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अनेकान्त
[ वर्ष ॥
की बात है, परन्तु मैने अपनी ओरसे कुछ पुरस्कारोंकी योजना रहती है, परन्तु भारतीय राजशासनके लिये एक सम्बत् का कर उन्हें वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी मार्फत देनेका जो विधान होना जरूरी है। वह विक्रम सम्वत् हो सकता है, अशोकका किया है उसका एक लक्ष्य यह भी है कि मेरे जीवनमें राज्यकाल भी हो सकता है जिसके चक्रको भारतके राष्ट्रीय ही पुरस्कारोंकी परम्परा चालू हो जाय और ट्रस्टकमेटी ध्वजमें स्थान दिया गया है, और मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्तका को भविष्यमें इस विषयके आयोजनकी यथोचित प्रेरणा शासनकाल भी हो सकता है जिसने सबसे पहले विदेशियोके मिलती रहे।
आक्रमणसे भारतकी रक्षा की थी और विदेशियोंकी मेरे पास साहित्य, इतिहास और तत्त्व-सम्बन्धी कितने राजसत्ताको भारतमें जमने तथा पनपने नहीं दिया था। ही ऐसे विषय हैं जिनके लिए पुरस्कारोकी योजना होनी इन सम्वतोपर गहरा विचार करके जिसको अधिक उचित चाहिए। अतः जो भी सज्जन अपनी तरफसे कुछ रकम और उपयुक्त समझा जाय उसको अपनाया जा सकता है। पुरस्कारोंके रूपमें देना चाहें वे मुझसे (अधिष्ठाता वीर- देशी महीनों आदिके व्यवहरार्थ और विदेशी महीनों आदि के सेवामन्दिर के पते पर) पत्र व्यवहार करें। उनके पुरस्कार की व्यवहारको बन्द करने के लिये १५ वर्ष जितनी किसी लम्बी रकमके लिये योग्य विषय चुन दिया जायगा और उसकी अवधिकी भी जरूरत नही है-उसे ५-७ वर्षके भीतर ही विज्ञप्ति भी पत्रोंमें निकाल दी जायगी। जो बन्धु अपनी अमली जामा पहनाया जा सकता है। उसके लिये प्रस्ताव-द्वारा ओरसे किसी पुरस्कार की योजना न करना चाहे वे दूसरोंके एक छोटी अवधि नियत हो जानी चाहिए। द्वारा आयोजित पुरस्कारको रकममें कुछ वृद्धि कर सकते यहांपर एक खास बात और प्रकट कर देनेकी है और है, जो २५) से कमकी न होनी चाहिए, और वह बढ़ी हुई रकम वह यह कि प्राचीनतम भारतमे वर्षका प्रारम्भ श्रावणभी उन्हीकी ओरसे पुरस्कृत व्यक्तिको दी जावेगी। कृष्ण प्रतिपदासे होता था, जो वर्षाऋतुका पहला दिन है। ३. भारत-सरकारके ध्यान देने योग्य-- वर्षाऋतुसे प्रारम्भ होनके कारण ही साल (year) कानाम
विदेशी राजसत्ता अग्रेजी हुकूमतके भारतीय राजसिहा- 'वर्ष' पड़ा जान पड़ता है, जिसका अन्त आषाढी पूर्णिमाको सनसे अलग हो जानेके बाद विदेशी भाषा अंग्रेजीको भी राज- होता है । इसीसे आषाढी पूर्णिमाके दिन भारतमें जगह जगह काजसे अलग कर देनेको चर्चा चली और यह समझा गया अगले वर्षका भविष्य जाननेके लिये ज्योतिष और निमित्तकि इस भाषाका राजकाजमें प्रमुखताके साथ प्रचलित रहना शास्त्रोके अनुसार पवनपरीक्षा की जाती थी, जो आज एक प्रकारकी विदेशी गुलामी होगा और वह भारतीय तक प्रचलित है । सावनी आषाढीके रूपमें किसानोका फ़सली गौरवके अनुकूल नही होगा । अतः ससदके द्वारा १५ वर्ष साल भी उसी पुरानी प्रथा का द्योतक है, जिसे किसी समय की अवधिके भीतर अग्रेजी भाषाको राजकाजसे पूर्णतः पुनरुज्जीवित किया गया है। श्रावणकृष्ण-प्रतिपदासे वर्षके अलग कर देनेका विवान किया गया।
प्रारम्भसूचक कितने ही प्रमाण मिलते है जिनमेंसे एक बहुत विदेशी भाषाको तरह विदेशी महीनो तारीखों दिनों प्राचीन गाथा खास तौरसे उल्लेखनीय है, जिसे विक्रमकी तथा साल-सन् का राजकाजमें प्रचलित रहना भी भारतीय ८वों शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेनने अपनी धवला शासनके लिये कोई गौरवकी वस्तु नही, वह भी गुलामीका और जयधवला नामको सिद्धान्तटीकाओमें उद्धृत किया चिन्ह है और इसलिये उसे भी दूर किया जाना चाहिए। है, और वह इस प्रकार है :स्वतन्त्र भारतके लिये उनका व्यवहार शोभाजनक नही वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। जिनके व्यवहारको विदेशी शासनके साथ उसपर लादा गया पाडिवद-पुन्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्हि । था। भारतके सदा कालसे जो अपने श्रावणादिक महीने इसमें वर्षके पहले महीनेको श्रावण और पहले पक्षको तथा तिथि आदिक है उन्हीका व्यवहार राजकाजमें भी होना बहुल (कृष्ण) पक्ष बतलाया है और उस पक्षको प्रतिपदाचाहिये।
को पूर्वान्हके समय अभिजित् नक्षत्र में एक तीर्थकी उत्पत्तिरही साल-सम्वत् की बात, जनता तो देशी महीनों आदि का उल्लेख किया है । इससे साफ जाना जाता है कि पहले के साथमें अपनी इच्छानुसार विक्रम, शक, वीरनिर्वाण और वर्षका आरम्भ यहां श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको हुआ करता था। बुद्धपरिनिर्वाणादि चाहे जिस सम्वत का उल्लेख करती यही प्राचीन भारतका नव-वर्ष-दिवस (न्यू ईयर्स ) था,