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________________ २७४ अनेकान्त [वर्ष ११ की बोर अपना खास ध्यान देती है। बापि कुछ समयसे ग्राममें भा बसे थे। भोरकामें उस समय सावंतसिंहउसमें शिथिलताका समावेश होने लगा है, जिसका कारण का राज्य था। शहरों में उस पारचाप सम्यवाका पनपना, जो पाय- देवीदास प्राकृत-संस्कृत भाषाके साथ हिन्दी भाषा संस्कृतिकी विधायक है। परन्तु भान मी पुन्देखखन्ड भी अच्छे विद्वान थे और काम्य-कलामें निष्णात थे। केखोग उस चारित्रको अपना अंग बनाये हुए हैं। इसी- इनका रहन-सहम सीधा-सादा था। जैनधर्ममें इनकी से पहा बोगोंका रहन-सहन, खान-पान सादा होते अदा अडोख थी और वे श्रावकोषित् षटकर्मों का पालन ए भी सात्विक वृत्तिको लिए हुए हैं। आज भी बुन्देल सदा किया करते थे। वे लोक व्यवहार में निपुण थे । और बाडमें मनकट विद्वान, कवि और त्यागी-तपस्वी बह स्वभावतः भद्र परियतिको जिए हुए थे। वे बड़े होते हुए भी वहाँ शिक्षाकी कमी है। कुछ स्थान तो किफायतसार और व्यापारिक कार्यों में निपुत्र थे । इमऐसे है यहाँ बागारके काई साधन उपलब्ध ही नहीं हैं। के संबन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित है, जिनमें उन इसीसे अनेक प्रामनगरोंके लोग अपने अपने स्थान- के जीवन्सम्बन्धि खाम घानामों का उल्लेख निहित है को कोषकर समीपवर्ती शहरों में भावाद होते जा रहे हैं। और उनसे उनकी जीवन वृति और भद्र परिणतिका सरकारका कर्राम्य है कि वह बुन्देलखण्डको समूबत सहमही अन्दाज लगाया जा सकता है। कविकी धार्मिक बनाने के लिए विविध उपायोंको काममें बाय, जिससे परिणतिके साथ उनकी काग्य-कलाका विकास भी, जिसवहाँको जमवाके रहन-सहनका स्तर ऊंचा उठे और का परिचय 'परमानन्द विलास' नामको संग्रह कृतिमें वहाँ खेती भार व्यापारकी सुविधा प्रास हो,पाथ ही इस देखनेको मिलता है। जो कविकी अपूर्व प्रतिभाका देशकी कलात्मक प्रवृत्तियोंको प्रोत्साहन मिले। अस्तु, चोक है। एक अन्यमें 'चित्र काम्य-कला' का एक पुन्वेखाएके भाज एक ऐसे विद्वान कविका परि- प्रकरण है जिसमें सर्प, पर्वत, कपाट, धादि अनेक विधपय पाठकोंको करानेका प्रवल कर रहा हूँ, जो अब तक चित्रबद्ध पथ दिये हुए हैं जिनमें से एक-दो का नमूना प्रायः बासिद रहा है और जिसकी कृतियोंका प्रचार भागे 'प्रन्य-परिचय' नामक शीर्षकमें किया जायेगा। नगरप-सा है। उसकी प्रसिदिका एक कारण यह भी जहाँ कविका मुकाव भकि उसकी ओर था वहाँ रहा है कि वह जैग कुजमें उस्पस हुआ था और उसकी सनका मानस माध्यात्मिकरससे सराबोर भी था। उनके प्रायः सारी ही कविता जैनधर्म मन्तब्योसे मोत-प्रोत माध्यामिक पदोंको देखनेसे यह सहज ही मालूम हो होती हुई भक्ति-रस और प्राण्यास्मिक रसकी बह सुन्दर बावा है कि कविको अन्तरास्माका मुकाव पारमानुभवएवं व-हारिकी सरिता है जिसमें अवगाहन करना की उस महान् झांकी की मोर मुका हुआ ही नहीं था; साधारण व्यक्किा काम नहीं है। किन्तु उसकी अन्तरारमामें उस भामरसका नो स्वाद जीवन-परिचय अनुभवमें माता था, पचपि वह वचमातीत था, को भी वह पुण्येवमहमें अनेक ग ए । उनमें कविकी परिणतिय दता, भद्रता, सरलता और सत्यताका 'वर्षमान काम्बका कवि नवबयार भी प्रसार सम्मिश्रण अभियंजक था. इसी से उनकी रट निर्मल जाम समकालीन बिनका परिचय बादमें दिया जायेगा परती थी। जबकभी कविकी रष्टि अपने साधर्मी भाइयोंबुन्देखबहाब बकवियों शावरीमा की ओर जाती थी तब वह उनकी विपरीत परिणतिको परमा बिससे उनका परिचय भी दिया जा सके। गोलाबारे सानिया शरीषा होत, प्रस्तुत कविवर देवीदास 'मोरला स्टे' दुगौला प्राम- सोषियार सुबक वसु पुनि कासिव सुगोत निवासी थे। पहमाम महारत्र और परमा नामक पुनि कासिड सुगोत्र सीक सिकहाए खेरी, मामके पास।कषिकी बावि 'गोवाबारे' और वंश देश भदावर माहि जो सुपरम्यो विहि केरौ। 'परोया' याबमा बैंक सोनवियार और गोत्र 'कासिव' कैलगमाके वसनहार संतोष सुभारे, था। के पूर्वज भदावर देने वागा' प्रामके कवि देवी बसु पुत्र दुगौटे गोलाबार। निवासी थे। पति किसी कारब- गोवा नामक -चतुर्विशति पूजा
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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