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तथा परबनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। बीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही ग्रन्थमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है—संसारसमुत्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी भव्यजीव पार उतर जाते है और जो सबोंके उदय-उत्कर्षमें अथवा आत्माके पूर्ण विकास में परम सहायक है। इस विषयकी कारिका निम्न प्रकार है
अनेकान्त
[ वर्ष १९
तीन शब्दोंसे मिलकर बना है। 'सर्व' शब्द सब तथा पूर्ण (Complete) का वाचक है; 'उदय' ऊंचे-ऊपर उठने, उत्कर्ष प्राप्त करने, शंकट होने अथवा विकासको कहते हैं; और 'तीर्थ' उसका नाम है जिसके निमित्तसे संसारमहासागरको तिरा जाय । वह तीर्थ वास्तवमें धर्मतीर्थ है। जिसका सम्बन्ध जीवात्मासे है, उसकी प्रवृत्ति में निमित्तभूत जो आगम अथवा आप्तवाक्य है वही यहां 'तीर्थं' शब्दके द्वारा परिग्रहीत है। और इसलिये इन तीनों शब्दोंके सामासिक योगसे बने हुए 'सर्वोदयतीर्थ' पदका फलितार्थ यह है कि -- जो आगमवाक्य जीवात्माके पूर्ण उदय उत्कर्ष अथवा विकासमें तथा सब जीवोंके उदय उत्कर्ष अथवा विकास में सहायक है वह सर्वोदयतीर्थ है। आत्माका उदय उत्कर्ष अथवा विकास उसके ज्ञान-दर्शन-सुखादिक स्वाभाविक गुणोंका ही उदय उत्कर्ष अथवा विकास है । और गुणोंका वह उदय - उत्कर्ष अथवा विकास दोषोंके अस्त- अपकर्ष अथवा बिनाशके बिना नही होता। अत. सर्वोदयतीर्थं जहां ज्ञानादि गुणोंके विकास में सहायक है जहां अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारण ज्ञानावर्णादिक कर्मोके विनाशमें भी सहायक है-वह उन सब रुकावटोंको दूर करनेकी व्यवस्था करता है जो किसीके विकासमें बाधा डालती हैं। यहां तीर्थको सर्वोदयका निमित्त कारण बतलाया गया है तब उसका उपादान कारण कौन ? उपादान कारण वे सम्यग्दर्शनादि आत्मगुण ही है जो तीर्थंका निमित्त पाकर मिथ्यादर्शनादिके दूर होनेपर स्वयं विकासको प्राप्त होते है । इस दृष्टिसे 'सर्वोदयतीर्थ' पदका एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है और वह यह कि 'समस्त अभ्युदय कारणोंका — सम्यगदर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक्चारित्ररूप त्रिरत्न धर्मोका जो हेतु है उनकी उत्पत्ति अभिवृद्धि आदिमें ( सहायक ) निमित्त कारण है - वह सर्वोदयतीर्थं है'। इस दृष्टिसे ही, कारणमें कार्यका उपचार करके इस तीर्थको धर्मतीर्थ कहा जाता हैं और इसी दृष्टिसे वीरजिनेन्द्रको घर्मतीर्थंका कर्ता (प्रवर्तक) लिखा है; जैसा कि ९ वीं शताब्दीकों बनी 'जयवला' नामकी सिद्धान्तटीकामें उद्धत निम्न प्राचीन
सर्वान्तयतय-मुख्य कल्प सर्वान्त नियोऽनपेक्षन् सर्वावसकर निरन्त सर्वोदय सर्वमिद सबैच 1.६१॥
इसमें स्वामी समन्तभद्र वीर भगवानकी स्तुति करते हुए कहते हैं-' ( हे वीर भगवन् ! ) आपका यह तीर्थप्रवचनरूप शासन, अर्थात् परमागमवाक्य, जिसके द्वारा संसार - महासमुन्द्रको तिरा जाता है— सर्वान्तवान् है— सामान्य- विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध ( भाव -अभाव), एक-अनेक, मादि अशेष धर्मोको लिये हुए है; एकान्ततः किसी एक ही धर्मको अपना इष्ट किये हुए नहीं है और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए हैं--एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है; जो गौण है वह निरात्मक नहीं होता और जो मुख्य है उससे व्यवहार चलता है; इसीसे सब धर्म सुव्यवस्थित हैं; उनमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नही है । को शासन-वाक्य धर्मो में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे शून्य हैउसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नही बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-मवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासनतीचं सब दुःखोंका अन्त करने बाला है, यही निरन्त है--किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा खण्डनीय नहीं है और यही सब प्राणियोंके अभ्युदय का कारण तथा आत्मा पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा सर्वोदयतीर्थ है--जो शासन सर्वथा एकान्तपक्षको लिये हुए हैं उनमें से कोई भी 'सर्वोदयतीर्थ' पदके योग्य नही हो सकता।'
वहां 'सर्वोक्ती' यह पद सर्व उपय और सीर्ष न
१ "तरति संसारमहार्णवं येन निमितेन तत्तीर्थमिमिति" २ "सर्वेषामभ्युदयकारणायां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेवानां हेतुत्वादभ्युदयहेतुश्योपतेः ।" -- विद्यानन्यः