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भारतमें मानषिचाकी अटूट पारा -
- -- पर नचिकेता इन प्रलोभस तनिक भी मममें न सापना किया करते थे। उन्होंने यह विवा उस समय पड़ा। वह बोला "हे येम ! ये सब भोग-उपभोगके सामान से लेक ब्राह्मण लोगोंको न दी जबतक उन्हें परीक्षा करके दिनके हैं। ये सब इंद्रियोंका तेज नष्ट करने वाले है। यह विश्वास न हो गया कि वे (बाह्मजन) शुद्ध बुद्धि वाले जीवन अल्पकाल तक रहनेवाला है, इसलिये ये सब नाच- हैं, और वे नम्र भाव एवं शिष्यवृत्तिसे इसे ग्रहण करनेगान, हाथी, घोड़े मुझे नहीं चाहिए । धनसे कमी तृप्ति नहीं के लिये उत्सुक है । चूकि आत्मशानी होने के लिये होती । मुझे तो वहीं वर चाहिए।" ।
राग-द्वेष-मोह-ममता, और परिग्रहको त्याग मन वचन नचिकेताकी इस सच्ची लगनको देख यम विवश कायकी शुद्धि करना साधकका सबसे पहला कर्तव्य है। हो गया। उसने अन्तमें जन्म-मरण सम्बन्धी आत्मज्ञान इस मानसिक नियंत्रणके लिये योगदर्शनमें यम, नियम, दे नचिकेताके छटपटाये हुए दिलको शान्ति प्रदान की।
बासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधिउपरोक्त कथामें जिस नचिकेताका उल्लेख है, वह
रूप अष्टांगिक मार्गकी एक विशेष प्रणाली दी हुई है।
इन अध्यात्मवादि क्षत्रियोंका, इस कारण कि कही कठ जातिका ब्राह्मण मालूम होता है। प्राचीनकालमें यह जाति पंजाबके उत्तरकी ओर रावी नदीसे पूरबवाले
अध्यात्मविद्या अनधिकारी हाथोंमें पड़ कर दूषित न हो
जाये, सदा यह नियम रहा है कि यह विद्या श्रद्धालु पुत्र देशमें जिसे आजकल माम्मा (लाहौर अमृतसर वाला देश)
और शांत चित्त शिष्यके सिवाय किसी और को म दी जाय, कहते है, रहा करती थी। इसी कारण इस देशका पुराना नाम
चाहे वह धनपरिपूर्ण सागरसे घिरी सारी पृथ्वी भी पुरस्कारकठ है। उपर्युक्त कथाके समय यह जाति मध्य देश अर्थात्
में देनेको तैयार हो । आपखंडमें बसी हुई थी।
इसी कारण उपनिषदोमें अध्यात्मविद्याको रहस्य विवश्वतयम जिसके पास नचिकेता ज्ञानप्राप्तिके
विद्या व गुह्य विद्या कहा गया है। स्वयं उपनिषद् शब्दका लिये गया था, उस सूर्यवंशी शाखाका एक क्षत्रिय राजा
अर्थ है "-किसीके निकट बैठना" अर्थात् वह रहस्य विद्या मालूम देता है, जिसन मध्यदशक दाक्षणका आर एक जो गुरुके निकट रह कर साक्षात् उनकी वाणी और जीवनस्वतन्त्र जनपद कायम कर लिया था। इसीलिय भारताय से ग्रहण की जाती है। इस प्रकार विनीत, श्रद्धालु और मन्तःअनश्रतिमें दक्षिणका अधिष्ठाता यम कहा गया है। यम वासीयोंको कालमें मौखिक सपसे शामिक शिक्षा किसी विशेष व्यक्तिका नाम न होकर इस शाखाक राजाआका देमेकी प्रथा केवल उपनिषद् कालमें ही प्रचलित न की, परम्परागत उपाधि थी। सूर्यवंशी क्षत्रियोंकी यह शाखा -- अपनी दान, दक्षिणा, उदारता और ज्ञानचकि लिये ३ तपः श्रद्धे मे युपवसन्त्यरण्ये शान्तो विद्वांसोबहुत प्रसिद्ध थी। इसी कारण इस शाखाका उल्लेख शत
भैक्षचर्या चरन्तः । पच ब्राह्मण १३-४-३-६ और ऋग्वेदके दसर्वे मंडल के १०वें सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृत: स सूक्तमें भी मिलता है।
पुरुषोहल्पमात्मा ॥ अध्यात्मविद्याकी शिक्षा-दीक्षा रीति
-मुण्डक उप० १११,२
__४ (अ) "वेदान्तं परमं गुह्यं पुरा कल्पे प्रचोदितम् ।। ऊपर वाले व्याख्यानोंसे यह स्पष्ट है कि भारतमें
नाप्रशान्ताय दातव्यं ना सुनाया शिष्याय वामनः। अध्यात्मविद्याके वास्तविक जानकार क्षत्रिय लोग थे।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरी। परम्परासे उन्हीं लोगोंमें अध्यात्मतत्त्वोंका मनन होता
तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्तै महात्मनः ।।" चला आया था और उन्हीके महापुरुष घर-बार छोड़ भिक्षु
श्वेताश्वर :६-२२-२३ । बन जंगलोंमें रहते हुए तप ध्यान और श्रद्धा द्वारा आत्म
(आ) नान्यस्मै कस्मैचन यद्यप्यस्मा इमाभक्तिः १ जयचन्द विद्यालंकर-भारतीय इतिहासकी
. परगृहीताम् । रूपरेखा, प्रथमजिल्द पृ. २९.
धनस्यपूर्ण स्यात्, एतव तो 'भूब इत्येतदेव २ वृह. उप. ३-९-२१
ततो भय इति"- .. .. ३-११-६ ।