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श्रीवीरका सर्वोदयतीर्थ
[सम्पादकीय ] विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके महान विद्वान यह प्रदर्शित किया गया है कि वीर-जिन-द्वारा इस शासनमें आचार्य स्वामी समन्तभद्रने अपने 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थमें, वर्णित वस्तुतत्त्व कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता जोकि आप्त कहे जानेवाले समस्त तीर्थप्रवर्तकोंकी परीक्षा है और दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोंमें निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व करके और उस परीक्षा-द्वारा श्री वीरजिनको सत्यार्थ आप्त- किस प्रकारसे प्रमाणबाधित तथा अपने अस्तित्वको ही सिद्ध के रूपमें निश्चित करके तदनन्तर वीरस्तुतिके रूपमें लिखा करनेमे असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विश पाठकोगया है, वीर भगवानको (मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण के लिये बडा ही रोचक और वीरजिनेन्द्रकी कीतिको और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोका अभाव हो दिग्दिगन्तव्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान जानेसे) अतुलित शान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिके उदय- दर्शनों और उनके अवान्तर कितने ही वादोंका सूत्र अथवा की पराकाष्ठाको प्राप्त हुआ एवं ब्रह्मपथका नेता लिखा सकेतादिके रूपमे बहुत कुछ निर्देश और विवेक भा गया है और इसीलिये उन्हें "महान्" बतलाया है। साथ ही उनके है। यह विषय ३९वी कारिका तक चलता रहा है। इस अनेकान्त शासन (मत) के विषयमें लिखा है कि 'वह दया कारिकाकी टीकाके अन्तमें ९वी शताब्दीके विद्वान् श्री (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिग्रह-स्यजन) और विद्यानन्दाचार्यने वहां तकके वणित विषयकी संक्षेपमें समाधि (प्रशस्त ध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए मूचना करते हुए लिखा है:है, नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिलकुल स्पष्ट- स्तोत्रे यूपयनुशासने जिनपतेरिस्य निःशेषतः सुनिश्चित करनेवाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठा परामाभितान् । दूसरे सभी प्रवादोंके द्वारा अबाध्य है-कोई भी उसके विषय- निर्णीत मतमद्वितीयममल सतोप्राकृत को खण्डित अथवा दूषित करने में समर्थ नहीं है। यही सब तबाह्य वितथ मत सकल सखीवनप्यताम् ॥ उसकी विशेषता है और इसीलिये वह अद्वितीय है।' जैसा
अर्थात्-यहां तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और कि ग्रन्थकी निम्न दो कारिकाओसे प्रकट है
शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रकै अर्मकान्तात्मक त्वं शुद्धि-शवस्योरुदयस्य काष्ठा
स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णतः निर्दोष और अद्वितीय तुला-व्यतीतां जिन! शान्तिरूपाम् ।
निश्चित किया गया है और उमसे बाह्य जो सर्वथा एकान्तअवापिय ब्रह्मपथस्य नेता के आग्रहको लिये हुए मिध्यामतोंका समूह है उस सबका महानित यत्प्रतिवतुमीशाः ।।
संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोंबयापम-त्याग-समाधि-निष्ठं
को भले प्रकार समझ लेनी चाहिये।। नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् ।
इसके आगे, ग्रन्थके उत्तरार्धमें, वीरशासन-वणित तत्त्वअपृष्यमन्यरखिलः प्रवाद
ज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोंको स्पष्ट जिन! त्वदीयं मतमद्वितीयम् । ६॥
करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी समन्तइनसे अगली कारिकाओंमें सूत्ररूपसे वर्णित इस वीर- भद्रसे पूर्वके ग्रन्थोंमें पायः नहीं पाई जाती, जिनमें 'एव' शासनके महत्वको और उसके द्वारा वीर-जिनेन्द्रकी तथा 'स्यात्' शब्दके प्रयोग-अप्रयोगके रहस्यकी बातें भी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तौरसे शामिल है और जिन सबसे वीरके तत्वज्ञानको समझने