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aster 'पापोपदेश' (पापात्मक उपदेशं ) नामका अनर्थदण्ड जानना चाहिये ।'
अनेकान्त
व्याख्या- यहां जिस प्रकारकी कथाओंके प्रसंग छेड़ने की बात कही गई है वह यदि सत्य घटनाओंके प्रतिपादनादिरूप ऐतिहासिक दृष्टिको लिये हुए हो, जैसा कि 'चरित-पुराणादिरूप प्रथमानुयोगके कथानकोंमें कहीं-कहीं पाई जाती है, तो उसे व्यर्थ अपार्थ रु या निरर्थक नहीं कह सकते, और इसलिये वह इस अनथदण्डव्रतकी सीमाके बाहर है। यहां जिस पापोपदेशके लक्षणका निर्देश किया गया है उसके दो एक नमूने इस प्रकार हैं :--
१. 'अमुक देशमें दासी दास बहुत सुलभ हैं उन्हें श्रमुक देशमें ले जाकर बेचनेसे भारी अर्थ लाभ होता है.' इस प्रकार आशयको लिये हुए जो कथा प्रसंग है वह 'क्लेश- वणिज्या' रूप पापोपदेश है।
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२. 'अमुक देश से गाय-भैंस - बैलादिको दूसरे देशमें उनका व्यापार करनेसे बहुत धनकी प्राप्ति होती है इस आशय के अभिव्यंजक कथाप्रसंगको 'तिर्यक् वणिज्यात्मक - पापोपदेश' समझना चाहिये ।
३. शिकारियों तथा चिड़ीमारों आदिके सामने ऐसी कथा करना जिससे उन्हें यह मालूम हो कि 'अमुक देश या जंगलमें मृग-शूकरादिक तथा नाना प्रकारके पक्षी बहुत हैं, ' यह 'हिंसाकथा' के रूपमें पापो प्रदेश नामक अनथदण्ड हैं। परशु - रूपाण खनित्र-ज्वलनायुध-शृङ्गि - शृङ्खलादीनाम् । वध हेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवंति बुधाः ॥ ७७ ॥
'फरसा, तलवार, गेंती कुदाली, अग्नि, मायुध (छुरी-कटारी-लाठी-सीर आदि हथियार) 'बष, सांकल इत्यादिक वधके कारणोंका – हिंसाके उपकरणोंका जो ( निरर्थक ) दान है उसे ज्ञानीजन - गणधराविक मुनि- 'हिंसादान' नामका अनर्थदण्ड कहते हैं।"
[ किरण
कोटिसे निकल जाता है- क्योंकि अनर्थदण्डके लक्षण में पापयोगका जो अपार्थक (निरर्थक) विशेषण दिया गया है उसकी यहां भी अनुवृप्ति है, वह 'दान' पदके पूर्व में अध्याहृत गुप्त ) रूपसे स्थित है। इसी तरह पड़ौसी या इष्ट मित्रादिकको इसलिये मांग देता है कि यदि कोई गृहस्थ हिंसाके ये उपकरण अपने किसी उसने भी अपनी आवश्यक्ता के समय उनसे वैसे उपलेनेकी सम्भावना है तो ऐसी हालत में उसका वह करणोंको मांग कर लिया है और आगे भी उसके देना निरर्थक या निष्प्रयोजन नहीं कहा जा सकता और इसलिये वह भी इस व्रतका व्रती होते हुए व्रतकी कोटि से निकल जाता है--उसमें भी यह व्रत बाबा नहीं डालता। जहां इन हिंसोपकरणों के देने में कोई प्रयोजनविशेष नहीं है वहीं यह व्रत बाधा डालता है ।
व्याख्या- यहां हिंसा के जिन उपकरणोंका उल्लेख है उनका दान यदि निरर्थक नहीं है-एक गृहस्थ अपनी आरम्भजा तथा विरोधजा हिंसाकी सिद्धिके लिये उन्हें किसीको देता है तो वह इस व्रतको
वघ-बन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । ध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ७८ 'द्वेषभावसे किसीको मारने-पीटने, बांधने या उसके अंगच्छेदनादिका तथा किसीकी हार ( पराजय ) का और रागभावसे परस्त्री आदिका - दूसरोंकी पत्नीपुत्र धन-धान्यादिका तथा किसीकी जीत (जय) काजो निरन्तर चिन्तन है - कैसे उनका सम्पादन, विनाश-वियोग, अपहरण अथवा सम्प्रापण हो ऐसा जो व्यर्थका मानसिक व्यापार है-उसे जिन शासनमें निष्णात कुशलबुद्धि आचार्य अथवा गणधरादिक अपध्यान नामका अनर्थदण्ड बतलाते हैं ।"
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व्याख्या- यहाँ 'द्वेषात्' और 'रागात्' ये दोनों पद खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं, जो कि अपने अपने विषयकी दृष्टिको स्पष्ट करनेके लिये प्रयुक्त हुए जिसमें किसीकी हार ( पराजय ) भी शामिल है और हैं । 'द्वेषात्' पदका सम्बंध बध-बन्ध-छेदादिकसे है 'रागात्' पदका सम्बन्ध परस्त्री आदिकसे है जिसमें किसीकी जीत (जय) भी शामिल है । बध-बन्ध-च्छेदादिका चिन्तन यदि द्वेषभावसे न होकर सुधार तथा उपकारादिकी दृष्टिसे हो और परस्त्री आदिका चिन्तन कामादि-विषयक अशुभ रागसे