यक्तिको केवल
और विश्व-संस्कृति तथा सर्वोदय मूलक समाज-रचनाके श्रम और उत्पादनके फलोपभोगसे वंचित करती है, पर
लिये उसकी यह बहुत बड़ी देन है, क्योंकि सर्वोदयके लिये वर्णगत विषमता तो व्यक्तिको जन्मसे ही सभी मानवीय
मानवमनकी तरह लोकमनकी शुद्धि और संयम भी अधिकारोंसे मुक्त कर देती है। जहां भिखमंगापन आध्या
आवश्यक है, पर लोकमनकी शुद्धि संतुलित लोकव्यवस्थात्मिकताका प्रतीक हो और लोकशोषण लोकप्रभुताका, जहां बहुत बड़ा जनसमुदाय ईश्वरीय विधान या पुण्य-पाप
में ही संभव है। आर्थिक स्वतन्त्रताके बिना जिस तरह राजरूप अदृष्टदेवके नामपर गरीबी और अपमानका
नैतिक स्वतन्त्रताका कोई अर्थ नहीं उसी तरह निजोदयके जीवन-यापन करने के लिये विवश हो उस समाजमें निजोदय
बिना सर्वोदयका कोई मूल्य नहीं। जैसे आर्थिक स्वतन्त्रताकी कल्पना करना आध्यात्मिकताका हनन करना है। के लिये राजनीतिक स्वतन्त्रता अपेक्षित है वैसे ही निजोदययह बात निर्विवाद है कि समय-समयपर भारतीय लोक पुरुषों के लिये सर्वोदय भी; क्योंकि दोनों एक दूसरेके पूरक ने हमारी सदोष समाज-रचनाको बदलनेकी चेष्टाकी हैं। चुनावके बाद अगले पांच वर्षोंमें यदि हम अपनी नवीन और उन्हें उसमें आंशिक सफलता भी मिली, 'सर्वोदय स्वतन्त्र समाज व्यवस्था नहीं बनाते तो भारतीय संस्कृतिकी कल्पना भी उसी प्रकारकी चेष्टा है। राम, कृष्ण, बुट, की पराजय निश्चित है।