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________________ १९८ अनेकान्त । वर्ष ११ एकमात्र विषय सारे संसारको जैनी बनाना है । इसी रचनाएं-- कारण मैने आपको कष्ट दिया है कि संसारके ये अज्ञ प्राणी कविवर द्यानतरायजीकी सभी रचनाएं सरल और जैनधर्मके पावन तत्वोंसे अपरिचित है इसीसे वे अपना मुगम है। ऊपर दो रचनाओका (स. १७५२ और १७५८ का) अहित साधन कर रहे है, अतः आप उन्हे जैनधर्मकी महत्ता- रचनाकाल दिया जा चुका है । अधिकांश रचनाओंमें रचना का प्रभाव बतलाकर जैनी बनानेका प्रयत्न करे जिससे उनका समय अंकित नही है, इससे यह बतलाना प्रायः कठिन है कि संसारके दुःखोंसे छुटकारा हो सके। देवीने सुनकर कहा वे सब रचनाएं किस-किस समयमें रचकर समाप्त की गई कि 'इस कार्यको तो तीर्थकर भी नही कर सके, फिर है। पर यह सुनिश्चित है कि कविकी सभी कृतिया संवत् इतना गुरुतर कार्य मेरे जमे असमर्थ व्यक्तिसे कमे सम्पन्न १७५२ से १७८३ तकके मध्यवर्ती समयमें रची गई है। हो सकता है। मै तो उनके पुण्यकी दासी हूं। सारे संसारको इन सब रचनाओंमें पदोंको छोडकर ऐसी रचनाए बहुत जैनी बनानेका कार्य तो मेरी शक्तिसे बाहर है। इस कार्य- थोड़ी है जिनमें दूसरे ग्रन्थोसे सहारा नहीं लिया गया अथवा को छोड़कर आप अन्य किसी कार्यको करनेको कहे तो जो उनके अनुवादादि रूपमें प्रस्तुत नही की गई है। मै तुम्हारा मनोरथ पूर्ण कर सकती हूं । देवीके इन वचनों- सवत् १७५८ मे कार्तिक वदी त्रयोदशीके दिन छहढाला को सुनकर कविवरको अपनी भावनाको पूरा न होते देख नामका ग्रथ बनाकर समाप्त किया गया है। सबसे पहले किंचित्र खेद अवश्य हुआ; पर अलध्यशक्ति भवितव्यता- छहढाला नामक कृतिको जन्म देने का श्रेय उक्त कविको का ध्यान आते ही दूसरे क्षण वे सम्हल कर बोले-हे देवी! ही प्राप्त है। कविने सं० १७८० मे 'धर्मविलास' बनाकर मेरा अपराध क्षमा करो। देवीने कहा 'आप मुझे कोई काम समाप्त किया है जिसमें मगलचरण सहित ४५ रचनाए अवश्य बतलाइये। तब कविने कहा कि मैं 'चर्चाशतक' सकलित है। यह अथ छप चुका है। नामक ग्रंथ बना रहा हूं तुम मुझे इसकी रचनामे सहायता इस प्रथगत ४५ रचनाओके अतिरिक्त आपने ३२३ करना । देवी 'तथास्तु' कहकर अपने स्थान चली गई। हो आध्यात्मिक, औपदेशिक और भक्तिपूर्ण पदोंकी रचना सकता है कि इस घटनामें कुछ अतिशयोक्ति हो, पर इसमे की है जिनका एक 'पदसग्रह' अलगसे छप चुका है । आपकी तथ्य जरूर जान पड़ता है और उससे जैनधर्मके सम्बन्ध- रची हुई पूजाओकी सख्या संभवतः १२-१३ है जिनमे दश में कविको अन्तर्भावनाका यथेष्ट आभास मिल जाता है । लक्षण पूजा प्रायः बड़ी ही भावपूर्ण और अर्थ गौरवको लिये कविवरका जीवन बहुत ही सादगीसे व्यतीत होता हुए है । ये पूजाए पूजा सग्रहमे छप चुकी है। था। वे कभी आगरामें रहते और कभी दिल्ली जाते, परन्तु द्रव्य सग्रहका पद्यानुवाद भी आपने किया है और वह दोनों ही स्थानो पर वहांकी अध्यात्म-शैलीके सत्समागम- भी छप चुका है। में अपना समय जरूर व्यतीत करते थे । कविवरने लिखा है 'चर्चाशतक' कविवरकी एक सुन्दर कृति है, जिसमें कि सवत् १७७५ मे मेरी माताने शील बुद्धि ठीक की, और करणानुयोगकी महत्वपूर्ण चर्चाओको पद्योमे अनूदित सवत् १७७७ में वे सम्मेदशिखरकी यात्रार्थ गईं और वही किया गया है । यह अथ भी छप चुका है। पर परलोकवासिनी होगई। इन रचनाओके अतिरिक्त 'आगमशतक' अथवा ___ कविवर बड़े ही द्यानतदार अथवा ईमानदार थे। उनका 'आगमविलास' नामका एक ग्रंथ और भी है जिससे बहुत जीवन सीधा-सादा और वेष-भूषा भी साधारण था। उनका कम पाठक परिचित होगे । इस ग्रथमे जिन रचनाओका नैतिक और आध्यात्मिक जीवन उच्च भावनाओका प्रतीक संकलन किया गया है वे सब कविवरके अन्तिम जीवनकी था। वे जैनधर्मके रहस्य के ज्ञाता तो थे ही, साथ ही, उसका रचनाए है। इनका आगमविलासके रूपमें संकलन होनेसे सार वे संक्षिप्तमें बहुत ही सरल ढंगसे श्रोताओंके समक्ष पूर्व ही कविवरका संवत् १७८३ में कार्तिक शुक्ला चतुर्दशीके रखने में कुशल थे। वे कठिनसे कठिन विषयको सरल दिन देहोत्सर्ग हो गया था । कहा जाता है कि कविवर भाषामें समझा सकते थे । आपकी सारी कविताएं भी इसी आत्म-ध्यानमें लीन थे, रात्रिको उनकी बैठकमे जो चूहे बिल भावको लिए हुए है। यही कारण है कि वे उतनी गम्भीर बनाकर रहते थे, वे किवाड़ बंद होनेसे बाहर निकल नही और कठिन नही है किन्तु अत्यन्त सरल और भाव-पूर्ण है। सके । अतः कविवरके शरीर पर उछलते रहे, और उन्होंने
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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