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देनेवाले पदार्थ-भेदों, कारक-क्रिया-भेदों तथा विभिन्न लोक- संतवाय-बोसे सक्कोलया भगंति संसाणं। . व्यवहारोंकी बात आई तो उन्होंने कह दिया कि 'ये सब संखा य असवाए तेसि सम्वे विते. सबा ॥५०॥ मायाजन्य है' अर्थात मामाकी कल्पना करके प्रत्यक्षमें दिखाई ते उ भयणीवणीया सम्मईसणमणुत्तरं होति ।... पड़नेवाले सब भेदों तथा लोक-व्यवहारोंका भार उसके
भव-दुक्ख-विमोक्खं दो वि ण पूरति पाडिलकं ॥५१॥ पर रख दिया। परन्तु यह माया क्या बला है और वह 'सांख्योंके सदवादपक्षमें बौद्ध और वैशेषिक जन जो सत् रूप है या असतूरूप इसको स्पष्ट करके नही बतलाया दोष देते है तथा बौद्धों और वैशेषिकोंके असद्वादपक्षमें गया। माया यदि असत् है तो वह कोई वस्तु न होनेसे किसी सांख्यजन जो दोष देते है वे सब सत्य हैं-सर्वथा एकान्तभी कार्यके करनेमें समर्थ नही हो सकती । और यदि सत् बादमें वैसे दोष आते ही है। ये दोनों सद्वाद और असद्वाद है तो वह ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न है ? यह प्रश्न खड़ा होता दृष्टियां यदि एक दूसरेको अपेक्षा रखते हुए संयोजित हो है। अभिन्न होनेकी. हालतमें ब्रह्म भी मायारूप मिय्या जायँ-समन्वयपूर्वक अनेकान्त-दृष्टिमें परिणत हो जायेंठहरता है और भिन्न होनेपरमाया और ब्रह्म दो जुदी वस्तुए तो सर्वोत्तम सम्यगदर्शन बनता है। क्योंकि ये सत्-असत् होनेसे तापत्ति होकर सर्वथा अढतबादका सिद्धान्त बाधित रूप दोनों दृष्टियां अलग-अलग संसारके दुःखोंसे छुटकारा हो जाता है। यदि हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जाता है तो दिलाने में समर्थ नहीं हैं-दोनोंके सापेक्ष संयोगसे ही हेतु और साध्यके दो होनेसे भी द्वैतापत्ति होती है और हेतु- एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे मुक्ति एवं के बिना वचनमानसे सिद्धि माननेपर उस वचनसे भी शान्ति मिल सकती है। द्वतापत्ति हो जाती है। इसके सिवाय द्वैतके बिना अद्वैत इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनोंका कहना बनता ही नही जैसे कि हेतुके बिना अहेतुका तत्त्व सहज ही समझमें आ जाता है और यह मालूम हो और हिंसाके बिना अहिंसाका प्रयोग नही बनता । अद्वैत- जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके में द्वैतका निषेष है, यदि द्वैत नामकी कोई वस्तु नही तो रूपमें परिणत हो जाते है। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन उसका निषेध भी नहीं बनता, द्वतका निषेध होने- जबतक अपने-अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमें एकान्तताको से उसका अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस तरह सर्वथा अपनाकर पर-विरोधका लक्ष्य रखते हैं तबतक सम्यग्दर्शनअद्वैतवादकी मान्यताका विधान सिद्धान्त-बाधित ठहरता है, में परिणत नही होते, और जब पर-विरोधका लक्ष्य छोड़कर वह अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करने में स्वयं असमर्थ है पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते और उसके आधार पर कोई लोकव्यवहार सुघटित नही हो है तभी सम्यग्दर्शनमें परिणत हो जाते है, और जैनदर्शन सकता। दूसरे सत्-असत् तथा नित्य-क्षणिकादि सर्वथा कहलानेके योग्य होते है। जैनदर्शन अपने अनेकान्तामक एकान्त-वादोंकी भी ऐसी ही स्थिति है, वे भी अपने स्वरूपको
स्याद्वाद-न्यायके द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए हैप्रतिष्ठित करने में असमर्थ है, और उनके द्वारा भी अपने
समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है न कि विरोष, और स्वरूपको बाधा पहुंचाये बिना लोक-व्यवहारकी कोई
इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने-अपने विरोधको भुला
कर उसमें समा जाते है। इसीसे सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथा व्यवस्था नहीं बन सकती।
में जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलश्रीसिखसेनाचार्यने अपने सन्मतिसूत्र में कपिलके कामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोंका समूहमय' बतलाया सांख्यदर्शनको द्रव्याथिकमयका वक्तव्य, शुद्धोधनपूत्र बब- है वह गाथा इस प्रकार हैके बीडवर्शनको परिशुद्ध पर्यायाथिक नयका विकल्प और भई मिच्छासणसमूहमयस्स अमयसारस्स । उलक (कणाद) के वैशेषिकदर्शनको उक्त दोनों नयोंका जिणवपणस्त भगवमो संविग्ग-सुहाहिगम्मस्स ॥७॥ बक्तव्य होनेपर भी पारस्परिक निरपेक्षताके कारण मिथ्या- इसमें जिनवचनरूप जैनदर्शन (जिनशासन) के तीन त्व बतलाया है और उसके अनन्तर लिखा है:
खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषण