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अनेकान्त
[वर्ष ११
अभी आ ही गया हूं तो दर्शनतो कर जाऊं, फिर मौका मिला जिनालयके पाटणी पर्वत आदिके बननेका सूचक है। कुछ तो विशेष लाभ उठाऊंगा। मुनिश्रीको लेकर मैं अभी शीघ समय पूर्व इसे कुछ कामका न समझ यों ही इधरउधर डाल आ रहा हूं।
दिया गया था पर भट्टारकजीका इस ओर ध्यान जानेपर ___घंटाभरबाद मैं मुनियोंको लेकर पहुंचा तो भट्टारकजी- उन्होंने योग्य स्थान-मन्दिरमें प्रवेश करते-सामनेकी ने भंडारकोतुरंत खोलकर दिखानेकी आज्ञा दे दी। हम आपके दीवारमें लगवा दिया है, जिससे आगन्तुक हर व्यक्तिका इस उदार व सौजन्य व्यवहारसे बड़े प्रभावित हुए। भंडारके इस ओर ध्यान आकर्षित हो। शिलालेखके कुछ अक्षर थोड़े पुराने ढंगके तालेपर वस्त्र सिलाई कर ऊपर चूनेसे बन्द किया घिस गए है इससे प्रथम दिन पूरा स्पष्ट नहीं हो पाया जिसे हुआ था। चूनेको फोड़फाड़कर हटाया गया व वस्त्रकोभी फाड़ मुनिश्रीने दूसरे दिन पूरा पढा । लेखश्लोकबद्ध है । प्रवेश कर ताला खोला गया। भंडारमें प्रवेश करके देखा तो उसमें करते सामनेके मंदिरकी मूर्तियोंके कुछ लेख भी देखे तो पाषाण दो बड़ी बड़ी व५उससे छोटी टीन की सन्दूकें प्रतियोंके गट्ठड़ों मूर्तियोंमें अधिकांश सं १५४८ में जीवराज पापड़ीवाल द्वारा से भरी हुई मिली। हमने सामने वाली बड़ी सन्दूकके गट्ठड प्रतिष्ठापित मिलीं। पापड़ीवालजीकी जिनभक्ति देखकर उनके लाकर देखने प्रारम्भ किये। गठ्ठडोके ऊपर लेबल स्वरूप एक प्रति बड़ा ही आदरभाव उत्पन्न होता है। उन्होंने सैकड़ों ही सफेद कपड़ेका टुकड़ा सिलाई किया था जिसपर पहले भंडार नहीं, सहस्रों जिनबिम्बोंकी एक साथ प्रतिष्ठा करवाके उन्हें खुला तबका विवरण लिखा हुआ था व गटठड़ व बस्तोंके श्वेतांबर एवं दिगम्बर मन्दिरोंमें बिना भेदभाव पूर्जनार्थ नम्बर आदि लगे हुए थे। इससे स्पष्ट है कि पहले भी बाकायदा भेजी, प्रतीत होता है । बीकानेर जयसलमेर आदिके श्वेतासूचीपत्र बनाया गया था पर वह मिला नहीं । दूसरे दिन एक म्बर मन्दिरोमें इनकी इसीसमय प्रतिष्ठापित पचासो मूर्तियां गुटकोंके गट्ठड़से उस समयसे भी पुरानी सूची प्राप्त हुई जो हमारे अवलोकनमें आई है। पीतल प्रतिमाओके लेख देख नहीं पंडितजीको देके आया हूँ। वर्तमान सूची बनजाने पर प्राचीन पाये। दो पाषाण पादुकायें भट्टारक-परम्परासे सम्बन्धित सूचीसे मिलाकर देखा जाना चाहिए जिससे कौन २ से ग्रन्थ होनेके कारण उल्लेखनीय है । पहली मंडलाचार्य ज्ञानउसमें लिखित अब नही मिल रहे है व कौनसे पीछेसे सम्मिलित भूषणकी पादुका है जो मण्डलाचार्य आनन्दकीत्तिने संवत् हुए है इसका ठीक पता चल सके ।
१७८७ श्रावण सुदी ३ में प्रतिष्ठित की थी। दूसरी भट्टारकगठ्ठड़ बड़े-बड़े है व मजबूतीमे वस्त्रोसे वेष्ठित व बंधे हुए सकलभूषणजीकी है जो सम्वत् १८६३ के आश्विन शुक्ला है, ऊपरका वस्त्र हटानेपर भीतर पुराने बनाये हुए मजबूत ६ शुक्रवारको प्रतिष्ठित है। भट्टारकजीसे जो थोड़ीसी बातझोलोंको देखकर हमें बड़ा विस्मय हुआ। इससे ग्रंथोंको सुर- चीत हुई उससे पता चला कि उनके पास कई राजाओं व क्षित रखनेके लिए कितनी सतर्कतासे काम लिया गया है,शात बादशाहोंके पट्टे परवाने भी है, कोई गांव या जमीन भी है और होता है हमने ऐसे मजबूत व बड़े झोले यही सर्वप्रथम देखे। किशनगढ़ आदिमे दूकानोके भाड़े की आमदनी है। आपके प्रतियोका देखना हमने प्रारंभ किया इसी बीच अधिकारमें अन्य भी कई स्थानोंमें हस्तलिखित ग्रन्थभंडारहै। भट्टारकजी महाराज भी वहां पधारे और कहा आपके कथनानुसार वर्तमानमें भट्टारकोंकी २१ गादिये है,उन देखिए, लोगोंने झूठा ही भ्रम फैला रक्खा है कि सबके भंडारोंका भी प्रकाशमे आना आवश्यक है। इससे सैकड़ो भंडारके ग्रंथ उदेई आदि कीड़े खा रहे है। कुछ वर्ष जैन साहित्यके अज्ञात ग्रन्थोंका पता चलेगा। कुछ विद्वानोंको पूर्व आने पर मैने भी ऐसा ही सुना था पर अभी भंडार जिनवाणी उद्धारके इस पवित्र कार्यमें शीघ्र ही लग जाना खोलनेपर वह बात सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुई । भंडार बहुत ही चाहिए एवं श्रीमानोंको भी जी खोलकर प्राचीन साहित्यकी सुरक्षित है । तत्कालीन साधनोंसे सुरक्षित रखने में बड़ी सत- सुव्यवस्था व महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकें प्रकाशनमें खर्च करनेको तैयार कतासे काम लिया गया है और व्यवस्थापक सराहनाके पात्र रहना चाहिए । लोग चाहते तो हैं पर करनेको कम ही तैयार
होंगे। नागौरका ही मेरा अनुभव है कि भट्टारकजी कार्यवश कुछ समय बाद भट्टारकजीने मन्दिरजीमें जो शिलालेख बाहर पधारनेवाले थे अतः पीछेसे सुव्यवस्था करनेके लिए लगा हुआ है उसको पढ़ने के लिए मुनिश्रीसे कहा तो वे दोनों श्रावकोंको बुलवा भेजा। समय पर उपस्थित होनातो हम लोग विद्वान मुनि उसके पढ़ने में लग गये। यह शिलालेख चन्द्रप्रभ सीखे ही नही है पर अन्ततक भी ५-६ व्यक्ति ही उपस्थित हुए