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सनन्तभद्रवचनामृत
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द्रव्य क्रोध-मान-माया-लोभ नामक कर्मोंका मंद उदय होने अभ्यंतरं दिगवघेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। के कारण-चारित्रमोहके परिणाम-क्रोध-मान-माया- विरमणमनर्थदण्डव्रत विदुतघराण्यः ॥७४ लोभके भाव-बहुत मंद हो जाते हैं। (यहां तक कि)
क) दिशाओंकी मर्यादाके भीतर निष्प्रयोजन पाप. अपने अस्तित्वसे दुरवधार हो जाते हैं-सहजमें
योगोंसे-पापमय मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियोंसे-जो लक्षित नहीं किये जा सकते-वे परिणाम महाव्रतके
विरक्त होना है उसे व्रतधारियोंमें अप्रणी-तीर्थकरालिये प्रकल्पित किये जाते है- उन्हें एक प्रकार अथवा दिक देव-'अनर्थदण्डवत' कहते है। उपचारसे महाव्रत कहा जाता है।'
व्याख्या-यहां पापयोगका-अपार्थक ( निष्पपंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवचःकायैः।।
योजन) विशेषण खास दौरसे ध्यान देने योग्य है और कृत-कारिताऽनुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।।७२ इस बातको सूचित करता है कि मन-वचन-कायकी जो
'हिंसादिक पांच पापोंका-पापोपार्जनके कारणों- पापप्रवृत्ति स्थूलत्यागके अनुरूप अपने किसी प्रयोका-मनसे, वचनसे, कायसे, कृतद्वारा, कारित- जनकी सिद्धिके लिये की जाती है उसका यहां ग्रहण
नहीं है, यहाँ उस पापप्रवृत्तिका ही ग्रहण है जो द्वारा, और अनुमोदन-द्वारा जो त्याग है-अर्थात्
निरर्थक होती है, जिसे लोकमें 'गुनाह बेलज्जत' भी नव प्रकारसे हिंसादिक पापोंके न करनेका जो दृढ
कहते हैं और जिससे अपना कोई प्रयोजन नहीं सङ्कल्प है-उसका नाम 'महाव्रत' है और वह महा
सधता, केवल पापही पाप पल्ले पड़ता है। पापयोगका त्माओंके-प्रायः प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवत्ति
यह 'अपार्थक' विशेषण अनर्थदण्डके उन सभी भेदोंविशिष्ट आत्माओंके-होता है।
के साथ सम्बद्ध है जिनका उल्लेख अगली कारिकाओं व्याख्या-यहां पापोंके साथमें स्थूल जैसा कोई में किया गया है। विशेषण नहीं लगाया गया, और इसीलिये यहां स्थूल पापोपदेश-हिंसादानाऽपध्यान-दुःश्र तीः पंच। तथा सूक्ष्म दोनों प्रकारके सभी पापोंका पूर्ण रूपसे प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः॥७॥ त्याग विवक्षित है।
'पापोदेश, हिंसादान, अपध्यान, हुश्रुति (और) ऊर्ध्वाऽधस्तात्तिर्यग्व्यतिपात-क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्। प्रमादचर्या, इनको अदण्डधर-मन-वचन कायके विस्मरणं दिग्विरतरत्याशाः पंच मन्यन्ते ॥७३॥ अशुभ व्यापारको न धरने वाले गणधरादिकदेव(अज्ञान या प्रमादसे) उपरकी दिशा मर्यादाका
" पांच अनर्थदण्ड बतलाते हैं-इनसे विरक्त होनेके उल्लंघन, नीचेकी दिशामर्यादाका उल्लंघन, दिशाओं
कारण अनर्थदण्ड ब्राके पांच भेद कहे जाते हैं। विदिशाओंको मर्यादाका उल्लंघन, क्षेत्रवृद्धि-क्षेत्रकी तियकक्लेश-वणिज्या-हिंसारम्भप्रलमनादीनाम। मर्यादाको बढ़ा लेना-तथा को हुई मर्यादाओंका भूल कथा-प्रसंग-प्रसवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः ॥७६॥ जाना, ये दिग्वतके पांच अतिचार माने जाते हैं। 'तियेच्चोंके वाणिज्यकी तथा क्लेशात्मक-वाणि__ व्याख्या-यहां दिशाभोंकी मर्यादाका उल्लंघन व्यको या तियचकिक्लेशकी तथा क्रय विक्रयादि और क्षेत्रवृद्धिको जो बात कही गई है वह जान बूझ- -
रूप वाणिज्यकी अथवा तिर्यब्चोंके लिये जो क्लेश रूप कर की जाने वाली नहीं बल्कि अज्ञान तथा प्रमादसे
हो ऐसे वाणिज्यकी, हिंसाकी-प्राणियोंके वधको-, होनेवाली है; क्योंकि जान बूझकर किये जानेसे तो आरम्भकी-कृष्यादिरूप सावद्यकोंकी- प्रलव्रत भंग होता है-अतिचारकी तब बात नहीं म्मनका-प्रवचना-ठगाका-, ओर 'आदि' शब्दसे रहती।
मनुष्यक्लेशादि विषयोंकी कथानोंके ( न्यथ ) प्रसंग