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[किरण ११
वीरसेवामन्दिरका संक्षिप्त परिचय
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तथा उसके कार्योक सम्पर्क में नहीं रहे अथवा कम सम्पर्क में वक्त तक संस्थापककी उक्त विशाल लायब रीमें करीब रहे हैं, जिससे उन्हें भी मोटे रूपमें इस संस्थाकी सेवामों- तीन-चार हजार रुपयेके नये उपयोगी अन्योंकी वृद्धि हई का कुछ प्रामान मिल सके:
है। हस्तलिखित ग्रन्योंकी बात इससे अलग है। कितने (१)संस्थाकी स्थापनाके अनन्तर संस्थापक (जुग
ही प्रन्थ संस्थामें निजके उपयोगके लिये लिखाये गये लकिशोर मुख्तार ) की लायब्ररीको मन्दिरमें इस तरहसे
अथवा संस्थाके विद्वानोंने उन्हें स्वयं लिखा; जैसे लोकव्यवस्थित करनेके बाद कि जिससे वह भले प्रकार पब्लिक
विभाग संस्कृत, प्राकृत पंचसंग्रह और उसकी प्राकृत चूर्णि, के उपयोगमें लाई जासके. पहला काम जो वीरसेवा- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कर्मप्रकृति संस्कृत, क्रियासार प्राकृत, मन्दिरने किया वह 'वीर-शासन-जयन्ती' मैसे पावन पर्व पारमसवाध, छन्दोविद्या, तत्वार्थाधिगम-टिप्पण, स्य का उद्धार है। जिसकी स्मृति तकको जनता बहुत कालसे
दसिद्धि, पायसद्भाव, अनेकार्थ-नाममाला, सीतासतु वृत्तभुलाये हुए थी । धवलादि ग्रन्थोंके प्राचीन उल्लेखोंपरसे
सार प्रा०,अध्यात्मतरगिणीटीका विषापहार तथा एकीभावकी इस पर्वका पता लगाकर सर्वप्रथम वीरसेवामन्दिरमें इसके
सं. टीकाएं, सिद्धिप्रियस्तोत्र-टीका, पंचवालयति-पाठ, उत्सवका सूत्रपात किया गया और ता.५ जुलाई सन् ।
विभिन्न स्तोत्र प्रादि । और पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ १९३६ को यह उत्सव न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्रजीके
खरीदे गये जिनमेंसे कुछ प्रमुख ग्रन्थोके नाम हैं:-धवला सभापतित्वमें आनन्दके साथ मनाया गया। इसके उप
टीका, न्यायविनिश्चय-विवरण, तस्वार्थराजबार्तिक, भुतलक्षमें उसी दिन मन्दिरकी लायब्ररीको भी पब्लिकके
सागरी, सिद्धचक्रपाठ, जैनेन्द्रमहावृत्ति, न्यायदीपिका, लिये खोल दिया गया । श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी इस
स्वयम्भूस्तोत्र-टीका, प्रद्य म्नचरित्र, भविष्यदत्तचरित्र पुण्यतिथि-सम्बन्धी खोजोंको लिये हुए कितना ही साहित्य
श्वे) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, षडावश्यकसूत्रकी बाल बोधटीका, पत्रों में प्रकाशित किया गया । और यह हर्षका विषय है पार्श्वनाथचरित्र (भावदेव), उपासकदशा, जम्बूचरित्र कि इस खोजका सर्वत्र अभिनन्दन हुथा है और यह पर्व प्रा०, विपाकसूत्र, भक्तामरस्तोत्र-टीका, दशवैकालिकयोगबराबर विद्वज्जन-मान्य होता चला गया है । वीरसेवा
शास्त्र, योगचिन्तामणि, पिंगलशास्त्र (कुवर भवानीदास) मन्दिरके अतिरिक्त का स्थान प्रान ताजिकसार, ताजिकभूषण, हरिवंशपुराण-पद्यानुवाद मनाया जाता है। सम्बत् २००१(सन १६४४) में बाल (शालिवाहन) धर्मपरीक्षा आदि। इनमें धवलाटीकाकी काटेलालजी कलकत्ताके सभापतित्वमें पास हए वीरसेवा- वह प्राथप्रति पं सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है जिसके मन्दिरके एक प्रस्तावके अनुसार इस उत्सवका एक विशाल
आधार पर दूसरी अनेक प्रतियां होकर जगह-जगह पहुँची
आधार पर दूसरा अनेक श्रायोजन सार्धद्वयसहस्राब्दि-महोत्सवके रूप में राजगृहके हैं। कितने ही हस्तलिखित ग्रन्थ संस्थापकने वैसे ही बिना उपी विपुलाचल स्थान पर किया गया था जहाँसे वीर- मूल्य प्राप्त किये हैं जिनकी सूची इस समय सामने नहीं शासनकी सर्वोदय तार्थ-धारा प्रवाहित हई थी और वहाँ है। वीरसेवा-मन्दिरकी इस प्रन्धराशिसे बहुताने लाभ यह सर्व तीर्थ-प्रवर्तनके ठीक समयपर मनाया गया था। उठाया है और अनेक ग्रन्थ बाहर भी गये हैं। अन्तको इस महोत्सवकी परिसमाप्ति कलकत्ताके -कार्तिकी (३) सरसावा नगरमें वर्षोंसे कन्याओंकी शिक्षाका उत्पव पर हुई थी, जहाँ दिगम्बर,श्वेताम्बर और स्थानक- कोई साधन न होनेके कारण शिक्षाको भारी आवश्यकतावासी सारे ही जैन समाजने इसे भारी उत्साहके साथ को महसूस करते हुए १६ जुलाई सन् १९३६ से इस मनाया था। वीरके शासनतीर्थको प्रवर्तित हुए ढाई हज़ार सेवामन्दिरमं एक कन्याविद्यालय जारी किया गया, जिसमें वर्ष हो जानेके उपलक्षमें विपुलाचलपर, उत्सवके समय, जन-जन कन्याओंकी संख्या ५० के लगभग पहुँच गई एक कीर्ति-स्तम्भ कायम करनेकी भी बुनियाद रखी गई और परीक्षा फल हर साल इतना उत्तम रहा कि अन्तको थी । बा. छोटेलाल जी की अस्वस्थताके कारण वह कीति- पंजाबकी 'हिन्दी रत्न' की परीक्षामें जब नीन छात्राय बेठी स्तम्भ अभी तक बन नहीं पाया है।
तो वे तीनों ही उत्तीर्ण हो गई। इस विद्यालयने स्त्रियों में (२) लायब्ररीको शोधखोज (रिसर्च) के कामोंके भी ज्ञान-पिपासाको जागृत किया, उनके लिये कुछ समय लिये सुव्यवस्थित करनेका काम बराबर चालू रहा । इस तक एक जुद्री कक्षा बोलनी पड़ी और साथ ही सेवामंदिर