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________________ २७० अनेकान्त [ वर्ष ११ से दग्ध है; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्व प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधित है सत्यमेवासि नियुक्ति खाराविरोधिना । अविशेष पद से प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥५॥ स्वन्मताऽमृत-बाह्यानां सर्वबैकान्तवादिनाम् । आप्ताऽभिमान-सन्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ -आप्तमीमांसा आपकी गण-कथाके साथ कहा गया है, इससे साफ़ जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य भूले-भटके जीवोंको न्यायअन्याय, गुण-दोष और हित-अहितका विवेक कराकर उन्हें वीरजिन प्रदचित सन्मार्गपर लगाना है और वह क्तियोंके अनुशासन द्वारा ही साध्य होता है, अतः ग्रन्थका मतः प्रधान नाम 'युक्त्यनुशासन' ठीक जान पड़ता है । यही वजह है कि वह इसी नामसे अधिक प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है। 'वीरजिनस्तोष' यह उसका दूसरा नाम है, जो स्तुतिपानकी दृष्टि है, जिसका और जिसके शासनका महत्व इस ग्रन्थ में स्थापित किया गया है । ग्रन्थके मध्य में प्रयुक्त हुए किसी पदपरसे भी ग्रन्थका नाम रखनेकी प्रथा है, जिसका एक उदाहरण धनंजय कविका 'विषापहार' स्तोत्र है, जो कि न तो 'विषापहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न आदि-अन्तके पथोंमें ही उसके 'विषापहार' नामकी कोई सूचना की गई है, फिर भी मध्यमें प्रयुक्त हुए 'विषा पहारं मणिमवानि' इत्यादि वाक्यपरले वह 'विषापहार नामको धारण करता है । उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्त्यनुशासन' नामको धारण करता हुआ जान पड़ता है । इस तरह प्रत्यके दोनों ही नाम युक्तियुक्त है और वे ग्रन्थकार द्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते है। जिसे जैसी रुचि हो उसके अनुसार वह इन दोनों नामोमें से किसीका भी उपयोग कर सकता है । ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय और महत्व -- यह प्रन्य उन आप्तों अथवा 'सर्वज्ञ' कहे जानेवालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है, जिनके आगम किसी-न-किसी रूपमें उपलब्ध है और जिनमें बुद्ध-कपिलादि के साथ वीर जिनेन्द्र भी शामिल है । परीक्षा 'युक्ति - शास्त्राऽविरोधि वाक्त्व' हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके वचन युक्ति और शास्यसे अविरोध रूप पाये गये उन्हें ही आप्तरूपमें स्वीकार किया गया है-शेषका माप्त होना बाधित ठहराया गया है। ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामें, जिसे उन्होंने अपने 'आप्त-मीमांसा' (देवागम) ग्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरजिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादिआता प्रतिनिधित्व करते है, पूर्णरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हें निर्दोष आप्त ( सर्वश) घोषित करते हुए और उनके अभिमत अनकान्तशासनको प्रमाणाऽवाचित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनात से बाह्य जो सर्वच एकान्तवादी है वे आप्त नहीं बाप्ताभिमान इस तरह वीरजिनेन्द्रके गलेमें आप्त-विषयक जयमाल डालकर और इन दोनों कारिकाओं में वर्णित अपने कथनका स्पष्टीकरण करनके अनन्तर आचार्य स्वामी समन्तभद्र इस स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे है, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य' शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्य भी 'अ' शब्द का अर्थ 'अस्मिन् काले परीक्षावसानसमये दिया है। साथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावना - वाक्य-द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ आप्तमीमांसा के बाद रचा गया है- "श्रीमतामन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवगोदान् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताईतान्यतीर्थसुपरमवेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवन्तः ? इति ते पृष्ठा " स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा प्रमानी आचार्य थे, वे यों ही किसीके आगे मस्तक टेकनेवाले अथवा किसीकी स्तुतिम प्रवृत्त होनेवाले नही थे । इसीसे वीरजिनन्द्रकी महानता विषयक जब ये बातें उनके सामने आई कि 'उनके पास देव आते है, आकाशमें बिना किसी विमानादि की सहायताके उनका गमन होता हैं और चंवर-छत्रादि अष्ट प्रातिहायोंके रूपमें तथा समवसरणादिके रूपमें अन्य विभूतियोंका भी उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि 'ये बातें तो मायावियोंमें- इन्द्रजालियोंम भी पाई जाती हैं, इनके कारण आप हमारे महान् पूज्य अथवा आप्त-पुरुष नहीं है।" और जब सरीरादित महान् उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कह दिया कि शरीरादिका यह महान् उदय रागादि के वशीभूत देवताओंमें भी पाया १. देवागम - नभोमान -चामरावि-विभूतयः । मायाविध्यपि दृश्यन्ते नास्त्वमसि नो महान् ।। १ ।।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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