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किरण ) समन्तभद-वचनामृत
[३११ सचित्त अथवा अप्रासुक अदरकादिक, नवनीत- और 'प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः'-प्रासुक पदार्थ(मयांदासे बाहरका ) मक्खन, नीमके फूल, केतकी- के खानेमें कोई पाप नहीं- इस उक्तिके अनुसार वे के फूल, ये सब और इसी प्रकारकी दूसरी चीजें भी ही कन्द-मूल त्याज्य हैं जो प्रासुक तथा अचित नहीं हैं (जिनेन्द्र देवके उपासकोंके लिये त्याज्य हैं-अर्थात और उन्हींका त्याग यहां 'चाद्राणि' पदके द्वारा विवभावकोंको भोगोपभोगकी ऐसी सब चीजोंका त्यागही क्षित है । नवनीत (मक्खन) में अपनी उत्पत्तिसे कर देना चाहिये, परिमाण करनेकी जरूरत नहीं
अन्तमुहूर्तके बाद ही सम्मूच्र्छन जीवोंका उत्पाद होता जिनके सेवनसे जिह्वाकी तृप्ति आदि लौकिक लाभ तो है अतः इस काल-मयोदाके बाहरका नवनीत ही यहा बहुत कम मिलता है किन्तु त्रस और स्थावर जीवोंका त्याज्य-कोटिमें स्थित है-इससे पूर्वका नहीं; क्योंकि बहुत घात होनेसे पापसंचय अधिक होकर परलोक
जब उसमें जीव हो नहीं तब उसके भक्षण में बहुघातबिगड़ जाता है और दुःखपरम्परा बढ़ जाती है।
को बात तो दूर रही अल्पघातकी बात भी नहीं बनती। व्याख्या- यहां 'मूलक' पद मूलमात्रका द्योतक
नीमके फूल अनन्तकाय और केतकीके फूल बहुहै और उसमें मूली-गाजर-शलजमादिक तथा दूसरी
जन्तुओंके योनिस्थान होते हैं। इसीसे वे त्याज्यकोटिवनस्पतियों की जड़ें भी शामिल हैं। 'शृङ्गवेराणि' पदमें मस्थित है। अद्रकके सिवा हरिद्रा (हल्दी), सराल, शकरकन्द,
यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि जमीकन्दादिक वे दूसरे कन्द भी शामिल है जो अपने
'अल्पफलबहुविघातात' पदके द्वारा त्यागके हेतुका अंगपर श्रमकी तरहका कुछ उभार लिये हुए होते हैं
निर्देश किया गया है, जिसके अल्पफल और बहुविऔर उपलक्षणसे उसमें ऐसे कन्दोंका भी ग्रहण आ
घात ये दो अङ्ग हैं। यदि ये दोनों अङ्ग एक साथ न जाता है जो श्रृङ्गकी तरहका कोई उभार अपने अंगपर
हों तो विवक्षित त्याग चरितार्थ नहीं होगा, जैसे बहु
फल अल्पघात, बहुफल बहुघात और पल्पफल अल्प लिये हुए न हो, किन्तु अनन्तकाय-अनन्त जीवोंके
घातकी हालतों में। इसी तरह प्रागुक अवस्थामें आश्रयभूत-हों। इस पद तथा 'मूलक' पदके मध्यमें
जहां कोई घात हीन बनता हो वहां भी यह त्याग प्रयुक्त हुआ 'आद्रोणि पद यहां अपना खास महत्व
चरितार्थ नहीं होगा।
ही रखता है और अपने अस्तित्वसे दोनों ही पदोंको अनु. प्राणित करता है। इसका अर्थ आमतौर पर गीले, यदनिष्टं तदव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जलात् । हरे, रसभरे, अशुष्क रूपमें लिया जाता है; परन्तु अभिसन्धिकताविरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति ।।८६ स्पष्टार्थकी दृष्टिसे वह यहां सचित्त (living) तथा (श्रावकोंको चाहिये कि बे) भोगोपभोगका जो (प्रामुक अर्थका वाचक है। टीकामें प्रभाचन्द्राचायने इस पदका अर्थ जो 'अपक्वानि दिया है वह भी इसी -
: पदार्थ अनिष्ट हो-शरीरमें बाधा उत्पन्न करने के अथेकी दृष्टिको लिये हुए है। क्योंकि जो कन्द-मल कारण किसी समय अपनी प्रकृतिके अनुकूल न होअग्नि आदिके द्वारा पके या अन्य प्रकारसे जीवशून्य उसे विरति-निवृत्तिका विषय बनाएँ, छोड़दें-और जो नहीं होते वे सचित्त तथा अप्रासुक होते हैं। प्रासुक अनुपसेव्य हो-अनिष्ट न होते हुए भी गर्हित हो, कन्द-मूलादिक द्रव्य वे कहे जाते हैं जो सूखे होते है, देश-राष्ट्र, समाज सम्प्रदाय आदिकी मर्यादाके बाहर हो अग्न्यादिकमें पके या खूब तपे होते हैं, खटाई तथा अथवा सेव्याऽसेव्यकी किसी दूसरी दृष्टिसे सेवन लवणसे मिले होते हैं अथवा यन्त्रादिसे छिन्न-भिन्न करनेके योग्य न हो-उसको भी छोड़ देना चाहिये। किये होते हैं; जैसा कि इस विषयकी निम्न प्राचीन (क्योंकि ) योग्य विषयसे भी संकल्पपूर्वक जो विरक्ति प्रसिद्ध गाथासे प्रकट है:
होती है वह 'अत' होती है-व्रत-चरित्रके फलको "सुक्कं पक्कं वचं भविल-लवणेण मिस्सियं दव्वं । फलती है।' ज जंतेणय लिएणं तं सव्वं फासुयं भणियं " व्याख्या-संकल्पपूर्वक त्याग न करके जो यो