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"ताह कमानय तब तविगो, निम्मासम-वण-संगो भ-कमल-संबो-यंगमंदिवस जिकित्ति संगो। तरस पसाएँ कम्बु पयासमि, चिरमनि विहित बसुहणिण्णासमि"
अनेकान्त
सम्यकत्व गुणनिधानकी आदि प्रशस्तिमें निम्न रूपमें स्मरण किया है।
--साथ-तथियो
मन्य-कमल-संगोह पगो
जियोग्भासिय पवयण लगो, बंदि बि सिरि जसकित्ति असंगो । साधु पसाए कम्बु पास आलि विहिर मिसिनि ॥
म० यशः कीर्तिने स्वयं अपना 'पाण्डव पुराण' वि० सं० १४९७ में अग्रवालवंशी साहू बील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था। यह पहले हिसारके निवासी थे और बादको देहलीमें आकर रहने लगे थे, और देहलीके तात्कालिक बादशाह मुबारिक ग्राहके मंत्री थे, वहां इन्होंने एक चैत्यालय भी बनवाया था। और उसकी प्रतिष्ठा भी करायी थी।' इनकी दूसरी कृति 'हरिवंश पुराण' है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके साहू दिवाकी प्रेरणा की थी। साहू दिवढ्डा अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे, उनका गोत्र 'गर्ग' था । वे बड़े धर्मात्मा और श्रावकोचित् द्वादशव्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले थे। इनकी तीसरी कृति 'आदित्यवार कथा' है जिसे 'रविव्रत कथा' भी कहते है। और चौथी रचना 'निराणि कथा' है, जिसमें शिवरात्रि रूपाके डंगपर वीरजन रात्रि व्रतका फल बतलाया गया है। इनके सिवाय
लेखनीयं"
"संवत् १४८६ वर्षे आमापदि ९ गुरुदिने गोपाचल दुर्गे राजा डूंगरसी (सि) ह. राज्य प्रवर्तमानं श्री काष्ठासंचे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहत (स) कीर्ति देवास्तपट्टे आचार्यगुणकीर्ति देवास्तच्छिष्य श्री यशः कीर्तिदेवास्तेन निज ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमी कथा लिखापितम्।"
[वर्ष ११
'चन्दप्पड़ चरिउ' नामका अपभ्रंश भाषाका एक ग्रंथ और भी उपलब्ध है जिसके कर्ता कवियशकीति हैं, परन्तु प्रस्तुत यशःकीति उक्त चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता है इसका ठीक निश्चय नहीं, क्योंकि इस नामके अनेक विद्वान हो गये है। भाषा और ग्रन्थ सरणीको देखते हुए वह इसका बनाया हुआ नहीं मालूम होता ।
भ० यशःकीतिको महाकवि स्वयंभूदेवका 'हरिवंश पुराण' जीर्ण-शीर्ण दशामें प्राप्त हुआ था और जो खण्डित भी हो गया था, जिसका उन्होंने ग्वालियरके कुमरनगरीके जैनमन्दिरमें व्याख्यान करनेके लिये उद्धार किया था।" यह कविवर रहके गुरु थे, इनकी और इनके शिष्योंकी प्रेरणासे कवि रइधूने अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। इनका समय विक्रमकी १५ वीं शतीका अन्तिम चरण है. सं० १४८१ से १५०० तक तो इनके अस्तित्वका पता चलता ही है किन्तु उसके बाद और कितने समय तक ये जीवित रहे इसको निश्चित रूपसे बतलाना कठिन है।
१. जंग करावउ जि-याळ, पुण्यहेड विर-रण पक्खालि । वय-तोरण कलतेहि बलंकित, जमुगुरु से हरि जाणुवि संकिउ । पाण्डव पुराण प्रशस्ति
भट्टारक मलकीर्तिः -- यह भट्टारक यशः कीर्तिके बाद उक्त पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। इनके शिष्य गुणभद्र भट्टारक थे, जिन्होंने इनकी कृपासे अनेक कथा ग्रथ रचे है । क रहने 'सम्बइजिन परिव' की प्रशस्तिमे भट्टारक मलयकोतिका निम्न शब्दोमें उल्लेख किया है-"उत्तम-खमवासेण अमंद, मलकति रिसिब दिउ" प्रस्तुत मलयकीर्ति वे ही जान पड़ते हैं जिन्होंने भट्टारक सकलकीतिके 'मूलचारप्रदीप' नामक ग्रथकी दान प्रशस्ति लिखी थी। इन्होंने और किन-किन ग्रंथोंकी रचना की यह कुछ ज्ञात नही हो सका ।
भट्टारक गुणभद्र यद्यपि गुणभद्र नामके अनेक विद्वान
१. त जसकित्ति मुणिहि उद्धरयिउ, णिएवित्तु हरिवंसच्छारियउ । णिय-गुरु- सिरि-गुणकित्ति पसाए, किउ परिपुष्णु मणहो अजुराए । सरह से (1) बेडियाएसँ कुमरणयरि आविउ सविसेसें । गोवग्निरिहे समीवे विसालए. पणिवा रहे जिनवर -बेवालए।
सावपजणहो पुरउ वक्लाणित दिधु मिच्छतु मोह अगमाणिउ । हरिवंशपुराण-प्रशस्ति
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