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वर्ष ११
अनेकान्त
मिले हैं, वे डा. जायसवालके मत अनुसार आरम्भिक मौर्य्यकालके लगभग ३०० ई० पू० के है, कलाकी दृष्टिसे ये बहुत ही सुन्दर और वास्तविक है; ये उपलब्ध जैन मूर्तियोंमें अथवा भारतकी समस्त ज्ञात पाषाण मूर्तियोंमें, जो ऐतिहासिक युगमें पूजार्थ निर्मित सिद्ध हुई हैं, सबसे प्राचीन हैं। उनका यह भी मत है कि ये हड़प्पासे प्राप्त कायोत्सर्ग मूर्ति-खण्डके बहुत कुछ सदृश हैं' ।
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शिलालेखोंके प्रमाण -
पुरातात्त्विक प्रमाणके अतिरिक्त पुराने शिलालेख और दानपत्रकी साक्षी भी उक्त विषय-निर्धारणमें कुछ कम महत्त्वकी वस्तु नहीं है । कलिंगाधिपति सम्प्राद खारवेलके १६० ई० पू० वाले हाथी गुफा शिलालेखसे विदित है कि शिशुनागवंशी नन्दवर्धनके जमानेमें अर्थात् ४६० ई. पूर्वमें कलिंग और मगधदेशके लोग भगवान ऋषभ देवकी मूर्तियोंको पूजते थे ।
इस विषय में प्रभास - पाटन वाला प्राचीन ताम्रपत्र भी, जो प० हरिशंकर शास्त्रीको एक ब्राह्मणके पाससे मिला था, और जिसको कई सालके लगातार परिश्रमके बाद हिंदू विश्वविद्यालयके प्रोफेसर डा. प्राणनाथने पढ़कर अनुवादित किया है, बहुत महत्वकी वस्तु है । यह अनुवाद “The Illustrated Weekly of India" के १४ अप्रैल १९३५ वाले अंकमें प्रकाशित हुआ है। उससे विदित है कि सुराष्ट्र 'काठियावाड' के जूनागढनगरके निकटवर्ती रैवनक गिरनार पर्वतपर स्थित जैनियोके २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिकी मूर्तिकी पूजार्थं वेबीलोन देशके अधिपति नेवुचन्दनेजर प्रथम ११४० ई. पूर्वके निकट अथवा नेवुचन्दनेजर द्वितीयने ६०४-५६१ ई० पूर्वके लगभग अर्थात् भगवान महावीर के कालमें अपने देशकी उस आमदनीको जो नाविकोंसे कर-द्वारा प्राप्त होती थी प्रदान की थी।
पौराणिक आख्यान और अनुश्रुतियाँ -
इस स्थलपर यह बतला देना आवश्यक है, कि वह 'सुराष्ट्र' देश जिसके रैवतक पर्वतपर स्थित नेमिनाथकी मूर्तिके लिये वेबीलोनियाके अधिपति ने बुचन्दनेजरने दानपत्र लिखा था और वह 'सिंधु' देश जिसके पुराने नगर 'मोहनजोदडो'से योगियोंकी मूर्तियां प्राप्त हुई है, दोनों पश्चिम सागरके तटवर्ती देश है। पश्चिमी सागरके उपर्युक्त देश और पूर्वीसागरके मगध ( बगाल व बिहार ) और कलिंग (उड़ीसा) देश भारतीय अनुश्रुतिके अनुसार सदासे 'व्रात्य' अथवा 'श्रमण' संस्कृतिके केन्द्र रहे हैं ।
किसी देशके प्राचीन ऐतिहासिक तथ्योंका पता लगानेके लिये उस देशके पौराणिक आख्यान अनुश्रुतियां ही महत्वशाली प्रमाण होते है; इनके द्वारा ही मनुष्यने अपने अतीत युगोंके ऐतिहासिक तथ्योंको जीवित रखा है। इस विषयपर प्रकाश डालनेवाली जैन और वैदिक अनुश्रुतियां पर्याप्त मात्रामें आज भी मौजूद है ।
जैन अनुश्रुतियां
जैनियोंकी अनुश्रुति तो इस सम्बन्धमें प्रसिद्ध ही है । उनकी मान्यताके अनुसार पूर्वके मगध, अग, बंग, लाट, कलिग, विदेह (तिरहुत) आदि देश; पच्छिमके सुराष्ट्र (काठियावाड़), शत्रुंजय, आनट्टे (गुजरात), सिंधु, सौवीर ( सिधका उत्तरीय भाग), आदि देश; उत्तरके कैलाश, हिमांचल प्रदेश, आरट (पंजाब), मद्र (रावी और चनाब नदियोंका मध्यवर्ती भाग), आदि देश; मध्यके पंचाल (रुहेलखंड ), काशी, कोशल, वत्स (प्रयाग निकटवर्ती देश), चेदी (बुन्देलखंड ), अहिच्छेत्र (बरेली), मथुरा, शौरीपुर, मत्स्य ( राजपूताना ), कुरूजांगल, हस्तिनागपुर, आदि देश; दक्षिणके आंध्र, करनाटक, आदि
१ The Jain Antiquary 1937- pp. 17, 18
Archeological Survey of India-New Imperial Series, Vol. L I-Bihar and Orissa, 1931-PP. 264-269.