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५८ अनेकान्त
वर्ष १६ लगे । यदि किसी जैनीसे कदाचित् कोई अपराध बन गया तो ही परिणाम है । जातीय रीति-रिवाजोंके साथ धर्मसेवनका उसका द्वार भी जैन समाज एक अहिंसक समाज है, उसमें आत्मनिर्भयता बन्द कर दिया जाता था और फिर बार २ पंचोंकी अभ्यर्थना और वीरताकी कमी नहीं। अहिंसा धर्मने भारतको ही नहीं करने पर भारी दण्ड लेकर उसे मन्दिर प्रवेश करनेका किन्तु सारे विश्वको शान्तिका आदर्श मार्ग दिया है। अतः अधिकार दिया जाता था। अज्ञानी जन मन्दिरोंमें प्रतिष्ठित वह कितना प्रिय है इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं । मतियोंको देव मानते है और उन्हें उसी भावसे पूजते भी है। उसमें दया, दान, त्याग और समाधिकी उत्कट भावनायें पर वे उस मूर्तिसे मूर्तिमान देवका विचार नही करते, और अन्तनिहित हैं। ऐसे पवित्र धर्मकी उपासना एक जैन नहा-- न हृदय-मन्दिर में विराजमान उस आत्मदेवको समझने धोकर शुद्ध वस्त्र पहनकर अहिंसकवृत्तिसे-मद्य मांसावि एवं उसका साक्षात्कार करनेका ही प्रयत्न करते है। प्रत्युत, विकृत अभक्ष्य, अनुपसेव्य एवं अनिष्ट पदार्थोंके सेवनका उसका तिरस्कार करते है इच्छानुसार विविध सावध परित्याग करके-करता है और वह भी आत्मदेवके निरीप्रवृत्तियोंको करते हुए भी अहंकार वश अपनेको उच्च एव क्षणार्थ, ऐसी स्थितिमें जब तक हरिजन जैनधर्म बड़ा समझे हुए है। इसी अज्ञान भावसे अपना तो अकल्याण सम्मत अहिंसक वृत्तिका पालन नहीं करते, जैनोंके आचार करते ही हैं किन्तु साथ ही दूसरोके अकल्याणमें भी निमित्त एवं व्यवहार मार्गका अनुसरण कर अपनेको उस योग्य बन जाते है। जैनधर्म जहां उदार है वहा उसके अनुयायी नही बनाते और जैन धर्म में अपनी आस्था एवं श्रद्धा व्यक्त अनुदार और संकीर्ण है यह बड़े खेदकी बात है । आज भी नहीं करते, तब तक वे जैन मन्दिरोंमें प्रवेश पानेके अधिकारी मन्दिर प्रवेशाधिकार बिल को लेकर समाज में जो दो पार्टियां नही है।। हो गई है। कुछ लोग मन्दिर प्रवेशाधिकारसे जैनधर्मका विनाश
अब रही दर्शकके रूपमें जाने की बात, सो जैनमन्दिर और उसकी पवित्रताका नष्ट होना बतलाते है, तो दूसरी
केवल दर्शनकी वस्तु नही है वह तो आत्मदेव को पहचानने, ओर अनेक युक्तियों और पौराणिक उद्धरणों द्वारा उसे
आत्मनिरीक्षणादि करने तथा आत्माको निर्मल बनानेपुष्ट किया जाता है । पर इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्म
के विमल स्थल है। उनमें प्रतिष्ठित मूर्ति सबके लिये है। वह इतना कमजोर एवं असमर्थ भी नही है
वीतराग और शान्तिका अपूर्व मार्ग प्रदर्शित करती हैं, कि साधारण कारणोसे उसकी लोकव्यापी प्रतिष्ठाका
परस्पर में प्रेम की भावनाको प्रोत्तेजन देती है, वैर-भावको बिनाश संभव हो अथवा किसी तरहकी उसे ठेस पहुंच
विनष्ट करती है,और राग-द्वेषादि विभाव भावोंको जीतने सके तथा उसकी पवित्रतामें सन्देह किया जा सके, ऐसा
अथवा उनसे ऊपर उठनेकी मूक प्रेरणा करती है । भूले हुओं कोई कारण संभावित प्रतीत नहीं होता। जैनधर्मकी आत्मा
को आत्मस्वरूपकी याद दिलाती है। ऐसी स्थितिमें केवल तो अडोल है उसमें किसी प्रकारका विकार सम्भव नही है।
दर्शककी दृष्टिसे जाने वाला व्यक्ति आत्मकल्याणसे प्रायः क्योंकि उसके स्वरूपका निर्देश वीतरागी अर्हन्तोने किया
वंचित रहता है। हां, आत्म-कल्याणका इच्छुक व्यक्ति जिसहै। भले ही उसके अनुयाइयोंमें शिथिलता आ जाय, अथवा
की जैन धर्ममें आस्था है, जो उसके नियम उपनियमोंका वे उसके मर्मको भूल जाय और अन्यथा प्रवृत्ति करने लगें, पालन कर अपना समद्धार करनेका अभिलाषी है वह जैनपर उससे धर्मकी पवित्रतामें कोई हानि या विनाशकी धर्मकी शरणमें आकर अपना उत्थान कर सकता है। ऐसे संभावना नही है। दूसरे जिस धर्मकी छाया अथवा व्यक्तिके लिये कोई बन्धन नहीं है। प्रत्युत जिन्होंने जैन माश्रयसे पतित भी अपनी पतितावस्थाको छोड़कर वैभव- शासनका श्रद्धापूर्वक पालन किया, उसकी चर्याको जीवनमें सम्पन्न एवं निरंजन बने हों, मिथ्यादृष्टिसे सम्यग्दृष्टि हुए अंकित किया उनकी समाजने सवा प्रतिष्ठा ही की है। हों अथवा संसारके दुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखके भोक्ता अत: मन्दिर प्रवेश-अप्रवेश-सम्बन्धी दोनों एकान्तोंमें से बने हों, उसके विषयमें उक्त प्रकारकी कल्पना संगत नहीं कोई भी ठीक नही है। जान पड़ती, वह तो संकुचित एवं संकीर्ण मनोवृत्तिका सरसावा, ता. ११-२-५२