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बनेकान्त
वर्ष ११
मादि अनेक यादवोंने गजपन्या (जिला नासिक) से निर्वाण पाया है। श्री राम अथवा हनुमान, सुग्रीव, सुरील, गवय, गवाक्ष, नील, महानील आदि अनेक बानर वंशी तुगिगिरि (जिला नासिक) से मोक्ष गये है । अंग-अनंग कुमार आदि अनेक मुनियोंने सोनागिरि अथवा श्रमणगिरि (दतिया रियासत-मध्यभारत) से निर्वाण पाया है। रावणके आदिकुमार आदि पुत्र और अन्य अनेक राक्षस वंशी महापुरुषोंने रेवानदी (नर्वदा) के तटसे निर्वाण पाया है। नर्वदा नदीके पश्चिममें स्थित सिद्धवरकूटसे दो चक्रवर्ती, दश कामकुमार आदि मोक्षको गये है। मध्य भारत स्थित बड़वानी और चूलगिरि (मऊ छावनीसे ८० मील) से इंद्रजीत कुंभकरण आदि राक्षसवंशी अनेक महापुरुष मोक्षको गये है।'
इस अनुश्रुतिकी पुष्टिमें कितने ही स्वतन्त्र प्रमाण भी मौजूद हैं। इस सम्बन्धमें अजमेर जिलेके बडली ग्रामसे प्राप्त होनेवाला शिला-लेख' जो राजपूताना संग्रहालय अजमेरमें सुरक्षित है, बड़े महत्त्वकी वस्तु है, यह भारतवर्षके प्राचीनतम उपलब्ध होनेवाले शिलालेखोंमेंसे एक है। इसमें वीर सम्वत् ८४ अर्थात् ईस्वी पूर्व ४४३ का एक अभिलेख है, इस लेखसे सिद्ध है कि दक्खन पूर्व राजपूताने तथा पच्छिम भारतमें जैनधर्म प्राचीनकालसे प्रचलित रहा है। परन्तु मोहनजोदड़ोकी श्रमनकलाका पूर्ण मूल्य आंकने के लिये और श्रमण संस्कृतिसे उसकी तुलना सार्थिक बनानेके लिये जरूरी है कि पहले भारतीय सहित्य आख्यान और अनुश्रुतियोंपरसे भारतीय प्राचीन सभ्यता और संस्कृतिका एक विहंगावलोकन कर लिया जावे।
जैन-संस्कृतिका विस्तार और प्रभाव
जन संस्कृति श्रमण-संस्कृतिको अन्य शाखाओंके समान ही भारतको मौलिक प्राचीन संस्कृति है । यह भारतभूमि और इसके वातावरणकी स्वाभाविक उपज है, यह इसकी सामाजिक प्रगति और मानसिक विकासको पराकाष्ठा है, इसी लिये यह सदासे भारतके कोने-कोने में फैलती-फूलती रही है, इसका अन्दाजा इसी बातसे लगाया जा सकता है कि भारतका कोई प्रान्त ऐसा नहीं है जहां जैनियोंके माननीय तीर्थस्थान और अतिशय क्षेत्र मौजूद न हों। ये तीर्थस्थान उत्तरमें कैलाश पर्वतसे लेकर दक्षिणमें कर्णाटक तक और पच्छिममें गिरिनार पर्वतसे लेकर पूर्वमें सम्मेद शिखर तक सब ही दिशाओंमें फैले हुए हैं। ये बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बुन्देलखंड, अवध, रोहेलखंड, देहली, हस्तिनागपुर, मथुरा, बनारस संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त, राजपूताना, मालवा, गुजरात, काठियावाड़, बरार, बड़ौदा, मैसूर और हैदराबाद आदिके सब ही इलाकोंमें मौजूद है। हर साल लाखों यात्री इनकी पूजा-वन्दना करनेके लिये लगातार आते रहते है। इसके अतिरिक्त जैनी लोग आज तक इन तीर्थस्थानोंकी जहांसे तीथंकरों अथवा भारतके नागवंशी, राक्षसवंशी, बानरवंशी, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, यादववंशी प्रभति भारतकी अनेक प्राचीन क्षत्रिय जातियोंके महापुरुषोंने अपनी कठोर त्याग-तपस्या और ध्यान-साधना-द्वारा निर्वाणप्राप्त किया है, नित्य प्रति अपने मन्दिरोंमें पूजा-पाठके समय स्तुति-वन्दना करते रहते हैं।
इन तीर्थस्थानों तथा इनसे मुक्ति प्राप्त महापुरुषों-सम्बन्धी गाथा, स्तोत्र, काव्य, चम्पू चरितपुराण आदिके रूपमें एक विपुल साहित्य जैन-वाङ्गमय में मौजूद है । इन परसे पता चलता है कि श्रमण-संस्कृति कितनी विशाल और प्राचीन है ।
१. (क) निर्वाणभक्ति पूज्यपाद देवनन्दी (विक्रमकी छटी सदी).
(ख) (प्राकृत) निर्वाणकांड-; उदयकीति कृत अपभ्रन्श निर्वाणभक्ति । (ग) स्वम्भूस्तोत्र-समन्तभद्र (विक्रमकी तीसरी सदी )। (घ) शासनचतुस्त्रिशिका-मदनकीर्ति (ईसाकी १३ वीं सदी )।
(च) विविध तीर्थ कल्प, जिनप्रभसूरिकृत (ईसाकी १४ वीं सदी)। २. गौरीशंकर ओझा-भारतीय प्राचीन लिपिमाला पृ. २,३ । 1. जयचन्द विद्यालंकार-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा-जिल्य १ पृ. ४९३-४९४ ।