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वीर-शासनके कुछ मूल सूत्र
(संयोजक-'युगवीर') -सब जीव द्रव्य-दृष्टिसे परस्पर समान है।
१२-परमात्माकी दो अवस्थायें हैं, एक बोवन्मुक्त २-सब जीवोंका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है। और दूसरी विदेहमुक्त ।
३-प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्त- १३-जीवन्मुक्तावस्थामें शरीरका सम्बन्ध जान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोंका रहता है, जबकि विदेहमुक्तावस्थामें कोई भी प्रकारके भाषार अथवा पिंड है।
शरीरका सम्बन्ध अवशिष्ट नहीं रहता। ४-अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्ममल लगा हुआ १४-संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये मुल्यो है, जिसकी मूल-प्रकृतियां माठ, उत्तर प्रकृतियां एक सौ अड़- भेद हैं, जिनके उत्तरोत्तर मेव अनेकानेक हैं। तालीस और उत्तरोतर प्रकृतियां असंख्य है।
१५-एकमात्र स्पर्शन इनियके धारक जीव 'स्थावर' ५-स कर्ममलके कारण जीवोंका असली स्वभाव और रसनादि इन्द्रियों तथा मनके धारक जीव 'प्रस माच्छावित है, उनकी शक्तियां अविकसित है और वे परतन्त्र कहलाते है। हए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए नजर आते है। १६-जीवोंके संसारी मुक्तादि ये सब भेव पर्याय
६-अनेक अवस्थाओंको लिये हुए संसारका जितना वृष्टिसे है। इसी दृष्टिसे उन्हें अविकसित, अल्पविकसित, भी प्राणि-वर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है। बहुविकसित और पूर्णविकसित ऐसे चार भागोंमें भी -कर्ममलके भेवसे ही यह सब जीव-जगत भेद- बांटा जा सकता है।
१७-जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ८-जीवको इस कर्ममलसे मलिनावस्थाको 'विभाव- ही उनके पूज्य एवं आराध्य है जो अविकसित या अल्प विकपरिणति' कहते है।
सित है, क्योंकि आत्मगुणोंका विकास सबके लिये इष्ट है। ९-जब तक किसी जोवको यह विभावपरिणति बनी रहती है तब तक वह 'संसारी कहलाता है । और तभी
१८-संसारी जीवोंका हित इसी में है कि वे अपनी रागतक उसे संसारमें कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके
द्वेष-काम-क्रोषादिरूप विभावपरिणतिको छोड़कर स्वभावमें परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है।
स्थिर होने रूप सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करें। १०-जब योग्य-साधनोंके बलपर विभावपरिणति १९-सिद्धि स्वात्मोपलब्धिको कहते हैं। उसकी मिट जाती है, आत्मामें कर्ममलका सम्बन्ध नहीं रहता और प्राप्तिके लिये आत्मगुणोंका परिचय, गुणों में बर्बमान अनुराग उसका निजस्वभाव पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह और विकास-मार्गको वृद्ध भडा चाहिये। जीवात्मा संसारपरिभ्रमणसे छूट कर मुक्तिको प्राप्त होता २०-सके लिये अपना हित एवं विकास चाहने है और मुक्त सिड अमवा परमात्मा कहलाता है।
बालोंको उन पूज्य महापुरुषों मयबा सितास्माओंकी शरण११-आत्मकी पूर्णविकसित एवं परम-विशुद्ध में जाना चाहिये जिनमें मात्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें अवस्थाके अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर नामकी कोई या पूर्णरूपसे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका पुपरीवस्तु नहीं है।
सुगम-मार्ग है।