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________________ ३६४] अनेकान्त [किरण १२ %3 अग्नीन्धन धूप अनूप, नहि निजकाज सर; कर्मेन्धन-दाहन-हेत. योगाऽनल प्रजरै।। श्रीबाहुबली अति धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा।। फल पाये भोगे खूब, पर परतन्त्र रहे; दो शिव-फल हे शिव-भूप (रूप), निज-स्वातन्त्र्य ल हैं। श्रीबाहुबली अति धीर, वीर तपस्विमहा; जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा ।। (फल) इन जल-फलादिसे नाथ ! पूजत युग बीते, नहिं हुए विगतमल 'वीर', अब तुम लिंग आए। श्रीबाहुबला अति धीर, वीर तपस्विमहा, जय गोम्मट-ईश्वर देव, भवदधि पार लहा ।। अर्घक्षे.) (अभिनन्दन-जयमान) ऋषभदेवके पुत्र, सुनन्दाके प्रिय नन्दन । बाहुबली जिनराज, करें मिल सब अभिनन्दन ।। हे नरवर ! अवतार लिया तुम पूज्य ाठकाने, अवसर्पिणि-युग-श्रादि, नाभिसुत-वृषभ-घराने । पाने पोषे गये रहे सत्संस्कारांमें, आत्मज्ञान-रत सदा रहे दृढ अधिकारोंमें ॥१॥ हे नृपवर ! तुम राज-पाट निज पितुसे पाया, तृषा-रहित हो न्याय-नीतिसे उसे चलाया। सबलोंका ले पक्ष दुबलोंको न सताया, सर्व-प्रजाका प्रेम प्राप्त कर यश उपजाया ॥२॥ पोदन-मंडल-भूमि तुम्हारी राज्य-मही थी, जहाँ प्रकृतिश्री पूर्णरूपसे राज रही थी। भरत तुम्हारे ज्येष्ठ भ्रात थे, गुण-अणियारे, प्रवर-अयोध्या-राज्य-रमाके भोगनहारे।।३।। उन्हें महत्वाकांक्षाने धर आन दबाया, छहों खण्डको जोत राज्यका भाव समाया। चक्ररत्न ले हाथ विजयको निकल पड़े थे, देश-देशके नृपति भेंट ले पाँव पड़े थे॥४॥ जब वे कर दिग्विजय देशको लौट रहे थे, सर्वप्रजामें आनँदका रस घोल रहे थे। चक्ररत्न ा रुका राजधानीके द्वारे, कर नहिं सका प्रवेश, यत्न कर बुधजन हारे ॥५॥ चिन्तातुर थे भरत, मंत्रियोंने बतलाया-बाहुबली महाराज-राज नहीं हाथों आया। जब तक वे आधीन्य नहीं स्वीकार करेंगे, चक्रसहित सुप्रवेश देश हम कर न सकेंगे ॥६॥ तभी भरतने दूत-हाथ सन्देश पठाया, जो कर शीघ्र प्रयाण आपके सम्मुख आया। 'करो सभेंट प्रणाम. शीघ्र या लड़ने आओ, समर-भूमिमें स्वबल दिखा वैशिष्ट्य बताओ' ॥७॥ सन कर यह सन्देश मागसी तनमें लागी, स्वाभिमानको चोट लगी. यद्धच्छा जागी। फलतः दोनों ओर युद्धके साज सजे थे, योद्धागण सब भिड़नेको तय्यार खड़े थे ॥८॥ उसी समय, आदेश सैनिकोंने यह पाया-सुलह-सन्धिका रूप अनोखा सम्मुख पाया। 'सैनिक-दल अब नहीं लड़ेगे, नहीं कटेगे, दोनों भाई स्वयं आय, निःशस्त्र लड़ेंगे ॥६॥ दृष्टि-मल्ल-जल-युव, इन्हें जो जीत सकेगा-वही सकल-साम्राज्य-भूमि स्वाधीन करेगा। उद्घोषित सम्राट बनेगा वह ही जगमें, वही करेगा राज्य विश्वके इस प्रांगणमें ॥ १०॥ महो वीरवर ! दृष्टियुद्ध सम्मुख जब आया-तब तुमने नृपराज भरतको खूब छकाया। भाखिर मानी हार, थकी जब उनको प्रीवा; हुई सहायक तुम्हें तुम्हारी ऊँची काया ॥ ११ ॥ इसी तरह जलयुद्ध-विजयको तुमने पाया, जल-क्षेपणमें भरतराजको अन्त हराया। अपमानित थे भरत, लाजने उन्हें सताया, मल्लयुद्धमें जीत-प्राप्तिका भाव बढ़ाया । १२ ॥ मजयुद्धके लिये अखाड़ा खूब सजा था, युद्ध देखने जनसमूह सब उमड़ पड़ा था। चर्चा थी सबभोर-युद्धभी कौन वरेगा? कौन करेगा राज्य, मुकट निज सीस धरेगा ॥१३॥
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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