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________________ अनेकान्त [वर्ष ११ वीरवाणी अखिल-जग-तारन को जल-यान प्रकटी, वीर, तुम्हारी वाणी, जग में सुषा-समान ॥ अनेकान्तमय, स्यात्पद-भांछित, नीति-न्याय की खान । सब कुवाद का मूल नाश कर, फैलाती सत् शान ॥ अखिल. नित्य-अनित्य-अनेक-एक-इत्यादिक वादि महान । नतमस्तक हो जाते सम्मुस, छोड़ सकल अभिमान ॥ मलिल. जीव-अजीव-तत्व निर्णय कर, करती संशय-हान । साम्यभावरस चखते है, जो करते इसका पान ॥ अखिल. ऊंच, नीच औ, लघु-सुदीर्घ का, भेद न कर भगवान् । सबके हितकी चिन्ता करती, सब पर दृष्टि समान ॥ अखिल. अन्धी श्रद्धा का विरोध कर, हरती सब अज्ञान । युक्ति-बाद का पाठ पढ़ाकर, कर देती सज्ञान ॥ अखिल. ईशन जगकर्ता, फल-दाता, स्वयं सृष्टि-निर्माण । . निज-उत्थान-पतन निज कर में, करती यों सुविधान ।। अखिल. (८) हृदय बनाती उच्च, सिखा कर, धर्म सुदया-प्रधान । जो नित समझ आदरें इसको, वे 'युग-वीर महान ॥ अखिल. -युगवीर
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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