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[वर्ष ११
बल्कि यह प्रथा भारतके शंब, जैन, बौखादि अध्यात्मकारि- विद्वान न बन जायें। तीसरे शिक्षा-दीक्षाकी प्राचीन पद्धति । लोगोंमें बाजतक जारी है। यह इसी प्रथाका फल है, कि ऊपर वाले कारणोंमेंसे तीसरा कारण ही इस अभावका आजसे पचास साल पहले तक जैन विद्वानोंको अपना सबसे जोरदार कारण माना जाता है। साहित्य दूसरोंको दिखाना या उसे मुद्रित कराना तनिक भी शिक्षा-दीक्षाकी इस प्राचीन परतिके कारण ही सहा न था। इसलिये जनसाहित्यका परिचय बाहिरके भारतके तत्ववेत्ता क्षत्रिय विद्वानोंने लिखित रचनाएं तो विद्वानोंको आज तक बहुत ही कम हो पाया है। दूर रहीं कभी अपने तत्त्वदर्शन और अध्यात्मिक कथानकों
को संकलन करनेका प्रयास तक नही किया । दार्शनिक लिपिबोध और लिखितसाहित्य
साहित्य ही क्या, इतिहास, विद्या, पुराणविद्या, सर्पविद्या, सिंध और पंजाबके मोहनजोदड़ो और हडप्पा आदि पिशाचविद्या, असुरविद्या, विश्वविद्या, अंगरसविद्या, ब्रह्मपुराने नगरोंके खंडरातसे प्राप्त मोहरोंके अभिलेखोंसे विद्या, गाथा, नाराशंसी आदि भारतकी अनेक पुरानी यद्यपि यह सिब है कि भारतीय लोग लगभग ३००० ईसा पूर्व विद्याओंका भी जिनका नाममात्र प्रसंगवश वैदिक वाङमय'. कालसे भी पहिले लिपि विद्या और लेखनकलासे भलीभांति में मिलता है और जिनका सविस्तर वर्णन जैनवाङमय के परिचित थे, परन्तु सिवाय तिजारती कामोंके वे इस कलाको १४ पूर्वोके कथनमें दिया हुआ है, कोई संकलित व लिखित पार्मिक, पौराणिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक अथवा नैतिक साहित्य मौजूद नही है। रचनाजोंके लिये कमी प्रयोगमें न लाते थे। इन सभी बातों-बार
ब्राह्मणोंका श्रेय के लिये वे केवल मौखिक शब्दसे ही काम लेते थे और
इस अभावपरसे कुछ विद्वानोंने यह मत निर्धारित मौखिक शम्बके द्वारा ही वे अपनी शान-विधिको अगली
किया है कि औपनिषदिककालसे पहले भारतीय लोगोंको सन्तति तक पहुंचाते थे। जैसा कि यूनानी दूत मेगास्थनीज
आत्मविद्याका कोई अबबोध न था। भारतमे अध्यात्मिक के वृत्तान्तोंसे विदित है। ईसासे ३०० वर्ष पूर्व मौर्य
विद्याका जन्म उपनिषदोंकी रचनाके साथ-साथ या उसके शासन काल तक भारतीय लोगोंके पास अपने कोई लिखे
कुछ पहलेसे हुआ है। उनका यह मत कितना अज्ञानपूर्ण कानून तक मौजूद थे। इसी तरह बौद्ध आचार्योंने यद्यपि
है यह ऊपर वाले विवेचनसे भली-भांति सिद्ध है कि औपअपने आगम साहित्यको २४० ईसा पूर्वमें संकलित कर लिया
निषदिककाल आत्मविद्या जन्म काल नही है। आत्मविद्या था, परन्तु इस समयके बहुत बाद तक कभी वे लिखित
वैदिक आर्यगणके भी आनेसे पहले सिंघदेशकी ३००० साहित्यका सृजन न कर सके। भारतमें सबसे पुराने धार्मिक
ईसा पूर्व मोहनजोदड़ो कालीन आध्यात्मिक संस्कृतिसे अभिलेख जो आज तक उपलब्ध हो पाये है वे हैं जो अशोककी
पहले यहांके प्रात्य, यति, श्रमण कहलानेवाले योगीजनोंधर्मलिपिके नामसे प्रसिद्ध है। ये सम्राट अशोक ने अपने
को मालूम थी । औपनिषदिककाल केवल उस युगशासनकालमें तीसरी सदी ईस्वी पूर्व स्तम्भों व शिला खंडों
का प्रतीक है जब ब्राह्मण विद्वानोंकी निष्ठा वैदिक विद्यापर अंकित कराये थे। लिखित साहित्यके अभावके कई
से उठकर आत्मविद्याकी ओर झुकी थी, और आत्मकारण हो सकते है-एक तो योग्य लेखन सामग्री और
विद्याक्षत्रियोंकी सीमासे निकल कर ब्राह्मणोंमें फैलनी खासकर कागजका अभाव, दूसरे विद्वानोंकी महत्त्वाकांक्षा
शुरू हुई थी। इस दिशामें ब्राह्मणऋषियोंका श्रेय इसमें और संकीर्णता, कि कहीं दूसरे भी पढ़-लिख कर उन जैसे -
३ अथर्ववेद १५-६,७-१२; गोपक ब्राह्मण पूर्व १,१०। Ancient India as described by
शतपथ ब्राह्मण १४-५,४,१०; वह उपनिषद् Megasthenies by Macrindle
२-४-१०। शांखाय न श्रोत्रसूत्र १६.२, अश्व-1877, p. 69. लायण श्रौत्रसूत्र १०,७ ।। २ विद्वानोंका अब यह मत होता चला जा रहा ४ (अ) षट्खंडागम-धवलाटीका-जिल्द १ अमहै कि यह अभिलेख अशोकने नही बल्कि उसके
रावती सन् १९३९ पष्ठ १०९-१२४ । .. पौत्र सम्राट् सम्प्रतिके है।
(आ) समवायांग सूत्र।