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॥द पाशतप्रमाद-
पातय
भीर दिग्नतम ग्रहणका हुइ अवधियाँके भीतर-परि- 'जो पांचेन्द्रियविषय-पांचों इन्द्रियोंमें से किसीगणना करना है-काल मर्यादाको लिये हुए सेव्या- का भी भोग्य पदार्थ-एक बार भोगने पर त्याज्य हो ऽसेव्यरूपसे उनकी संख्याका निर्धारित करना है-' जाता है-पुनः उसका सेवन नहीं किया जाता-वह उसे भोगोपभोग' नामका गुण व्रत कहते हैं। भोग' है; जैसे अशनादिक-भोजन-पान-विलेपनादिक।
व्याख्या-यहां 'अक्षार्थानां' पदके द्वारा परि- और जो पांचेन्द्रिय विषय एक बार भोगने पर पुनः (बारप्रदीत ईदियविषयोंका अभिप्राय स्पर्शन, रसना, घ्राण, बार) भोगनेके योग्य रहता है-फिर-फिरसे उसका चन, और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियोंके विषयभूत सभी सेवन किया जाता है-उसे 'उपभोग' कहते हैं; जसे पदार्थोसे है, जो असंख्य तथा अनन्त है। वे सब दो
वसनादिक-वस्त्र, आभरण, शोभा-सजावटका सामान, भागोंमें बंटे हुए है-एक 'भोगरूप' और दूसरे 'उप
सिनेमाके पर्दे, गायनके रिकार्ड श्रादिक ।' भोगरूप, जिन दोनोंका स्वरूप अगली कारिकामें बत- .
सहति-परिहरणार्थनौद पिशितं प्रम द-परिहतये लाया गया है। इन दोनों प्रकारके पदार्थों में से जिस जिस प्रकारके जितने जितने पदार्थोंको इस व्रतका व्रती मद्य च वर्जनीयं जिनरचरणौ शरणमुपयातै|४॥ अपने भोगोपभोगके लिये रखता है वे सेव्य रूपमें 'जिन्होंने जिन-चरणोंको शरणरूपमें (अपायपरिगणित होते हैं, शेष सब पदार्थ उसके लिये असेव्य परिरक्षक-रूपमें प्राप्त किया ह-जो जिनेन्द्र देवके हो जाते हैं. और इस तरह इस व्रतका व्रती अपने उपासक बने हैं-उनके द्वारा त्रसजीवोंकी हिंसा अहिसादि मूलगुणोंमें बहुत बड़ी वृद्धि करने में समर्थ
टालनेके लिये 'मधु' और 'मांस' तथा प्रमादकोहो जाता है । उसकी यह परिगणना रागभावोंको
चित्तकी असावधानता-अविवेकताको दूर करनेके घटाने तथा इन्द्रियविषयोंमें आसक्तिको कम करनेके उद्देश्यसे की जाती है। यह उद्देश्य खास तौरसे लिये मद्य-मदिरादिक मादकपदार्थ-वर्जनीय हैंध्यानमें रखने योग्य है। जो लोग इस उद्देश्यको अथात् ये तीनों दूपित पदार्थ भोगोपभोगके परिमाणलक्ष्यमें न रखकर लोकदिखावा, गतानुगतिकता, में ग्राह्य नहीं है, श्रावकोंके लिये सर्वथा त्याज्य हैं। पूजा-प्रतिष्ठा, ख्याति, लाभ आदि किसी दूसरी ही व्याख्या-यहां 'त्रसहतिपरिहरणार्थे' पदके द्वारा रष्टि सेव्यरूपमें पदार्थों की परिगणना करते है वे मांस तथा मधुके त्यागकी और 'प्रमादपरिहतये पदके इस व्रतकी कोटि में नहीं आते।
द्वारा मद्यके त्यागकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है। यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि अर्थात् प्रसहिंसाके त्यागकी दृष्टिसे मांस तथा मधुका इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों की यह परिगणना उन त्याग विवक्षित है और प्रमादके परिहारकी दृष्टिसे पदार्थों से सम्बन्ध नहीं रखनी जो परिप्रहपरिमारणव्रत मद्यका परिहार अपेक्षित है, ऐसा घोषित किया गया और दिग्वतकी ही सीमाओंके बाहर स्थित है- है। और इसलिए जहां विवक्षित दृष्टि चरितार्थ नहीं वे पदार्थ तो उन व्रतोंके द्वारा पहले ही एक होती वहां विवक्षित त्यागभी नहीं बनता। इन पदार्थोंप्रकारसे त्याज्य तथा असेव्य हो जाते हैं । अतः उक्त के स्वरूप एवं त्यागादि विषयका कुछ विशेष कयने व्रतोंकी सीमाओंके भीतर स्थित पदार्थों में से कुछ एवं विवेचन अष्टमूलगुण-विषयककारिका (६६) की पदार्थों को अपने भोगोपभोगके लिये चुन लेना ही व्याख्या गया है अतः उसको फिरसे यहां देनेकी यविवक्षित है-भले ही वे दिग्वतमें ग्रहण की हुई जरूरत नहीं है। क्षेत्र-मर्यादाके बाहर उत्पन्न हुए हों। इसी बातको बत- ,
त: अन्पफल-बहुविधातान्मूलकमाणि शृजवेराणि। लानेके लिये कारिकामें 'अवधौ' पदका प्रयोग किया गया है।
'नवनीत-निम्ब-कुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥८॥ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनथ भोक्तव्यः। 'अल्पफल और बहु विघातके कारण (अप्रासुक) उपमोगोष्शनवसनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियोविषयः॥८३ मूलक-मूली आदिक-नया आई शृङ्गवेर प्रादि