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किरण २ ]
मोहनजोदड़ो कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
जिस गृहस्थीके घरपर विद्वान् व्रात्य अतिथिकी तरह आवे उस गृहस्थीका कर्तव्य है कि वह अपने-आप उठकर उसके सामने आये और कहे- 'हे व्रात्य ! आप कहां रहते है ? हे व्रात्य आपके लिये जल है, हे व्रात्य आप प्रसन्न हूजिये, हे व्रात्य जैसा आपको प्रिय हो वैसा ही हो, हे व्रात्य ! जिस प्रकार आपकी अभिलाषा हो वैसा ही हो, हे व्रात्य जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही हो, जो गृहस्थी व्रात्य अतिथिकी इस प्रकार विनय करता है यह देवयान मार्गको अपने वशमे कर लेता है व जसको अपने वश में कर लेता है, वह अपने प्राणोंको दीर्घ कर लेता है, वह समस्त पदार्थोंको अपने वश कर लेता है, वह स्वयं वशी हो जाता है, वह समस्त काम्य पदार्थोंको प्राप्त कर लेता है" - अथर्ववेद काण्ड १५, सूक्त १ ( ११ )
यहां यह बता देना आवश्यक है कि उपर्युक्त सुक्तमें अतिथि व्रात्योंको पटगाहनका जो भक्तिपूर्ण विधान है -विधि बतलायी गयी है उस समान ही अतिथि रूपमे आने वाले साबुओको पढगानेकी विधि आज भी जैन लोगोंमें बराबर प्रचलित है।
जिस गृहस्थी के घर पर विद्वान अतिथि अग्नियोके उद्धृत होनेपर ( अर्थात् गार्हस्थपत्य अग्निसे उठाकर आह्वनीय अग्निआधान किये जाने पर) और अग्निहोत्रके प्रारम्भ हो जाने पर आवे तब गृहपति स्वयं उसके लिये आदरपूर्वक उठकर और उसके समीप जाकर कहे कि हे व्रात्य । यदि आज्ञा हो तो अग्नि होत्र करूं वह यदि आज्ञा दे तो गृहपति अग्निहोत्र करे, यदि वह आज्ञा न दे तो अग्निहोत्र न करे। जो इस प्रकार व्रात्यसे आज्ञा लेकर हवन करता है, वह पितृयान और देवयान मार्गों को जान लेता है, जो इस प्रकार आज्ञा लेकर होम करता है वह देवताओके प्रति कोई अपराध नही करता। उसकी प्रतिष्ठा इस लोकमे बनी रहती है । जो इस प्रकारके व्रात्यसे बिना आज्ञा लिये होम करता है न उसको पितृयान मार्ग और न देवयान मार्गका बोध होता है । वह देवताओके प्रति अपराध करता है और उसकी लोकमे प्रतिष्ठा भी नही रहती ।
-- अथर्ववेद काण्ड १५ सूक्त १ ( १२ ) नोट- इस सूक्तसे विदित होता है कि इन सूक्तोंके रचनाकालमे इन व्रात्यो ( श्रमणों) का प्रभाव भारतके आर्य-अनार्य खण्डोंमें कितना बढा चढा था कि कोई भी उनका आदर सन्मान किये बिना लोकप्रिय न हो सकता था, जिनके घरपर विद्वान व्रात्य एक रात्रिके लिये अतिथि होकर रहता है उससे वह गृहपति पृथ्वी परके पुण्यलोकोको प्राप्त कर लेता है। जिसके घरपर दो रात्रि रह जाता है उसे अन्तरिक्षके पुण्यलोक प्राप्त हो जाते है जिसके घरपर तीन रात्रि रह जाता है उसे दिव्यलोकके पुण्यलोक प्राप्त होते हैं । जिसके घर पर चार रात्रि रह जाता है उसे दिव्यलोकके पुण्य लोकोमे भी उत्तम पुण्य लोक प्राप्त होते हैं । जिसके घरपर अपरिमित रात्रियोंके लिये रह जाता है वह अपरिमित पुण्यलोकोको पा लेता है। जिसके घर पर व्रात्य न होते हुए भी कोई अपने को व्रात्य कह कर अतिथिके तौर पर ठहरे तो उसका भी अनादर नही करना चाहिये उसको भी पानी स्वीकार करने की प्रार्थना करनी चाहिये उसको भी अपने घरमे वास देना चाहिये, उसे मां भोजन अथर्ववेद १५वा काण्ड सूक्त १ (१३)
परोसना चाहिये।
वायुपुराणसे भी उक्त मतकी पुष्टि होती हैं। वायुपुराणमे पाशुपत योग विषयक दश अध्यायोमें योगियोंके प्रति गृहस्थोके कर्तव्य बतलाते हुए कहा गया है कि- 'अनेक वेषधारी योगी लोग देशमे सर्वत्र विचरते रहते है, जब कभी वे किसी गृहस्थ यहा आ, गृहस्थका यह धर्म हैं कि वह उनका हृदयसे स्वागत करे और अपनी कल्याण वृद्धिके लिये उनकी यथायोग्य सेवा पूजा करे ।' दूसरी बात यह कही गयी है, जो पहली बातसे भी महत्वपूर्ण है, कि श्राद्ध पक्षमे भी गृहस्थ जहां तक हो सके इन्ही योगियोको हूडकर लावे और भोजन करावे; ऐसा करनेसे पितृगण बहुत सन्तुष्ट होते है। श्राद्धके दिन एक योगीको भोजन कराना हजार ब्राह्मणो अथवा ब्रह्मचारियोंके भोजन कराने के समान है।
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पीछे यद्यपि ब्राह्मण स्मृतिकारोने पितृक श्राद्धके समय यतियो तथा ब्रह्मचारियोको आहार करानेका निषेध कर दिया और कौटिल्य अर्थशास्त्र के' लेखकले तो उन वैश्यो पर जो देव विषयक अथवा पितृक विषयक कार्योंमें वैरानियों, शाक्यों तथा आजीविकोंको बुलाकर भोजन कराये, १०० पण दड लगाये जानेका भी विधान कर दिया, परन्तु इस प्रकारके निषेध और विमान का कारण वह साम्प्रदायिक वैमनस्य है जो ईस्वी पूर्वकी दूसरी सदीसे मगध में शुग वश नाम के ब्राह्मण राज्यकी स्थापना होनेके बाद ब्राह्मणोंमें पुनः जाग उठा था। प्राचीन भारतमं तो पितृक श्राद्धके समय इन यतियोको आहार देना ही महा कल्याणकारी
१. कौटिल्य अर्थशास्त्र - अधिकरण ३, प्रकरण ७५ वा