________________
समन्तभद-प्रतिपादित कर्मयोग
(७१, ८४) कहा है , 'कृतान्त' (७९) नाम भी दिया है सम्पन्न होनेसे इस योग, ध्यान अथवा समाधिको, जो कि और दुरित (१०५, ११०), दुरिताजंन (५७), दुरितमल, एक प्रकारका तप है, अग्नि (तेज) कहा गया है। इसी (११५), कल्मष (१२१) तथा 'दोषमूल' (४) जैसे नामोंसे अग्निमे उक्त पुरु ार्थ-द्वारा कर्ममलको जलाया जाता है, भी उल्लेखित किया है। वह कर्म अथवा दुरितमल आठ जैसाकि ग्रन्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैप्रकारका (११५) है-आठ उसकी मूल प्रकृतियां है, "स्व-पोष-मूलं स्व-समाधि-तेजसा जिनके नाम हैं-१ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय निनाय यो निर्वयमस्मसात्कियाम् (४)। (मोह) ४ अन्तराय, ५ वेदनीय, ६ नाम, ७ गोत्र,८ आयु । "कर्म-कक्षमवत्तहपोऽग्निभिः (०१)। इनमेंसे प्रयम चार प्रकृतिया कटुक (८४) है-बडी ही "प्यानोन्मुले बसि कृतान्तबकम् (७९) । कड़वी है, आत्माके स्वरूपको घात करनेवाली है और इस- "यस्य व शुक्लं परमतपोऽग्निलिये उन्हे 'घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां ध्यानमनन्तं दुरितमधामीत् (११०)। 'अघातिया' कहलाती है। इन आठो जड़ कर्ममलोंके अनादि "परमयोग-बहन-हुत-फल्मवेन्धनः (१२१) सम्बन्धसे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलकित, विकृत यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर प्रन्थके निम्न और स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा वाक्य-परसे ही यह फलित होना है कि 'योग वह सातिशय है; अज्ञान, अहकार, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, अग्नि है जो रत्नत्रयकी एकाग्रताके योगमे सम्पन्न होती है लोभादिक अमस्य-अनन्त दोषोंका क्रीड़ास्थल बना हुआ है, और जिसमे सबसे पहले कोको कटुक प्रकृतियोंको आहुति जो तरह तरहके नाच नचा रहे है। और इन दोषोके नित्यके दी जाती है'ताण्डव एव उपद्रवसे सदा अशान्त, उद्विग्न अथवा बेचैन हत्वा स्व-कर्म-कुटक-प्रकृतीश्चततो बना रहता है और उसे कभी सच्ची सुख-शान्ति नहीं रत्नत्रयातिशय-तेजसि-जात-बीर्यः । (८४) मिल पाती । इन दोषोकी उत्पत्तिका प्रधान कारण उक्त
'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्रको कर्ममल है, और इसीसे उसे 'दोष-मूल' कहा गया है । वह कहते है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे पुद्रलद्रव्य होनेसे 'द्रव्यकर्म' भी कहा जाता है और उसके प्रकट है, जिसमे इनका गृहस्थोंकी दृष्टिसे कुछ विस्तारके निमित्तसे होनेवाले दोषोंको 'भावकर्म' कहते है । इन द्रव्य- साथ वर्णन है । इस ग्रन्थमे भी उसके तीनो अगोका उल्लेख भाव-रूप उभय प्रकारके कौका सम्बन्ध जब आत्मासे नही है और वह दृष्टि, सवित् एव पेक्षा-जैसे शब्दोंके द्वारा किया रहता-उसका पूर्णत विच्छेदं हो जाता है-तभी आत्माको गया है (९०), जिनका आशय सम्यग्दर्शनादिकसे असली सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है और उसके प्रायः १ कर्म-छेदनकी शक्तिसे भी सम्पन्न होनेके कारण इन सभी गुण विकसित हो उठते है । यह सुख-शान्ति आत्मामे योगाविकको कहीं कहीं खड्ग तथा बाकी भी उपमा दी बाहरसे नही आती और न गुणोंका कोई प्रवेश ही बाहरसे गई है। यया:होता है, आत्माकी यह सब निजी सम्पनि है जो कर्ममलके “समाषि-चक्रेण पुजिगाय महोदयो दुर्जयमोह-चक्रम् (७७)।" कारण आच्छादित और विलुप्तमी रहती है और उस कर्ममलके "स्व-योग-निस्विश-निशात-धारया दूर होते ही स्वत. अपने असली रूपमे विकासको प्राप्त हो निशात्य यो दुर्जय-मोह-विद्विषम् । (१३३)" जाती है। अतः इस कर्ममलको दूर करना अथवा जलाकर एक स्थानपर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलनके लिए भम्म कर देना ही कर्मयोगका परम पुरुषार्थ है। वह परम- 'भैषज्य' (अमोघ-औषषि) की भी उपमा दी गई हैपुरुषार्थ योगबलका सातिशय प्रयोग है, जिसे 'निरुपमयोग- 'विशोषणं मन्मय-दुर्मवाऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणमेलीनबल' लिखा है और जिसके उस प्रयोगसे समूचे कर्ममलको यत् (६७)' भम्म करके उस अभव-सौख्यको प्राप्त करनेको घोषणा की २. 'दृष्टि-संविबुपेलावस्त्वया धौर पराजितः' इस गई है जो मंसारमें नहीं पाया जाता (११५) । इस योगके वाक्य के द्वारा इन्हें 'मस्त्र' भी लिखा है, जो माग्नेयमस्व हो दूसरे सिद्ध नाम प्रशस्त (सातिशय) ध्यान (८३), शुक्ल- सकते है अपवा कर्मछेदन की शक्तिले सम्पम होनेके कारण ध्यान (११०) बऔर समाधि (४,७७) है । कर्म-दहन-गुण- बद्गादि जैसे आयुष भी हो सकते है।