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अनेकान्त
[ वर्ष ११
और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जो सर्वथा एकान्तके आग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोंका जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्या दृष्टि होता हुआ समूह है उस सबका संक्षेपसे निराकरण किया गया है, यह भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है। ऐसी बात सद्बुद्धिशालियोंको भले प्रकार समझ लेनी चाहिए। इस ग्रंथके निम्न वाक्यमें स्वामी समन्तभद्रने जोरोंके साथ
इसके नागे, ग्रंथके उत्तरार्धमें, वीर-शासन-वणित घोषणा की हैतत्वज्ञानके मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोंको कामं विषन्नप्युपपत्तिचनः स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी ममीला ते समवृष्टिरिष्टम् । समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रंथोंमें प्रायः नहीं पायी जातीं, जिनमें त्वयि एवं खण्डित-मान-श्रृङ्गो 'एवं' तथा 'स्यात्' शब्द के प्रयोग-अप्रयोकग के रहस्य की बातें भवत्यमद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ भी शामिल हैं और जिन सबसे वीरके तत्त्वज्ञानको समझने इस घोषणामें सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। और आत्म-विश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत वीरके इस अनेकान्तात्मक शासन (प्रवचन) को ही नहीं, जरूरत है यह कहने और बतलाने की कि एक समर्थ अंधमें 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है-संसार-समुद्रसे पार आचार्यकी ऐसी प्रबल घोषणाके होते हुए और वीर उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' का पद प्राप्त होते हुए भी आज वे किया है जिसका आश्रय लेकर सभी पार उतर जाते हैं लोग क्या कर रहे हैं जो तीर्थके उपासक कहलाते हैं, पण्डेऔर जो सबोंके उदय-उत्कर्षमें अथवा आत्माके पूर्ण विकास पुजारी बने हुए हैं और जिनके हाथो यह तीर्य पड़ा हुआ है। में सहायक है और यह भी बतलाया है कि वह सर्वा- क्या वे इस तीर्थ के सच्चे उपासक हैं ? इसकी गुण-गरिमा न्तवान् है-सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एवं शक्तिसे भले प्रकार परिचित हैं ? और लोकहितएकत्व-अनेकत्वादि अशेष धोको अपनाये हुए है- मुख्य की दृष्टिसे इसे प्रचारमें लाना चाहते है ? उत्तरमें यही गौणकी व्यवस्थामे सुव्यवस्थित है और सब दुःखोंका अन्त कहना होगा कि 'नहीं'। यदि ऐसा न होता तो आज इसके करनेवाला तथा स्वयं निरन्त है-अविनाशी तथा अखंडनीय प्रचार और प्रसारकी दिशामें कोई खास प्रयत्न होता है। साथ ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन हुआ देखनेमें आता, जो नहीं देखा जा रहा है। खेद है कि वो पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता है- ऐसे महान प्रभावक ग्रंथोंको हिन्दी आदिके विशिष्ट उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे अनुवादादिके साथ प्रचारमें लानेका कोई खास प्रयल शून्य होता है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन भी आजतक नहीं हो सका है, जो वीर-शासनका सिक्का सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ लोक-हृदयोंपर अंकित कर उन्हें सन्मार्गकी ओर लगाने कसती है; ऐसी हालमें सर्वथा एकान्तशासन 'सर्वोदयतीर्थ वाले हैं। पदके योग्य हो ही नहीं सकता। जैसा कि ग्रंथके निम्न प्रस्तुत ग्रंथ कितना प्रभावशाली और महिमामय है, वाक्यसे प्रकट है
इसका विशेष अनुभव तो विज्ञपाठक इसके गहरे अध्ययनसे सर्वान्तवत्सद्गुण-मुल्प-कल्प
ही कर सकेंगे। यहांपर सिर्फ इतना ही बतला देना उचित सर्वान्त-शून्यं च मियोनपेक्षम् ।
जान पड़ता है कि श्रीविद्यानन्द आचार्यने युक्त्यनुशासनका सर्वापदामन्तकर निरन्तं
जयघोष करते हुए उसे 'प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तु-तत्वमसर्वोचवं तीर्थमिदं तवैव ॥६॥
बाषितं' (१) विशेषणके द्वारा प्रमाण-नयके आधारपर वीरके इस शासनमें बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस वस्तुतत्वका अबाधित रूपसे निर्णायक बतलाया है। साथ ही, शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी, टीकाके अन्तिम पथमें यह भी बतलाया है कि 'स्वामी यदि समदृष्टि हुमा उपपत्ति चक्षसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक समन्तभद्रने अखिल तत्वसमूहकी साक्षात् समीक्षा कर समाधानकी दृष्टिसे-वीरशासनका अवलोकन भौर परी- इनकी रचना की है। और श्रीजिनसेनाचार्यने, अपने क्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशंग खंडित हो हरिवंशपुराणमें, हतयुक्त्यनुशासन' पदके साथ