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समन्तभद्र-वचनामृत
स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन धर्मशास्त्रमै धर्मके इन सब मूढताओंसे रहित होनेके कारण सम्मग्दष्टि अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे 'अमूढ दृष्टि' कहलाता है। सम्यग्दर्शनके आठ अगोंमें भी 'त्रिमूढा पोढ' विशेषणके द्वाग तीन मूढो अथवा मूढताओसे 'अमूढ दृष्टि' एक अग है । उसका स्वरूप प्रतिपादन करते रहित बतलाया है। वे तीन मूर या मूढताएँ कौन है और हुए स्वामीजी कहते है :उनका स्वरूप क्या है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कापणे पथि दुखानां कापयस्येऽप्यसम्मति । स्वामीजी स्वय लिखते है :--
असम्पत्तिरनुत्कोतिरमूढावृष्टिरुज्यते ॥१४॥ आपगा-सागर-स्नानमुच्चय : सिकता मनाम् ।
दुखोके मार्गम्बम्प कुमार्गमे-भव-भ्रमणके हेतुभूत गिरिपातोऽग्निपातश्चलोकमूढं निगद्यते ॥२२॥
मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान-मिथ्याचरित्रमें-तथा कुमार्गस्थित(लौकिक जनोके मूढतापूर्ण दृष्टिकोणका गतानुगतिक
मे-मिथ्यादर्शनादिधारक तथा प्ररूपककुदेवादिकोंमें जो रूपसे अनुसरण करते हुए, श्रेय माधनके अभिप्रायम
अमम्मनि है-मनमे उन्हे कल्याणका माधन न मानना अथवा धर्मबुद्धिम)जो नदी-सागरका स्नान है, बालू रेत तथा
है-असमृक्ति-कामकी किमी चेष्टासे उनकी श्रेय पत्थरोंका स्तूपाकार ऊँचा ढेर लगाना है, पर्वतपरसे
साधना जैमी प्रशमा न करना है और अनुत्कीति हैगिरना है, अग्निमे पड़ना अथवा प्रवेश करना है, और इमी
वचनमे उनकी तद्विषयक स्तुति न करना है--उसे अमूढाप्रकारका और भी जो कोई काम है वह मर्व 'लोक मू' कहा
दृष्टि कहते है। जाता है।'
भावार्थ-दुःखोंकी प्राप्तिके उपाय स्वरूप मिथ्याबरोपलिप्सयाऽऽशावान् राग-नेवमलीमसाः ।
दर्शनादिककी और मिथ्यादर्शनादिके धारकों-पोषकोंकी जो देवता यदुपासीत देवताभूतमुच्यते ॥ २३ ॥
मन-वचन-कायमे आन्मकल्याण-साधनरूपमे प्रशसादिक न 'आशा-तृष्णाके वशीभूत होकर वरकी इच्छामे–वाछित
करना है उमे मम्यग्दर्शनका 'अमूटदृष्टि अग' कहते है। फल प्राप्तिकी अभिलाषासे-रागद्वेषसे मलिन-काम-क्रोध
इन मब बातोको लक्ष्यमें रखते हुए स्वामीजी मम्यरमद-मोह तथा भयादि दोषोसे दूषित-देवताओकी-परमार्थत
दृष्टिके विशेष कर्तव्यका निर्देश करते हुए लिखते है - देवताभासोकी--जो (देवबुद्धिमे) उपामना करना है उमे. 'देवतामूढ' कहते हैं।'
भयाना-स्नेह-लोभाच्च कुबेवाऽऽगम-लिङ्गिनाम् । सग्रन्याऽऽरम्भ-हिंसानां संसाराऽऽवर्त-वतिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्य. शुद्धदृष्टय ॥३०॥
पावण्डिनां पुरस्कारो शेयं पापण्डि-मोहनम् ॥२४॥ शुद्ध सम्यग्दृष्टियोको चाहिये कि वे (श्रद्धा अथवा 'जो सग्रन्थ है--धन धान्यादि परिग्रहसे युक्त है-- मूढदृप्टिसे ही नही किन्तु) भयसे-लौकिक अनिष्टकी आरम्भ सहित है--कृषि वाणिज्यादि सावद्य कर्म करते सम्भावनाको लेकर उमसे बचने के लिये-आगासे-भविष्यहै-हिमाम रत है, ससारके आवोंमें प्रवन हो रहे है- की किमी इच्छापूर्तिको ध्यानमे रखकर-स्नेहसे-लौकिक भवभ्रमणमें कारणीभूत विवाहादि कर्मों द्वारा दुनियाके चक्कर प्रेमके वश होकर-तथा लोभसे--धनादिकका कोई लौकिक अथवा गोरखधन्धेमें फंसे हुए है-ऐसे पाखण्डियोका- लाभ स्पष्ट सधना हुआ देखकर-भी कुदेव-कुआगमवस्तुतः पापके खण्डनमे प्रवृत्ति न होनेवाले लिंगी साधुओं कुलिंगयोको-उन्हें कुदेव-कुआगम-कुलगी मानते हुए भीका-जो (पापण्डि साधुके रूपमें अथवा सुगुरू बुद्धिमे) प्रणाम (शिगेननि) तथा विनयबादि-अभ्युत्थान हस्तांजलि आदर-सत्कार है उसे 'पाषण्डिमूढ' समझना चाहिये।' आदिके रूपमें आदर-सत्कार न करें।