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विषय-सची
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अनेकान्त
[ वर्ष ११
को लिये हुए है और आप्ततत्त्वविवेचन-आप्तमीमांसा– लम्बियोंके गर्वरूपी पर्वतके लिए वज्रके समान है और क्षीरभी जिसका विषय है, उस समन्तभद्रभारतीफा में स्तोत्र सागरके समान उज्ज्वल तथा पवित्र है,उस समन्तभद्रभारतीका करता हूं।'
में कीर्तन करता हूं-उसकी प्रशंसामें खुला गान करता हूं।' सूरिसूक्ति-बन्वितामुपेयतस्व-आविनों
मान-नीति-वाक्यसिद्ध-वस्तुपर्म-गोचर वारकीति-भासुरामुपायतत्व-सापनीम् ।
मानित-प्रभाव-सिद्धसिद्धि-सिखसाबनीम् । पूर्वपक्ष-सण्डन-प्रचनावाग्विलासिनी
घोर-भूरि-दुःख-वाषि-तारण-समामिमा संस्तुवे जगदिता समन्तमभारतीम् ॥३॥
चार-चेतसा स्तुवे समन्तभत्रभारतीम् ॥ ६॥ 'जो आचार्योंकी सूक्तियों द्वारा वन्दित है-बड़े बड़े 'प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा सिद्ध हुए वस्तु-धर्म आचार्योंने अपनी प्रभावशालिनी वचनावलि द्वारा जिसकी जिसके विषय है जिसमें प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा पूजा-वन्दनाकी है जो उपेयतरवको बतलानेवाली है, वस्तुधर्मोको सिख किया गया है-,मानित (मान्य) प्रभावउपायतत्त्वकी साधनस्वरूपा है, पूर्वपक्षका खंडन करनेके वाली प्रसिद्ध सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिके-लिए जो सिद्धसाधनी लिये प्रचंड वाग्विलासको लिये हुए है-लीलामात्रमें प्रवा- है—अमोघ उपायस्वरूपा है और घोर तथा प्रचुर दुःखोंदियोंके असत्पक्षका खंडन कर देने में प्रवीण है-और के समुद्रसे पार तारनेके लिए समर्थ है, उस समन्तभद्रभारतीजगतके लिये हितरूप है, उस समन्तभद्रभारतीका में स्तवन की मै शुद्ध हृदयसे प्रशसा करता हूं।'
सान्त-साधनायनन्त-मध्ययुक्त-मध्यमा पात्रकेसरि-प्रभावसिद्धि-कारिणी स्तुचे
मून्य-भाव-सबंबेदितत्व-सिद्धि-सावनीम् । भाष्यकार-योषितामलंकृता मुनीश्वरः।
हेत्वहेतुबाव-सिद्ध-वाक्यजाल-भासुरां गुपपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगलापिका
मोक्ष-सिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥७॥ सिडि-सौल्य-सापनी समन्तभाभारतीम् ॥४॥ 'सादि-सान्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त, और अनादि'पात्रकेसरीपर प्रभावकी सिद्धिमें जो कारणीभूत हुई- अनन्त-रूपसे द्रव्य-पर्यायोका कयन करनेमें जो मध्यस्था हैजिसके प्रभावसे पात्रकेसरी-जैसे महान् विद्वान् जैनधर्ममें इनका सर्वथा एकात स्वीकार नही करती--, शून्य (अभाव) दीक्षित होकर बड़े प्रभावशाली आचार्य बने-,जो भाष्यकार- तत्व, भावतत्त्व और सर्वज्ञतत्त्वकी सिद्धिमें जो साधनीभूत अकलंकदेव-द्वारा पुष्ट हुई, मुनीश्वरो-विद्यानन्द-जैसे है और हेतुवाद तथा अहेतुवाद (आगम) से मिद्ध हुए वाक्यमुनिराजों-द्वारा अलकृत की गई, गृपिच्छाचार्य (उमा- समूहसे प्रकाशमान है अर्थात् जो युक्ति और आगम-द्वारा स्वाति) के कहे हुए उत्कृष्ट मंगलके अर्थको लिये हुए है- सिद्ध हुए वाक्योसे देदीप्यमान है, उम समन्तभद्रभारतीकी उनके गंभीर आशयका प्रतिपादन करनेवाली है और मै, मोक्षकी सिद्धिके लिए, स्तुति करता ह।' सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिके-सौख्यको सिद्ध करनेवाली है,
व्यापकतयाप्तमार्ग-तत्त्वयुग्म-गोवर उस समन्तभद्र-भारतीको-समन्तभद्रकी आप्तमीमांसादि पापहारि-वाग्विलासि-भूषणांशुका स्तुवे । रूप-कृति-मालाको-मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूं
श्रीकरीच धोकरी च सर्वसौल्य-बायिनी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं।'
नागराज-पूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥ ८॥ इनभूति-भाषित-अमेयनाल-गोचर
'व्यापक-व्याप्यका-गुण-गुणीका-ठीक प्रतिपादन करने बढमानदेव-बोषयुद्ध-चिहिलासिनीम् ।
वाले आप्तमार्गके दो तत्व हेयतत्त्व, उपादेयतत्त्व अथवा योग-सौगतादि-गर्व-पर्वताशनि स्तुबे
उपेयतत्त्व और उपायतत्त्व-जिसके विषय है, जो पापहरणसीरवाषि-समिमा समन्तभाभारतीम् ॥५॥ रूप आभूषण और वाग्विलासरूप वस्त्रको धारण करनेवाली 'इन्द्रभूति (गौतम गणधर)का कहा हुआ प्रमेय-समूह है। साथ ही, श्री-साधिका, बुद्धि-वधिका और सर्वसुख-दायिका जिसका विषय है, जो श्रीवर्धमानदेवके बोषसे प्रबुट हुए है, उस नागराज-पूजित समन्तभद्रभारतीकी में स्तुति चैतन्यके विलासको लिये हुए है, योग तथा बौखादि-मताव- करता हूं।'