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अनेकान्त
Lकिरण
प्रबचन-नगरीको जाता है।पीसे नगर बोगोंको साथमें मोह जब पाकोकम पहुँचता है उस समय प्रवृत्ति
पर विचार भी गमन कर देता है। शव दस प्रतिशोकमें पर बाती है, मन-मन्त्री बहुत ही विलाप यह सुनकर जिनेश्वर मोहरायके रखका नाश करने के लिए करता है। विवेक उसको समझाकर शान्त करता है। विबंद नहीं करनेकी विवेकको सूचना करते हैं या संघमश्री मन विवेककी राज्य स्थापना करता है, फिर भी चिर-परिकी श्रेष्ठता और पुष्पासाताको समझाकर बीररित्र प्रकट के कारण उसे मोह वारवार पाद पाता है। विवेक कानेके लिये उसकी प्राप्तिका वर्णन करते हैं। विवेक नको फिर शिक्षा करता हैकुमारकी प्रेरणासे रामासमा भरकर मारीको
'मोहक शोकको बोरकर परमेश्वरका अनुसायरी, स्थित करते है। विवेक कुमार भरसभामें अमुखिहरमन,
समस्त समताका मादर करो, ममता दूर करो, चार अग्निज्वाखाका पान मादि करता है और राधावेधको साधना
कषायोंका हनन करो, पाँचों इन्द्रियोंको जीत करके समहै।यह देखकर संयमी कन्या विवेक कुमारके गले में रसके प्रवाहमें रमण करो, भर चौकारमें स्थिर होकर
परमानन्मको प्राप्त करो।' परमाबाबाली है। विवेककुमार साय संयमश्रीका
इस शिका अनुसार मन अनुसरण करता है, किन्तु को उत्सबके साथ विवाह होता है। विवाहके बाद मोह-
मोह फिर भी पादत्रा जाता है, इससे विवेकको कहकर
. रायको जीतनकए मना तथा पास्त्र धारण का हर मनपाठ काँक साथ ध्यानाम्निमें प्रज्वचित हो जाता। मंथमश्रीको साथ लेकर विवेक हासे प्रयाण करता है।
इस अवसर पर चेतना रानी परमहंस राजाके पास दसरे लोगोंको पाश्वासन देकर विवेकशजब पहुंचता
पाकर कहती कि-'स्वामी! मायाने मो-कुछ किया है।इनद्वारा हकीकत सुन मोहराब अपशकुन होते हुए
त हुए उसका मापने अनुभव किया। लेकिन जो हुमा को हुमा, और मन्त्री प्रादिके निषेध करने परभी असंख्य सेना साथ
उसको माया पार करना मापने जिस कापापुरीकी कर सामने आता है। विवेक अपनी सेनाको प्रोत्साहन
रचना की है, बहवो पशुचि और कीचड़से भरी हुई है। देकर अपने परिवारके पराक्रम और अस्त्रशास्त्रोंकी देश
१०८ चोरोंकी वस्तीवासी नगरी में पापका निवास उचित भान करता है। फिर युद्ध के लिये समस्त सेना तैयार
नहीं। स्वामी ! आप स्वयं विचार करें और उठकर उसमें होबाती है। यह जानकर मोहराब भी अपनी सेनाको
भामशाहका प्रकाश करिये । मानो बाप सचेत हो पसकारतासीर प्रतिवीर सम्मुख उपस्थित होते हैं।
जायंगे शीघ्र ही इस राज्यको प्राप्त करेंगे। अब मायाविशेषज्ञ सम्बिके लिए फिरते है परन्तु सम्धि होती नहीं।
का खगाव मिट गया है। मन-मन्त्री अग्निमें प्रज्वलित हो उपकशी क्षेत्रमें मोह और विवेकका यह पुख प्रारम्भ
का यह पुत्र प्रारम्भ गया है और मोह अपने कुटुम्ब साय रखनमें विनाशको होता है। वीरगव परस्पर पराक्रम दिखाते हैं फिरभी
प्रास होगया है । म स्वामी ! शीघ्र प्रकाशित बोहणे, विवेकके वीरसुभट मोरकी सेवामें भगवा मचा देते हैं ।
विलम्ब नहीं करिये।" रागीके सकेसको पाकर परमहं जिससे मोह स्वय' रखामें पाकर भंसाडोह (मक्खयुद्ध)
सचेत होते है, जिससे परमज्योति प्रकाशित होती है, इससे, नामक युद्ध करता है। मोहरायके द्वारा अपनी सेनामें
पाप-पाश अपने आप टूढ माती। परमहंस चेतना सकी। भगदड़ देश विवेकराब उसके सम्मुख पाता है। मोहराब
के कथानुसार कायाको त्यागकर मुकदो आता। भपये पराममा बर्थन करके उसको धुर क्षेत्रसे भागनाने
"मनकी संतति बनीनहीं होती" ऐसा समझकर विवेककोकण विवेक रसके मिथ्यामिमामको विकारते
को भी अपनेसे बनाकर स्वयं त्रिभुवनका स्वामी बन हुए युद्ध करने के लिये सामन्त्रित करता है। बुदमें
दुबर्म मामाकागुन बीतने के बाद माम मुकृषित होता है, विवेकामाबुध द्वारा मोहका हम करता है। इस समय
प्रीमतु बीतने पर नदियों में पर जाता है, कृप्या. भाकाशमेंदुभि बजते हैं। पंचवर्षीर फहराते है।
बीतने पर बद्रकी डिहोती है, सागरमें अपषटके बाद देवता बोग अब-जब उच्चारकरके पुष्पवृष्टि करते है।
बार माता, गेंद गिरकर फिर अपर उठती। कपूर मितिकासाकर श्वभूमिमें सखेखालावास
तो फिर पर बनकर उसी पात्रमें गिरता, अवसर पर सुभामा विवेकराषकी महिमा कुम्हाचा. इसी प्रकार पुण्यप्रसादसेरामा बगव जाखको बोरकर
पुषारापप्राह किया।