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________________ किरण ७-८ ] भेदज्ञान विना एक समैमें गमायगौ ॥ लम्व अखंडित स्वरूप शुद्ध चिदानन्द, जमांहि एक समय जो रमायगौ । मेरी कही मानु यामैं और की न और कर. एक समयकी कमाई तू अनंतकाल खायगौ || X X X X दया दान पूजा सुफल, पुन्य पाप फल भांग । भेद ज्ञान परगट विना, कर्मबन्धकौ जोग ॥ दया दान पूजा सुपुन्य करिन भवि जानो । पुण्यकर्म संजोग होत सासौ पहिचानो ॥ शुभ साता तह विषय भोग परणत जगमाहीं । विषय भोग तह पाप बंध, दुविधा कछु नाहीं । फल पाप करम दुरगति गमन दुःख दायक अमित || विधि विलोकि निज दृष्टिसौ पाप पुन्य इक खेत नित कोऊ क वितर्कसी, भला पुन्यतै पाप । जासु उ दुःखसों भजे, पंच परम पद जाप ॥ पाप कर्म के उदय जीव बहु विधि दुःख पावत । दुख मेटनके काज पंच परमेश्वर ध्यावत || पंच परम गुरु जाप मांहि शुभ कर्म विराजत । बुन्देलखण्ड के कविवर देवीदास शुभ कर्मनिको उदय होत दुर्गति दुख भाजन || दुःख नशत मुखवंत जिय कुगति गमनुतिनि दलमलौ । कहि पुन्यकर्म जगत महि, पापकर्म इहि विधि भलौ ।। को जन ऐसी कहे, भलौ पापतैं पुन्य । उपजै विषय कषाय करि विधन धर्म करि सुन्य पुन्य केजोगसी भांग मिलै पुनि भोग पापको पुन्य भियारे । पापकी नीतिसौं रीत लटी गति नीच पर मरिकैं सुजियारे ॥ त्यागवो जोग उभय करणी निज पंथ तजै इनिको रसिया । कर्म तो एक स्वरूप सबै चिकै शुभ लक्खनु कौने जियारे । पाप पुन्य परिनमनमें, नहीं भला पनु कोट । शुध उपयोग दशा जगै, सहज भलाई होइ ॥ X X X X [ २८३ सात प्रकृतिको बलु घटै, उपजै सम्यक भाव । यही सात मरदे बिना, निरफल कोटि उपाव ।। सम्यकदृष्टि जगे बिनु जीव नहीं, अपनो पर पौरुष बुभै । सम्यकदृष्टि जगे विनु जीव, निचै विवहार नसू ॥ सम्यकष्टि जगे विन जीव, सही निजुकै सिव पंथ न गुभै । सो समदृष्टि जगै स्वयमेव, faa गुरुको उपदेश सम्मै ॥ उको रचना 'द्वादशानुप्रेक्षा' है, जिसमें अनित्यादि द्वादश भावनाओंका स्वरूप निर्देश प्राकृत गाथाओं परसे श्रदितकर ४६ दोहोंमें दिया गया है। दोहा सुन्दर और भावपूर्ण है। में कवि अपनी लघुता व्यक्त करते हुए कहते हैं : भाषा कथि मतिमंद अति होत महा असमर्थ । बुद्धिवंत धरि लीजियौ, जहं अनर्थ करि अर्थ ||४६ || गुरुमुख ग्रन्थ सुन्यौ नहीं. मुन्यौ जथावत जास । निरविकलप समझावनौ, निजपद देवियदास ॥४६॥ वसव रचना 'उपदेश पच्चीसी' है । २१वीं रचना ''जिनस्तुति' है । बाईसव रचना 'औपदेशिक' और आध्या मिक ४६ पदोंका संग्रह है। जिनमें कितनेही पद पदेही रोचक और धान बोधक है। इन पदोंके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है । रचना 'हितोपदेश जरूरी' है, जिसमें लमारी जीवको सगुरुके हित उपदेशकी बातें सुझाई गई है। इस तरह कवि देवीदासकी उक्त १४ रचनाएँ भावपूर्ण है। इस संक्षिप्त परिचयपरसे पाठक उक्त कविके सम्बन्ध भच्छी जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और बुन्देव एडके अन्य कवियोंके सम्बन्धमें बांके लिये प्रोत्साहित होंगे । ता० १२-१०-५२ (पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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