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मानिस
५वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और १६वी शताब्दीका पूर्वा- पञ्चमी व्रतकथा और पञ्चपरमेही गुणानुवर्णन आदि 4जान पड़ता है। सं० 111में इन्हींके अनुरोधसे बहालीमें रचनाओंका संग्रह एक गुटके में पाया जाता है। ये सब मूलाचार प्रदीपके रचे जानेका अल्लेख ऊपर किया जा चुका रचनाएं प्रायः गुजराती भाषामें की गई है परन्तु इनमें है। और सं० १९२०में इन्होंने गुजराती भाषामें 'हरिवंस हिन्दी और राजस्थानी भाषाके शब्दोंका बाहुल्य पाया रासकी रचनाकी है..आपकी रचनाचोंमें जम्म स्वामी जाता है। इनके सिवाय निम्न प्रन्थ पूजा-पाठ-विषयक भी परिसरात
में हैं और जिनकी संख्या इस समय तक सात ही ज्ञात हो तीन अन्य तो संस्कृत भाषामें रचे गए है। जम्बूस्वामी- मकी हैं उनके नाम इस प्रकार हैचरित की रचनामें इनके शिष्य ब्रह्मचारी धर्मदासके मित्र १. जम्बूद्वीप पूजा २. अनन्तव्रत पूजा ३. साद्विजवंशरस्न कवि महादेवने सहायता दी थी। धर्मपंच द्वय द्वीप पूजा ४. चतुर्विशत्युद्यापन पूजा १. मेघमालो'विंशतिका' अथवा 'धर्मविलास' नामकी छोटीसी प्राकृत बापन पूजा ६. चतुर्विंशदुत्तर द्वादशशतोद्यापन ७. बृहरचना भी इन्हीं ब्रह्मजिनदासकी कृति है। इनके अतिरिक्त सिडचक्र पूजा। ब्रह्मजिन-दास रचित शेष प्रन्याँके नाम इस प्रकार है:- इस तरह ब्रह्मजिनदामकी संस्कृत प्राकृत और गुज
१. यशोधररास, २. प्रादिनाथरास, ३. श्रेणिकरास, राती भाषाकी सब मिलाकर लगभग ३० कृतियोंका अब४. समकितरास, १. करकंदुरास, ६. कर्मविपाकरास, तक पता चलसका है । इन सय ग्रंथांका परिचय प्रस्तावना ७. श्रीपालरास, ८. प्रद्युम्नरास, १. धनपालरास, १०. की कलेवर वृद्धिके भयसे छोड़ा जाता है । इनकी अन्य हनुमच्चरित,". और व्रतकथा कोश x-जिसमें दश- कितनी ही रचनाएँ यत्र तत्र ग्रन्थ भण्डारोंमें गुटकोंमें उल्लबक्षण व्रतकथा, सोलहकारणवतकथा वाहणषष्ठी व्रत- खित मिलती हैं पर वे सब इन्हींकी कृति हैं या अन्य कथा, मोपसप्तमीक था, निर्दोषसप्तमी कया, आकाश किसी जिनदास की । इस बातका निर्णय बिना पायो
पान्त अवलोकन किये नहीं हो सकता, ममय मिलनेपर इनमसे नं. १ बार "क अन्य भामरक महा- उनके सम्बन्धमें विचार किया जायगा। रकीय भण्डारमें पाये जाते है। शेष रासोंमें अधिकांश रासे और कुछ पूजाए, जो गुटकोंमें सनिहित है। देहलीके वीर सेवामन्दिरसे प्रकाशित होनेवाले अन्य प्रशस्ति पंचायती मन्दिरके शाख-भण्डारमें उपलब्ध होते हैं। मंग्रह प्रथम भागकी प्रस्तावनाका एक अंश ।
सानाचमारा
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साहित्य परिचय और समालोचन
१पंचाध्यायी-पं. राजमल्ल, टीकाकार स्वर्गीय रचना किसी तरह पूरी हो पाती तो इस ग्रंथका परिमाण पं. देवकीनन्दजी सिद्धान्त शात्री, सम्पादक पं० फूलचंद अत्यन्त विशाल होता। परन्तु वह जितना भी बन सका जी सिद्धान्त शास्त्री, बनारस, प्रकाशक गजशवर्णी दि० है। जहां उसमें कविकी प्रांतरिक निर्मलता और सर्वोपका' जैन ग्रंथमाला, २/३८ बनारस, पृष्ठ संख्या ३६६, मूल्य रिणी बुद्धिका व्यापार अन्तनिहित है वहां कविके विशिष्ट सजिल्द प्रतिका) रुपया।
अभ्यास. मनन, चिन्तन एवं दीर्घ कालीन अनुभवका पक्व प्रस्तुत ग्रंथको कविने पांच अध्यायोंमें बनानेका परिणाम है जिसे कविने पचाकर भारमसात् किया, ग्रंथकी मंकल्प किया था, जिसे 'पाध्यायावयवं' वाक्यके द्वारा कथनशैली अत्यन्त ही परिमार्जित, तर्कपूर्ण और वस्तुउसका उल्लेख भी किया है। परन्तु कविवर अपने उस स्थितिका दिग्दर्शन कराने वाली है ग्रंथमें कविके तलस्पग्रंथको पूरा नहीं कर सके, यह दुःखकी बात है । वह- ी पाण्डित्यका पद-पद पर अनुभव होता है, प्रयकारने ग्रंथ इस समय १५०६ रखोकोंकी संख्याको लिए हुए जिस प्रकणको कहनेकी चेष्टाकी है वह उसमें पूर्ण सफल है,जो दो मण्यायोंमें विभाजित है। यदि इस प्रथकी हुमा है उसकी इस सफलताका कारण कविकीवह पान्तरिक