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अनेकान्त
[ वर्ष ११
'सर्वोदयतीयांक' पढ़ा। आप लोगोंने बीमारी आदि पाठकोको वास्तविक 'सर्वोदय तीर्थ' की सच्ची और अच्छी असुविधाओंके होते हुए भी यह सुन्दर अंक निकाला एत:दर्य सामग्री मिलती है। धन्यवाद है। वास्तवमें जैन समाजका एक ही यह पत्र है विद्वान सम्पादकने बडे-बडे पौराणिक और सैद्धांतिक जिससे कुछ जानकी सामग्री प्राप्त होती है। जैन साहित्य ग्रंथों तथा महर्षियोंके वचनोंका हवाला देते हुए ब्राह्मण,
और इतिहासकी इस पत्र द्वारा जो सेवा हुई है वह अमर क्षत्रिय और वैश्यके समान शूद्रको भी सब प्रकारके धर्म रहेगी। श्री मुख्तार साहबका इस वृद्धावस्थामें भी यह सेवनका अधिकारी प्रमाणित किया है। किसीके कुलमें महान् परिश्रम सराहनीय है। पत्रकी छपाई-सफाई आदि कोई भी दोष आ जाय धर्म सेवनसे उसकी तथा म्लेच्छो
तकके कुलकी शुद्धि होनेका प्रमाण दिया गया है। (११) नवभारत टाइम्स, देहली--
इस अंकमें विशेषता यह है कि किसी जाति, धर्म, इस विशेषांकमें लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिको, खोजप्रेमी संप्रदाय या व्यक्ति विशेषकी ओर न झुककर वास्तविक दार्शनिक विद्वानों तथा विविध धर्मोके तुलनात्मक अध्ययन- सर्वोदयतीर्थको ही प्रधान लक्ष्य रखा गया है और इसके में संलग्न विद्वानोके सुन्दर लेखों, चित्ताकर्षक कविताओ निर्माणमे ही सम्पादकका सफल प्रयत्न हुआ है । हिन्दी और भावपूर्ण सुन्दर और अनूठे चित्रोंका संकलन जैन समाज- पत्रजगतके नाते शायद 'अनेकान्त' ने ही इस दिगामे अपना के पुराने और प्रख्यात साहित्यसेवी आचार्य जुगलकिशोर पहिला कदम उठाया है । अतः यह विशेषांक हिन्दी मासिक मुख्तारने किया है। इन लेखों और उनके नीचे दी गई पत्रिकाओके लिए एक आदर्श है। टिप्पणियों तथा विद्वान सम्पादकके सम्पादकीय लेखसे
व समझता हूं। मेरी लाला कपूरचन्दजीसे दर्शनविशुद्धिः वह
एक धार्मिक सद्गृहस्थ है--उनका जीवन सुखमय जाता मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोरजीके पत्रको है, विशेष क्या लिखू। पढ़कर आध्यात्मिक संत श्री पूज्य क्षुल्लक मेग दृढतम विश्वास है जो आपका मनोरथ नियमसे गणेशप्रसादजी वर्णीने सागरसे जो पत्र भेजा
सफल होगा, कालका विलम्ब हो यह अन्य बात है अपने
अस्तित्व काल में ही आप इसे प्रत्यक्ष करेंगे । है वह इस प्रकार है:
बैशाख वदी ५
आ० शु० चि. श्रीयुत महानुभावधर्ममर्मज्ञ प. जुगलकिशोरजी योग्य सं० २००९
गणेशवर्णी इच्छाकार पत्र आया समाचार जाने । आपकी प्रतिभाका सदुपयोग आपने किया, किन्तु खेद है वर्तमान जैन जनता
आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह उसका महत्व नहीं समझी--अन्यथा अब आपको इनस्तत
(पृष्ठ २६६ का शेष) भ्रमण की आवश्यकता नहीं थी । एक स्थान पर रहकर दिया हुआ है। इसीसे यह भूल हुई जान पड़ती है। आपके द्वारा प्राचीन आचार्योंके अन्तस्तत्व द्वारा निर्गत इस तरह प्रायः सारा ही प्रशस्तिसंग्रह अशुद्धियोंसे भरा सिद्धांतका विकाश करती--आपने जो अकथ परिश्रम द्वारा हुआ है। परन्तु यहा उदाहरणस्वरूप प्रायः उन्ही प्रशस्तियोंको प्राचीन महर्षियों के सिद्धान्तका मनन किया है उसे लिपि दिया गया है जिनका संशोधन अत्यन्त वांछनीय है। इन बंद करनेका प्रयत्न करती-कोई विशेष द्रव्यकी आवश्यकता त्रुटियोंको यहां देनेका मेरा यही प्रयोजन है कि भविष्यमें नहीं। ५ लाखसे यह काम हो सकता है, १ मकान और ४ इनकी पुनरावृत्ति न हो। आशा है भाई कस्तुरचन्द्रजी आगेविद्वानका व्यय यही तो रामकहानी है-जो विद्वान नियत को और भी सावधानीसे कार्य करेंगे। साथ ही तीर्थक्षेत्र हों उन्हें २५०) मासिक और ५०) भोजन व्यय दिया कमेटीके मंत्रीसे भी मानुरोध निवेदन है कि वह इनका शुद्धिजावे। यद्यपि यह कुछ कठिन नहीं परन्तु इस ओर लक्ष्य हो पत्र बनवाकर प्रशस्तिसंग्रहमें लगानेका प्रयत्न करें। तब-मैं तो श्री १००८ भगवानसे भी भिक्षा मांगना अनुचित देहली
ता० ३१-३-५२