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________________ मनेकान्त वर्ष १९ अर्थ- वह समस्त बन्धुवर्ग और सम्बन्धियों सहित समस्त योगों और इंद्रिय विषयोंसे ऊपर उठ गया -- विरक्त हो गया || २ || वह रज ( मोह माया, इच्छा, कामना रूप आत्म-मल) को दूर करके विशुद्ध हो गया, इस कारण उसने अपने में राजन्य ( स्वराज्य) को उपजा लिया अर्थात् वह सर्वज्ञ हो गया ॥ १ ॥ जो इस तरह व्रात्यके स्वरूपका साक्षात् करता है वह समस्त बन्धु सहित जगका, भोगोंका प्रिय धाम हो जाता है ॥३॥ ५२ इस जैन अनुश्रुतिकी सत्यता रामायण और महाभारत आदि सर्वमान्य ग्रंथोंसे भी भली भांति सिद्ध है । रामायण उत्तर कांड सर्ग २७-२९ में कहा है कि श्रीरामने लव और कुशको राज्य भार सोंप शत्रुघ्न, भरत और पुरवासियोंके साथ घरसे निकल सरयू नदीपर पहुंच, वहां समाधिस्थ हो परमधामको प्राप्त किया । पुनः रघुवंश ग्रंथमें महाकवि कालिदासने कहा है कि 'जब अपने-अपने समस्त प्रतिद्वंद्वी राजाओको युद्धमें जीत लिया तथा इदुमतीको स्वयंवरमें प्राप्त कर लिया तब रघुने अपने परिवार तथा राज्यका भार उसके कन्धोंपर डाल शान्तिमार्गका आश्रय लिया; क्योंकि उत्तराधिकारीके योग्य हो जानेपर सूर्यवंशीलोग कभी घरमें पड़े नही रहते। इसी प्रकार महाकवि दिग्नाग अपनी कुंदमाला नाटिका में कहते हैं : nareenager भुवनं विजित्य "पुण्यविवः शर्तविरचम्य मार्गम् । इवमाकवः सुतनिवेशितराज्यभारा निश्रेयसाय वनमेतदुपाश्रयन्ते ॥ - कुन्दमाला ४.५. अर्थात् 'केवल एक धनुषके बलपर भूमंडल अपनाकर, सौ यज्ञोसे मार्ग स्वर्गका सुन्दर सरस बनाकर । रघुवंशी दे भुवनभार पुत्रोंको चौथेपनमें, मोक्ष- सिद्धिके लिये सदासे आ इस वनमें ॥' इसी प्रकार महाभारत, आदिपर्व अध्याय १०१ में बतलाया गया है कि राजा शान्तनु, जिनसे कौरव वंशका इतिहास तथा उसकी गुण-गाथा शुरू होती है; बड़े धर्मशील राजा थे । पूर्ण अहिसक थे, उनके राज्यमें शिकार तक मना था, उन्होंने ३६ वर्षकी आयुमें गृहस्थ- सुखोंको छोड़ सन्यासमार्ग ग्रहण कर लिया था। उनके बड़े भाई देवायं तो उनसे भी पहले सन्यासी हो गये थे । 1 पुनः महाभारत- आश्रम बासिका पर्व १५ वें और १६ वें अध्यायमें बतलाया गया है कि महाभारत युद्धके १५ वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, संजय, विदुर सहित राजमहलको छोड़ वनमें जा तप करने लगे । पुनः महाभारत – १७ वां पर्व ( महाप्रस्थान पर्व ) के पहले अध्यायमे कहा गया है कि महाराज युधिष्ठर परीक्षितको राज्यभार सोंप कर द्रोपदी और अपने भाइयों सहित तपस्यार्थं हिमालयमे चले गये । पुनः महाकवि कालिदास अभिज्ञान शाकुन्तल नाटकमें पुरुवंशी दुष्यन्तसे यों कहलाते है.--- भवनेषु रसाधिकेषु पूर्व क्षितिरक्षार्थमुशन्ति ये निवासम् नियतकयतितानि पश्चाहरूमूलानि गृहा भवन्ति तेषाम् ।। ७-२० अर्थात्- पुरुवंशी क्षत्रियोंका यही कुल-कर्तव्य है कि हम जो पहले पृथ्वी पालनार्थ इंद्रिय सुखोंसे भरपूर राजमहलों में निवास करते है, वे ही पीछेसे यतिव्रत धारण करके वनोंमें जा तरुमूलको ही अपना घर बनाते हैं । वैदिक अनुश्रुतयां पूर्वमें मगध देश और पच्छिममें गान्धार (पेशावर ), आरट्ट (पंजाब) मद्र, खस (दक्षिणी कश्मीर), सुराष्ट्र (काठयावाड़) आनदं (गुजरात) सिन्धु, सौवीर (सिन्धु प्रदेशका उत्तरीय भाग ) ' ये देश श्रमण संस्कृतिके बड़े केन्द्र थे; इस बात से भी सिद्ध है कि पीछेसे सांस्कृतिक विषमता बढ़ जानेके कारण श्रोत्रसूत्र और स्मृति लेखकोने ब्राह्मणोंके लिए इन देशोंमें आना-जाना वर्जनीय ठहराया है। Nand Lal Dey Geographical Dictionary 1927 P. 183.
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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