Book Title: Bhagvati Sutra Part 05
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र पंचम भाग ॐ शतक १३-१७ प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - 305901 (01462) 251216, 257699, 250328 For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ४० वा रत्न गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) पंचम भाग (शतक १३-१४-१५-१६-१७) -सम्पादक पं. श्री घेवरचन्दजी बांठिया "वीरपत्र" (स्वर्गीय पंडित श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर __ शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 . (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर - 2626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर - 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ .. ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक), 252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 22 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 25461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 0 236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 2 25357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 सम्पूर्ण सेट मूल्य : ३००-०० चतुर्थ आवृत्ति वीर संवत् २५३२ १००० विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 2 2423295 - DIODMASALUTION For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में भगवती सूत्र विशाल रत्नाकर है, जिसमें विविध रत्न समाये हुए हैं। जिनकी चर्चा प्रश्नोत्तर के माध्यम से इसमें की गई है। प्रस्तुत पंचम भाग में तेरह, चौदह, पन्द्रह, सोलह और सतरहवें शतक का निरूपण हुआ है। प्रत्येक शतक के कितने उद्देशक हैं और उनकी विषय सामग्री क्या है? इसका संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है - __शतक १३ - तेरहवें शतक में १० उद्देशक हैं, उनमें से पहले उद्देशक में नरक पृथ्वियों का वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशक में देवों सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। तीसरे उद्देशक में नैरयिक जीव सम्बन्धी अनन्तराहारक आदि की प्ररूपणा की गई है। चौथे उद्देशक में पृथ्वीगत वक्तव्यता है। पांचवें उद्देशक में नैरयिक आदि के आहार की प्ररूपणा की गई है। छठे उद्देशक में नैरयिक आदि के उपपात सम्बन्धी कथन किया गया है। सातवें उद्देशक में भाषा आदि का कथन किया गया है। आठवें उद्देशक में कर्म-प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में क्या भावितात्मा अनगार लब्धि-सामर्थ्य से रस्सी से बंधी हुई घड़ली को हाथ में लेकर आकाश में गमन कर सकता है, इत्यादि विषय का कथन किया गया है और दसवें उद्देशक में समुद्घात का प्रतिपादन किया गया है। शतक १४ - चौदहवें शतक में १० उद्देशक हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं - प्रथम उद्देशक का नाम चरम उद्देशक है २. दूसरा ‘उन्माद' उद्देशक है, ३. तीसरा शरीरोद्देशक है ४. चौथा पुद्गलोद्देशक है ५. पाँचवां अग्नि उद्देशक है ६. छठा ‘किमाहारोद्देशक' है, ७. सातवां 'संश्लिष्ट' उदेशक है ८. आठवां अन्तर उद्देशक है ६. नौवां अनगार उद्देशक है और १०. दसवां केवली उद्देशक है। शतक १५ - पन्द्रहवें शतक में गौशालक का वर्णन है। शतक १६ - सोलहवें शतक में १४ उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में एरण आदि विषयक For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] **************************************** ********************************* कथन है। दूसरे में जरा आदि अर्थ विषयक है। तीसरे में कर्म विषयक कथन है। चौथे उद्देशक का नाम 'जावतिय' है । पाँचवें उद्देशक में गंगदत्त देव विषयक, नौवें में बलीन्द्र विषयक, दसवें में अवधिज्ञान विषयक, ग्यारहवें में द्वीपकुमार विषयक, बारहवें में उदधिकुमार विषयक, तेरहवें में दिशाकुमार विषयक और चौदहवें में स्तनितकुमार विषयक कथन हैं। शतक १७ सतरहवें शतक में १७ उद्देशक हैं। कोणिक राजा के हाथी के विषय में पहला कुंजर उद्देशक २. संयतादि के विषय में दूसरा ३. शैलेशी अवस्था को प्राप्त नगर विषयक तीसरा ४. क्रिया विषयक चौथा ५ . ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा के विषय में पांचवां ६-७. पृथ्वीकाय के विषय में छठा और सातवां ८-६ अप्काय के विषय में आठवां और नौवां १०-११. वायुकाय के विषय में दसवाँ और ग्यारहवाँ १२. एकेन्द्रिय जीवों के विषय में बारहवां १३-१७. नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार और अग्निकुमार देवों के विषय में क्रमशः तेरह से ले कर सतरह उद्देशक हैं। उक्त पांच शतकों की विशेष जानकारी के लिए पाठक बंधुओं को इस पुस्तक का पूर्ण रूपेण पारायण करना चाहिये । संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेन शाह की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है । प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] **************************************************************** * *************** बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। __इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग ५ की यह चतुर्थ आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस चतुर्थ आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) दिनांकः ४-४-२००६ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया __ अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र अशुद्ध पृष्ठ पंक्ति २१३६ २ २१४२ अंतिम २१४३१ २१४४ विस्तराद णो इंदियावउत्ता एक्का वाससयसहस्से जंवू दीवसमा उद्वर्तना अहम्मत्यिकायएसेहिं एव विस्तारादि णो इंदियोव उत्ता एक्को वाससयसहस्सेसु जंबूद्दीवसमा अंतिम अहम्मस्थिकायपएसेहि एवं १२ २१६५ २१९७ २२११ २२१३ २२२८ २२३३ २२७१ २२८२ २२८४ २२६५ २२९७ २३१७ २३३६ २३४९ २३६४ २३६९ २३७२ होते दिवड्ढे पुव्वरत्तावरत्त... आकाश अनंतरपरं.....भी अणंतरपरंपरअणिग्गया . ज्योतिषी नरयिकादि में दिवड़द पुवरत्तावरत्त.... आकश अनन्तर-परं..... अणंतरपरंपरणिग्गया. ज्योनिषी नैरयिकादि तक देवाणं पक्खिज्सेजा केललज्ञानी गोसा इन्द्रभति १४ देवा १२ १८ पक्लिवेज्जा केवलज्ञानी गोसालं इन्द्रभूति For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति पृष्ठ २३६४ २४६५ २४८६ २५०५ २५०७ २५१४ २५३४ २५६७ अशुद्ध वाहाए परिक्स मित्ता णाल्लाहिति हवाड़ा सडासए कम्मगसरीरं कासंबगंडियं शुद्ध वहाए पडिणिक्खमित्ता णोल्लावेहिति हथोड़ा संडासए कम्मगसरीरं पि कोसंबगंडियं rur 9 वा जाव जेणेव भाणियवं जहा तेगेव भाणियवं अंतिम २५७६ २५८८ २५९५ २५९६ २५९७ २५९८ २६०३ . २६१२ २६३५ २६३५ २६४. अंतिम १५ ८ ८ १० जिन तालाआ पच६ उत्तर याश छब्बीस कथचित् पृथ्वीकायि पने कल्पो में घनवातबलय जिस तालाओ पचा६ प्रश्न याओ छब्बीस कथंचित् पृथ्वीकायिकपने कल्पों के घनवातवलय २ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নিষভানুমকিাशतक १३ उद्देशक ५ उद्देशक १ . क्रमांक विषय पृष्ट | ४४४ नैरियकों का आहार २.२६ ४२६ नरकावासों की संख्या विस्तारादि २१३६ ४३० नरयिकों में दृष्टि उद्देशक ६ २१५३ ४३१ लेश्या में परिवर्तन २१५६ | ४४५ सान्तर-निरन्तर उपपात-च्यवन २२२७ ४४६ चमरेन्द्र का आवास स्थान उद्देशक २ २२२७ ४४७ उदायन नरेश चरित्र २२३१ ४३२ देवावासों की संख्या विस्तारादि २१५९ ४४८ उदायन नरेश का संकल्प २२३३ ४३३ देवों में दृष्टि २१७२ | ४४९ भानेज का राज्याभिषेक । २२३७ उद्देशक ३ ४५० उदायन नरेश की दीक्षा २२३९ ४३४ नैरयिक के अनन्तराहारादि २१७४ | | ४५१ अभीचिकुमार का वैरानुबन्ध २२४२ उद्देशक ४ उद्देशक ७ ४३५ नरकावासों की एक दूसरे से ४५२ भाषा जीव या अजीव २२४५ विशालता २१७५ | ४५३ मन और काया आत्मा है या ४३६ नरकावासों के स्थावर जीव अनात्मा भी महाकर्मी २१८१ | ४५४ मृत्यु के विविध प्रकार २२५४ ४३७ लोक का मध्य भाग २१८२ उद्देशक ८ ४३८ दिशाओं का उद्गम और विस्तार २१८५ -२२६२ ४३६ पंचास्तिकायमय लोक ४५५ कर्म प्रकृति २१८८ ४४० प्रदेशों की अवगाढ़ता २२१० - उद्देशक ९ ४४१ धर्मास्तिकायादि की रूपातीत ४५६ अनगार की वैत्रिय-शक्ति व्यापकता २२२१ उद्देशक १० ४४२ लोक का सम एवं संक्षिप्त भाग २२२३ ४४३ लोक की आकृति २२२४ | ४५७ छाद्मस्थिक समुद्घात २२७२ २२४९ २२६३ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शतक १४ क्रमांक विषय पृष्ठ । क्रमांक विषय उद्देशक १ . उद्देशक ६ ४५८ चरम परम के मध्य की स्थिति २२७६ / ४७५ नैरयिकादि के आहारादि २३२० ४५९ नैरयिकों की शीघ्र गति २२७८ | ४७६ देवेन्द्र के भोग २३२२ ४६० नैरयिक अनन्तरोपपन्नकादि २२८० उद्देशक ७ उद्देशक २ ४७७ भगवान् और गौतम का भवान्तरीय सम्बन्ध २३२६ ४६१ उन्माद के भेद २२८७ ४७८ द्रव्यादि की तुल्यता २३२६ ४६२ देवकृत जल-वर्षा २२९१ ४७९ आहारादि में मूच्छित-अमूच्छित ४६३ देवकृत तमस्काय २२९३ अनगार २३३६ २३३८ ४८० लव-सप्तम देव उद्देशक ३ ४६४ अनगार की अवगणना करनेवाले देव २२९५ उद्देशक ८ ४६५ नरयिकादि में आदर-सत्कार २२९७ / ४८१ पृथ्वियों और देवलोकों का अंतर २३४१ ४६६ देवों में छोटे-बड़े का आदर-सम्मान २२९९ | ४८२ शाल वृक्षादि का परभव २३४५ ४६७ नैरयिकों के पुद्गल परिणाम २३०२ | ४८३ अम्बड़ परिव्राजक २३४७ ४८४ अव्याबाध देवशक्ति २३४९ ... उद्देशक ४ ४८५ जृम्भक देवों के भेद और आवास २३५१ ४६८ पुद्गल के वर्णादि परिवर्तन २३०३ उद्देशक ९ ४६६ जीव का दुःख और सुख २३.५ ४८६ भावितात्मा अनगार और प्रका४७० परमाणु की शाश्वतता २३०६ शित पुद्गल २३५४ ४७१ जीव-अजीव परिणाम २३०८ ४८७ नैरयिकों और देवों के पुद्गल २३५६ उद्देशक ५ ४८८ सूर्य का अर्थ २३५८ ४८९ श्रमण-प्रिन्थ का सुख २३५९ ४७२ जीवों का अग्नि प्रवेश २३१० ४७३ जीवों के इप्टानिष्ट शब्दादि २३१६ | उद्देशक १० ४७४ देव की पुद्गल सहायो विशेष प्रवृत्ति २३१८४९० केवली और सिद्ध का ज्ञान २३६२ । For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाक १५ पृष्ठ क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय ४९१ गोशालक चरित्र २३६८ ५१५ गोशालक की दुर्दशा २४:४१ ४९२ भगवान् से गोशालक का समागम २३७६ ५१ः गोशालक को तेज-शक्ति और ४६३ शिष्यत्व ग्रहण २३८१ दाम्भिक चेप्टा २४४३ ४६४ तिल का पौधा और गोशालक ५१४ पानक-अपानक २४४६ की कुचेष्टा २३८७ ५१५ आजीविकोपासक अयंपुल २४४६ ४९५ तेजोलेश्या के प्रहार से गोशालक ५१६ प्रतिष्ठा की महती लालसा २४५५ की रक्षा २३९० ५१७ सम्यग्दर्शन और अन्तिम आदेश २४५७ ४९६ गोशालक का पृथक् होना २३६६ ५१८ आदेश का दाम्भिक पालन २४६० ४९७ तेजोलेश्या को साधना २४०० ५१९ भगवान् का रोग और लोकापवाद २४६१ ४९८ जिन-प्रलापी गोशालक का रोष " ५२० सिंह अनगार का शोक २४६३ ४९९ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४०३ ५२१ सिंह अनगार को सान्त्वना २४६६ ५.. श्रमण एवं श्रमण भगवंत का ५२२ रेवती के घर २४६७ तप-तेज २४१४ ५०१ श्रमणों को मौन रहने की सूचना २४१६ ५२३ रेवती को आश्चर्य और औषधि५०२ गोशालक का आगमन और दान २४६९ दाम्भिक प्रलाप २४१८ ५२४ रोगोपशमन २४७० २४७२ ५०३ गोशालक की चोर से सद्शता २४२८ / ५२५ सर्वानुभूति अनगार की गति ५०४ गोशालक द्वारा भगवान् का ५२६ सुनक्षत्र अनगार की गति २४७३ तिरस्कार २४२६ ५२७ गोशालक की गति २४७४ ५०५ सर्वानुभूति अनगार का देहोत्सर्ग २४३० ५२८ गोशालक का भावी मनुष्य-भव २४७५ ५०६ सुनक्षत्र मुनि का देहोत्सर्ग २४३२ | ५२९ विमलवाहन का अनार्यपन २४८० ५.७ आक्रमणकारी स्वयं आहत २४३४ / ५३० सुमंगल मुनि द्वारा विमलवाहन ५०८ जन-चर्चा २४३७ का विनाश ५०९ धर्मचर्चा का आदेश २४३८ ५३१ गोशालक का भव-भ्रमण २४८८ ५१० धर्म-चर्चा में गोशालक की पराजय २४३६ | ५३२ आराधना और केवलज्ञान २४९८ ५११ गोशालक के अनेक स्थविर ५३३ अपने उदाहरण से उपदेश दान भगवान् के आश्रय में २४४० और सिद्धि २५०. २४८४ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय उद्देशक १ ५३४ आघात से वायुकाय की उत्पत्ति २५०४ ५३५ अग्निकाय की स्थिति २५०५ ५३६ त लोह को पकड़ने में कितनी क्रिया शतक १६ उद्देशक ६ ५५१ स्वप्न की अवस्था और प्रकार. ५५० साधु भी स्वप्न देखते हैं ? २५०६ ५५३ स्वप्न के प्रकार ५३७ जीव और अधिकरण २५०८ ५५४ तीर्थंकरादि की माता के स्वप्न ५३८ शरीर, इन्द्रियाँ, योग और अधिकरण २५१२ ५५५ भ. महावीर के दस महास्वप्न ५५६ भगवान् के स्वप्न के फल ५५७ मोक्ष फल दायक स्वप्न ५५८ गन्ध के पुद्गल बहते हैं उद्देशक- २ ५३६ जरा शारीरिक और शोक मानसिक २५१७ ५४० अवग्रह पांच प्रकार का २५१९ ५४९ देवेन्द्र की भाषा २५२१ २५२४ ५४२ शक्रेन्द्र भवसिद्धिक है ५४३ कर्म का कर्ता चैतन्य है २५२४ उद्देशक ३ पृष्ठ क्रमांक ५४४ कर्म बन्ध २५२६ ५४५ अर्श छेदन में लगने वाली क्रिया २५२८ उद्देशक ४ ५४६ नैरयिकों की निर्जरा की श्रमणों से तुलना उद्देशक ५ ५४७ शकेन्द्र के प्रश्न और भगवान् उत्तर ५४८ शकेन्द्र के आगमन का कारण ५४९ गंगदत्त देव के प्रश्न विषय ५५० गंगदत्त का पूर्व भव २५३१ उद्देशक ७ ५५९ उपयोग के भेद ५६५ अवधिज्ञान के प्रकार उद्देशक ८ ५६० लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व २५७३ ५६१ परमाणु की एक समय में गति २५८२ ५६२ वर्षा का पता लगाने में पांच क्रिया २५८३ ५६३ अलोक में देव की भी गति नहीं २५८४ २५३७ २५४० २५४३ | ५६६ द्वीपकुमारों की वक्तव्यता For Personal & Private Use Only पृष्ठ २५४६ उद्देशक ९ ५६४ वैरोचनेन्द्र की सुधर्मा सभा कहाँ हैं २५८६ उद्देशक १० २५५२ २५५५ २५५६. २५५७ २५५९ २५६१ २५६५ ५५७० उद्देशक ११ २५७१ २५८८ २५८६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] २६३४ क्रमांक विषय पृष्ठ / क्रमांक विपय पृष्ठ उद्देशक १२, १३, १४ मरणसमुद्घात ५६७ उदधि कुमार दिश कुमार स्तनित । उद्देशक ७ कुमार २५९० / ५८३ ऊर्ध्व लोक्स्थ पृथ्वीकायिक का शतक १७ ___मरण-समुद्घात - उद्देशक १ उद्देशक ८ ५६८ गजराज को गति आगति २५६४ | ५८४ अधो अप्कायिक का मरण-समुद्घात २६३६ ५६९ पुरुष और ताल-वृक्ष को क्रिया २५९५ उद्देशक ९ ..." ५७० शरीर इन्द्रियाँ योग २६०१ ५८५ ऊलोकस्थ अप्कायिक का मरण५७१ औदयिकादि भाव २६०३ ___ समुद्घात २६३७ उद्देशक २ उद्देशक १० . ५७२ धर्मी अधर्मी और धर्माधर्मी २६०५ | ५८६ अधो वायकायिक का मरण५७३ बाल पण्डित और बालपण्डित २६०७ समुद्घात २६३८ ५७४ जीव और आत्मा की अभिन्नता २६१० . ५७५ रूपी, अरूपी नहीं बनता। उद्देशक ११ सर्वज्ञसाक्षी २६१२३५८७ ऊर्ध्व वायुकायिक का मरण. उद्देशक ३ समुद्घात . २६३६ ५७६ शैलेशी अनगार की निष्कम्पता २६१५ ___ उद्देशक १२ ५७७ चलना के प्रकार २६१८८८ जीवों के आहारादि की सम५७८ संवेगादि धर्म का अंतिम फल २६२१ | विषमता २६४० उद्देशक ४ . उद्देशक १३ ५७९ आत्म-स्पृष्ट क्रिया २० | ५८६ नागकुमारादि के आहार की सम५८० आत्मकृत सुख दुःख और वेदना २६२७. / विषमता २६४२ उद्देशक ५ ५९० उद्देशक १४ २६४३ ५८१ ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा २६२९ | ५९१ उद्देशक १५ २६४३ उद्देशक ६ ५९२ उद्देशक १६ . २६४४ ५८२ नरक पृथ्वीकायिक जीवों का '५९३ उद्देशक १७ । २६४४. पकार २६२४ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये । आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय १. बड़ा तारा टूटे तो - २. दिशा - दाह ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो - ४. अकाल में बिजली चमके तो ५. बिजली कड़के तो - ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो ८- ६. काली और सफेद धूंअर१०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे - १५. श्मशान भूमि - काल मर्यादा एक प्रहर जब तक रहे दो प्रहर एक प्रहर आठ प्रहर प्रहर रात्रि तक जब तक दिखाई दे जब तक रहे जब तक रहे For Personal & Private Use Only तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो । मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो । मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक । तब तक * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा चे अंधकार हो, वह दिशा दाह है। हाथ से कम दूर हो, तो 1 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम १. आचारांग सूत्र भाग - १-२ २. सूयगडांग सूत्र भाग - १, २ ३. स्थानांग सूत्र भाग - १, ४. समवायांग सूत्र ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग - १, २ ७. उपासकदशांग सूत्र ८. अन्तकृतदशा सूत्र ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ११. विपाक सूत्र १. २. ३. ४. उववाइय सुत्त राजप्रश्नीय सूत्र २ १. २. ३. ४. ५. ६-७. चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्यप्रज्ञप्ति ८- १२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग - १, २ प्रज्ञापना सूत्र भाग - १,२,३,४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति दशवैकालिक सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र भाग - १, २ मंदी सूत्र अनुयोगद्वार सूत्र उपांग सूत्र मूल सूत्र छेद सूत्र १ - ३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र ( दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) निशीथ सूत्र ४. १. आवश्यक सूत्र For Personal & Private Use Only मूल्य ५५-०० ६०-०० ६०-०० २५-०० ३००-०० ८०-०० २०-०० २५-०० १५-०० ३५-०० ३०-०० २५-०० २५-०० ८०-०० १६० -०० ५०-०० २०-०० २०-०० ३०-०० ८०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रं. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ३. अंगपविद्वत्ताणि भाग ३ ४. अंगपविद्वत्ताणि संयुक्त ५. अनंगपविद्वताणि भाग १ ६. अनंगपविद्वत्ताणि भाग २ ७. अनंगपविद्वत्ताणि संयुक्त ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ९. आयारो १०. सुमगडो ११. उत्तरज्झयणाणि (गुटका ) १२. दसवेयालिय सुतं (गुटका) १३. गंदी सुत्तं (गुटका) १४. चउछेयसुत्ताई १५. आचारांग सूत्र भाग १ १६. अंतगडदसा सूत्र १७- १६. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १,२,३ २०. आवश्यक सूत्र (सार्थ) २१. दशवैकालिक सूत्र २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ २६. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त २७. पनवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ २८. पनवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ २६. पत्रवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ ३०-३२. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३४. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३५-३७. समर्थ समाधान भाग १, २, ३ ३८. सम्यक्त्व विमर्श ३६. आत्म साधना संग्रह ४०. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी ४१. नवतत्वों का स्वरूप ४२. अगार - धर्म ४३. Saarth Saamaayik Sootra ४४. तत्त्व-पृच्छा ४५. तेतली पुत्र ४६. शिविर व्याख्यान ४७. जैन स्वाध्याय माला ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ ४६. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ ५०. सुधर्म चरित्र संग्रह संघ के अन्य प्रकाशन मूल्य | क्रं. १४-०० ४०-०० ३०-०० ८०-०० ३५-०० ४०-०० ८०-०० ३-५० ८-०० ६-०० १०-०० ५-०० अप्राप्य १५-०० २५-०० १०-०० ४५-०० १०-०० १०-०० १०-०० १०-०० १०-०० १०-०० १५-०० 5-00 १०-०० १०-०० १४०-०० ३५-०० ३०-०० ५७-०० १५-०० २०-०० २०-०० १३-०० १०-०० १०-०० १०-०० ४५-०० १२-०० १८-०० २२-०० १५-०० १०-०० नाम ५१. लोकाशाह मत समर्थन ५२. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५३. बड़ी साधु वंदना ५४. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५५. स्वाध्याय सुधा ५६. आनुपूर्वी ५७. सुखविपाक सूत्र ५८. भक्तामर स्तोत्र ५६. जैन स्तुति ६०. सिद्ध स्तुति ६१. संसार तरणिका ६२. आलोचना पंचक ६३. विनयचन्द चौबीसी ६४. भवनाशिनी भावना ६५. स्तवन तरंगिणी ६६. सामायिक सूत्र ६७. सार्थ सामायिक सूत्र ६८. प्रतिक्रमण सूत्र ६९. जैन सिद्धांत परिचय ७०. जैन सिद्धांत प्रवेशिका ७१. जैन सिद्धांत प्रथमा ७२. जैन सिद्धांत कोविद ७३. जैन सिद्धांत प्रवीण ७४. तीर्थंकरों का लेखा ७५. जीव-धड़ा ७६. १०२ बोल का बासठिया ७७. लघुदण्डक ७८. महादण्डक ७९. तेतीस बोल ८०. गुणस्थान स्वरूप ८१. गति आगति ८२. कर्म प्रकृति ८३. समिति गुप्ति ८४. समकित के ६७ बोल ८५. पच्चीस बोल ८६. नव-तत्त्व ८७. सामायिक संस्कार बोध मुखवस्त्रिका सिद्धि ८. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ६०. धर्म का प्राण यतना १. सामण्ण सहिधम्मो १२. मंगल प्रभातिका १३. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप For Personal & Private Use Only मूल्य १०-०० १५-०० 90-00 ५-०० 00-60 1-00 २-०० २-०० ६-०० ३-०० 19-00 २-०० 9-00 २-०० ५-०० १-०० ३-०० ३-०० ३-०० ४-०० ४-०० ३-०० ४-०० 9-00 २-०० ०-५० ३-०० 9-00 २-०० ३-०० 9-00 9-00 २-०० २-०० ३-०० ६-०० ४-०० ३-०० ३-०० २-०० अप्राप्य १.२५ ४-०० . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थुणं समणस्स भगया महावीरस्स गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र शतक १३ गाहा-१ १ पुढवी २ देव ३ मणंतर ४ पुढवी ५ आहारमेव ६ उववाए । ७ भासा ८ कम्म ९ अणगारे केयाघडिया १० समुग्घाए । कठिन शब्दार्थ--केयाघडिया--रस्सी से बंधी हुई घटिका-छोटा घड़ा । भावार्थ--तेरहवें शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें से पहले उद्देशक में नरक पृथ्वियों का वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशक में देवों सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। तीसरे उद्देशक में नैरयिक जीव सम्बन्धी अनन्तराहारक आदि की प्ररूपणा की गई है। चौथे उद्देशक में पृथ्वीगत वक्तव्यता है। पांचवें उद्देशक में नैरयिक आदि के आहार की प्ररूपणा की गई है। छठे उद्देशक में नैरयिक आदि के उपपात सम्बन्धी कथन किया गया है। सातवें उद्देशक में भाषा आदि का कथन किया गया है। आठवें उद्देशक में कर्म-प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है । नौवें उद्देशक में क्या भावितात्मा अनगार लब्धि-सामर्थ्य से रस्सी से बंधी हुई घड़ली को हाथ में लेकर आकाश में गमन कर सकता है, इत्यादि विषय का कथन किया गया है और दसवें उद्देशक में समुद्घात का प्रतिपादन किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ उद्देशक ९ नरकावासों की संख्या विस्तरादि २ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी कह णं मंते पुढवीओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर - गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ रयणप्पभा जाव ७ अहेमुत्तमा । ३ प्रश्न - इमी से णं भंते! रयणप्पभाष पुढवीए केवइया णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! तीसं णिरयावासमा पण्णत्ता । प्रश्न- ते णं भंते! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? उत्तर - गोयमा ! संखेनवित्थडा वि असंखेजवित्वा वि । कठिन शब्दार्थ-संखेज्ज वित्थडा - नस्य विस्तृत, असंज्ज वित्थडा असंख्येय विस्तृत | भावार्थ - २ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतनस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा- हे भगवन् ! नरक पृथ्वियाँ कितनी कही गई हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! नरक पृथ्वियाँ सात कही गई हैं। यथा-रत्नप्रभा, यावत् अधः सप्तम पृथ्वी ३ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम ! तीस लाख नरकावास कहे गये हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वे नरकावास संख्येय विस्तृत ( संख्यात योजन विस्तार वाले ) हैं या असंख्येय विस्तृत है ? For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सुत्र.श. १३३. नरकावासों की संख्या विस्तारादि २१३७ उत्तर-हे गौतम ! वे संख्यय विस्तृत भी हैं और असंख्येय विस्तृत भी है। ४ प्रश्न-इमीम णं मंते . स्यणप्पभाए पुढवीए तीमाए णिरयावासमयमहस्सेसु संखेजवित्थडेमु - णरएसु १ एगसमएणं केवड्या णेरड्या उववज्जति ? २ केवड्या काउलेस्सा उववज्जति ? ३ केवइया काहपक्विया उववज्जति ? ४ केवइया सुक्कपक्खिया उक्वजति ? ५ केवइया सण्णी उववज्जति ? ६ केवड्या असण्णी उववजति ? ७ केवड्या भवसिद्धिया उववज्जति ? ८ केवड्या अभवसिद्धिया उववज्जति ? ९ केवड्या आभिणिवोहियणाणी उववज्जति ? १० केवड्या सुयणाणी उववज्जति ? ११ केवड्या ओहिणाणी उववजति ? १२ केवइया मइअण्णाणी उववनंति ? १३ केवड्या सुयअण्णाणी उववज्जति ? १४ केवइया विभंगणाणी उववजति ? १५ केवइया चक्खुदंमणी उववजति ? १६ केवइया अचखुदंसणी उववजति ? १७ केवड्या ओहिदंसणी उववजंति ? १८ केवइया आहारसण्णोवउत्ता उववजति ? १९ केवइया भयसण्णोवउत्ता उव. वजति ? २० केवड्या मेहुणसण्णोवउत्ता उववजति ? २१ केवड्या परिग्गहसण्णोवउत्ता उववनंति ? २२ केवइया इथिवेयगा उववजति ? २३ केवइया पुरिसवेयगा उववजंति ? २४ केवइया णपुंसगवेयगा उववजति ? २५ केवइया कोहकसाई उववजंति ? २६.२८ जाव For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३८ भगवती सूत्र-श. १३ उ. १ नरकावासों की संख्या विस्तारादि केवइया लोभकसाई उववजंति ? २९ केवइया सोइंदियउवउत्ता उववजति ? ३०.३३ जाव केवइया फासिदियोवउत्ता उववजति ? ३४ केवइया णोइंदियोवउत्ता उववजंति ? ३५ केवइया मणजोगी उववजंति ? ३६ केवइया वइजोगी उववजंति ? ३७ केवइया काय जोगी उववजंति ? ३८ केवइया सागारोवउत्ता उववजंति ? ३९ केवइया अणागारोवउत्ता उववजति ? ___४ उत्तर-गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उकोसेणं संखेजा णेरड्या उववज्जंति, जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेजा काउलेस्सा उववजंति, जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा कण्हपक्खिया उववजंति, एवं सुक्कपक्खिया वि, एवं सण्णी, एवं असण्णी वि, एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया, आभिणिवोहियणाणी, मुयणाणी, ओहिणाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी एवं चे, चक्खुदंसणी ण उववजंति, जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा अचक्खुदंसणी उववजंति, एवं ओहिदंसणी वि, आहारसण्णोवउत्ता वि, जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि, इथिवेयगा ण उववजंति, पुरिसवेयगा वि ण उववजंति, जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा. For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. १: इ. १ लरकावासों की संख्या विस्तारादि २१३१. उक्कोसेणं संखेजा णपुंसगवेयगा उववजंति, एवं कोहकसाई, जाव लोभकसाई; सोइंदियउवउत्ता ण उववजंति, एवं जाव फासिंदियोवउत्ता ण उववजंति, जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा णोइंदियोवउत्ता उववजंति, मणजोगी ण उक्वजति, एवं वइजोगी वि, जहण्णेणं एकको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उववति, एवं सागारोवउत्ता वि, एवं अणागारोवउत्ता वि । कठिन शब्दार्थ-कण्हपक्खिया-कृष्णपाक्षिक, सुक्कपक्खिया-शुक्लपाक्षिक । . भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकावासों में एक समय में कितने नैरयिक जीव उत्पन्न होते हैं ? २ कितने कापोत लेश्यावाले नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? ३ कितने कृष्ण-पाक्षिक जीव उत्पन्न होते हैं ? ४ कितने शुक्ल-पाक्षिक जीव उत्पन्न होते है ? ५ कितने संज्ञो जीव उत्पन्न होते हैं ? ६ कितने असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं ? ७ कितने भवसिद्धिक जीव उत्पन्न होते हैं ? ८ कितने अभवसिद्धिक जीव उत्पन्न होते हैं ? ९ कितने आभिनिबोधिकज्ञानी (मतिज्ञानी) जीव उत्पन्न होते हैं ? १० कितने श्रुतज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? ११ कितने अवधिज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? १२ कितने मतिअज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? १३ कितने श्रुतअज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? १४ कितने विभंगज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? १५ कितने चक्षुदर्शनी उत्पन्न होते हैं ? १६ कितने अचक्षुदर्शनी उत्पन्न होते है ? १७ कितने अवधिदर्शनी उत्पन्न होते हैं ? १८ कितने आहार-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? १९ कितने भय-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? २० कितने मैथुन-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? २१ कितने परिग्रह-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? २२ कितने For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३ उ. १ तरकावालों की संख्या विस्तारादि स्त्री-वेदी जीव उत्पन्न होते हैं ? २३ कितने पुरुष वेदी जीव उत्पन्न होते हैं ? २४ कितने नपुंसक वेदी जीव उत्पन्न होते हैं ? २५ कितने क्रोध - कषायी जीव उत्पन्न होते हैं ? यावत् २६ से २८ कितने लोभ कषायी जीव उत्पन्न होते हैं ? २९ कितने श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? यावत् ३० से ३३ कितने स्पर्शनेन्द्रिय के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते है ? ३४ कितने नोइन्द्रिय के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? ३५ कितने मनःयोगी जीव उत्पन्न होते हैं ? ३६ कितने वचन- योगी जीव उत्पन्न होते हैं ? ३७ कितने काय योगी जीव उत्पन्न होते हैं ? ३८ कितने साकारोपयोग वाले जीव उत्पन्न होते है ? और ३९ कितने अनाकारोपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? २१४० उत्तर - हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येयविस्तृत नरकावासों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? २ जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कापोत लेशी जीव उत्पन्न होते हैं । ३ जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कृष्ण- पाक्षिक जीव उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार शुक्ल पाक्षिक संज्ञी, असंज्ञी, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी के विषय में भी इसी प्रकार . कहना चाहिये । चक्षुदर्शनी जीव उत्पन्न नहीं होते । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अचक्षुदर्शन वाले जीव उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी और आहार-संज्ञा के उपयोग वाले यावत् परिग्रह- संज्ञा के उपयोग वाले भी कहना चाहिये । स्त्री-वेदी जीव उत्पन्न नहीं होते । पुरुष- वेदी जीव भी उत्पन्न नहीं होते । मात्र नपुंसक वेदी ही उत्पन्न होते हैं, जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात | इसी प्रकार क्रोध-कषायी यावत् लोभ-कषायी उत्पन्न होते है। श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग वाले वहाँ उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के उपयोग वाले जीव भी उत्पन्न नहीं होते । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात नोइन्द्रिय के उपयोग वाले उत्पन्न होते हैं । मन योगी और वचन योगी For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १: उ. १ नरकावानों की संख्या विस्तारादि २१४१ जीव उत्पन्न नहीं होते । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काय-योगो जीव उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले जीवों के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-रत्नप्रभा पध्वी में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में ऊपर ३९ प्रश्न किये गये हैं। उनमें से बहुत से शब्दों का अर्थ स्पष्ट ही है। कुछ शब्दों का अर्थ और स्पष्टीकरण यहां दिया जाता है । कृष्ण, नील आदि लेश्याएं हैं। उनमें मे रत्नप्रभा पृथ्वी में केवल कापोत लेण्या वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, कृष्ण लेण्यादि वाले नहीं । इसलिये कापोत लेश्या वाले जीवों के विषय में ही प्रश्न किया गया है । कृष्णपाक्षिक और शुक्ल. पाक्षिक का अर्थ इस प्रकार है जेलिमवड्ढोपोग्गलपरियट्टो, सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खल, अहिगे पुण कण्हपक्खिया । अर्थ-जीव का संसार परिभ्रमण काल जब अर्द्ध पुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है तब से वह 'शुक्ल पाक्षिक' कहलाता है । इससे अधिक काल तक जिन जीवों का मंमार में परिभ्रमण करना गेप रहता है, वे 'कृष्णपाक्षिक' कहलाते हैं। 'चक्षुदर्शनी' के उत्पन्न होने का जो निषेध किया है, इसका कारण यह है कि इंद्रियों के त्यागपूर्वक ही उत्पत्ति होती है । इस पर यदि यह शंका की जाय कि 'फिर अचक्षुदर्शनी कैसे उत्पन्न होते हैं ?' समाधान-इन्द्रिय और मन के सिवाय सामान्य उपयोग मात्र को भी 'अवक्षुदर्शन' कहते हैं । ऐसा 'अवक्षुदर्शन' उत्पत्ति के समय में भी होता है । इस अपेक्षा से 'अचक्षुदर्शनी' उत्पन्न होते है-ऐसा कहा गया है। नरक में स्त्री-वेदी और पुरुष-वेदी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनके भवप्रत्यय नपुंसकवेद होता है। श्रोत्रादि इन्द्रियों के उपयोग वाले उत्पन्न नहीं होते. क्योंकि उस समय इन्द्रियाँ नहीं होती। सामान्य उपयोग अर्थात् चेतनारूप उपयोग इन्द्रियों के अभाव में भी रह सकता है । इसलिये 'नोइन्द्रियोपयुक्त उत्पन्न होते हैं'-ऐसा कहा गया है। उत्पत्ति के समय अपर्याप्त होने से मन और वचन, इन दोनों का अभाव है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि-'मन-योगी और वचन-योगी उत्पन्न नहीं होते ।' सभी सयोगी For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४२ भगवती सूत्र - श. १३. उ. १ नरकावासी की संख्या विस्तारादि जीवों के काय-योग सदैव रहता है । इसलिए ऐसा कहा गया है कि- 'काय योगी उत्पन्न होते हैं ।' शेष बातों का अर्थ सुगम है । अतः स्वयं घटित कर लेना चाहिए । ५ प्रश्न - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयस हस्सेसु संखेज्ज वित्थडेसु णरएस एगसमएणं केवइया णेरइया उव्वनंति ? केवइया काउलेस्सा उव्वनंति ? जाव केवइया अणागारोवउत्ता उव्वति ? ५ उत्तर - गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावासस्यसहस्सेसु संखेज वित्थडेसु णरएस एगसमएणं जहणेणं एक्वा दो वाणि वा उवकोसेणं संखेज्जा णेरइया उव्व ंति, जहणणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उच्चति, एवं जाव सण्णी । असण्णी ण उच्चति । जहणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उब्वनंति एवं जाव सुयअण्णाणी | विभंगणाणी ण उब्व ंति, चक्खुणी ण उव्वति । जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उब्वनंति एवं जावं लोभकसाई । सोइंदियो उत्ता ण उच्चति, एवं जाव फासिंदियोवउत्ता ण उव्वति । जहणेणं एवको वा दो वा तिष्णि वा, उनको सेणं संखेज्जा गोइंदिया व उत्ता उव्वति । मणजोगी ण उब्व ंति, एवं वहजोगी For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. : 3.1 न या विस्तारादि २१४३ वि । जहण्णेणं एका वा दो वा तिण्णि वा, उकोमेणं संखेजा कायजोगी उब्वटंति, एवं सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि । ___ कठिन शब्दार्थ - उध्वट्टति- उद्वर्तते हैं-निकलते हैं, सागारोव उत्ता-साकारोपयुक्तज्ञानोपयोग बाले, अगागारोवउत्ता-अनाकारोपयुक्त-दर्शनोपयोग वाले। भावार्थ--५ प्रश्न-हे भगवन ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संघात योजन विस्तार वाले नरकावास है, उनमें से एक समय में कितने नरयिक जीव उद्वर्तते हैं-निकलते हैं (मरते हैं) ? कितने कापोतलेशी नैयिक उद्वर्तते हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयुक्त (दर्शनोपयोग वाले) नरयिक उद्वर्तते है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावाप्त हैं, उनमें से एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उद्वर्तते हैं, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कापोत-लेशी नरयिक उद्वर्तते है । इसी प्रकार यावत् संज्ञी-जीव तक नैरयिक उद्वर्तना कहनी चाहिए । असंज्ञी-जीव नहीं उदवर्तते । भवसिद्धिक नरयिक जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात - उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार यावत् श्रुतअज्ञानी तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। विभंगज्ञानी और चक्षुदर्शनी नहीं उद्वर्तते। अचक्षुदर्शनी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार यावत् लोभ-कषायी नैरयिक जीवों तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग वाले नरयिक जीव नहीं उद्वर्तते । इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के उपयोग वाले भी नहीं उद्वर्तते । नोइन्द्रियोपयुक्त नरयिक जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। मन-योगी और वचन-योगी नहीं उद्वर्तते । काय-योगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले नरयिक जीवों की उद्वर्तना कहनी चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २१४८ . यवती सूत्र-श. १३.उ.-१ नरकावासों की संख्या विस्तारादि विवेचन-पूर्व सूत्र में रत्नप्रभा पश्वी में नैरयिक जीवों की उत्पत्ति का कथन किया गया, अब इस सूत्र में उनकी उद्वर्तना (मरण) का कथन किया गया है । उपर्युक्न :९ बोलों में से जिनका कथन और योजना सुगम है, उनका विवेचन यहां नहीं किया जायगा, वह स्वयं घटित कर लेना चाहिये। . . संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में संख्यात नैरयिक ही समा सकते हैं। इसलिये उत्कृष्ट संख्यात ही उद्वर्तते हैं। उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में होती है। नैरयिक जीव असंजी जीवों में उत्पन्न नहीं होते, अतएव वे अमंजी नहीं उद्वर्तते । यही बात चूणि में भी कही है । यथा - असणिणो य विमंगिणो य, उटवटणाइ वज्जेज्जा। दोसु विय चक्खुदंसणी, मणवइ तह इंदियाई वा ।। अर्थात्-असंजी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, मन योगी, वचन-योगी और धोत्रन्द्रियार पांचों इन्द्रियों के उपयोग वाले जीव नहीं उद्वर्तते । अतः नरक से इनकी उद्वर्तना का निषेध किया गया है । शेष पदों की व्याख्या और विवेचन उत्पाद के समान समझना चाहिये। ६ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्से मखेजवित्थडेसु णरएसु केवइया णेरइया पण्णत्ता केवड्या काउलेस्सा, जाव केवइया अणागारोवउत्ता पण्णता ? १ केवइया अणंतरोववण्णगा पण्णत्ता ? २ केवइया परंपरोक्वण्णगा पण्णत्ता ? ३ केवइया अणंतरोगाढा पण्णत्ता ? ४ केवइया परं. परोवगाढा पण्णत्ता ? ५ केवड्या अणंतराहारा पण्णत्ता ? ६ केव. इया परंपराहारा पण्णत्ता ? ७ केवइया अणंतरपजत्ता पण्णत्ता ? ८ केवड्या परंपरपज्जत्ता पण्णत्ता ? ९ केवइया चरिमा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भगवती सूत्र:-.: उनरकावासों की संख्या विस्तारादि २१४५ १० केवइया अचरिमा पण्णत्ता ? .. ६ उत्तर-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीमाए गिरयावामसयसहस्मेसु मखेजवित्थडेमु णरएमु संखेजा णेरड्या पण्णत्ता, संखेजा काउलेस्सा पण्णत्ता, एवं जाव संखज्जा मण्णी पण्णत्ता । अमण्णी सिय अस्थि, सिय णत्थि; जड़ अस्थि जहाणेणं एवको वा दो वा तिणि वा, उक्कोमेणं संखेजा पण्णत्ता । संखेजा भव. सिद्धिया पण्णत्ता, एवं जाव संग्वेजा परिग्गहमण्णोवउत्ता पण्णत्ता, इत्थिवेयगा णत्थि. पुरिसवेयगा णस्थि, संखेजा णपुंसगवेयगा पण्णत्ता, एवं कोहकसाई वि। माणकसाई जहा असण्णी, एवं जाव लोभकसाई । संखेजा सोइंदियोवउत्ता पण्णत्ता, एवं जाव फासिंदियोवउत्ता । णोइंदियोवउत्ता जहा असण्णी। संखेज्जा मण. जोगी पण्णत्ता, एवं जाव अणागारोवउत्ता । अणंतरोववण्णगा सिय अस्थि, सिय णत्थि; जइ अस्थि जहा असण्णी । संखेजा परंपरोक्वण्णगा पण्णत्ता । एवं जहा अणंतरोववण्णगा तहा अणं. तरोवगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा। परंपरोवगाढगा, जाव अचरिमा जहा परंपरोक्वण्णगा । कठिन शब्दार्थ-सिय अत्थि सिय नस्थि-कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते । ___ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में कितने नैरयिक जीव कहे गये For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४६ भगवती सूत्र-श. १३ उ. १ नरकावासों की संख्या विस्तारादि हैं। २ कितने कापोतलेशी नैरयिक कहे गये हैं ? यावत् ३९ कितने अनाकारोपयोग वाले नरयिक कहे गये हैं ?१ कितने अनन्तरोपपन्नक २ कितने परंपरोपपन्नक ३ कितने अनन्तरावगाढ़ ४ कितने परम्परावगाढ़ ५ कितने अनन्तराहारक ६ कितने परम्पराहारक ७ कितने अनन्तरपर्याप्तक ८ कितने परम्परपर्याप्तक ९ कितने चरम और १० कितने अचरम कहे गये हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो नरकावास संख्यात योजन के विस्तार वाले हैं, उनमें संख्यात नरयिक जीव कहे गये हैं। संख्यात कापोतलेशी जीव कहे गये हैं। इसी प्रकार यावत् संख्यात संज्ञी जीव कहे गये हैं। असंज्ञी जीव कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते है, तो जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं । भवसिद्धिक जीव संख्यात कहे गये हैं। इसी प्रकार यावत् परिग्रह संज्ञा के उपयोग वाले नैरयिक संख्यात कहे गये हैं। स्त्री-वेदी और पुरुष-वेदी नहीं होते । नपुंसक-वेदी संख्यात होते हैं। इसी प्रकार क्रोध-कषायी भी संख्यात होते हैं । मान-कषायी नैरयिक असंज्ञी नैरयिकों के समान कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। इसी प्रकार माया-कषायी और लोभ-कषायी नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिये । श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग वाले नैरयिक संख्यात होते हैं। नोइन्द्रिय के उपयोग वाले नरयिक असंज्ञी नैरयिक जीवों की तरह कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । मन-योगी यावत् अनाकारोपयोग वाले नैरयिक संख्यात होते हैं। अनन्तरोपपन्नक नैरयिक कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो असंज्ञी जीवों के समान एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। परम्परोपपत्रक नरयिक संख्यात होते हैं। जिस प्रकार अनन्तरोपपन्नक का कथन किया गया, उसी प्रकार अनन्तरावगाढ़, अनन्तराहारक, अनन्तर-पर्याप्तक का कथन करना चाहिये। जिस प्रकार परम्परोपपन्नक का कथन किया गया है, उसी प्रकार परंपरावगाढ़, परंपराहारक, परंपरपर्याप्तक चरम और अचरम का कथन करना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १३ उ. १ नरकावासों की संख्या विस्तारादि २१८७ विवेचन-रत्नप्रभा नवी में एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? कितने उद्वतंते हैं ? इसका परिमाण पूर्व मूथों में बनलाया गया है । इम मूत्र में यह बताया गया हैं कि वहाँ मत्ता में. कितने नै रयिक विद्यमान रहते हैं ? जिन नरयिका को उत्पन्न हुए अभी एक ही ममय हुआ है, उन्हें 'अनन्तरोपपत्रक कहते हैं और जिनको उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय हो गये हैं, उन्हें 'परम्परोपपन्नक' कहते हैं। किसी एक उत्पत्ति क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हुए जीवों को 'अनन्त रावगाढ़ 'कहते है ओर उत्पत्ति क्षेत्र में द्वितीयादि समय म रहे हुए जीवों को 'परम्परावगाढ़' कहते है। __ आहार ग्रहण करने में जिन्हें प्रथम ममय हुआ हैं. उन्हें 'अनन्तराहारक' और जिन्हें द्वितीयादि ममय हुआ है, उन्हें परम्पराहारक' कहते हैं। जिन जीवा को पर्याप्त हुए प्रथम समय हो हआ है. उन्हें 'अनन्तर पर्याप्तक' और जिनको पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो गये हैं. उन्हें “परम्पर पर्याप्तक' कहते हैं। जिन जीव! का वही अन्तिम नारक-भव है अथवा जो नारक-भव के अन्तिम समय म रहे हुए हैं, उन्हें 'चरम नरयिक कहते हैं और इनसे विपरीत को 'अचरम' नैरचित कहते हैं । जो असशी तिर्यच मर कर नरक में नैरंयिकपने उत्पन्न होते हैं, वे अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक असंजी होते हैं । ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं । इसलिए कहा गया है कि-रत्नप्रभा पृथ्वी में असंनी कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। ___ मानकषायोपयुक्त, मायाकषायोपयुक्त, लोभकषायोपयुक्त और नोइन्द्रियोपयुक्त तथा अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाद. अनन्तराहारक और अनन्तर पर्याप्तक नैरयिक कभीकभी ही होते हैं, इसलिए कहा गया है कि ये कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। शेष नैरयिक जीव मदा बहुत होते हैं, इसलिए संख्यात' कहना चाहिए । ७ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु असंखेन्जवित्थडेसु एगसमएणं केवइया णेरइया उजवनंति, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववज्जति ? ७ उत्तर-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरया For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४८ भगवती सूत्र -श. १३३. १ तरकावालों का तस्था विस्तारादि वाससय सहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु णरएस एगसमएणं जहणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उनकोसेणं असंखेज्जा रइया उववज्जति । एवं जहेव संखेज्ज वित्थडेसु तिष्णि गमगा तहा असंखेज्ज - वित्थडे वितिणि गमगा भाणियव्वा णवरं अमंखेजा भाणियव्वा, सेसं तं चैव, जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता, णवरं संखेज वित्थडे वि असंखेज्जवित्थडेसु वि ओहिणाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उब्वट्टावेयव्वा सेसं तं चैव । कठिन शब्दार्थ-गमगा- गमक, आलापक । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में एक समय में कितने नैरथिक उत्पन्न होते हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नरि उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता ( विद्यमानता) ये तीन आलापंक कहे गये हैं, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिए। इनमें यह विशेषता है कि यहाँ संख्यात के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिए। शेष सब पहिले के समान कहना चाहिए। यावत् 'असंख्यात अचरम नैरयिक कहे गये हैं । इनमें विशेषता यह है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी 'संख्यात हो उद्वर्तते है ' - कहना चाहिए । शेष सब पहले के समान कहना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--ग. १३ इ. १ गरकावासों की संख्या विस्तानदि २१४९ विवेचन-संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों की ववतव्यता पहले कही गई है । इस सूत्र में असंख्यात याजन विस्तार वाले नरकावासों की वक्तव्यता कही गई है। इनमें भी उत्पाद, उवर्तन और सना-इन तोन आलापकों का कथन पूर्ववत् कहना चाहिये। विशेषता यह है कि पूर्व सूत्र में जहाँ 'संख्यात' कहा है वहाँ इस सूत्र में 'असंख्यात' कहना चाहिये। अधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थंकर आदि ही उद्वर्तते हैं और वे मनुष्य गति में हो उत्पन्न होते हैं तिर्मच गति में नहीं, इसलिए व स्वल्प होत हैं। इसलिये उनके उद्वर्तन के विषय में संन्यान' हो कहना चाहिये, 'असंख्यात' नहीं, क्योंकि वे संख्यात ही उद्वर्तते हैं। शेष कथन भुगम है। ८ प्रश्न-सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवइया णिरयावास० पुच्छा । ___८ उत्तर-गोयमा ! पणवीसं णिरयावाससयसहरसा पण्णत्ता । , प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए तहा सवकरप्पभाए वि । णवरं असण्णी तिसु वि गमएसु ण भण्णइ, सेसं तं चेव । ९ प्रश्न-वालुयप्पभाए णं पुच्छ । ९ उत्तर-गोयमा ! पण्णरस णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सक्करप्पभाए, णाणत्तं लेसासु, लेसाओ जहा पढमसए । १० प्रश्न-पंकप्पभाए णं पुच्छा। - १० उत्तर-गोयमा ! दस गिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा सक्करप्पभाए, णवरं ओहिणाणी ओहिदंसणी य ण उव्व For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ उ. १ नरकावासा का सख्या विस्तारादि टुंति, सेसं तं चेव ! ११ प्रश्न-धूमप्पभाए णं पुच्छा । ११ उत्तर-गोयमा ! तिणि णिरयावाससयसहस्सा, एवं जहा पंकप्पभाए । १२ प्रश्न-तमाए णं भंते ! पुढवीए केवइया णिरयावास० पुच्छा । १२ उत्तर-गोयमा ! एगे पंचूणे णिरयावाससयसहस्से पण्णत्ते । सेमं जहा पंकप्पभाए । १३ प्रश्न-अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए कइ अणुत्तरा महति. महालया महाणिरया पण्णता ? १३ उत्तर-गोयमा ! पंच अणुत्तरा जाव अपइट्ठाणे। . प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य । १४ प्रश्न-अहेसत्तमाए णं- भंते ! पुढवीए पंचसु अणुतरेसु महतिमहालया० जाव महाणिरएसु संखेज्जवित्थडे णरए एगसमएणं केवइया ? १४ उत्तर-एवं जहा पंकप्पभाए, णवरं तिसु णाणेसु ण उवबज्जति ण उबटुंति पण्णत्तएसु तहेव अस्थि, एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, णवरं असंखेज्जा भाणियव्वा । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.:१३ उ. १ नरकावासों की सध्या विस्तादि २१५१ कठिन शब्दार्थ-केवइया-कितने, पणवीस-पच्चीस, महतिमहालया-अत्यंत बड़े । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न । ८ उत्तर-हे गौतम ! पच्चीस लाख नरकावास कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे नरकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के विषय में भी कहना चाहिये । परन्तु उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, इन तीनों ही आलापकों में 'असंजी' नहीं कहना चाहिये । शेष सभी कथन पूर्व की तरह कहना चाहिये । ९ प्रश्न-हे भगवन् ! बालुकाप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये हैं ? इत्यादि प्रश्न ? ९ उत्तर-हे गौतम ! बालुकाप्रभा में पन्द्रह लाख नरकावास कहे गये हैं। शेष सभी कथन शर्कराप्रभा के समान कहना चाहिये। यहाँ लेश्या के विषय में विशेषता है। लेश्या का कथन प्रथम शतक के दूसरे उद्देशक के समान कहना चाहिये। ___ १० प्रश्न-हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये है, इत्यादि प्रश्न । १० उत्तर-हे गौतम ! दस लाख नरकावास कहे गये हैं। जिस प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि यहाँ से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते । शेष सभी-कथन पूर्व के समान जानना चाहिये । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न । ११ उत्तर-हे गौतम ! तीन लाख नरकावास कहे गये हैं। जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चहिये । For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३ उ. १ नरकावासों की संख्या विस्तारादि १२ प्रश्न - हे भगवन् ! तमःप्रभा पृथ्वी में कितने नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न | २१५२ १२ उत्तर - हे गौतम! पाँच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं । शेष सभी वर्णन पंकप्रभा के समान कहना चाहिये । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! अधः सप्तम पृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े कितने महा नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर - हे गौतम! अनुत्तर और बहुत बड़े पांच महा नरकावास कहे गये हैं । यावत् ( काल, महाकाल, रौरव, महारौरव) अप्रतिष्ठान । प्रश्न - हे भगवन् ! वे नरकावास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम ! मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यात योजन विस्तार वाला है और शेष चार नरकावास असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं। १४ प्रश्न - हे भगवन् ! अंधः सप्तम पृथ्वी के पांच अनुत्तर और बहुत बड़े यावत् महा नरकावासों में से संख्यात योजन के विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १४ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये, विशेषता यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं और न उद्वर्तते हैं, परन्तु इन पांचों नरकावासों में रत्नप्रभा पृथ्वी आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं । जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में कहा, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी कहना चाहिये । इसमें संख्यात के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिये । विवेचन-असंज्ञी जीव प्रथम नरक में ही उत्पन्न होते हैं, उससे आगे नहीं । इसलिये द्वितीयादि नरकों में उनका उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिये । लेश्याओं के विषय में जो विशेषता कही गई है, वह प्रथम शतक के द्वितीय For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १३ उ. १ नैरमिकों में दृष्टि उद्देश्क के अनुसार जाननी चाहिये। वहाँ की संग्रह गाथा यह है काऊ दोसु तइया मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमियाए मीसा कहा ततो परमकन्हा ॥ अर्थात् पहली और दूसरी नरक में कापोत लक्ष्या होती है। तीसरी नरक में कापोत और नील-वे दोनों लेश्याएं होती हैं। चौथी नरक में नील लेश्या होती है। पांचवी नरक में नील और कृष्ण - ये दोनों लेश्याएँ होती हैं। छठो नरक में कृष्ण लेश्या और सातवीं नरक में परमकृष्ण लेश्या होती है । चौथी संप्रभा नरक में कहा गया है कि यहाँ से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते हैं । इसका कारण यह है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थंकर ही होते हैं । चोथी नरक से निकले हुए जीव, तीर्थंकर नहीं हो सकते और वहाँ से निकलने वाले अन्य जीव भी अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते । २१५३ सातवीं नरक में मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्वी और समकित से पतित जीव ही उत्पन्न होते हैं । तथा वहाँ से इन तीन ज्ञानों में उद्वर्तना भी नहीं होती और वहाँ से निकले हुए जीव इन तीन ज्ञानों में उत्पन्न भी नहीं होते । यद्यपि सातवीं नरक में मिथ्यात्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वहाँ उत्पन्न होने के बाद जीव समकित प्राप्त कर सकता हैं। समकित प्राप्त कर लेने पर वहाँ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी पाये जा सकते हैं। इसलिये सातवीं नरक में इन तीन ज्ञान वाले जीवों का उत्पाद और उद्वर्तना तो नहीं है, किन्तु सत्ता है । नैरयिकों में दृष्टि १५ प्रश्न- इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससय सहस्सेसु संखेज्ज वित्थडेसु णरपसु किं सम्मदिट्टी गेरइया उववजंति, मिच्छदिट्टी णेरड्या उववज्जंति, सम्मामिच्छदिट्टी पेरइया उववजंति ? For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ! नरयिकों में दृष्टि १५ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि णेरड्या उववजंति, मिच्छा. दिट्टी वि णेरइया उववजंति, णो सम्मामिच्छदिट्ठी जेरइया उववजंति। १६ प्रश्र-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु किं सम्मदिट्टी णेरड्या उबटुंति । १६ उत्तर-एवं चेव। कठिन शब्दार्थ-सम्मामिच्छविट्ठी-सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) नरयिक उत्पन्न होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं और मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तते हैं, इत्यादि प्रश्न । १६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व के समान जानना चाहिये, अर्थात् सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि उद्वर्तते हैं, परंतु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं उद्वर्तते । विवेचन-'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवस्था में काल नहीं करता-ऐसा सिद्धान्त वाक्य है । १७ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १: उ. ५ नयिकों में दृष्टि णिरयावासमयसहस्सेसु मखेजवित्थडा गरगा किं मम्मदिट्ठीहिं गैरह. एहिं अविरहिया, मिच्छादिट्टीहिं परइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं णेरइएहिं अविरहिया ? ___ १७ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठीहिं वि णेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्टीहिं वि णेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्टीहिं गेरइ. एहिं अविरहिया विरहिया वा । एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा भाणियव्वा । एवं सक्करप्पभाए वि, एवं जाव तमाए वि । १८ प्रश्न-अहेमत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेजवित्थडे मु णरए किं सम्मदिट्टी गैरइया-पुच्छा। १८ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठी जेरइया ण उववज्जति. मिच्छादिट्ठी णेरड्या उववजंति, सम्मामिच्छदिट्टी णेरड्या ण उववजंति, एवं उब्वटृति वि, अविरहिए जहेव रयणप्पभाए । एवं असंखेजविस्थडेमु वि तिण्णि गमगा। · कठिन शब्दार्थ-अविरहिया-अविरहित (विरह रहित)। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावास, सम्यग्दृष्टि नरयिकों से अविरहित (सहित) हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नरयिकों से अविरहित हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित हैं, सम्यग-मिथ्यादृष्टि नैरयिकों से कदाचित् अविरहित होते हैं और कदाचित् विरहित होते हैं। इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सुत्र-स. १३ ७. १ लेश्या में परिवर्तन नरकावासों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिये। इसी प्रकार शर्कराप्रभा यावत् तमःप्रभा तक कहना चाहिये। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! अधःसप्तम पृथ्वी के पांच अनुत्तर यावत् संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । . १८ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते, निध्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिये । जिस प्रकार रत्नप्रभा में सत्ता के विषय में मिथ्यादृष्टि आदि द्वारा अविरहित कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिये। विवेचन-सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते।, इसलिये उनका विरह हो सकता है। लेश्या में परिवर्तन १९ प्रश्न-से पूर्ण भंते ! कण्हलेस्से, णीललेस्से, जाव सुक्कलेस्ले भविता कण्हलेस्सेसु णेरइएसु उववजंति ? १९ उत्तर-हंता, गोयमा ! कण्हलेस्मे जाव उववजंति । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेस्से जाव उववजंति ? उत्तर-गोयमा ! लेस्सटाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकिलिस्स For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शे. १३ उ. १ लेग्या में परिवर्तन ०१५७ .. माणेसु कण्हलेस परिणमइ, कण्हलेसं परिणमित्ता कण्हलेसेसु णेरइ. एसु उबवजंति, से तेणटेणं जाव उववति । ____२० उत्तर-मे पूर्ण भंते ! कण्हलेस्से जाव मुक्कलेस्से भवित्ता णीललेस्सेसु णेरइएमु उववजंति ? २० उत्तर-हंता, गोयमा ! जाव उववज्जति । प्रश्न-से केणटेणं जाव उववजति ? उत्तर-गोयमा ! लेस्सटाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झ- . माणेसु वा णीललेस्सं परिणमइ, णोललेस्सं परिणमित्ता णीललेस्सेसु णेरइएसु उववजंति, से तेणटेणं गोयमा ! जाव उववज्जति । २१ प्रश्न-से गुणं भंते ! कण्हलेस्से णीललेस्से जाव भवित्ता काउलेस्सेसु णेरइएसु उववजंति ? २१ उत्तर-एवं जहा णीललेस्साए तहा काउलेस्साए वि भाणियबा, जाव से तेणटेणं जाव उववजंति । ® मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ® ॥ पढमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-संकिलिस्समाणेसु-संक्लेश को प्राप्त होते हुए, विसुज्ममाणेसु-विशुद्ध होते हुए। ___ भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेशी, नीललेशी यावत् शक्ललेशी (कृष्णलेश्या योग्य) बन कर कृष्णलेशी-नरयिकों में उत्पन्न होता है ? For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१५८ भगवती सूत्र-श. १४ उ. १ लेण्या में परिवर्तन १९ उत्तर-हां गौतम ! कृष्णलेशी होकर यावत् उत्पन्न होता है । प्रश्न-हे भगवन् ! इस का क्या कारण है ? । उत्तर-हे गौतम ! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए कृष्ण-लेश्या रूप से परिणमते हैं और कृष्णलेश्या से परिणत होने के बाद, वह जीव कृष्णलेश्या वाले नैरपिकों में उत्पन्न होता है । इस कार ग यावत् पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होकर जीव नीललेश्या वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? २० उत्तर-हाँ गौतम ! यावत् उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! इस का क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए और विशुद्धि को प्राप्त होते हुए, वह जीव नीललेश्या रूप में परिणत होता है। और नीललेश्या रूप से परिणत होने के बाद वह नीललेशी नैरयिकों में उत्पन्न होता है । इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है । २१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेशी, नीललेशी यावत् शुक्ललेशी होकर कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार नीललेश्या के विषय में कहा गया, उसी प्रकार कापोत लेश्या के विषय में कहना चाहिये, यावत् इस कारण उत्पन्न होते हैं-तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-लेश्या स्थान का तात्पर्य-उसी 'लेण्या के अवान्तर भेद' है । प्रगस्त लेश्या स्थान जब अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे 'संक्लिश्यमान' कहलाते हैं और अप्रशस्त लेश्या-स्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे 'विशुद्धयमान' कहलाते हैं । इसलिये प्रशस्त और अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में यथायोग्य मंक्लिश्यमानता और विशुद्धयमानता समझनी चाहिये। ॥ तेरहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ उद्देशक २ देवावासों की संख्या विस्तारादि १ प्रश्न-कविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता । १ उत्तर-गोयमा ! चउविही देवा पण्णत्ता, तं जहा-१ भवणवासी, २ वाणमंतरा. ३ जोइसिआ, ४ देमाणिआ। २ प्रश्न-भवणवासी णं भंते ! देवा कइविहा पण्णता ? २ उत्तर-गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता. तं जहा-१ असुरकुमारा एवं भेओ जहा वितियसए दबुद्देमए, जाव अपराजिया, सव्वट्टः सिद्धगा। ३ प्रश्न-केवइया णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! चोसर्हि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेजवित्थडा वि, असंखेजवित्थडा वि । ४ प्रश्न-चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवइया असुरकुमारा उववजंति, जाव केवइया तेउलेस्सा उववजंति, केवइया कण्हपक्खिया उववजंति ? For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६० भगवती सूत्र-श. १३ उ. २ देवावामों की संख्या विस्तारादि ४ उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं; णवरं दोहिं वेएहिं उववजंति, णपुंसगवेयगा ण उववजंति. सेसं तं चेव । उब्वटुंतगा वि तहेव, णवरं असण्णी उव्वद॒ति । ओहि. णाणी ओहिदंसणी य ण उब्बटुंति, सेसं तं चेव, पण्णत्तएसु तहेव णवरं संखेजगा इत्थिवेयगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेयगा वि, णपुंसगवेयगा णत्थि । कोहकसाई सिय अस्थि सिय णत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा पण्णत्ता । एवं माण० माय० । संखेजा लोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं चेव । तिसु वि गमएसु संखेज्जेसु चत्तारि लेस्साओ भाणियब्वाओ एवं असंखेजवित्थडेसु वि, णवरं तिसु वि गमएमु असंखेज्जा भाणियव्वा, . जाव असंखेजा अचरिमा पुण्णत्ता । ५ प्रश्न-केवइया णं भंते ! णागकुमारावास० ? ५ उत्तर-एवं जाव थणियकुमारा, णवरं जत्थ जत्तिया भवणा। कठिन शब्दार्थ--वागरणं-व्याकरण (उत्तर)। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने प्रकार के देव कहे गये हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार के देव कहे गये हैं । यथा-१ भवनवासी २ वाणव्यन्तर ३ ज्योतिषी और ४ वैमानिक । २ प्रश्न-हे भगवन् ! भवनवासी देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! दस प्रकार के कहे गये हैं । यथा-असुरकुमार For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ५३ उ. २ देवावामों की मंच्या विस्तारादि २१६१ इत्यादि भेद दूसरे शतक के सातवें देवोद्देशक के अनुसार यावत् 'अपराजित और सर्वार्थसिद्ध' पर्यन्त कहना चाहिये। ___३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के वे आवाम संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ? उत्तर-हे गौतम ! संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। __ ४ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारवासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, यावत् कितने तेजोलेशी उत्पन्न होते हैं ? कितने कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर-इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में किये गये प्रश्न के समान प्रश्न करना चाहिये और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिये। परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ दो वेदों सहित (स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी) उत्पन्न होते हैं, नपुंसकवेदी उत्पन्न नहीं होते । शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए । उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि असंज्ञो भी उद्वर्तते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिये। सत्ता के विषय में पहले कहे अनुसार ही कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि वहां संख्यात स्त्रीवेदी और संख्यात पुरुषवेदी हैं, नपुंसकवेदी बिलकुल नहीं हैं। क्रोधकषाय वाले कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मानकषायी और मायाकषायी के विषय में भी कहना चाहिये। लोभकषायी संख्याता होते हैं। शेष पूर्ववत For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. २ देवावासों को संख्या विस्तारादि जानना चाहिये । संख्येय विस्तृत आवासों में उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता के तीन आलापकों के विषय में चार लेश्याएं कहनी चाहिये । इसी प्रकार असंख्येय विस्तृत असुरकुमारावासों के विषय में भी कहना चाहिये। परन्तु इनमें 'असंख्यात' पाठ यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गये है'-तक कहना चाहिये। . ५ प्रश्न-हे भगवन् ! नागकुमार देवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । विशेषता यह है कि जहाँ जितने लाख भवन हों, वहां उतने लाख भवन कहने चाहिये। विवेचन-पहले उद्देशक में नैरयिक जीवों का कथन किया है । नरयिक भी औपपातिक (उपपात जन्म वाले) हैं और देव भी औपपातिक हैं। इस औपपातिक धर्म की साधर्म्यता से इस दुसरे उद्देशक में देवों का कथन किया जाता है भवनवासी देवों के आवास भी संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत होते हैं । उनका परिमाण इस प्रकार कहा गया है जंबूद्दीवसमा खलु भवणा जे हुंति सव्वखुड्डागा। संखेज्जवित्थडा मजिसमा उ सेसा असंखेज्जा । अर्थात्-भवनवासी देवों के जो सबसे छोटे आवाम ( भवन ) होते हैं, वे जम्बूद्वीप के समान होते हैं। मध्यम संख्यात योजन के विस्तार वाले होते हैं और शेष अर्थात् बड़े आवास असख्यात योजन के विस्तार वाले होते हैं। . देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद-ये दो वेद ही होते हैं, नपुसकवेद नहीं होता । इस लिये 'दो वेद वाले उत्पन्न होते हैं'-ऐसा कहा गया है। . 'असंज्ञी उद्वतते हैं'-ऐसा जो कहा गया है, इसका कारण यह है कि असुरकुमारों से लेकर दूसरे ईशान देवलोक तक के देव, पृथ्वीकायादि अमंजी जीवों में उत्पन्न होते है। वहाँ से निकले हुए जीव तीर्थकर तो होते ही नहीं और जो वहां से निकलते हैं, वे भी अवधिज्ञान लेकर नहीं निकलते हैं। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग १३ उ. २ देवावालों की संख्या विस्तारादि २१६३ अमरकुमारादि देवों में कोध, मान और माया कपाय के उदय वाले जीव कदाचिन् होते हैं और कदाचित् नहीं होतं । किन्तु लोभ कपाय के उदय वाले मदा होते हैं । इसीलियं. वे संग्ख्यात होते हैं'-ऐसा कहा गया है। प्रमाणात दंवों में कृष्ण, नील, कापोत और तंजो-ये चार लेश्याएँ होती है। इमलिये उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता-इन तीनों अलापकों में चारों लण्याएँ कहीं चाहिय। अमुरकुमारादि देवों के भवनों की संख्या इस प्रकार है चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावत्तरि कणगाणं, वाउकुमाराण छण्ण उई ।। दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिदथणियमग्गीणं । जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ अर्थात्-अमरकुमारों के ६४ लाख, नागकुमारों के ८८ लाग्य, सुवर्णकुमारों के ७२ लाख, वायुकुमारों के ५६ लाख और द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युतकुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार-इन प्रत्येक युगल के ७६ लाख ७६ लाख भवन होते है । ६ प्रश्न-केवड्या णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? ६ उत्तर-गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, णो असंखेज्जवित्थडा । • ७ प्रश्न-संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवइया वाणमंतरा उववजंति ? ७ उत्तर-एवं जहा असुरकुमाराणं संखेन्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा तहेव भाणियब्वा वाणमंतराण वि तिण्णि गमगा। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १३. उ. २ देवावानों की संख्या विस्तारादि भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? - २१६४ गये हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम वाणव्यन्तर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे प्रश्न न - हे भगवन् ! वे आवास संख्येय विस्तृत हैं या असंख्येय विस्तृत ?' उत्तर - हे गौतम! वे संख्येय विस्तृत हैं, असंख्येय विस्तृत नहीं । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के संख्येय विस्तृत आवासों में एक समय में कितने वाणव्यन्तर देव उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येय विस्तृत आवासों के विषय में तीन आलापक कहे, उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिये । विवेचन - वाणव्यन्तर देवों के आवास संख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं, असंख्यात योजन विस्तार वाले नहीं । उनका परिमाण इस प्रकार है जंबूद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मज्झिमगा ॥ - वाणव्यन्तर देवों के सब से छोटे नगर (आवास) भरतक्षेत्र के समान होते हैं, मध्यम महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े आवास जम्बूद्वीप के समान होते हैं । ८ प्रश्न - केवइया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससय सहस्सा पण्णत्ता ? ८ उत्तर - गोयमा ! असंखेज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । प्रश्न- ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा० १ उत्तर - एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाणं वि तिष्णि For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ न. २ देवावासों की मंग्या विस्तागदि २१६५ गमगा भाणियव्वा, णवरं एगा तेउलेस्सा । उववजंतेसु पण्णत्तेसु य असण्णी णत्थि, सेसं तं चेव । ___ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषी देवों के कितने लाख विमानावास कहे गये हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! ज्योतिषी देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे विमानावास संख्येय विस्तृत हैं या असंख्येय विस्तृत ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार वाणव्यन्तर देवों के विषय में कहा, उसी प्रकार ज्योतिषी देवों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिये । इसमें इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियों में केवल एक तेजोलेश्या ही होती है। उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता में असंज्ञी नहीं होते । शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है । विवेचन-ज्योतिपी देवों में विमानावास संख्येय विस्तृत ही होते हैं । उनके विमान एक योजन से भी कम विस्तृत होते हैं । इनमें एक तेजोलेश्या ही होती है । ज्योतिषी देवों में अमंज्ञी जीव न तो उत्पन्न होते हैं और न सत्ता में होते हैं। किन्तु वहाँ से चव कर असंजी (पृथ्वीकाय आदि) में उत्पन्न होते हैं । इसलिए चवते हैं, ऐसा कहना चाहिये । ९ प्रश्न-सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससय. सहस्सा पण्णत्ता ? ९ उत्तर-गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि असंखेजवित्थडा वि। . १० प्रश्न सोहम्मे गं भंते ! कप्पे बत्तीसाए विमाणावास. For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ ३. २ देवावामों की संख्या विस्तारादि सयसहस्सेमु संखेजवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवइया सोहम्मा देवा उववजंति, केवड्या तेउलेस्सा उववजंति ? १० उत्तर-एवं जहा जोइसियाणं तिण्णि गमगा तहेव तिणि गमगा भाणियब्वा, णवरं तिसु वि 'संखेज्जा भाणियब्वा, ओहिणाणी ओहिदंसणी य चयावेयब्वा, सेसं तं चेव । असंखेज्जवित्थडेसु एवं चेव तिण्णि गमगा, णवरं तिसु वि गमएसुः 'असंखेज्जा' भाणिया । ओहिणाणी य ओहिदंसणी य संखेज्जा चयंति, सेसं तं चेव । एवं जहा सोहम्मे वत्तव्वया भणिया तहा ईसाणे वि छ गमगा भाणियव्वा । सणंकुमारे एवं चेव, णवरं इत्थीवेयगा ण उववज्जति, पण्णत्तेमु य ण भण्णंति अमण्णी तिमु वि गमएमु ण भण्णंति, सेमं तं चेव, एवं जाव सहस्सारे, णाणत्तं विमाणेसु लेम्सासु य, सेसं तं चेव । . कठिन शब्दार्थ-णाणतं-भेद-अन्तर । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक में कितने लाख विमानावास कहे गये हैं ? | ९ उत्तर-हे गौतम ! बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे विमानावास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले ? उत्तर-हे गौतम ! संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानावासों For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १६ उ. - देवावामों का सम्या विस्तारादि में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में एक समय में कितने देव उत्पन्न होते हैं ? तेजोलेश्या वाले कितने सौधर्म देव उत्पन्न होते हैं ? ' १० उत्तर-जिस प्रकार ज्योतिषी देवों के विषय में तीन आलापक कहे, उसी प्रकार यहां भी तीन आलापक कहना चाहिये। विशेष में तीनों आलापकों में 'संख्याता' पाठ कहना तथा अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी के च्यवन सम्बन्धी पाठ भी कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी विषय पूर्वानुसार कहना चाहिये । असंख्यात योजन विस्तृत विमानावासों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए, किंतु इनमें 'संख्यात' के स्थान में 'असंख्यात' कहना चाहिए। असंख्येय योजन विस्तृत विमानावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तो संख्यात ही च्यवते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है । जिस प्रकार सौधर्म देवलोक के विषय में छः आलापक कहे, उसी प्रकार ईशान देवलोक के विषय में भी छः (तीन संख्येय योजन के विमान सम्बन्धी और तीन असख्येय योजन के विमानों के विषय में) आलापक कहना चाहिए । सनत्कुमार के विषय में भी इसी प्रकारं जानना चाहिए । इसमें अंतर इतना है कि सनत्कुमार देवों में केवल पुरुषवेदी ही उत्पन्न होते हैं, स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते और न सत्ता में ही रहते हैं। यहां तीनों आलापकों में 'असंजो' पाठ नहीं कहना चाहिए। शेष सभी वक्तव्यता पूर्वानुसार कहनी चाहिए । इसी प्रकार यावत् सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए । अन्तर विमानों की संख्या और लेश्या के विषय में है । शेष सभी विषय पूर्वानुसार है। विवेचन-धिर्म देवलोक से च्यवे हुओं में तीर्थंकर आदि (तीर्थंकर व कुछ अन्य भी) अवधिज्ञान और अवधिदर्शन युक्त होते हैं, अतएव च्यवन में अवधिनानी और अवधिदर्शनी भी कहने चाहिए। भवनपति. व्यन्तर और ज्योतिषी देवों से वैमानिकों में यह विशेषता है । असंख्येय योजन विस्तृत विमानों में से भी अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तो संख्येय ही च्यवते हैं, क्योंकि वैसी आत्माएं (तीर्थंकर और कुछ अन्य के सिवाय) सदैव नहीं होती, जो अवधिज्ञान और अवधिदर्शन युक्त च्यवती है । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भगवती मूत्र-ग. १३ 3. २ देवावामा की संख्या विस्तारादि मौधर्म और ईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी (देवियां ) उत्पन्न होती है । इनमे आगे सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते, अतएव सत्ता में भी नहीं होते । वहाँ से चवे हुए स्त्रीवेदी हो सकते हैं। सनत्कुमारादि देवलोकों में सजी जीव ही उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी उत्पन्न नहीं होते । अमज्ञी में उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक के देवों की होती है। वहाँ से चवे हुए जीव भी संजी जीवों में ही जा कर उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन देकलोकों में उत्पाद, च्यवन आर सत्ता, तीनों आलापकों में असजी का कथन नहीं करना चाहिये। सहस्रार देवलोक तक तिर्यच उत्पन्न होते हैं। इसलिये तीनों आलापकों में अमव्यात पद घटित हो जाता है। विमानों की संख्या ओर लेश्याओं में अन्तर है. वह आगे बतलाया जायेगा। ११ प्रश्न-आणय-पाणएसु णं भंते ! कप्पेसु केवइया विमाणावाससया पण्णता ? ११ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि विमाणावाससया पण्णत्ता। प्रश्न-तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेजवित्थडा वि, असंखेजवित्थडा वि । एवं संखेजवित्थडेसु तिण्णि गमगा जहा सहस्सारे, असंखेजवित्थडेसु उववजंतेसु य चयंतेसु य एवं चेव मंखेजा' भाणियव्वा, पण्णत्तेसु असंखेना, णवरं णोइंदियोवउत्ता अणंतरोववण्णगा अणंतरोगाढगा अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा य एएसिं जहाणेणं एको वा दो वा तिणि वा, उकोमेणं संखेजा पण्णता सेमा असंखेजा भाणियया । आरणच्चुएन्नु एवं चेव जहा आणय पागएसु, णाणत्तं विमाणेसु, एवं गेवेज्जगा वि । For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १३ उ. २ देवावामा की भव्या विम्नागदि कठिन शब्दार्थ--गवेज्जगा--ग्रेवेयक । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन ! आनत और प्रागत देवलोकों में कितने सौ विमानावास कहे हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! चार सौ विमानावास कहे हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे विमानावास संख्यात योजन विस्तृत हैं या असख्यात योजन विस्तृत ? उत्तर-हे गौतम ! संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी है । संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों के विषय में सहस्रार देवलोक के समान तीन आलापक कहने चाहिये। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में उत्पाद और चवन के विषय में 'संख्यात' और सत्ता में 'असंख्यात' कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि नो-इन्द्रियोपयुक्त, अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक, इन पांच पदों के विषय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात. उत्पन्न होते हैं । एवं पदों में असंख्यात होते हैं। जिस प्रकार आनत और प्राणत के विषय में कहा, उसी प्रकार आरण और अच्युत के विषय में भी कहना चाहिये । विमानों की संख्या में अन्तर है। इसी प्रकार अवेयक देवलोकों के विषय में भी कहना चाहिये। - विवेचन--आनतादि देवलोकों में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता में संख्यात देव होते हैं । असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में, उत्पाद और च्यवन में संख्यात और सत्ता में असख्यात देव होते हैं । क्यों कि गर्भज मनुष्य ही मर कर आनतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव, वहाँ से व्यव कर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होने हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं । इसलिये एक ममय में संख्यात का ही उत्पाद और संख्यात का ही च्यवन हो सकता है। उन देवों का आयुष्य भी असंख्यात वर्ष का होता है, इसलिये उनके जीवन काल में असंख्यात देव उत्पन्न होते हैं । इसलिये 'सत्ता' में असंख्यात होते हैं-ऐसा कहा गया है । परन्तु नो-इन्द्रियोपयुक्त आदि पांच पदों में तो संख्यात ही होते हैं, क्योंकि यह अवस्था केवल उत्पत्ति के समय ही For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७० भगवती सूत्र-स. १३ उ. २ देवावासों की संख्या विस्तारादि होती है और उत्पत्ति संख्यात की ही होती है, यह बात पहले बतला दी गई है। बारह देवलोकों के विमानावासों की संख्या इस प्रकार है बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ट चऊरो य सयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा, छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥ आणय पाणय कप्पे. चत्तारि सया आरणच्चुए तिष्णि । सत्त विमाण सयाई, चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥ (पन्नवणा पद २) सौधर्मादि देवलोकों में क्रमश: विमान संख्या इस प्रकार है : --१ बत्तीस लाग्व २ अट्टाईस लाख ३ बारह लाम्ब ४ आठ लाख ५ चार लाख ६ पचास हजार ७ चालीम : हजार ८ छह हजार ९-१० चार सौ ११-१२ तीन सौ । कुल मिलाकर ८४९६७०० विमान हैं । ग्रैवेयक की पहली त्रिक में १११, दूसरी त्रिक में १०७, तीसरी त्रिक में १०० विमान होते हैं और अणुत्तरोपपातिक देवों के ५ विमान होते हैं । कुल ८४९७०२३ विमान होते हैं। इन देवलोकों में लेश्या इस प्रकार है: सौधर्म और ईशान देवलोक में मुख्य रूप से तेजालेल्या होती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक, इन तीन देवलोकों में पद्मलेश्या होती है। उसमे आगे के देवलोकों में एक शुक्ल लेश्या होती है । १२ प्रश्न-कइ णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ? १२ उत्तर-गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणी पण्णता । प्रश्न-ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, असंखेजवित्थडा ? उत्तर-गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य । १३ प्रश्न-पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेमु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवइया अणुत्तरोववाइया देवा उववज्जंति, केवइया मुक्कलेस्सा उववज्जति, पुच्छा तहेव । १३ उत्तर-गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेजविस्थडे For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवता सूत्र-श. १. उ. २ देवावासों की संख्या विस्तारादि अणुतरविमाणे एगममएणं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा अणुत्तगेववाइया देवा उववजंति, एवं जहा गेवेज विमाणेमु संग्वेज वित्थडेसु. णवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिमु अण्णाणेसु एए ण उववजंति, ण चयंति, ण पण्णत्तएमु भाणियब्वा, अचरिमा वि खोडिजंति, जाव संखेज्जा चरिमा पण्णत्ता, सेमं तं चेव । असंखेजवित्थडेसु वि एए ण भण्णंति, णवर अचरिमा अस्थि, सेसं जहा गेवेज एमु असंखेन्ज वित्थडेसु जाव' असंखेजा अचरिमा पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ-खोडिज्जति-निपध किये जात है। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! अनुत्तर विमान कितने कहे गये हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! पाँच अनुत्तर विमान कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे अनुत्तर विमान संख्येय योजन विस्तृत हैं या असंख्येय योजन विस्तृत हैं ? उत्तर-हे गौतम ! उनमें से एक संख्यात योजन विस्तृत है और शेष चार असंख्यात योजन विस्तृत हैं। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानों में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमान में एक समय में कितने अनुत्तरोपपातिक देव उत्पन्न होते हैं और कितने शुक्ल लेशी उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे गौतम ! पाँच अनुत्तर विमानों में से संख्यात योजन विस्तार वाले 'सर्वार्थ-सिद्ध अनुत्तर विमान' में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अनुत्तरोपपातिक देव उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले ग्रेवेयक विमानों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिए । विशेषता यह है कि यहाँ कृष्णपाक्षिक, अभव्य और तीन अज्ञान For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १३ उ. २ देवों में दृष्टि वाले जीव उत्पन्न नहीं होते, न च्यवते हैं और न सत्ता में ही होते हैं । इसी प्रकार तीनों आलापकों में अचरम का भी निषेध करना चाहिये, यावत् संख्यात चरम कहे गये हैं । शेष सभी वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिये । असंख्यात योजन के farare वाले विमानवासों में भी इनका कथन नहीं करना चाहिये । परन्तु उनमें अचरम भी हैं। शेष सभी वर्णन असंख्येय विस्तृत ग्रेवेयकों के समान कहना चाहिये । यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गये हैं' - तक कहना चाहिये । २१५२ उत्पन विवेचन - अनुत्तर विमान पाँच हैं। यथा-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध | सर्वार्थसिद्ध विमान इन चारों विमानों के बीच में है और वह एक लाख योजन विस्तृत है । शेष विजयादि चार विमान असंख्यात योजन विस्तृत हैं । इन पांच अन्त्तर विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये कृष्णपाक्षिक, अभव्य और तीन अज्ञान वाले का, तीनों आलापकों में निषेध किया गया है। जिस जीव का अनुतर विमान सम्बन्धी अन्तिम भव नहीं है. उसे यहाँ 'अचरम' कहा गया और उसका भी यहाँ निषेध किया गया है, क्यों कि सर्वार्थसिद्ध विमान में चरम ही उत्पन्न होते हैं, शेष चार विमानों में तो अचरम भी उत्पन्न होते हैं । देवों में दृष्टि १४ प्रश्न - चोसट्टीए णं भंते ! असुरकुमारावासस्यसहस्से सु संखेज्ज वित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मदिट्टी असुरकुमारा उक्कजंति, मिच्छादिट्टी ० ? १४ उत्तर - एवं जहा रयणप्पभाए तिष्णि आलावगा भणिया तन भाणियन्ना । एवं असंखेजवित्थडे वि तिष्णि गमगा एवं तत्र जाव गेवेज्जविमाणे +, अणुत्तरविमाणेसु एवं चेवः णवरं तिसु वि + यह पाठ ग्रेवेयक में भी तान दृष्टि होना स्पष्ट बता रहा है- डोशी । For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-- शा. १३ उ. २ देवों में दृष्टि आलावएमु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य ण भण्णंति, सेसं तं चव । __१५ प्रश्न-से णूणं भंते ! कण्हलेस्से, णील० जाव मुक्कलेम्म भवित्ता कण्हलेम्सेसु देवेमु उबवज्जति ? १५ उत्तर-हंता गोयमा ! एवं जहेव णेरइएमु पढमे उद्देसए तहेव भाणियध्वं णीललेसाए वि जहेव णेरड्याणं, जहा णील. लेस्साए एवं जाव पम्हलेस्सेमु, सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, णवरं लेस्सट्टा णेनु विमुझमाणेमु विमुझमाणेमु सुक्कलेस्सं परिणमइ, मुक्क लेस्मं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेमु उववजंति । से तेणट्टेणं जाव उववजंति । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति है ॥ तेरसमसए वीओ उद्देसो समत्तो ।। भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से, संख्येय योजन विस्तृत असुरकुमारावासों में सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं या मिश्रदृष्टि उत्पन्न होते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में तीन आलापक कहे, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिये और उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिये । इसी प्रकार यावत् ग्रेवेयक और अनुतर विमानों में भी कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७४ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ३ नै रयिक के अनन्तराहारादि यह विशेषता है कि अनुत्तर-विमानों के तीनों आलापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना चाहिये, शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी, नोललेशी यावत् शुक्ललेशी (से परिवर्तित) होकर जीव कृष्णलेशी देवों में उत्पन्न होते हैं ? १५ उत्तर-हाँ, गौतम ! जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । नीललेशी यावत् पद्मलेशी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिये। शुक्ल लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए किन्तु विशेषता यह है कि लेश्या के स्थान विशुद्ध होते. होते शुक्ललेश्या में परिणत होते हैं। शुक्ललेश्या में परिणत होने के बाद वे जीव शुक्ललेशी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण हे गौतम ! 'उत्पन्न होते हैं'-ऐसा कहा गया है। . . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐमा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-पांच अनुत्तर विमानों में केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं । इसलिये वहाँ मिथ्यादृष्टि और सम्धमिथ्यादृष्टि का निषेध किया गया है । ॥ तेरहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १३ उद्देशक ३ नैरयिक के अनन्तराहारादि १ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! अणंतराहारा, तओ णिवत्तणया ? १ उत्तर-एवं परियारणापदं णिरवसेसं भाणियव्वं । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १३ उ. ४ नरकावामों की एक दूसरे में विशालता २१७५ ॐ सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति * ॥ तेरसममए तईओ उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-णिम्वत्तणया-निर्वर्तना (शरीर की उत्पनि) । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नैयिक जीव, उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त होकर अनन्तराहारी (तुरन्त आहार करने वाले) होते हैं और इसके बाद निर्वर्तना (शरीर की उत्पत्ति) करते हैं ? (इसके बाद लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? इसके बाद पुद्गलों को इन्द्रियादि रूप में परिणत करते हैं ? ) इसके बाद परिचारणा (शब्दादि विषयों का उपभोग करते हैं ? और इसके बाद अनेक प्रकार के रूपों की विकुर्वणा) करते हैं ? १ उत्तर-हाँ गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से करते हैं । इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र का ३४ वा परिचारणा पद सम्पूर्ण कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। ॥ तेरहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १३ उद्देशक ४ • नरकावासों की एक दूसरे से विशालता १ प्रश्र-कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? १ उत्तर-गोयमा ! सत्त पुटवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयण. For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७६ भगवती मूत्र-ग. १३ उ. ४ नरकावामों की एक दुसरे में विशालता प्पभा, जाव ७ अहेसत्तमा। २-अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहा. लया जाव अपडटाणे, ते णं णरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए णरए. हिंतो १ महंततरा चेव, २ महाविच्छिण्णतरा चेव, ३ महोवासतरा चेव, ४ महापइरिकतरा चेव; १ णो तहा महापवेसणतरा चेव, २ णो आइण्णतरा चेव, ३ णो आउलतरा चेव, ४ णो अणोयणतरा चेव । तेसु णं णरएमु णेरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए णेरइएहितो १ महा. कम्मतरा चेव, २ महाकिरियतरा चेव, ३ महासवतरा चेव, ४ महावेयणतरा चेव; णो तहा १ अप्पकम्मतरा चेव, २ णो अपकिरियतरा चेव, ३ णो अप्पासवतरा चेव, ४ णो अप्पवेयणतरा चेव, १ अप्पड्ढियतरा चेव, २ अप्पज्जुड़यतरा चेव; १ णो तहा महड्ढियतरा चव, २ णो महज्जुइयतरा चेव । छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे णिरयावाससयसहस्से पण्णत्ते, ते णं णरगा अहेसत्तमाए पुढवीए णरएहितो णो तहा महत्तरा चेत्र, महाविच्छिण्णतरा चेव ४; महप्पवेसणतरा चेव आइण्णतरा च । ४ तेसु णं णरएसु णं णेरड्या अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइएहितो अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरियतरा चेव ४; णो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव ४ । महड्ढियतरा चेव महज्जुइयतरा चेव, णो तहा अप्पड्ढियतरा चेव अप्पज्जुइयतरा चेव । छटीए णं तमाए पुढवीए गरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र दा. १: 5 ४ गरकावाना की एक दुसरे से विशालता २१७७ णरएहिती महत्तग चेव ४, णी तहा महप्पवेमणतरा चेव ४ । तेसु णं णरएमु णेरड्या पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए णरएहितो महाकम्मतरा चेव ४ णो तहा अप्पकम्मतग चेव ४; अप्पड्ढियतरा चेव २ णो तहा महड्ढियतरा चेव २ । पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिण्णि णिरयावासमयसहस्मा पण्णत्ता; एवं जहा छट्टीए भणिया एवं मत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णति जाव रयणप्पभंति, जाव णो तहा महड्ढियतरा चेव. अप्पज्जुइयतरा चेव । ३ प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केरिसयं पुढविफास पचणु-भवमाणा विहरति ? ३ उत्तर-गोयमा ! अणिटुं, जावअमणामं एवं जाव अहे. सत्तमापुढविणेरड्या, एवं आउफासं, एवं जाव वणस्सइफासं । ४ प्रश्न-इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोच्चं सकरप्पभं पुढविपणिहाय सव्वमहंतिया वाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया सव्वतेसु० ? ४ उत्तर-एवं जहा जीवाभिगमे बिइए णेरड्यउद्देसए । कठिन शब्दार्थ- अणुत्तरा-अनुत्तर (प्रधान), महतिमहालया-बहुत बड़, महंततरालम्बाई की अपेक्षा बहुत बड़े, महाविच्छिण्णतरा-चौड़ाई की अपेक्षा बहुत विशाल, महोबासतरा-महान् अवकाश वाले, महापइरिक्कतरा-बहुत शून्य स्थान वाले, महापवेसणतरा-महाप्रवेश वाले अर्थात् दुमरी गति में आ कर जिनमें बहुत जीव प्रवेश करते हैं, आइण्णतराअन्यन्त आकीर्ण ( व्याप्त), आउलतरा-अत्यंत व्याकुलता युक्त, अणोमाणतरा-अत्यन्त विशाल, अणोयणतरा-प्रेरणा रहित, महाकम्मतरा-महाकर्म वाले अर्थात् आयुष्य, वेदनीय आदि कर्मों की अधिकता वाले, महाकिरियतरा-कायिकी आदि महात्रिया वाले, महासवतरा For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७८ भगवती सत्र-श. ५३ उ. ४ नरकावासों की एक दूसरे में विशालता। महा आश्रव वाले, महावेयणतरा-महा वेदना वाले, अप्पकम्मतरा-अल्प कर्म वाले.अप्पकिरियतरा-कायिकी आदि अल्प क्रिया वाले, अप्पासवतरा-अल्प आश्रव वाले, नेरइएहितोनैरयिक जीवों से, अप्पवेयणतरा-अल्प वेदना वाले, अप्पड्डियतरा-अल्प ऋद्धि वाले अप्पज्जुइयतरा-अल्प ति वाले, महड्डियतरा-महा ऋद्धि वाले, महज्जुइयतरा-महा द्युति वाले, पच्चणुभवमाणा-अनुभव करते हुए, अणिठ्ठ-अनिष्ट, अमणाम-मन के प्रतिकूल. पणिहाय-' अपेक्षा, बाहल्लेणं-बाहल्य (मोटाई की अपेक्षा), सम्वखुड्डिया-मब से छोटी, सवंतेसुचारों दिशाओं के विभाग में। .. भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नरक पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? .. १ उत्तर-हे गौतम ! नरक पश्वियां सात कही गई हैं । यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। २--हे भगवन् ! अधःसप्तम पृथ्वी में पांच अनुत्तर और बहुत बड़े नरकावास यावत् 'अप्रतिष्ठान' तक कहे गये हैं । वे नरकावास छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नरकावासों से अत्यन्त बड़े, बहुत विस्तार वाले, बहुत अवकाश वाले और बहुत जीवों से रहित हैं, किन्तु महाप्रवेश वाले नहीं हैं । वे अत्यन्त संकीर्ण और व्याप्त नहीं हैं अर्थात् वे नरकावास बहुत विशाल हैं। उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक, छठी तमःप्रभा पृथ्वी में रहे हुए नैरयिकों की अपेक्षा महा कर्म वाले, महा क्रिया वाले, महा आश्रव वाले और महा वेदना वाले हैं। वे तमःप्रभा स्थित नरयिकों की अपेक्षा न तो अल्पकर्म वाले हैं और न अल्प क्रिया, अल्प आश्रव और अल्प वेदना वाले हैं। वे नरयिक अत्यन्त अल्प ऋद्धि वाले और अत्यन्त अल्प द्युति वाले हैं। वे महा ऋद्धि और महा द्यति वाले नहीं हैं। छठी तमःप्रभा पृथ्वी में पांच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं। वे नरकावास अधःसप्तम पृथ्वी के नरकावासों की अपेक्षा अत्यन्त बड़े और महा विस्तार वाले नहीं हैं। वे महा प्रवेश वाले और अत्यन्त आकीर्ण (व्याप्त) हैं। उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक, अधःसप्तम पृथ्वी में रहे हुए नैरयिकों की अपेक्षा अल्प कर्म, अल्प क्रिया, अल्प आश्रव और अल्पवेदना वाले हैं । अधःसप्तम पृथ्वी के नरयिकों को अपेक्षा महाकर्म वाले For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १३ ३. ४ सरकावामों की एक दूसरे से विशालता महा क्रिया, महा आश्रव और महा वेदना वाले नहीं हैं । 'अधः सप्तम पृथ्वी में रहे हुए नरयिकों की अपेक्षा महा ऋद्धि और महा द्युति वाले हैं, वे अल्प ऋद्धि और अल्प द्युति वाले नहीं है । छठी तमः प्रभा पृथ्वी के नरकावास, पांचवी धूमप्रभा पृथ्वी के नरकावासों से अत्यन्त बड़े, अति विस्तार वाले, अति अवकाश वाले हैं और बहुत जीवों से रहित हैं। धूमप्रभा के समान, महा प्रवेश वाले, अति आकीर्ण और अति व्याप्त नहीं है, किंतु विशाल हैं। छठी तमःप्रभा पृथ्वी स्थित नैरयिक, पांचवी धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महा कर्म, महा क्रिया, महा आश्रव और महा वेदना वाले है, परन्तु अल्प कर्म, अल्प किया, अल्प आश्रव और अल्प वेदना वाले नहीं है । वे अल्प ऋद्धि और अल्प द्युति वाले हैं, वे महा ऋद्धि और महा द्युति वाले नहीं हैं। पांचवी धूमप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गये हैं, इत्यादि कथन जिस प्रकार, छठी तमः प्रभा पृथ्वी के विषय में कहा, उसी प्रकार सातों नरक पृथ्वियों के विषय में, परस्पर यावत् रत्नप्रभा तक कहना चाहिये । यावत् "शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक, रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महा ऋद्धि और महा द्युति वाले नहीं हैं। उनकी अपेक्षा अल्प ऋद्धि और 'अल्प द्युति' वाले हैं" - यहां तक कहना चाहिये । २१७९ ३ प्रश्न - हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक, पृथ्वी के स्पर्श का किस प्रकार का अनुभव करते हुए रहते हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! वे पृथ्वी के स्पर्श का अनिष्ट यावत् मन के प्रतिकूल अनुभव करते हुए रहते हैं। इस प्रकार यावत् अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिये। इसी प्रकार अनिष्ट यावत् प्रतिकूल अप् (जल) का स्पर्श यावत् वनस्पति स्पर्श का अनुभव करते हुए रहते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी, शर्कराप्रभा पृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सर्वथा मोटी और चारों दिशाओं में लंबाई-चौड़ाई में सर्वथा छोटी है ? For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नरकावानों की एक दूसरे से विशालता ४ उत्तर-हाँ गौतम ! जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे नरयिक उद्देशक के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिये । विवेचन-इस उद्देशक की ये दो द्वार गाथाएँ हैं नेरइय फास पणिही, निरयंते चेव लोयमझे य । दिसिविदिसाण य पवहा, पवत्तणं अस्थिकाएहि ।। अत्थि पएसफुसणा, ओगाहणया य जीवमोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण, बहुस्समे लोगसंठाणे । अर्थात्-१ नैरयिक, २ स्पर्श, ३ प्रणिधि, ४ निरयान्त, ५ लोक मध्य, ६ दिशाविदिशा, ७ अस्तिकाय प्रवर्तन, ८ अस्तिकाय प्रदेश स्पर्शना, ९ अवगाहना, १० जीवावगाढ़, ११ अस्तिकाय निषीदन, १२ बहुसम, १३ लोक संस्थान । ऊपर नरयिक द्वार, स्पर्शद्वार, प्रणिधिद्वार और निर यान्तद्वार, इन चार द्वारों का वर्णन किया गया है। पहले द्वार में पहली नरक से लेकर मातवीं नरक तक के नरकावासों की परस्पर अल्पता और महत्ता, संकीर्णता और विशालता आदि का वर्णन किया गया है। तथा उन नरकावासों में रहे हुए नरयिकों की परस्पर महाकर्मता और अल्पकर्मता आदि का वर्णन किया गया है । 'वाक्य की प्रवृत्ति विधि और निषेध रूप से होती है-इस न्याय की अपेक्षा ऊपर जो बात विधि रूप से कही गई है, उसी बात का प्रतिपादन दूसरी बार निषेध रूप से किया गया हैं। 'रयिक किस प्रकार के स्पर्श का अनुभव करते हैं -यह स्पर्शद्वार में बतलाया गया है । उममें पृथ्वीकाय, अप्काय, ते जम्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय-इन पांचों कायों के स्पर्श का वर्णन किया गया है। शंका-सातों पृथ्वियों में तेजस्काय को छोड़ कर शप पृथ्वीकाय आदि चार कायों के स्पर्श का कथन करना उचित है । क्योंकि वे चारों कायें वहां पाई जाती हैं। वहां तेजस्काय के स्पर्श का कथन करना ठीक नहीं, क्योंकि बादर तेजस्काय, केवल समय-क्षेत्र (मनुष्य लोक) में ही पाई जाती है । यद्यपि सूक्ष्म तेजस्काय सातों पृथ्वियों में भी पाई जाती है, परन्तु वह स्पर्शनेन्द्रिय के लिए अविपय है अर्थात् म्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा सूक्ष्म तेजस्काय का अनुभव नहीं होता। फिर यहां तेजस्काय के स्पर्श का वर्णन कैसे किया गया है ? समाधान-गंका उचित है । वहाँ वादर तेजस्काय का सद्भाव नहीं है, परन्तु वहाँ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ नरकावासों के स्थावर जीव भी महाकर्मी २१८१ परमाधामिकः देवों द्वारा निर्मित अग्नि के समान उष्ण अन्य वस्तुएँ हैं। उनका स्पर्श तजस्काय जैसा होता है । इसलिये उसे तेजस्काय स्पर्श कहा गया है । वास्तव में वहाँ माक्षात् ते जम्काय नहीं होती। ३ प्रणिधिद्वार-यहाँ 'प्रणिधि' का अर्थ है-अपेक्षा । प्रणिधिद्वार में मातों नरकों की लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई आदि की पारस्परिक अपेक्षाकृत न्यनाधिकता बतलाई गई है। रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई अन्य सभी नरको की अपेक्षा अधिक है। उसकी मोटाई एक लाग्ब अम्मी हजार योजन की है । दूसरी पश्विघों की मोटाई इससे कम है। लम्बाई-चौड़ाई की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथ्वी, अन्य सभी पवियों मे लघ है, क्योकि उसकी लम्बाई-चौड़ाई केवल एक राजू परिमाण है । दूसरी सब पश्चियों को लम्बाई-चौड़ाई इससे अधिक है । नरकावासों के स्थावर जीव भी महाकर्मी ५ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए णिरयपरिसामंतेसु जे पुढविक्काइया० ? ५ उत्तर-एवं जहा णेरइयउद्देसए जाव अहेसत्तमाए । - भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के आसपास जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना वाले है ? ५ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं, इत्यादि, जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशक के अनुसार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिये। विवेचन-४ निरयान्त द्वार में यह बतलाया गया है कि सभी नरकों के आसपास पृथ्वीका यिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं । वे महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव और महावंदना वाले हैं । इनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशे में है । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१८२ भगवती सूत्र- ग. १३ उ. ४ लोक का मध्य-भाग ... लोक का मध्य-भाग ६ प्रश्न-कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? ६ उत्तर-गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतररस असंखेज्जइभागं ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । ७ प्रश्न-कहि णं भंते ! अहेलोगस्म आयाममञ्झे पण्णत्ते ? ७ उत्तर-गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुदवीए उवासंतररस साइरेगं अधं ओगाहित्ता एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। ८ प्रश्न-कहि णं भंते ! उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पप्णत्ते ? ८ उत्तर-गोयमा ! उप्पिं सर्णकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हेडिं वंभलोए कप्पे रिट्ठविमाणे पत्थडे एत्थ णं उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । ९ प्रश्नन-कहि णं भंते ! तिरियलोगम्स आयाममज्झे पण्णते ? ९ उत्तर-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पव्वयम्स बहुमज्झ. देसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डगपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्स मज्झे अट्टपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा-पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिणा एवं जहा दसमसए णामधेनंति ।। ___ कठिन शब्दार्थ-साइरेग-सातिरेक (कुछ अधिक), ओगाहित्ता-अवगाहन करके, पत्थडे-पाथड़ा (प्रस्तर), पुगपयरेसु-क्षुद्र (छोटे) प्रतरों में । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-य. १३ उ. ४ लोक का मध्य-भाग भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! लोक की लम्बाई का मध्य भाग कहाँ कहा गया है ? २१८३ ६ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशखण्ड के असंख्यातवें भाग का उल्लंघन करने के बाद, लोक की लम्बाई का मध्य भाग कहा गया है। ७ प्रश्न - हे भगवन् ! अधोलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहाँ कहा गया है ? ७ उत्तर - हे गौतम! चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के आकाशखण्ड का कुछ अधिक अर्द्धभाग उल्लंघन करने के बाद, अधोलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहा गया है । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहां कहा गया है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के ऊपर और ब्रह्म देवलोक के नीचे, रिष्ट नामक तीसरे प्रतर में ऊर्ध्वलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहा गया है । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यग् लोक की लम्बाई का मध्य भाग कहां कहा गया है ? ९ उत्तर - हे गौतम! इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत के बहुसम मध्यभाग ( ठीक बीचोबीच ) में रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर और नीचे के दो क्षुद्र प्रतरों में, तिर्यग्लोक के मध्यभाग रूप आठ रुचक- प्रदेश कहे गये हैं, जिनसे ये दस दिशाएँ निकली हैं। यथा- पूर्वदिशा, पूर्वदक्षिण इत्यादि, दसवें शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार कहना चाहिए, यावत् 'दिशाओं के दस नाम हैं'तक कहना चाहिए । विवेचन - लोकमध्य द्वार - लोक की लम्बाई चौदह रज्जू परिमाण है । उस का मध्यभाग, रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाश खण्ड के असंख्यातवें भाग का उल्लंघन करने के बाद है । तिर्यग्लोक की लम्बाई अठारह सौ योजन है । तिर्यग्लोक के ठीक मध्य में - जम्बूद्वीप में For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८: भगवती मत्र-ग. ५३ उ. ४ लोक का मध्य-भाग रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग पर मेरु पर्वत के विलकुल मध्य में आठ रुचक-प्रदेश है। वे गो स्तन के आकार वाले हैं-चार ऊपर की ओर उठे हुए है और चार नीचे की ओर । इन्हीं मचक-प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओ और विदिशाओं का ज्ञान होता है। रुचक-प्रदेशों के नौ मौ योजन ऊपर तथा नो मो योजन नीचे तक तिर्यग्लोक (मध्यलोक) है । तिर्यगलोक के नीचे अधोलोक है और ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक की लम्बाई कुछ कम सात रज्जू परिमाण है और अधोलोक की लम्बाई कुछ अधिक सात रज्ज परिमाग है । रुचक-प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में, चौदह रजन रूप लोक का मध्यभाग आता है । वहां से ऊपर तथा नीचे लोक का परिमाण ठीक सातसात रज्जू रह जाता है । चौथी और पांचवीं पृथ्वी के मध्य जो अवकागान्तर है, उसका सातिरेक ( कुछ अधिक) अर्द्ध भाग का उल्लंघन करने पर अधोलोक का मध्यभाग है। . मनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक मे ऊपर और पांचवें ब्रह्म देवलोक के नीचे रिष्ट नामक तीसरे प्रतर में ऊर्ध्वलोक का मध्यभाग है । लोक का आकार वज्र के आकार के ममान होता है। इस रत्नप्रभा पथ्वी के रत्नकाण्ड में सब से छोटे दो प्रतर हैं। ऊपर के प्रतर से लोक की ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक को अधोमुखी वृद्धि होती है । यहीं तिर्यग्लोक का मध्य भाग है और यहीं आठ रुचक-प्रदेश हैं। जिनमे दस दिशाएं निकली हैं । वे इस प्रकार हैं-१ पूर्व, २ दक्षिण, ३ पश्चिम, ४ उत्तर, ये चार मुख्य दिशाएं हैं, तथा-५ अग्नि कोण, ६ नैऋत्य कोण, ७ वायव्य कोण ८ ईशान कोण, ९ ऊर्ध्वदिशा और १. अधोदिशा । पूर्व महाविदेह की ओर पूर्व दिशा है, पश्चिम महाविदेह की ओर पश्चिम दिशा हैं. भरत की ओर दक्षिण दिशा है और परवत की ओर उत्तर दिशा है । पूर्व और दक्षिण के मध्य की 'अग्नि कोण,' दक्षिण और पश्चिम के बीच की 'नैऋत्य कोण, पश्चिम और उत्तर के बीच की 'वायव्य कोण' और उत्तर और पूर्व के बीच की 'ईशान कोण, कहलाती है । रुचक-प्रदेशों की सीध में ऊपर की ओर 'ऊर्ध्वदिशा' और नीचे की ओर 'अधोदिशा' कहलाती है । इन दस दिशाओं के गुण निष्पन्न नाम ये हैं-१ ऐन्द्री, २ आग्नेयी ३ याम्या, ४ नैऋती, ५ वारुणी, ६ वायव्य, ७ मोम्या, ८ ऐशानी, ९ विमला और १० नमा। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र -श. ५३ उ. ४ दिशाओं का उद्गम और विस्तार २१८५ दिशाओं का उद्गम और विस्तार १० प्रश्न-इंदा णं भंते ! दिमा किमाइया किंपवहा कइपए. साइया कइपएसुत्तरा कइपएसिया किंपजवसिया किंसंठिया पण्णत्ता ? ___१० उत्तर-गोयमा ! इंदा णं दिसा १ रुयगाइया २ रुयगप्पवहा ३ दुपएमाझ्या ४ दुपएसुत्तरा ५ लोगं पडुच्च असंखेजपए. सिया, अलोगं पडुच अणंतपएसिया. ६ लोगं पडुच्च साइया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च साइया अपजवसिया, ७ लोगं पडुच्च मुरजमंठिया, अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिया पण्णत्ता । ११ प्रश्न-अग्गेई णं भंते ! दिसा १ किमाइया २ किंपवहा ३ कइपएसाइया ४ कइपएमविच्छिण्णा ५ कइपएसिया ६ किंपजवसिया ७ किंसंठिया पण्णत्ता। ११ उत्तर-गोयमा ! अग्गेई णं दिसा १ रुयगाइया २ रुयगप्पवहा, ३ एगपएसाइया ४ एगपएसविच्छिण्णा ५ अणुत्तरा लोगं पडुच असंखेजपएसिया, अलोगं पडुच्च अणंतपएसिया ६. लोगं पडुच्च साइया सपजवसिया, अलोगं पडुच्च साइया अआजवसिया, छिण्णमुत्तावलीसंठिया पण्णत्ता । जमा जहा इंदा, णेरई जहा अग्गेई । एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि, जहा अग्गेई तहा चत्तारि वि विदिसाओ। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८६ . भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ दिशाओं का उद्गम और विस्तार ___ १२ प्रश्न-विमला णं भंते ! दिसा किमाइया० पुच्छा जहा अग्गेईए। १२ उत्तर-गोयमा ! विमला णं दिसा १ रुयगाइया २ स्यगप्पवहा ३ चउप्पएसाइया ४ दुपएसविच्छिण्णा, अणुत्तरा लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेईए, णवरं रुयगसंठिया पण्णता, एवं तमा वि। कठिन शब्दार्थ--मुरजसंठिया--मुरज (एक प्रकार का वाजा) के आकार । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! ऐन्द्री (पूर्व) दिशा के आदि (प्रारम्भ) में क्या है, वह कहाँ से निकली है, उसके प्रारम्भ में कितने प्रदेश है, उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है, वह कितने प्रदेश वाली है, उसका अन्त कहां होता है और उसका संस्थान कैसा है ? १० उत्तर-हे गौतम ! ऐन्द्री दिशा के प्रारम्भ में रुचक प्रदेश हैं । वह रुचक-प्रदेशों से निकली है । वह प्रारम्भ में दो प्रदेश वाली है । आगे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। लोक आश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है और अलोक आश्रयी अनन्त प्रदेश वाली है । लोक आश्रयो वह सादि सान्त (आदि और अन्त सहित) है और अलोक आश्रयी वह सादि अनन्त है । लोक आश्रयी वह मुरज (मृदंग) के आकार है और अलोक आश्रयी वह 'ऊर्ध्वशकटाकार' (शकटोद्धि) है। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! आग्नेयी दिशा के आदि में क्या है, वह कहां से निकली है, उसकी आदि में कितने प्रदेश हैं, वे कितने प्रदेशों के विस्तार वाली है, वह कितने प्रदेश वाली है, उसके अंत में क्या है और उसका आकार कैसा है ? . . ११ उत्तर-हे गौतम ! आग्नेयी दिशा के आदि में रुचक-प्रदेश हैं। वह रुचक-प्रदेशों से निकली है। उसके प्रारम्भ में एक प्रदेश है । वह अन्त तक For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ दिगाओं का उद्गम और विस्तार २१८७ एक प्रदेश के विस्तार वाली है । वह उत्तरोत्तर वृद्धि रहित है । लोक आश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाली है । लोक आश्रयी वह सादि सान्त है और अलोक की अपेक्षा वह सादि अनन्त है । वह टूटी हुई मोतियों की माला के आकार है। ___याम्या (दक्षिण) दिशा का स्वरूप ऐन्द्री (पूर्व) दिशा के समान जानना चाहिये। नैऋती का स्वरूप आग्नेयी के समान जानना चाहिये, इत्यादि । ऐन्द्री दिशा के वर्णन के समान चारों दिशाओं का और आग्नेयी दिशा के समान चारों विदिशाओं का स्वरूप जानना चाहिये। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! विमला (ऊर्ध्व) दिशा के आदि में क्या है, इत्यादि आग्नेयी के समान प्रश्न । १२ उत्तर-हे गौतम ! विमला दिशा के आदि में रुचक-प्रदेश हैं। वह रुचक-प्रदेशों से निकली है । उसके आदि में चार प्रदेश हैं। वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तार वाली है। वह उत्तरोत्तर वृद्धि रहित है । लोक आश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है । इत्यादि सारा वर्णन आग्नेयी दिशा के समान कहना चाहिये । विशेषता यह है कि वह रुचकाकार है । इसी प्रकार तमा (अधो) दिशा का वर्णन भी जानना चाहिये। विवेचन-दस दिशाओं के नाम तथा गुण-निष्पन्न नाम ऊपर बताये गये हैं । पूर्वदिशा का अधिष्ठाता देव ‘इन्द्र' है, इसलिये इसको 'ऐन्द्री' कहते हैं । इसी प्रकार अग्निकोण का स्वामी 'अग्नि' देवता है, इसलिये उसे 'आग्नेयी' कहते हैं । दक्षिण दिशा का अधिष्ठाता 'यम' है । नैऋत्य कोण का स्वामी 'नैऋति' है । पश्चिम दिशा का अधिष्ठाता 'वरुण' देव है । वायव्य कोण का अधिष्ठाता 'वायु' देव है। उत्तर दिशा का अधिष्ठाता 'सोम' देव है। ईशान कोण अधिष्ठाता 'ईशान' देव है । अपने-अपने अधिष्ठाता देवों के नाम से ही उन दिशाओं और विदिशाओं के नाम हैं । अतएव ये गुण-निष्पन्न नाम कहलाते हैं । ऊर्ध्व दिशा को 'विमला' कहते हैं। क्यों कि ऊपर अन्धकार नहीं है, इस से वह निर्मल है, अतएव वह 'विमला' कहलाती है। अधोदिशा 'तमा' कहलाती है । गाढ अन्धकार युक्त होने से वह रात्रि तुल्य है। इसका गुण-निष्पन्न नाम 'तमा' है । इन दसों For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८८ भगवती मूत्र-ग. १३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक दिशाओं का उत्पत्ति स्थान आठ रुचक-प्रदेश हैं। चारों दिशाएं मूल में द्विप्रदेशी हैं ओर आगे-आगे दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होती गई है । विदिशाएं मूल में एक प्रदेशी निकली है और अन्त तक एक प्रदेश ही है । इनमें वृद्धि नहीं होती। ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा में चतुष्प्रदेशी निकली है और अन्त तक चतुष्प्रदेशी ही है । इनमें वृद्धि नहीं होती। पंचास्तिकायमय लोक १३ प्रश्न-किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ ? १३ उत्तर-गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवइए लोए त्ति पवुच्चइ, तं जहा-१ धम्मत्थिकाए २ अहम्मस्थिकाए, जाव ५ पोग्गलथिकाए। ___१४ प्रश्न-धम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? १४ उत्तर-गोयमा ! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमणगमणभासुम्मेसमणजोगा, वहजोगा, कायजोगा, जे यावण्णे तहप्पगारा चला भावा सब्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति, गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए । १५ प्रश्न-अहम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? १५ उत्तर-गोयमा ! अहम्मत्थिकारणं जीवाणं ठाण-णिसी. यण-तुयट्टण, मणस्स य एगत्तीभावकरणया, जे यावण्णे तहप्पगारा थिरा भावा सब्वे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति, ठाणलक्खणे णं अहम्मत्थिकाए। For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगती मूत्र-स. १३ उ. ४ पंचास्तिकापमय लोक २१८९ १६ प्रश्न-आगासत्थिकारणं भंते ! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तइ ? . १६ उत्तर-गोयमा ! आगासस्थिकारणं जीवदव्वाण य अजीवदवाण य भायणभूए । "एगेण वि मे पुण्णे दोहि वि पुण्णे सयं पि माएजा । कोडिसएण वि पुण्णे कोडिसहस्सं पि माएजा" ।। अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए । १७ प्रश्न-जीवस्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? १७ उत्तर-गोयमा ! जीवत्थिकारणं जीवे अणंताणं आभिणि वोहियणाणपजवाणं, अणंताणं सुयणाणपजवाणं-एवं जहा विइयसए अत्थिकायउद्देमए जाव उवओगं गच्छइ, उवओगलवखणे णं जीवे । ___१८ प्रश्न-पोग्गलत्थिकारणं पुच्छा । १८ उत्तर-गोयमा ! पोग्गलत्थिकारणं जीवाणं ओरालियवेउब्विय आहारग-तया कम्मए सोइंदिय चक्खिदिय घाणिदिय जिभिः दिय-फासिंदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-आणापाणूणं च गहणं पवत्तइ गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए। कठिन शब्दार्थ-पवुच्चइ--कहलाता है, किमियं--कैसा, एवइए- ऐसा, पवत्तइप्रवृत्ति होती है, आणापाणूणं-आनप्राण (श्वासोच्छ्वास), ठाण-ठहरना, णिसीयण-बैठना, तुयट्टण-सोना, मायणभूए-भाजनभूत (आधारभूत)। For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -का. १३ 3.४ पंचास्तिकायमय टोक भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! यह लोक किस प्रकार का कहलाता है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! यह लोक पंचास्तिकाय रूप कहलाता है । यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् (आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय ) पुद्गलास्तिकाय । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय से जीवों को क्या प्रवृत्ति होती है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों का आगमन, गमन, भाषा उन्मेष (आँखे खोलना) मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार के दूसरे जितने भी चलभाव (गमनशील-भाव) हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण 'गति' रूप है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! अधर्मास्तिकाय से जीवों का स्थान (स्थित रहना) निषीदन (बैठना), त्वग्वर्तन (सोना), मन को एकाग्र करना आदि तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी स्थित भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं । अधर्मास्तिकाय का लक्ष ग 'स्थिति' रूप है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! आकाशास्तिकाय, जीन और अजीव द्रव्यों का भाजन भूत (आश्रय रूप) है अर्थात् आकाश से जीव और अजीव द्रव्यों के 'अवगाह' की प्रवृत्ति होती है । जैसा कि गाथा में कहा है- . एगेण वि से पुण्णे दोहि, वि पुणे सयं पि माएज्जा। कोडिसएण वि पुणे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा । अर्थात्-एक परमाणु से पूर्ण, या दो परमाणु से पूर्ण एक आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं। सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण, एक आकाश प्रदेश में हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं । आकाशास्तिकाय का लक्षण "अवगाहना" रूप है। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. .: 3. ४ पंचास्तिक समय लोक १७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा आभिनिबोधिक ज्ञान की अनन्त पर्यायें श्रुतज्ञान की अनन्त पर्यायें प्राप्त करता है, इत्यादि दूसरे शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक के अनुसार, यावत वह ज्ञान और दर्शन के उपयोग को प्राप्त होता है । जीव का लक्षण 'उपयोग' रूप है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों को क्या प्रवृत्ति होती है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के औदारिक, वक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास का ग्रहण होता है । पुद्गलास्तिकाय लक्षण 'ग्रहण' रूप है । विवेचन-यह लोक पाँच अस्तिकाय है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ है-- प्रदेश' आर 'काय' शब्द का अर्थ है 'रागि', प्रदेशों की राशि । प्रदेशों की राशि वाले द्रव्यों को 'अस्तिकाय कहते हैं । अस्तिकाय पांच है। यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय ओर पुद्गलास्तिकाय । धर्मास्तिकाय-गति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की गति में जो सहायक हो. उसे 'धर्मास्तिकाय' कहते हैं । जैसे-मछली की गति में पानी महायक होता है। अधर्मास्तिकाय-स्थिति परिणाम वाले जीव ओर पुद्गलों की स्थिति में जो सहायक हो । जैसे-विधाम चाहने वाले पथिक के ठहरने में छायादार वृक्ष सहायक होता है। आकाशास्तिकाय-जो जीवादि द्रव्यों को रहने के लिये अवकाश दे, वह आकागास्तिकाय है । जैसे-एक दीपक के प्रकाश से भरे हुए स्थान में, अनेक दीपकों का प्रकाश समा सकता है। जीवास्तिकाय-जिसमें उपयोग गुण हो, उसे जीवास्तिकाय कहते हैं । पुद्गलास्तिकाय-जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श हो और जो इन्द्रियों में ग्राह्य हो तथा मिलन, बिछुड़न वाला हो, वह पुद्गलास्तिकाय है। प्रत्येक 'अस्तिकाय' के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा पांच-पांच भेद हैं । द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा लोक परिमाण (सर्व लोक For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग -श १३ उ. ४ पनास्तिकायमय लोक व्यापक) है. एवं लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशी है । काल की अपेक्षा त्रिकाल स्थायी है । ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय और अवस्थित है । भाव की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित अरूरी है, जड़ है । गुण की अपेक्षा गति गुण वाला है। अधर्मास्तिकाय का वर्णन धर्मास्तिकाय के समान है । गुण की अपेक्षा यह स्थिति गुण वाला है। आकाशास्तिकाय का वर्णन धर्मास्तिकाय के समान है । किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक व्यापी है, अनन्त प्रदेशी है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है । गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है । जीवों और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है । आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, एक परमाणु से भी पूर्ण है और दो परमाणुओं से भी वह पूर्ण है । उसी आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं और जो आकाश प्रदेश, सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण है, उसी एक आकाश प्रदेश में हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं। जैसे कि-एक मकान में एक दीपक रखा है, वह उसके प्रकाश से भरा हुआ है । यदि दूसरा दीपक भी वहाँ रखा जाय, तो उसका प्रकाश भी उसी मकान में समा जाता है। इसी प्रकार सौ यावत् हजार दीपक भी उसमें रख दिये जायें, तो उनका प्रकाश भी उसी में समा जाता है, बाहर नहीं निकलता । इसी प्रकार पुद्गलों के परिणाम की विचित्रता होने से एक, दो, संख्यात, असंख्यात यावत् अनन्त परमाणुओं मे पूर्ण, एक आकाश प्रदेश में एक से लेकर अनन्त परमाणु तक समा सकते हैं। इसी बात की स्पष्टता के लिये टीकाकार ने एक दूसरा दृष्टान्त भी दिया है-औषधि विशेष से परिणमित एक तोले भर पारद की गोली, सौ तोले मोने की गोलियों को अपने में ममा लेती है । पारे रूप में परिणत उस गोली से औषधि विशेष का प्रयोग करने पर, वह तोले भर पारे की गोली पृथक हो जाती है और वह सौ तोले भर सोना पृथक् हो जाता है । यह सब पुदगल परिणामों की विचित्रता के कारण होता है । इसी प्रकार एक आकाश प्रदेश, जो कि एक परमाणु से भी पूर्ण है, उसी पर अनन्त परमाणु भी समा सकते हैं। ____जीवास्तिकाय-द्रव्य की अपेक्षा अनन्त द्रव्य रूप है, क्योंकि पृथक्-पृथक् द्रव्य रूप जीव अनन्त हैं। क्षेत्र की अपेक्षा लोक परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा जीव असंख्यात प्रदेशी है और सभी जीवों के प्रदेश अनन्त हैं । काल की अपेक्षा आदि अन्त रहित है (ध्रुव, गाश्वत और नित्य है) । भाव की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रहित है, अरूपी है तथा चेतना गुण वाला है । गुण की अपेक्षा 'उपयोग' गुण वाला है। For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-टा .३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक. पुद्गलास्तिकाय-द्रव्य की अपेक्षा अनन्त द्रव्य रूप है । क्षेत्र की अपेक्षा लोक परिमाण है और परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेगी तक है । काल की अपेक्षा आदि-अन्त रहित है । ध्रुव, शाश्वत और नित्य है । भाव की अपेक्षा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सहित है । यह रूपी और जड़ है । गुण की अपेक्षा 'ग्रहण' गुण वाला है । औदारिक शरीर आदि रूप से ग्रहण किया जाना या इन्द्रियों से ग्रहण होना, (इन्द्रियों का विषय होना) परस्पर एक दूसरे से मिलना, पुद्गलास्तिकाय का गुण है। १९ प्रश्न-एगे भंते ! धम्मत्थिकायपासे केवइएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे ? १९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए तिहिं, उक्कोसपए छहिं । प्रश्न-केवड़एहिं अहम्मत्थिकायपएमेहिं पुढे ? । उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए चाहिं, उक्कोसपए सत्तहिं । प्रश्न-केवइएहिं आगामस्थिकायपएसेहिं पुढे ? उत्तर-गोयमा ! सत्तहिं । प्रश्न-केवइएहिं जीवत्थिकायपएसेहिं पुढे ? उत्तर-गोयमा ! अणंतेहिं । प्रश्न-केवइएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं पुढे ? उत्तर-गोयमा ! अणंतेहिं ।। प्रश्न-केवइएहिं अद्धासमएहिं पुढे ? उत्तर-सिय पुढे सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमं अणंतेहिं । २० प्रश्न-एगे भंते ! अहम्मत्थिकायपएसे केवइएहिं धम्मस्थि For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९४ भगवती सूत्र-. १६ 3. ४ पंचास्तिकायमय लोक कायपएसेहिं पुढे ? २० उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए चउहि, उक्कोसपए सत्तहिं । प्रश्न-केवइएहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ? उत्तर-जहण्णपए तिहिं, उनकोसपए छहिं, सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । २१ प्रश्न-एगे भंते ! आगासस्थिकायपएसे केवइएहिं धम्मस्थिकायपएमेहिं पुढे ? २१ उत्तर-गोयमा ! सिय पुढे सिय णो पुटे, जइ पुढे जहण्णपए एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा चरहिं वा, उक्कोसपए सत्तहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहि वि। प्रश्न-केवइएहिं आगासस्थिकायपएसेहिं पट्टे ? उत्तर-छहिं। प्रश्न-केवइएहिं जीवस्थिकायपएसेहिं पुढे ? उत्तर-सिय पुढे सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमं अणंतेहिं । एवं पोग्गलथिकायपएसेहि वि, अद्धासमएहि वि । २२ प्रश्न-एगे भंते ! जीवस्थिकायपएसे. केवइएहिं धम्मत्थिकाय-पुच्छा। २२ उत्तर-जहण्णपए चउहिं, उक्कोसपए सत्तहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहिं वि। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ज. १३४ पंचास्तिकायमय लोक प्रश्न - केवइएहिं आगामत्थिकाय पुच्छा । उत्तर - मत्तहिं । प्रश्न - केवइ एहिं जीवत्थि० ? उत्तर - मेमं जहा धम्मत्थिकायस्स । २३ प्रश्न - एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपणसे केवइएहिं धम्मस्थि काय एमेहिं० ? २३ उत्तर - एवं जहेब जीवत्थिकायस्स । कठिन शब्दार्थ -- पुट्ठे- --स्पृष्टः । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेशों द्वारा स्पष्ट ( स्पर्शा हुआ) है ? १९ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पद में तीन प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद छह प्रदेशों से स्पृष्ट हैं । में स्पृष्ट है ? ܝ ܽܕܝ̄ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से उत्तर - हे गौतन ! जघन्य पद में चार और उत्कृष्ट पद में सात अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है । प्रश्न- वह आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? उत्तर- हे गौतम ! वह सात प्रदेशों से स्पृष्ट है । प्रश्न - हे भगवन् ! वह जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? उत्तर - हे गौतम! अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट है । प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? उत्तर - हे गौतम! अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट है । प्रश्न - हे भगवन् ! अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट है ? For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १३ उ. ४ पचास्तिकायमय लोक उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है, तो नियमतः अनन्त समयों से स्पष्ट होता है । २० प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पद में चार और उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पद में तीन और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के प्रदेश के समान है। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट है ? . २१ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् स्पृष्ट है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं है । यदि स्पृष्ट है, तो जघन्य पद में एक, दो, तीन या चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है और उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पृष्ट होता है । प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट है ? । उत्तर-हे गौतम ! छह प्रदेशों से स्पष्ट है। प्रश्न-हे भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् नहीं । यदि स्पष्ट है, तो नियमतः अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट होता है । इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों से और अद्धा-काल के समयों से स्पर्शना जाननी चाहिये। २२ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है। २२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पद में चार और उत्कृष्ट पद में सात For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-१ उ. . पंचाग्नि कायमंय लोक प्रदेशों से स्पष्ट है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पष्ट होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट है ? उत्तर-हे गौतम ! सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है। प्रश्न- हे भगवन ! जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट है ? उत्तर-हे गौतम ! शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के प्रदेश के समान जानना चाहिए? २३ प्रश्न-हे भगवन ! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट है ? २३. उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार जीवास्तिकाय के एक प्रदेश के विषय में कयन किया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये। । २४ प्रश्न-दो भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवइएहिं धम्मत्थिकायपएमेहिं पुट्टा ? २४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए छहिं, उक्कोसपए वारसहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहिं वि। प्रश्न-केवइएहिं आगासस्थिकाय ? उत्तर-वारसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। . • २५ प्रश्न-तिणि भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा केवइएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्टा ? २५ उत्तर-जहण्णपए अहिं, उक्कोसपए सत्तरसहिं । एवं अहम्मत्थिकायएसेहिं वि। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५८ भगवती सूत्र-7. ?::. : नास्तिकायमा लोक प्रश्न-केवइएहिं आगासस्थि० ? उत्तर-सत्तरसहिं, मेसं जहा धम्मत्थिकायम्स । एवं एएणं गमेणं भाणियव्वं जाव दस, णवरं जहण्णपए दोणि पक्विवियव्वा, उक्कोमपए पंच। चत्तारि पोग्गलस्थिकायस्स० जहण्णपए दसंहिं, उक्कोसपए बावीसाए । पंच पुग्गल० जहण्णपए वारसहिं, कोस. पए सत्तावीसाए । छ पोग्गल० जहण्णपए चोहमहि, उक्कोसपए वतीमाए । सत्त पोग्गल० जहण्णेणं सोलसहि, उक्कोसपए सत्त. तीसाए । अट्ठ पोग्गल० जहण्णपए अट्ठारसहिं उक्कोमेणं वायाली. साए । णव पोग्गल० जहण्णपए वीमाए, उक्कोसपए सीयालीसाए । दस पोग्गल० जहण्णपए वावीसाए. उकोसपए वावण्णाए । आगासत्थिकायस्स सम्वत्थ उक्कोसगं भाणियव्यं । २६ प्रश्न-संखेजा भंते ! पोग्गलत्यिकायपएसा केवइएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्टा ? २६ उत्तर-जहण्णपए तेणेव संखेजएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं, उकोसपए तेणेव संखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं । प्रश्न-केवइएहिं अधम्मत्थिकायपएसेहिं ? उत्तर-एवं चेव । प्रश्न-केवइएहिं आगासस्थिकाय ? उत्तर-तेणेव संखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं । For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सु. ५३३. ● लोक प्रश्न - hasएहिं जीवत्थिकाय० ? उत्तर- अनंतेहिं । प्रश्न - केवइएहिं पोग्गलत्थिकाय० ? उत्तर - अनंतेहिं । प्रश्न - केवइ एहिं अद्धासम एहिं ? उत्तर - सिय पुढे, सिय णो पुट्टे, जाव अनंतेहिं । कठिन शब्दार्थ -- पक्खिवियत्वा -- प्रक्षेप करना चाहिए । भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश, धर्पास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? २४ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पद में छह प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में बारह प्रदेशों से स्पृष्ट है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पृष्ट होते हैं । 3 २१९९ प्रश्न - हे भगवन् ! वह आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? उत्तर - हे गौतम ! बारह प्रदेशों से स्पृष्ट है । शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिए । २५ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? २५ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य पद में आह और उत्कृष्ट पद में सतरह प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पृष्ट होते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! सतरह प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिये । इस प्रकार इस पाठ द्वारा यावत् दस For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०० भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक प्रदेशों तक कहना चाहिये। विशेष में जघन्य पद में दो और उत्कृष्ट पद में पांच का प्रक्षेप करना चाहिये । पुद्गलास्तिकाय के चार प्रदेश, जघन्य पद में दस प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में बाईस प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के पांच प्रदेश, जघन्य पद में बारह प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सत्ताईस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के छह प्रदेश, जघन्य पद में चौदह और उत्कृष्ट पद में बत्तीस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं । पुद्गलास्तिकाय के सात प्रदेश, जघन्य पद में सोलह और उत्कृष्ट पद में सेंतीस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के आठ प्रदेश, जघन्य पद में अठारह और उत्कृष्ट पद में बयालीस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के नौ प्रदेश, जघन्य पद में बीस और उत्कृष्ट पद में सेंतालीस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। पुद्गलास्तिकाय के दस प्रदेश, जघन्य पद में बाईस और उत्कृष्ट पद में बावन प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं। आकाशास्तिकाय के लिए सभी स्थान पर उत्कृष्ट पद कहना चाहिये। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के संख्यात प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। २६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पद में उन्हीं संख्याता प्रदेशों को दुगुना कर के दो रूप और अधिक करे और उत्कृष्ट पद में उन्हीं संख्यात प्रदेशों को पांच गणा करके उन में दो रूप और अधिक जोड़े, उतने प्रदेशों से वे स्पष्ट होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय के समान जान लेना चाहिए। प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! उन्हीं संख्यात प्रदेशों को पांच गुणा करके उनमें दो रूप और जोड़े, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वह जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! कितने अद्धा-समयों से स्पष्ट होते हैं ? उत्तर-हे गौतल ! कदाचित् स्पष्ट होते हैं और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होते । यावत् अनन्त समयों से स्पष्ट होते है। २७ प्रश्न-असंग्वेजा भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा केवइएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं० १ २७ उत्तर-जहण्णपए तेणेव असंखेजएणं दुगुणेणं दुरूवा. हिएणं, उक्कोसपए तेणेव असंखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, मेसं जहा संखेजाणं जाव णियमं अर्णतेहिं । २८ प्रश्र-अणंता भंते ! पोग्गलत्थिंकायपएसा केवइएहिं धम्मत्थिकाय ? २८ उत्तर-एवं जहा असंखेजा तहा अणंता वि गिरवसेसं । २९ प्रश्न-एगे भंते ! अद्धासमए केवइएहिं धम्मत्थिकायपए. सेहिं पुढे। २९ उत्तर-सत्तहिं । प्रश्न-केवइएहिं अहम्मत्थि० ? उत्तर-एवं चेव, एवं आगासत्थिकाएहि वि । प्रश्न-केवइएहिं जीवत्थिकाय ? For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक + + + ++ उत्तर-अणंतेहिं, एवं जाव अद्धासमएहिं । ३० प्रश्न-धम्मत्थिकारणं भंते ! केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पए. सेहिं पुढे ? ३० उत्तर-णत्थि एक्केण वि। प्रश्न-केवइएहिं अधम्मत्थिकायप्पएसेहिं ? उत्तर-असंखेज्जेहिं । प्रश्न-केवइएहिं आगासत्थिकायप्पएसेहिं० ? उत्तर-असंखेज्जेहिं । प्रश्न-केवइएहिं जीवत्थिंकायपएसेहिं ? उत्तर-अणंतेहिं । प्रश्न-केवइएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं० ? उत्तर-अणंतेहिं । प्रश्न-केवइएहिं अद्धासमएहिं ? उत्तर-सिय पुढे, सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमा अणंतेहिं । ३१ प्रश्न-अहम्मत्यिकाय णं भंते ! केवइएहिं धम्मत्थिकाय ? ३१ उत्तर-असंखेन्जेहिं । . प्रश्न-केवइएहिं अहम्मत्थि० ? उत्तर-णत्थि एक्केण वि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमएणं सब्वे वि सट्ठाणए णत्थि एक्केण वि पुट्ठा । परट्ठाणए For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३ उ. : पंचास्तिकायमय लोक आइल्लएहिं तिहिं असंखेजेहिं भाणियव्वं, पच्छिल्लएस अनंता भाणियव्वा, जाव अद्धासमयो त्ति, जाव प्रश्न - केवड़एहिं अद्धामम एहिं पुट्टे ? उत्तर- त्थि एक्केण वि । भावार्थ - २७ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? २७ उत्तर - हे गौतम! जघन्य पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को दुगुना करके, उन में दो रूप अधिक जोड़े, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं और उत्कृष्ट पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को पांच गुणा करके, उनमें दो रूप अधिक जोड़े, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। शेष सभी वर्णन संख्यात प्रदेशों के समान जानना चाहिये, यावत् 'अवश्य अनन्त समयों से स्पृष्ट होते हैं - तक कहना चाहिये । २८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? २८ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार असंख्यात प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्त प्रदेशों के विषय में भी ( असंख्यात प्रदेश स्पृष्ट होते हैं ऐसा ) जानना चाहिये । २९ प्रश्न - हे भगवन् ! अद्धा काल का एक समय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? २९ उत्तर - हे गौतम! सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । प्रश्न - अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? उत्तर - पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये। इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पर्शना कहनी चाहिये । २२०३ प्रश्न - जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०४ भगवती सूत्र-स. १३ उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक उत्तर-अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार यावत् अनन्त अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है। ३० प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय द्रव्य, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? ३० उत्तर-हे गौतम ! एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होता। प्रश्न-वह अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर-असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? प्रश्न-आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर-असंख्य प्रदेशों से स्पष्ट होता है। प्रश्न-जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? उत्तर-अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट होता है । प्रश्न-पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है । उत्तर-अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । प्रश्न-कितने अद्धा-समयों से स्पृष्ट होता है । उत्तर-कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् नहीं होता । यदि होता है, तो अवश्य अनन्त समयों से स्पृष्ट होता है। ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय द्रव्य, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। ३१ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। प्रश्न-अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? उत्तर-एक भी प्रदेश से स्पष्ट नहीं होता । शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार इसी पाठ द्वारा सभी स्व-स्थान में एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होते और पर-स्थान में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। पीछे के तीन स्थान (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा-समय) अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३४ पंचास्तिकायमय लोक --- होते हैं । इस प्रकार यावत् अद्धा समय तक कहना चाहिये। यावत् - प्रश्न- अद्धा समय, कितने अद्धा समयों से स्पृष्ट होता है ? उत्तर - एक भी नहीं । विवेचन-धर्मारितकाय का एक प्रदेश जब लोकान्त के एक कोने में होता है, तब वह भूमि के निकट घर के काने के समान होता है। तत्र जघन्य पद में वहां धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, ऊपर के एक प्रदेश से और पास के दो प्रदेशों से इस प्रकार धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पष्ट होता है । उत्कृष्ट पद में चारों दिशाओं के चार प्रदेशों में और ऊर्ध्व तथा अधोदिशा के एक-एक प्रदेश से इस प्रकार छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । जिस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों में तथा धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से इस प्रकार चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । उत्कृष्ट पद में छह दिशाओं के छह प्रदेशों से और धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से इस प्रकार सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । लोकान्त में भी अलोकाकाश होता है. इसलिये आकाशास्तिकाय के पूर्वोक्त सात प्रदेशों की स्पर्शना होती है । धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश पर और उसके पास अनन्त जीवों के अनन्त प्रदेश विद्यमान होने से वह धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जीव के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से भी स्पृष्ट होता है । २२०५ S अद्धा समय केवल समय-क्षेत्र (ढ़ाई द्वीप और दो समुद्र ) में ही होता है, बाहर नहीं होता | क्योंकि समयादि काल, सूर्य की गति से ही निप्पन्न होता है, उस से धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है, तो अनन्त अद्धा समयों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे अनादि हैं। इसलिये उनकी अनन्त समय की स्पर्शना होती है । अथवा वर्त्तमान समय विशिष्ट अनन्त द्रव्य उपचार से अनन्त समय कहलाते हैं । इसलिये 'अनन्त समयों से स्पृष्ट हुआ' - ऐसा कहलाता है । अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों द्वारा स्पर्शना, धर्मास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना के समान जाननी चाहिये । आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, लोक की अपेक्षा धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १३ उ. ४ गंवास्तिकामग लोक होता है और अलोक की अपेक्षा स्पृष्ट नहीं होता । यदि स्पष्ट होता है, तो जघन्य पद में लोकान्त में वर्तमान धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से, अलोकाकाश के अग्रभाग में रहा हुआ एक आकाश-प्रदेश स्पृष्ट होता है । वक्रगत आकाश-प्रदेश, धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । जिस अलोकाकारा के एक प्रदेश के आगे, नीचे और ऊपर धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, वह धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों में स्पष्ट होता है । लोकान्त के कोने में रहा हुआ एक आकाश-प्रदेश, नदाश्रित धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से तथा ऊपर या नीचे रहे हए एक प्रदेश से और दो दिशाओं में रहे हए दो प्रदेशों से, इस प्रकार धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । जो आकाश-प्रदेश, धर्मास्तिकाय के ऊपर के एक प्रदय से. नीचे के एक प्रदेश से, दो दिशाओं के दो प्रदेशों से और वहीं रहे हुए धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से स्पृष्ट होता है, वह इस प्रकार पाँच प्रदेशों से स्पष्ट होता है । जो आकागप्रदेश, धर्मास्तिकाय के ऊपर के एक प्रदेश से, नीचे के एक प्रदेश से, तीन दिशाओं के तीन प्रदेशों से और वहीं रहे हुए एक प्रदेश से स्पृष्ट होता है, वह छह प्रदेगों से स्पृष्ट होता है। जो आकाश-प्रदेश, धर्मास्तिकाय के ऊपर के एक प्रदेश से, नीचे के एक प्रदेश से, चार दिशाओं के चार प्रदेशों से और वहीं रहे हुए एक प्रदेश से स्पष्ट होता है, वह सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पर्शना जाननी चाहिये । लोकाकाश अथवा अलोकाकाश का एक प्रदेश, छह दिशाओं में रहे हुए आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, इसलिये उसकी स्पर्शना छह प्रदेशों से कही गई है। यदि लोकाकाश-प्रदेश हो, तो वह जीवास्तिकाय से स्पृष्ट होता है और यदि अलोकाकाश का प्रदेश हो, तो वह स्पृष्ट नहीं होता । क्योंकि वहाँ जीव नहीं होते । यही बात पुद्गलास्तिकाय और अद्धा-ममय के विषय में भी समझनी चाहिये । यदि जीवास्तिकाय का एक प्रदेश, लोकान्त के कोण में होता है, तो धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से (नीचे या ऊपर के एक प्रदेश से, दो दिशाओं के दो प्रदेशों से और एक तदाश्रित प्रदेश से) स्पृष्ट होता है । क्योंकि वहाँ स्पर्शक प्रदेश सब से थोड़े होते हैं। जीवास्तिकाय का एक प्रदेश, एक आकाश-प्रदेशादि पर केवलि-समुद्घात के समय ही पाया जाता है । उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों मे स्पर्शना होती है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पर्शना जाननी चाहिये ।। जीवास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्गना के समान पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना भी जाननी चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १. १३३८ पंचम ठोक पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेशों की स्पर्शना के विषय में चूर्णिकार ने इस प्रकार विवेचन किया है- 'यद्यपि लोकान्त में द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक प्रदेश को अवगाहित कर रहा हुआ है, तथापि 'प्रतिद्रव्य की अवगाहना होती है इस नय की विवक्षा में अवगाहित प्रदेश एक होते हुए भी भिन्न मानने से वह दो प्रदेशों से स्पष्ट है, तथा उसके ऊपर या नीचे जो प्रदेश हैं, वह भी पूर्वोक्त नय मतानुसार दो प्रदेशों से स्पृष्ट है। पास के दो प्रदेश, एक-एक अणु को स्पर्श करते हैं । इस प्रकार पुद्गलास्तिकाय का द्विप्रदेशी स्कन्ध, धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट है । यदि पूर्वोक्त प्रकार से नय की विवक्षा न की जाय, तो द्वयणुक स्कन्ध की चार प्रदेशों से जघन्य स्पर्शता होती है । वृत्तिकार का कथन इस प्रकार है- 'छह कोष्ठक बना कर बीच में जो दो बिन्दु हैं उनको परमाणु समझना चाहिये। उनमें से इस ओर का परमाणु इस ओर के धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट है और दूसरी ओर का परमा. दूसरी ओर के धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट है । इस प्रकार दो प्रदेशों से तथा दो प्रदेशों में स्थापित दो परमाणु, उनके आगे के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं । इस प्रकार ये चार हुए और दो अवगाढ़ प्रदेशों का स्पर्शना होती है । इस प्रकार छह प्रदेशों से स्पर्शना होती है । उत्कृष्ट पद में वारह प्रदेशों में स्पर्शना होती है । यथा द्विप्रदेशावगाढ़ होने मे दो प्रदेश, ऊपर के दो प्रदेश, नीचे के दो प्रदेश, दोनों ओर के दो प्रदेश और उत्तर-दक्षिण के दो-दो प्रदेश, इस प्रकार बारह प्रदेशों से स्पर्शना होती है । आकाशास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पर्शना होती है । लोकान्त में भी आकाय प्रदेश विद्यमान होने में इसमें जघन्य पद नहीं होता । पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के आठ प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। क्योंकि वे तीन प्रदेश, एक प्रदेशावगाढ़ होते हुए भी पूर्वोक्त नय-मतानुसार अवगाढ़ तीन प्रदेश, नीचे के तथा ऊपर के तीन प्रदेश और दोनों ओर के दो प्रदेश, इस प्रकार धर्मास्तिकाय के आठ प्रदेशों से स्पर्शना होती है । यहां जघन्य पद में सब जगह विवक्षित प्रदेशों को दुगुना करके दो और मिलावे, उतने प्रदेशों से स्पर्शना होती है । उत्कृष्ट पद में विवक्षित प्रदेशों को पाँच गुणा करके दो और मिलावे, उतने प्रदेशों से स्पर्शना होती है । जैसे - एक प्रदेश को दुगुना करने पर दो होते हैं, उनमें दो और मिलाने पर चार होते हैं, इस प्रकार जघन्य पद में एक प्रदेश की चार प्रदेशों से स्पर्शना होती है । उत्कृष्ट पद में एक प्रदेश को पाँच गुणा करने पर पाँच होते हैं, उनमें दो और मिलाने पर सात होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट पद में एक प्रदेश, सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार दो प्रदेश. तीन प्रदेश आदि के विषय में भी जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only २२०७ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०८ भगवती सुत्र-१३ उ ४ वास्तिकायमय लोक.. आकाशास्तिकाय का सभी स्थान पर (एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक) उत्कृष्ट पद ही होता है, जघन्य पद नहीं, क्योंकि आकाश सभी जगह विद्यमान है । दस के उपरांत संख्या को गणना संख्यात में होती है। जैसे कि-बीस प्रदेशों का एक स्कन्ध, लोकान्त के एक प्रदेश पर रहा हुआ है, वह अम्क नय के अभिप्राय से बीस अवगाढ़ प्रदेशों से ऊपर या नीचे के बीम प्रदेशों से और दोनों ओर के दो प्रदेशों मे, इस प्रकार जघन्य पद में वयालीस प्रदगों में स्पष्ट होता है। उत्कृष्ट पद में निरुपचरित (वास्तविक) बीस अवगाढ़ प्रदेशों से, नीचे के बीस प्रदेशों से, ऊपर के बीस प्रदेशों से दोनों ओर (पूर्व और पश्चिम दिशा) के बीस-बीस प्रदेशों से तथा उत्तर और दक्षिण दिशा के एक-एक प्रदेश से, इस प्रकार कुल मिला कर एक सौ दो प्रदेशों से स्पष्ट होता है। .. असंख्यात और अनन्त प्रदेशों की स्पर्शना के विषय में भी पूर्वोक्त नियम ही ममझना चाहिये। किन्तु अनन्त के विषय में यह विशेषता है कि जिस प्रकार जघन्य पद में ऊपर या नीचे के अवगाढ़ प्रदेश औपचारिक हैं, उसी प्रकार उत्कृष्ट पद के विषय में भी जानना चाहिये । क्योंकि अवगाह से निरुपचरित अनन्त आकाग-प्रदेश नहीं होते, असंख्य होते हैं। . मूल पाठ में आकाशास्तिकाय की उत्कृष्ट स्पर्शना ही बताई हैं। इसमे चूर्णिकार के मत की ही आगमीयता स्पष्ट होती है । जघन्य स्पर्शना में दुगुने से दो अधिक एवं उत्कृष्ट स्पर्शना में पांच गुणा मे दो अधिक प्रदेशों की स्पर्शना भी चूर्णिकार के मत को ही पुष्ट करती है । टीकाकार के मतानुसार जो स्पर्शना बताई गई है, उसकी संघटना भी नहीं बैठती है । अतः चूर्णिकार का मत ही आगमीय प्रतीत होता है । अद्धा-समय की स्पर्शना के विषय में इस प्रकार समझना चाहिये-समय क्षेत्रवर्ती वर्तमान समय विशिष्ट परमाणु को यहाँ अद्धा-समय रूप से समझना चाहिये । अन्यथा धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से अद्धा-समय की स्पर्शना नहीं हो सकती । यहाँ जघन्य पद नहीं है, क्योंकि अद्धा-समय मनुष्य क्षेत्रवर्ती है। जघन्य पद तो लोकान्त में सम्भवित होता है और लोकान्त में काल नहीं है । अद्धा-समय की स्पर्शना सात प्रदेशों से होती है, क्योंकि अद्धा-समय विशिष्ट परमाणु द्रव्य, धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश में अवगाढ़ होता है और धर्मास्तिकाय के छह प्रदेश उसके छहों दिशाओं में होते हैं, इस प्रकार उसके सात प्रदेशों से स्पर्शना होती है । अद्धा-समय जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे एक प्रदेश पर भी अनंत होते हैं। एक अद्धा-समय, पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से और अनन्त अद्धा-ममयों से For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. १: उ. ४ पंचास्तिकायमय लोक स्पृष्ट होता है । क्योंकि अद्धा-समय विशिष्ट परमाण द्रव्य, अद्धा-समय कहलाता है । वह एक अद्धा-समय, पुद्गलास्तिकाय के अनंत प्रदेशों मे आर अनन्त अद्धा-समयों से अर्थात् अद्धासमय विशिष्ट अनन्त परमाणुओं से स्पष्ट होता है क्योंकि वे उसके स्थान पर और आसपाम विद्यमान होते है। धर्मास्तिकायादि की प्रदेशतः स्पर्शना ऊपर बताई गई है। आगे सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय द्रव्य की म्पर्शना के विषय में प्रश्न किया गया है । उत्तर में कहा गया है कि धर्मास्तिकाय द्रव्य, धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश में भी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय द्रव्य के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय के कोई पृथक् प्रदेश नहीं है । धर्मास्तिकाय द्रव्य, अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से स्पष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय के प्रदेशों के मध्य में अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेश रहे हए हैं। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय द्रव्य, आकागास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों में स्पृष्ट हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय असंख्य प्रदेश स्वरूप सम्पूर्ण लोकाकाश में है और वह अनन्त जीव-प्रदेशों से व्याप्त है, क्योंकि धर्मास्तिकाय जीव-प्रदेशों को व्याप्त कर रहा हुआ है और वे अनन्त है । इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के छह, आकागास्तिकाय के छह, जीवास्तिकाय के छह और अद्धा-समय के छह सूत्र कहने चाहिये। जहां केवल धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का उनके प्रदेशों द्वारा स्पर्श ना का विचार किया जाय, वह 'स्वस्थान' कहलाता है और जब दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों से स्पर्शना का विचार किया जाय, तो वह 'परस्थान' कहलाता है । 'स्वस्थान' में तो वह द्रव्य अपने एक भी प्रदेश से स्पष्ट नहीं होता और 'परस्थान' में धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों के विषय में असंख्य प्रदेशों में स्पृष्ट होता है । क्योंकि-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और तत्सम्बद्ध आकाशास्तिकाय के असंख्य प्रदेश हैं । जीवादि तीन द्रव्यों के विषय में अनन्त प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है । क्योंकि इन तीनों के अनन्त प्रदेश हैं। आकाशास्तिकाय में इतनी विशेषता है कि वह धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से कदाचित स्पष्ट होता है और कदाचित स्पष्ट नहीं होता । जो स्पृष्ट होता है, वह धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से और जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पष्ट होता है। यावत् एक अद्धा-समय, एक भी अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं होता है, क्योंकि निरुपचरित अद्धा-समय एक ही होता है । इसलिये समयान्तर के साथ उनकी म्पर्गना नहीं होती। जो समय बीत चुका है, वह तो विनष्ट हो गया है और अनागत समय अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ, अतएव अतीत और अनागत के समय असत्स्वरूप होने से उनके साथ वर्तमान समय की स्पर्शना नहीं हो सकती। For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१० भगवती मुत्र-ग. ५३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता प्रदेशों की अवगाढ़ता ३२ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे धम्मत्थिकायपएसे ओगाढे, तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ? ३२ उत्तर-णत्थि एक्को वि। प्रश्न-केवइया अहम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ? उत्तर-एक्को। प्रश्न-केवइया आगासस्थिकायपएसा ? उत्तर-एक्को । प्रश्न-केवइया जीवत्थिकायपएसा ? उत्तर-अणंता। प्रश्न-केवइया पोग्गलत्थिकायपएसा ? उत्तर-अणंता। प्रश्न-केवइया अद्धासमया ? उत्तर-सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा, जइ ओगाढी अणंता। ३३ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे अहम्मत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकायपएसा ओगाढा ? ३३ उत्तर-एक्को। प्रश्न-केवइया अहम्मत्थि० ? For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-T. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता २२११ उत्तर-णत्थि एक्को वि । सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । ३४ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे आमासस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवड्या धम्मस्थिकायंपएमा ओगाढा ? ३४ उत्तर-सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा, जइ ओगाढा एक्को. एव अहम्मत्थिकायपएसा वि । प्रश्न-केवड्या आगामस्थिकाय ? उत्तर-णत्थि एक्को वि। प्रश्न-केवइया जीवस्थि० ? उत्तर-सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता, एवं जाव अद्धासमया । ३५ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे जीवस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थि० ? ... ३५ उत्तर-एक्को, एवं अहम्मस्थिकायपएसा वि । एवं आगा. सस्थिकायपएसा वि। प्रश्न-केवइया जीवत्थि० ? उत्तर-अणंता, सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । ३६ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकाय ? . ३६ उत्तर-एवं जहा जीवत्थिकायपएसे तहेव गिरवसेसं । For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता । - कठिन शब्दार्थ-जत्थ णं-जहां, तत्थ-तहां (वहां), ओगाढा-अवगाद ( रहा हुआ )। भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ (रहा हुआ) है, वहाँ धर्मास्तिकाय के दूसरे कितने प्रदेश अवगाढ़ हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! एक भी प्रदेश अवगाढ़ नहीं है। प्रश्न-अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ हैं ? उत्तर-एक प्रदेश अवगाढ़ होता है । प्रश्न-आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते है ? उत्तर-एक प्रदेश अवगाढ़ होता है । प्रश्न-जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर--अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते है ? उत्तर-अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? प्रश्न-कितने अद्धा-समय अवगाढ़ होते हैं ? । ' उत्तर-अद्धा-समय कदाचित् अवगाढ़ होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि अवगाढ़ होते हैं, तो अनन्त अद्धा-समय अवगाढ होते हैं। . ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! वहाँ एक प्रदेश अवगाढ़ होता है । प्रश्न-अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-एक भी अवगाढ़ नहीं होता । शेष कथन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिये। का ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३४ उत्तर हे गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय के प्रदेश कदाचित् अवगाढ़ होते हैं, कदाचित् अवगाढ़ नहीं होते। यदि अवगाढ़ होते हैं, तो एक प्रदेश अवगाढ़ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १६ उ. ८ प्रदेशों की अवगादला . होता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में भी जानना चाहिये। प्रश्न-आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-एक भी अवगाढ़ नहीं होता। प्रश्न-जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ हो हैं ? उत्तर-कदाचित् अवगाढ़ होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि अवगाढ़ होते हैं, तो अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। इसी प्रकार यावत् अद्धा-समय तक कहना चाहिये। . ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ जीवास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३५ उत्तर-वहाँ एक प्रदेश अवगाढ़ होता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों और आकाशास्तिकाय के प्रदेशों के विपत्र में भी जानना चाहिये। प्रश्न-वहाँ जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिये। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़होते हैं ? .. उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार जीवास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार सभी कथन करना चाहिये । ३७ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलस्थिकायपएसा ओगाढा तत्य केवइया धम्मत्थिकाय ? ३७ उत्तर-सिय एक्को सिय दोण्णि, एवं अहम्मस्थिकायस्स वि, एवं आगासस्थिकायस्स वि, सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । ३८ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! तिणि पोग्गलस्थिकायपएसा तत्थ For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९४ भगवती सूत्र - श. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता केवइया धम्मत्थिकाय ? ० ३८ उत्तर - सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय तिष्णि एवं अहम्मत्थिकायस्स वि, एवं आगासत्थिकायस्स वि, सेसं जहेव दोन्हं, एवं एक्केको यो परसो आइल्लएहिं तिहिं अस्थिकाएहिं सेसेहिं जहेव दोहं जाव दसहं सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय तिष्णि, जाव सिय दस । संखेजाणं सिय एक्को, सिय दोणि जाव सिय दस, सिय संखेज्जा । असंखेज्जाणं सिय एक्को, जाव सिय संखेज्जा, सिय असंखेज्जा । जहा असंखेज्जा एवं अनंता वि । ३९ प्रश्न - जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थि० ? ३९ उत्तर - एक्को | प्रश्न - केवइया अहम्मत्थि० ? उत्तर - एक्को । प्रश्न - केवइया आगासत्थि० ? उत्तर - एक्को । प्रश्न - केवइया जीवत्थि० ? उत्तर - अनंता, एवं जाव अद्धासमयो । ४० प्रश्न - जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवइया For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता २२१५ धम्मत्थिकायपएसा ओगाढा ? ४० उत्तर-पत्थि एक्को वि । प्रश्न-केवइया अहम्मत्थिकाय ? उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया आगासत्थि० ? उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया जीवस्थिकाय ? उत्तर-अणंता । एवं जाव अद्धासमया । ४१ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केव. इया धम्मत्थिकाय० ? ४१ उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया अहम्मत्थि० ? ... उत्तर-णत्थि एको वि । सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स, एवं सव्वे, सट्टाणे णत्थि एको वि भाणियव्वं, परट्ठाणे आइल्लगा तिण्णि असंखेजा भाणियव्वा, पच्छिल्लगा तिण्णि अर्णता भाणियव्वा जाव अद्धासमओ ति । जाव प्रश्न-केवइया अद्धासमया ओगाढा ? उत्तर-पत्थि एको वि। ४२ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे पुढविकाइए ओगाढे तत्थ णं For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१६ भगवती मूत्र-श. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता केवड्या पुढविकाइया ओगाढा ? ४२ उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवड्या आउकाइया ओगाढा ? उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया तेउकाइया ओगाढा ? उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया वाउकाइया ओगाढा ? उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया वणस्सइकाइया ओगाढा ? उत्तर-अणंता। ४३ प्रश्न-जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं • केवइया पुढवि० ? ४३ उत्तर-असंखेजा। प्रश्न-केवइया आउ० ? उत्तर-असंखेजा। एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वया तहेव सव्वेसि णिरवसेसं भाणियव्वं जाव वणस्सहकाइयाणं, जाव प्रश्न-केवइया वणस्सइकाइया ओगाढा ? उत्तर-अणंता। कठिन शब्दार्थ-वडियव्यो-बढ़ाना चाहिये,आदिल्लगा-पहले के,पच्छिल्लगा-पीछे के । For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ४ प्रदेशों की अयगाढ़ता २०१७ भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ़ होते है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् एक या दो प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में तथा शेष वर्णन धर्मास्तिकाय के समान कहना चाहिये। ३८ प्रश्न-हे भगवन ! जहां पुदगलास्तिकाय के तीन प्रदेश अवगाढ़ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् एक, दो या तीन प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिये, शेष जीवा स्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के विषय में, जिस प्रकार दो पुद्गल प्रदेशों के कथनानुसार तीन पुद्गल प्रदेशों के विषय में भी कहना चाहिये और आदि के तीन अस्तिकायों के विषय में एक-एक प्रदेश बढ़ाना चाहिये । शेष के विषय में जिस प्रकार दो पुद्गल प्रदेशों के सम्बन्ध में कहा है, उसी प्रकार यावत् दप्त प्रदेशों तक कहना चाहिये । अर्थात् जहाँ पुद्गलास्तिकाय के दस प्रदेश अबगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय आदि का कदाचित् एक, दो, तीन यावत् दस प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । जहाँ पुद्गलास्तिकाय के संख्यात प्रदेश अवगाढ़ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय आदि का कदाचित् एक, दो यावत् दस प्रदेश, यावत् संख्यात प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । जहाँ पुद्गलास्तिकाय के असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं, वहां धर्मास्तिकाय आदि का कदाचित् एक प्रदेश यावत् संख्य प्रदेश और असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्त प्रदेश के विषय में भी कहना चाहिये । अर्थात् जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय आदि का कदाचित् एक प्रदेश, यावत् संख्यात प्रदेश और असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ एक अद्धा-समय अवगाढ़ होता है, वहाँ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१८ भगवती मून-दा. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाढ़ता धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! एक प्रदेश अवगाढ़ होता है । प्रश्न-अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-एक प्रदेश अवगाढ़ होता है। प्रश्न-आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-एक प्रदेश अवगाढ़ होता है। प्रश्न-जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । इसी प्रकार यावत् अद्धा-समय तक कहना चाहिए। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! जहां एक धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ़ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ४० उत्तर-हे गौतम ! वहां धर्मास्तिकाय का एक भी प्रदेश अवगाढ़ नहीं होता। प्रश्न-वहां अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-अनन्त होते हैं। इसी प्रकार अद्धा-समय तक कहना चाहिए। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ अधर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ़ होता है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-एक भी नहीं। शेष सभी धर्मास्तिकाय के समान कहना चाहिए। धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के 'स्वस्थान' में एक भी प्रदेश नहीं होता और पर For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श..: . ८ प्रदशा का अयगाला स्थान में प्रथम के तीन द्रव्यों के (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के) असंख्य प्रदेश कहने चाहिए और पीछे के तीन (जीवास्तिकाय, पुद्गलारितकाय और अद्धा-समय) द्रव्यों के अनन्त प्रदेश कहने चाहिये । यावत् अद्धा-समय तक कहना चाहिए । यावत् प्रश्न-कितने अडा-समय अवगाढ़ होते है ? उत्तर-एक भी अवगाढ़ नहीं । ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ़ होता है, वहीं दूसरे कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ़ होते है ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं। . प्रश्न-कितने अप्कायिक जीव अवगाढ़ होते है ? उत्तर-असंख्य जीव अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-कितने तेजस्कायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-असंख्य अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-कितने वायुकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-असंख्य होते है। प्रश्न-कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? उत्तर-अनन्त जीव अवगाढ़ होते है ४३ प्रश्न-हे भगवन् ! जहाँ एक अप्कायिक जीव अवगाढ़ होता है, वहां कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? ४३ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य जीव अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-दूसरे कितने अकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं ? • उत्तर-असंख्य होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को वक्तव्यता कही, उसी प्रकार सभी की सभी वक्तव्यता कहनी चाहिये । यावत् वनस्पतिकायिक तक कहनी चाहिये। यावत्-- प्रश्न-कितने अन्य वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ़ होते हैं? उत्तर-अनन्त । For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२० भगवती सूत्र - श. १३ उ. ४ प्रदेशों की अवगाहता विवेचन - अवगाहना द्वार और जीवावगाढ़ द्वार का कथन किया गया है । इनकी घटना प्रायः सुगम है और मूलपाठ से ही घटित हो जाती है। धर्मास्तिकाय के प्रदेश के स्थान पर धर्मास्तिकाय का दूसरा प्रदेश अवगाढ़ नहीं है । अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय का एक-एक प्रदेश अवगाढ़ है । जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के अनन्तअनन्त प्रदेश अवगाढ़ हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश उनके अनन्त प्रदेशों से व्याप्त है । धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोक व्यापी है और अद्धा समय केवल मनुष्य लोक व्यापी है | अतः धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर अद्धा समयों का कदाचित् अवगाह है और नहीं भी । जहाँ अवगाह है, वहाँ अनन्त का अवगाह है । धर्मास्तिकाय के समान ही अधर्मास्तिकाय के भी छह सूत्र कहने चाहिये । आकाशास्तिकाय के विषय में धर्मास्तिकाय का प्रदेश कदाचित् अवगाढ़ है और नहीं भी है। क्योकि आकाशास्तिकाय लोकालोक परिमाण है । लोकाकाश में धर्मास्तिकाय के प्रदेश अवगाढ़ हैं, अलोकाकाश में नहीं । वहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है । जब पुद्गलास्तिकाय का द्विप्रदेशी स्कन्ध आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश को अवगाहता है. तब धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ही अवगाहता है और जब आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहता है, तव धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहता है । इसी प्रकार अवगाहना के अनुसार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश और दो प्रदेश की घटना स्वयं कर लेनी चाहिये । जब पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश को अवगाहते. हैं, तत्र धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है । जब आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ़ होते हैं और जब आकाशास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिये । जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा समय सम्बन्धी तीन सूत्रों का कथन भी पूर्ववत् करना चाहिये । पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों के स्थान पर जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों की अवगाहना के विषय में धर्मास्तिकायादि के एक-एक प्रदेश की वृद्धि की है, उसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के चार, पाँच आदि प्रदेशों की अवगाहना के विषय में एक -एक प्रदेश की वृद्धि करनी चाहिये । जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ़ होते है, वहाँ धर्मास्तिकाय के For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १३ उ. ४ धर्मास्तिकायादि की रूपातीत व्यापकता २२२१ कदाचित् एक, दो, यावत् कदाचित् असख्यात प्रदेश अबगाढ़ होते हैं, अनन्त नहीं, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाग के अनन्त प्रदेश नहीं होते, असंध्य ही होते हैं। जहां समस्त धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाट होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का अन्य एक. प्रदेश भी अवगाढ़ नहीं होता । क्यों कि उनके प्रदेशान्तर नहीं है । अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होते हैं । क्यो कि इनके असंख्य प्रदेश होते हैं । जीवास्तिकाय, पुद्गलास्किाय और अद्धा-समय के अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिकादि के कथन से 'जीवावगाढ़ द्वार' का कथन किया गया है । जहाँ एक पृथ्वीका यिक जीव अवगाद है, वहाँ पृथ्वीकायिकः आदि चारो काय के अमंन्य मूक्ष्म जीव अवगाढ़ हैं और वनस्पतिकाय के अनन्त । इसी प्रकार पांचों कायों के विषय में समझना चाहिए। धर्मास्तिकायादि की रूपातीत व्यापकता ४४ प्रश्न-एयंसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय अधम्मस्थिकाय. आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्टित्तए वा णिसिय. तए वा तुयट्टित्तए वा ? ४४ उत्तर-णो इणटे समटे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'एयंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासस्थिकायंसि णो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव ओगाढा ? उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए-क्रूडागारसाला सिया, दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा, जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव दुवारवयणाई पिहेइ, दुवारवयणाई पिहेत्ता तीसे कूडागारसालाए वहुमज्झदेसभाए For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२२ भगवती मूत्र--1. १६ उ. . धमास्नियादि की रूपातीत व्यापक ना - जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं पईवसहरसं पली. वेजा, से णूणं गोयमा ! ताओ पईवलेस्साओ अण्णमण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुट्ठाओ जाव अण्णमण्णघडताए चिटुंति ? हंता चिट्ठति । चक्किया णं गोयमा ! कई तासु पईवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ? भगवं ! णो इणटे समटे । अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव ओगाढा । कठिन शब्दार्थ-एयंसि-यह, चक्किया-समर्थ हो सकता है । भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई पुरुष ठहरने में, खड़ा रहने में, नीचे बैटने में और सोने में समर्थ हो सकता है ? ' ४४ उत्तर-नहीं, गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ़ होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है इसका ? ___ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार कोई कूटागारशाला हो, वह भीतर और बाहर से लीपी हुई और चारों ओर से ढकी हुई हो, उसके द्वार भी बन्द हों, इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रानुसार जानना चाहिये । उस कूटागारशाला के द्वार के कपाटों को बन्द कर के उसके ठीक मध्यभाग में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट एक हजार दीपक जलावे, तो हे गौतम ! क्या उस समय उन दीपकों का प्रकाश परस्पर मिल कर तथा परस्पर स्पर्श कर एक दूसरे के साथ एकमेक हो जाता है ? हां, भगवन् ! एक रूप हो जाता है । हे गौतम ! उन दीपकों के उस प्रकाश पर क्या कोई पुरुष ठहर सकता है यावत् सो सकता है ? नहीं भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं। उस प्रकाश में अनन्त जीव रहे हुए हैं, इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् धर्मास्तिकाय में For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-:. १३ उ. ४ लोक का मम एवं संक्षिप्त भाग २२२३ अनन्त जीव अवगाढ़ है। लोक का सम एवं संक्षिप्त भाग ४५ प्रश्न-कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? ४५ उत्तर-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेडिल्लेसु खुड्डगपयरेसु एत्थ णं लोए बहुसम, एस्थ णं लोए सव्व विग्गहिए पण्णत्ते । ४६ प्रश्न-कहि णं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते ? ४६ उत्तर-गोयमा ! विग्गहकंडए, 'एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ-कहि-कहाँ, सव्वविग्गहिए-सर्व संक्षिप्त (सब से छोटा) विग्गहकंडए-विग्रहकण्डक । भावार्थ-४५ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक का बहुसम भाग (अत्यन्त समप्रदेशों की वृद्धि-हानि से रहित) कहाँ है और लोक का सर्व संक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? . ४५ उत्तर-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर और नीचे क्षुद्र (लघु) प्रतरों में लोक का बहुसम भाग कहा गया है और यहीं लोक का सर्व संक्षिप्त (सब से संकीर्ण)भाग कहा गया है । ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक का विग्रह-विग्रहिक भाग (लोक रूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग) कहाँ कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२४ भगवता मूत्र--स. १६ उ. ४ लोक की आकृति ४६ उत्तर-हे गौतम ! जहां विग्रहकण्डक वक्रतायुक्त अवयव है, वहां लोक का विग्रहविग्रहिक भाग कहा गया है। विवेचन-यह चौदह राजू, परिमाण लोक, कहीं बढ़ा हुआ है और कहीं घटा हुआ है। इस प्रकार की बद्धि और हानि से रहित भाग-बहसमभाग कहलाता है। इस रत्नप्रभापृथ्वी में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। ये सब से छोटे हैं। ऊपर के क्षुल्लक प्रतर ने प्रारंभ होकर ऊपर प्रतर वृद्धि होती है और नीने के क्षुल्लक प्रतर से नीचे की ओर प्रतर वृद्धि होती है। शेष प्रतरों की अपेक्षा यह प्रतर छोटे हैं। क्योंकि इनकी लम्बाई चौड़ाई एक राजू परिमाण है । ये दोनों प्रतर तिर्यग्-लोक मध्यवर्ती हैं। . इस लोक का आकार पुरुप के गरीराका र माना है। कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के दोनों हाथों की कुहनियों का स्थान वक्र (टेढा) होता है । इसी प्रकार इस लोक में पांचवें ब्रह्मदेवलोक के कूर्पर (कुहनी स्थानीय) पास में लोक का वक्र-भाग है। इस वक्र-भाग को विग्रहकण्डक कहते है । अथवा जहाँ प्रदेशों की वृद्धि या हानि होने से वक्रता होती है, उसे भी विग्रहकण्डक कहते हैं । यह प्रायः लोकान्त में होते हैं । लोक की आकृति ४७ प्रश्न-किं संठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? ४७ उत्तर-गोयमा ! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे जाव 'अंतं करेई'। ४८ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! अहेलोयस्स तिरियलोयस्स, उड्ढलोयस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ४८ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उड्ढलोए असंखेजगुणे, अहेलोए विमेसाहिए। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भूत्र-ज..:. लोक की आकृति २२२५ * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ तरसमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-सुपट्टिय-मृप्रतिष्ठक (गरावला-मिट्टी का सकारा) । भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस लोक का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? ४७ उत्तर-हे गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठक के आकार का कहा गया है। यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, इत्यादि वर्णन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् 'संसार का अन्त करते हैं'-तक कहनाचाहिये। ___४८ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक में कौन किस. कम, अधिक यावत् विशेषाधिक है ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़ा (छोटा) तिर्यगलोक है, उससे ऊर्ध्वलोक असंख्यात गुण है और उससे अधोलोक विशेषाधिक है। हे भगवन् ! यह इमी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-नीच एक उल्टा (आधा) शरावला (मकोरा ) रखा जाय, उसके ऊपर एक सीधा और उसके ऊपर एक उल्टा गरावला रखा जाय । इसका जो आकार बनता है, यह लोक का आकार है। इस प्रकार नीचे से लोक चौड़ा है, मध्य में संकीर्ण हो जाता है, कुछ ऊपर फिर चौड़ा हो जाता है और सब से ऊपर फिर संकीर्ण हो जाता है । यहाँ लोक की चौड़ाई एक राज रह जाती है । इसका विस्तृत विवेचन मातवें शतक के प्रथम उद्देशक में किया गया है। , तिर्यग्लोक अठारह सौ योजन का लम्बा है। इसलिये वह सब से छोटा है। ऊर्ध्वलोक की अवगाहना कुछ कम सात रज्जु परिमाण है, इसलिये वह तिर्यग्लोक से असंख्यात गुण है । अधोलोक की अवगाहना कुछ अधिक सात रज्जु परिमाण है, इसलिये वह ऊर्ध्व लोक से विशेषाधिक है। ॥ तेरहवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ उद्देशक ५ नैरयिकों का आहार १ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, मीसाहारा ? १ उत्तर-गोयमा ! णो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, णो मीसा. हारा । एवं असुरकुमारा, पढमो गैरइय उद्देसओ गिरवसेसो भाणियव्वो। ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ तेरसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-निरवसेसो--निरवशेष (कुछ भी नहीं छोड़ कर सम्पूर्ण)। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक सचित्ताहारी हैं, अचित्ताहारी हैं या मिश्राहारी हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! वे न तो सचित्ताहारी हैं और न मिश्राहारी हैं, वे अचित्ताहारी हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों के लिये भी कहना चाहिये । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र के २८ वें आहार पद का प्रथम नैरयिक उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। . ॥ तेरहवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ उद्देशक सान्तर-निरन्तर उपपात-च्यवन १ प्रश्न-रायगिह जाव-एवं वयासी-संतरं भंते ! णेरड्या उववजंति, णिरंतरं णेरड्या उववज्जति ? १ उत्तर-गोयमा ! संतरं पि णेरइया उववज्जति, णिरंतरं पि णेरड्या उववज्जति । एवं असुरकुमारा वि, एवं जहा गंगेये तहेव दो दंडगा जाव-संतरं पि वेमाणिया चयंति, णिरंतरं पि वेमाणिया चयंति'। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! नैरयिक मान्तर (समयादि के अन्तर सहित) उत्पन्न होते हैं था निरन्तर (समयादि के अन्तर रहित) ? १ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी । असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । नौवें शतक के बत्तीसवें गांगेय उद्देशक के उत्पाद और उद्वर्तना के सम्बन्ध में दो दण्डक कहे हैं उसके समान यहाँ पर भी कहना चाहिए, यावत् 'वैमानिक सान्तर भी च्यवते हैं और निरन्तर भी च्यवते हैं'-तक कहना चाहिए। चमरेन्द्र का आवास-स्थान २ प्रश्न-कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचा णामं आवासे पण्णत्त ? For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सुत्र-स. १३ उ.: मान्नर-निरन्तर उपपात-न्यवन २ उत्तर-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पव्वयस्स दाहिणणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे एवं जहा विइयसर मभाउद्देमए वत्तव्वया सच्चेव अपरियेसा णेयव्वा, णवरं इमं णाणतं जाव-तिगिच्छकूडम्स उप्पायपव्वयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपव्वयस्म अण्णेसिं च बहूणं असं तं चेव जाव-तेरस य अंगुलाई अधंगुलं च किंचि विसेमाहिया परिक्खेवणं । तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपञ्चच्छिमेणं छक्कोडिसए पणपण्णं च कोडिओ पणतीसं च सयमहस्साई पण्णासं च सहस्साइं अरुणोदगसमुहं तिरियं वीइवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णा चमरचंचे णाम आवासे पण्णत्ते चउरासीइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, दो जोयणसयमहस्सा पण्णहिँ च सहस्साई छच्च बत्तीसे जोयणसए किंचि विसेमाहिए परिक्खेवेणं । से णं एगेणं पागारेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते । से णं पागारे दिवड्ढ़ जोयणसयं उड्ढे उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाए रायहाणीए वत्तव्वया भाणियब्वा सभाविहूणा, जावचत्तारि पासायपंतीओ। ___ ३ प्रश्न-चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे वसहिं उवेइ ? ३ उत्तर--णो इणटे समटे । प्रश्न-से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'चमरचंचे For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रा १३६६ मान्तर-निरन्तर उपपात व्यवन आवामे '? उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए इहं मणुरसलोगंसि उबगारिय लेणा वा उज्जाणियलेणाइ वा णिजाणियलेणाइ वा धारिवारिय लेणाड़ वा, तत्थ णं बहवें मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति, संयंति - जहा रायम्पसेणइज्जे जाव - कल्लाणफलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विहरंति, अण्णत्थ पुण बसहिं उवेंति, एवामेव गोयमा ! मरस असुरिंदर असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवामे केवलं किड्डा-रड़पत्तियं, अण्णत्थ पुण वसहि उवेंति से तेणट्टेणं जावआवासे | 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव- विहरइ । तर णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ णयराओ गुणसिलाओ जाव - विहरs | २२२९ कठिन शब्दार्थ-उबगारियलेणाइ - औपकारिकगृह ( भवनों के नीचे का चबूतरा ) उज्जानियलेणाइ - लोगों के उपकार के लिये बगीचों में बनाये हुए घर अथवा नगर के पास धर्माला आदि, णिज्जाणियलेणाइ- नगर से बाहर निकलने पर आराम के लिये बनाये हुए घर, धारिवारियणाइ - ( पाठ भेद-वारिधारियलेणाइ) जिनमें पानी के फव्वारे छूट रहे हों, ऐसे बगीचे आदि में बनाये हुए घर । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र और असुरकुमारों के राजा चमर का 'चमरचंचा' नामक आवास कहाँ कहा गया है ? २ उत्तर - हे गौतम! इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में तिर्च्छा असंख्य द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करने के बाद ( अरुणवर द्वीप की बाह्य वेदिका के अन्त से अरुणवर समुद्र में बयालीस हजार योजन जाने के बाद चमरेन्द्र का तिच्छिक कूट नाम का उपपात पर्वत आता है। उससे दक्षिण दिशा में छह For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३० भगवती सूत्र-श. १३ उ. ६ मान्तर-निरन्तर उपपात-च्यवन सौ पचपन करोड़ तीस लाख पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्र में तिच्छी जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर चालीस हजार योजन जाने पर चमरेन्द्र की चमरचंचा नामक राजधानी आती है, इत्यादि) दूसरे शतक के आठवें सभा उद्देशक में जो वक्तव्यता कही गई है, वह सम्पूर्ण कहनी चाहिये। विशेषता यह है कि तिगिच्छकट के उत्पात पर्वत, चमरचंचा नामक राजधानी, चरमचंचक नामक आवास पर्वत और दूसरे बहुत से इत्यादि, सब उसी प्रकार कहना चाहिये, यावत् तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन गाउ दो सौ अठाईस धनुष और कुछ विशेषाधिक साढ़े तेरह अंगुल चमरचंचा की परिधि है । उस चमरचंचा राजधानी से दक्षिण पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में छह सौ पचपन करोड़ पेंतीस लाख पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्र में तिर्छा जाने के बाद वहाँ असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का चमरचंच नामक आवास कहा गया है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई चौरासी हजार योजन है । उसकी परिधि दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ विशेषाधिक है । वह आवास एक प्राकार (प्रकोट) से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह प्राकार ऊँचाई में एक सौ पचास योजन है । इस प्रकार चमरचञ्चा राजधानी की सारी वक्तव्यता यावत् 'चार प्रासाद पंक्तियाँ हैंतक, सभा छोड़कर कहना चाहिये। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र, असुरराज चमर 'चमरचञ्च' नामक आवास में रहता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न-हे भगवन् ! चमरेन्द्र, चमरचंच नाम के आवास में क्यों नहीं रहता ? उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार मनुष्य-लोक में औपकारिक घर (प्रासादादि के पीठ तुल्य घर), बगीचे में बनाये हुए घर, नगर के पास बनाये हुए घर, नगर से निकलने वाले द्वार के पास बनाये हुए घर और जल के फव्वारे सहित घर होते हैं, वहाँ बहुत से पुरुष, स्त्रियां आदि बैठते हैं, सोते हैं इत्यादि For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १: 3. उदायन नरेता चरित्र २२३? राजप्रश्नीय सूत्रानुसार यावत् 'कल्याण रूप फल और वृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए रहते हैं'-तक कहना चाहिये । (वे स्थान विश्राम के लिए अस्थायी होते हैं) वहाँ वे लोग स्थायी निवाप्त नहीं करते । उनका निवास दूसरी जगह होता है । इसी प्रकार हे गौतम ! असुरेन्द्र, असुरराज चमर का चमरचञ्च नामक आवास, केवल क्रीड़ा और रति के लिए है। चमरेन्द्र वहाँ आकर क्रीड़ा और रति करता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि चमरेन्द्र चमरचंच आवास में निवास नहीं करता। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।' इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी किसी दिन राजगृह नगर और गुण-शील चैत्य से यावत् विहार कर देते है। उदायन नरेश चरित्र ४-तणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था, , वण्णओ । पुण्णभद्दे चेइए, वण्णओ। तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुलिं चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता जाव विहरड़ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए णामं णयरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं मियवणे णामं उजाणे होत्था, मन्योउय० वण्णओ। तत्थ णं वीतीभए णयरे For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३२ भगवती मूत्र-श. १३ उ. ६ उदायन नरेश चरित्र उदायणे णामं राया होत्था, महया० वण्णओ । तस्स णं उदायणरस रण्णो पभावई णामं देवी होत्था, सुकुमाल० वण्णओ । तस्स णं उदायणस्स रण्णो पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए अभीइणाम कुमारे होत्था, सुकुमाल० जहा सिवभद्दे जाव पच्चुवेवम्खमाणे विहरई' । . तस्स णं उदायणस्स रण्णो णियए भाइणिज्जे केसीणामं कुमारे होत्था, सुकुमाल० जाव सुरूवे । से णं उदायणे राया सिंधूसो. वीरप्पामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं, वीतीभयप्पामोक्खाणं तिप्हं तेसट्टीणं जयरागरमयाणं, महसेणप्पामोक्खाणं दसण्हं राईणं बद्धमउडाणं विदिण्णछत्तचामर वालवीयणाणं, अण्णेसिं च वहणं राई सर-तलवर० जाव सत्यवाहप्पभिईणं आहेवच्च पोरेवच्चं जाव कारे। माणे, पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । कठिन शब्दार्थ-अत्तए-आत्मज-पुत्र, बद्धमउडाणं-मुकुटबन्ध । भावार्थ-४-उस काल उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी (वर्णन)। पूर्णभद्र नाम का चैत्य था (वर्णन) । श्रमण भगवान महावीर स्वामी किसी दिन पूर्वानुपूर्वी विचरते हुए चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे यावत् विचरते है। ___उस काल उस समय में सिन्धुसौवीर देश में वोतिभय नाम का नगर था (वर्णन)। उस वीतिभय नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में मंगवन नाम का उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पादिक से समृद्ध था (वर्णन)। वीतिभय नगर में उदायन नाम का राजा था। वह महाहिमवान् पर्वत के समान था (वर्णन)। उदायन राजा के प्रभावती नाम की रानी थी। वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली थी (वर्णन)। उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १३ ३. आयन नरेश का संकल्प २२३३ - .. . 'अभीचि' नाम का कुमार था। वह सुकुनाल था । उसका वर्णन शिवभद्र के समान जानना चाहिये, यावत वह राज्य का निरीक्षण करता हुआ विचरता था। उदायन राजा का सगा भाणेज केशी' नामक कुमार था । वह भी सुकुमाल यावत् सुरूप था। उदायत राजा, सिन्धु सौवीर आदि मोलह देश, वीतिभय प्रमुख तीन सा त्रेसठ नगर और आकर का स्वामी था । उसकी अधीनता में-जिनको छत्र, चामर और बालव्यजन (पंखा) दिये गये है-ऐसे महालेन प्रमुख दस मुकुटबद्ध राजा और इमो प्रकार के दूसरे बहुत से राजा, यवराज, तलवर (कोतवाल) यावत् सार्थवाह आदि पर आधिपत्य करता और राज्य का पालन करता हुआ विचरता था । वह जीवाजीवादि तत्त्वों का जानकार श्रमणोपासक था। विवेचन-सिन्ध नदी के पास जो जनपद विशेष है. वे सिन्धुनौवीर देश कहलाते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा वेतो आदि के लिए हानिकारक चूहे. टिड्डी, पतंग आदि उपद्रव होन। 'ईति' कहलाता है। स्वचक्र भय (अपने राजा आदि अधिकारी से प्रजा को भय होना) और परचक्र भय (दूसरे राजादि में प्रजा को भय होना) भीति' कहलाता है । जहाँ 'ईति' और 'भाति' रूप भय नहीं हो, उसे वीतिभय' कहते हैं । उदायन राजा का नगर वीतिभय' था। उदायन नरेश का संकल्प ५-तए णं से उदायणे राया अण्णया कयाइ जेणेव पोसह. साला तेणेव उवागच्छइ, जहा संखे जाव विहरइ । तए णं तस्स उदायणस्स रणो पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिप जाव समुप्पजित्था-'धण्णा णं ते गामा - गर • णयर • खेड- कव्वड - मडंव-दोणमुह-पट्टणा-सम-संवाहसण्णिवेसा. जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरइ, धण्णा णं ते For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३४ . भगवती सूत्र-१. १६ उ. ६ उदायन नरेश का संकल्प राईसर-तलवर० जाव सत्थवाहप्पभिईओ, जे णं समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, जाव पज्जुवासंति । जइ णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे इहमागच्छेजा, इह समोसरेजा, इहेव वीतीभयस्स णयरस्स बहिया मियवणे उजाणे अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्डित्ता संजमेणं तवसा जाव विहरेजा, तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेजा, णमंसेन्जा, जाव पज्जुवासेज्जा । तएणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवं अन्झत्थियं जाव समुप्पण्णं वियाणित्ता चंपाओ • णयरीओ पुण्णभदाओ चेइयाओ पडिणिक्वमड़, पडिणिक्खमित्ता पुव्वाणुपुदि चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे जेणेव सिंधूमोवीरे जणवए जेणेव वीतीभये गयरे, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवा. गच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता जाव विहरइ । तएणं वीतीभये णयरे सिंघाडग० जाव परिसा पज्जुवासइ । तएणं से उदायणे राया इमीसे कहाए लढे समाणे हट्ट तुट्ट० कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुंबियपुरिसे सदावित्ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीतीभयं णयरं सम्भितरवाहिरियं जहा कूणिओ उववाइए जाव 'पज्जु. वासई'। पभावईपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाव पज्जुवासंति । धम्मकहा । तएणं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा णिसम्म हट-तुट्टे उट्ठाए उट्टेइ, उठाए उद्वित्ता For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगती मूत्र-.": उ. द्रायन नरेश का सालय समणं भगवं महावीरं तिकखुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एव. मेयं भंते ! तहमेयं भंते : जाव से जहयं तुम्भे वयह त्ति कटु जं णवरं देवाणुप्पिया ! अभीडकुमारं रज्जे टोवेमि. तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि । 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध' । तएणं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट-तुट्टे ममणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसइ, वंदित्ता णमंमित्ता तमेव आभिसेवक हत्थिं दुरूहह, दुरूहित्ता समणस्म भगवओ महावीररस अंतियाओ मियवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिकग्वमित्ता जेणेव वीतीभये णयरे तेणेव पहारत्थ गमणाए । ___ कटिन शब्दार्थ- पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-पूर्वरात्रापर रात्रकाल समय में ( रात्रि के पहले या पिछले पहर में अथवा रात्रि के मध्य-भाग में), अयमेयाम्वे-इम प्रकार का, अज्झथिए-संकल्प. समुप्पज्जित्था-समुत्पन्न हुआ। .. भावार्थ-५-एक दिन उदायन राजा अपनी पौषधशाला में आये और बारहवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे। रात्रि के पिछले पहर में धर्म-जागरण करते हुए उदायन राजा को इस प्रकार संकल्प यावत् उत्पन्न हुआ कि-वे ग्राम, आकर (खान) नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमख, पत्तन, आश्रम, संबाधं और सन्निवेश धन्य है, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, सेठ तलवर यावत् सार्थवाह आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते है। यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरते हुए एवं एक ग्राम से For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-मः १६ उ. ६ उदायन नरेटा का संकल्प दूसरे ग्राम जाते हुए यावत् विहार करते हुए यहां पधारें, यहां समोसरें और इस वीतिभय नगर के बाहर मृगवन नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरें, तो मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करूं यावत् पर्युपासना करूँ। उदायन राजा को उत्पन्न हुए इस प्रकार के संकल्प को जान कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चम्पा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान से निकले और अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम चलते हुए यावत् सिन्धुसौवीर देश में वीतिभय नगर के मृगवन उद्यान में पधारे यावत् विचरते है । वोतिभय नगर में शृंगाटकादि मार्गों में यावत् परिषद पर्युपासना करती है । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आगमन की बात सुन कर उदायन राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ और अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र वीतिभय नगर को भीतर और बाहर से स्वच्छ करवाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्रानुसार वर्णन करना चाहिये, यावत् उदायन राजा भगवान् की पर्युपासना करता है और प्रभावती प्रमुख रानियाँ भी पर्युपासना करती हैं। भगवान् ने धर्म-कथा कही। श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और हृदय में अवधारण कर उदायन नरेश हर्षित और सन्तुष्ट हुए। वे खड़े हुए और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोले--"हे भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है, यथार्थ है, तथ्य है, यावत् जिस प्रकार आप कहते हैं, उसी प्रकार है । हे देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि अभीचिकुमार का राज्याभिषेक करके देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करूं।" भगवान ने कहा--" हे देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो वैसा करो। धर्मकार्य में विलम्ब मत करो।" श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वचन सुन कर उदायन राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। राजा ने भगवान् को वन्दना-नमस्कार किया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती पर सवार होकर वीतिभय नगर की ओर जाने लगा। For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ . ६ भानेज वा राज्यभिषेक भाजेज का राज्याभिषेक ६- तणं तस्स उदायणस्स रण्णी अयमेयाख्ये अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था - " एव खलु अभीइकुमारे ममं एगे पुत्ते इट्टे कंते, जाव किमंग पुणे पासणयाए ? तं जड़ णं अहं अभीइकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीररस अंतियं मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तो णं अभीङकुमारे रज्जेय रहे य जाव जणवए य माणुस्सएस य कामभोगेमु मुच्छिए, गिधे, गढ़िए, अज्झोववणे, अणाईयं, अणवदग्गं दीहमदधं चाउरंतसंसार कतारं अणुपरियट्टिरसइ, तं णो खलु मे से अभीकुमारं रज्जे टावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्थ जाव पव्वत्तए, सेयं खलु में नियगं भाइणेज्जं के सिं कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पव्वत्तए "-- एवं संपे, एवं संपेत्ता जेणेव वीतभये णयरे तेणेव उवागच्छह, तेणेव उवागच्छिता वीतभयं णयरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला तेणेव उवागच्छड, तेणेव उवागच्छिता आभिक्कं हथि वेड, आभि० आभिसेक्काओ हत्थीओ पञ्चोरुहह, पचोरुहित्ता जेणेव सीहामणे तेणेव उवागच्छछ, तेणेव उवागच्छित्ता सीहातणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीय, निसीहत्ता २२३५ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३८ भगवती सूत्र-श. १३ उः ६ भानेज का राज्याभिषेक कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ, कोथुवियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासी'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीतीभयं णयरं सभितरवाहिरियं०' जाव पचप्पिणंति । तएणं से उदायणे राया दोच्चं पि कोडवियः पुरिसे सदावेइ, सदावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं ३ एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स कुमारस्स तहेव भाणियब्यो जाव 'परमाउं पालयाहि, इट्ठजणसंपरिवुडे सिंधूमोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीतीभयपामो. क्खाणं तिण्णि तेसट्ठीणं णयरागरसयाणं महमेणपामोवखाणं दसण्हं राईणं अण्गेसिं च बहूणं राईसर० जाव कारेमाणे, पालेमाणे विहराहि' त्ति कटु जयजयसई पउंजंति । तएणं से केसी कुमारे राया जाए, महया० जाव-विहरइ । कठिन शब्दार्थ-मुच्छिए-मूच्छित (आसक्त), गिद्ध-गृद्ध, गढिए-ग्रथित (बद्ध) अज्झोववण्णे-तल्लीन होकर, अणादीयं-अनादि, अणवदग्गं-अनन्त, दीहमद्धं-लम्बे मार्गवाला, सेयं-श्रेयस्कर, भाइणेज्ज-भागिनेय (भानेज), णिसीयइ-वंठे, खिप्पामेव-शीघ्र ही। . भावार्थ-६-उदायन नरेश को इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ कि'अभीचि कुमार मेरा एक ही पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है यावत् उसका नाम श्रवण भी दुर्लभ है, तो फिर उसके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? यदि मैं अभीचि कुमार को राज्य में स्थापित करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर यावत् प्रवज्या ग्रहण करलं, तो अभीचि कुमार, राज्य, राष्ट्र यावत् जनपद में और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित एवं तल्लीन होकर अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चार For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १३ उ. ६ उदायन नरेश की दीक्षा २२३९ - गति रूप संसार अटवी में परिभ्रमण करेगा। इसलिये अभीचि कुमार को राज्यारूढ़ कर, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास यावत् प्रव्रज्या लेना, यह श्रेयस्कर नहीं है, अपितु अपने भानेज केशी कुमार का राज्याभिषेक कर प्रवजित होना मेरे लिये श्रेयस्कर है ।" इस प्रकार विचार करता हुआ उदायन राजा, वीतिभय नगर के मध्य होता हुआ अपने भवन के बाहर की उपस्थान शाला में आया और आभिषेक्य पट्टहस्ती को खड़ा रख कर नीचे उतरा । फिर राज सभा में आया और पूर्वदिशा की ओर मुँह कर के भव्य सिंहासन पर बैठा । तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! वीतिभय नगर को बाहर और भीतर से स्वच्छ करवाओ, यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने नगर को सजाई करके आज्ञा पालन का निवेदन किया। इसके बाद उदायन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को आज्ञा दी-“हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही केशी कुमार को यावत् महा राज्याभिषेक की तैयारी करो। वर्णन ग्यारहवें शतक के नौवें उद्देशक के शिवभद्र कुमार के राज्याभिषेक के समान यावत् 'दीर्घायुषी होवो'तक कहना चाहिये, यावत् इष्टजनों से परिवृत्त होकर सिन्धुसौवीर प्रमुख सोलह देश, वीतिभय प्रमुख तीन सौ त्रेसठ नगर और आकर तथा मुकुटबद्ध महासेन प्रमुख दस राजा एवं अन्य बहुत से राजा तथा युवराजा आदि का स्वामीपन यावत् करते हुए और राज्य का पालन करते हुए विचरो"-ऐसा कहकर 'जय जय' शब्द बोलते हैं । केशी कुमार राजा बना । वह महाहिमवान् पर्वत के समान इत्यादि वर्णन युक्त यावत् विचरता है। उदायन नरेश की दीक्षा ७-तएणं से उदायणे राया केसिं रायाणं आपुच्छड् । तएणं से केसी राया कोथुवियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा जमालिस्स तहेव For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४० भगवती सूत्र-स. १३ उ. : उदायन ना की दीक्षा सम्भितरवाहिरियं तहेव जाव णिक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेड । तएणं से केसी राया अणेग-गणणायग० जाव संपरिबुडे उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे णिसीयावेइ, णिसीयावेत्ता अट्टसएणं सोव्वणियाणं० एवं जहा जमालिस्म जाव एवं वयासी-'भण सामी ! किं देमो, किं पयच्छामो, किणा वा ते अट्ठों ? तएणं से उदायणे राया केसिं रायं एवं वयासी-'इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! कुत्तियावणाओ०'-एवं जहा जमालिस्स, णवरं परमावई अग्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पओगदूसहा । तएणं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ, दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेत्ता, उदायणं राय सेयापीयएहिं कलसेहिं० सेसं जहा जमालिस्स, जाव सण्णिसण्णे, तहेव अम्मधाई, णवरं पउमावई हमलक्खणं पडसाडगं गहाय सेसं तं चेव, जाव सीयाओ पञ्चो. रुहइ, सीयाओ पचोरुहित्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमइ, उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमित्ता सयमेय आभरणमल्ला. लंकारं तं चेव पउमावई पडिच्छइ, जाव 'घडियबं सामी ! जाव णो पमाएयत्वं त्ति कटु केसी राया पउमावई य समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता, णमंसित्ता जाव पडिगया । तएणं For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३.७६ उदयन नरेश की दीक्षा से उदायण राया सयमेव पंचमुट्टियं लोयं० सेसं जहा उसभदत्तरस, जाव मही । कठिन शब्दार्थ - क्खिमणाभिसेयं निष्क्रमणाभिषेक, पियविप्पओगदूसहा प्रिय का वियोग दुम्ह, सेयापीयएहि श्वेत और पीत पडसाडगं पटशाटक (वस्त्र) घडियत्वं - युक्त करना, जोड़ना ( प्रयत्न करना ), णो पमाएयव्वं प्रमाद नहीं करें। २२४१ भावार्थ ७ - उदायन राजा ने केशी राजा से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। केशी राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और नौवें शतक के तेतीसवें उद्देश में कथित जमाली कुमार के समान यावत् निष्क्रमणाभिषेक ( दीक्षाभिषेक) करने लगा | अनेक गणनायक आदि परिवार से युक्त केशी राजा, उदायन राजा को उत्तम सिंहासन पर पूर्वदिशा सम्मुख बिठा कर एक सौ आठ स्वर्ण कलशों से अभिषेक करने लगा, इत्यादि जमाली के समान वर्णन कहना चाहिये । यावत् केशी राजा ने कहा- " हे स्वामिन् ! कहिये, हम क्या देवें, क्या अर्पण करें और आपका क्या प्रयोजन है ?" उदायन राजा ने केशी राजा से कहा कि"हे देवानुप्रिय ! कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र मंगवाओ ।" इत्यादि जमाली के वर्णनानुसार । विशेषता यह है कि जिसको प्रिय-वियोग दुस्सह है ऐसी पद्मावती राना ने उदायन राजा के अग्रकेशों को ग्रहण किया । इसके बाद केशी राजा ने दूसरी बार भी उत्तर दिशा में सिंहासन रखवा कर उदाजन राजा का श्वेत (चांदी) और पीत ( सोना) कलशों से अभिषेक किया । शेष सभी वर्णन जमाली समान जानना चाहिये, यावत् वह शिविका में बैठा । इसी प्रकार धाय माता के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । विशेषता यह है कि यहाँ पद्मावती रानी ने हंस चिन्ह वाले रेशमी वस्त्र को ग्रहण किया, इत्यादि शेष सभी उसी प्रकार, यावत् उदायन राजा शिविका से नीचे उतर कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप आया और तीन बार वन्दना - नमस्कार कर, उत्तरपूर्व दिशा की ओर जा कर स्वयमेव आभरण, माला और अलंकार उतारे, इत्यादि पूर्ववत् यावत् पद्मावती रानी ने आभरण आदि ग्रहण किये यावत् इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ६ अभिचिकुमार का वैरानुबन्न बोली कि-'हे स्वामिन् ! संयम में प्रयत्न करते रहें, यावत् प्रमाद नहीं करेंकह कर केशी राजा और पद्मावती रानी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और अपने स्थान चले गये। उदायन राजा ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया। शेष वृत्तान्त नौवें शतक के ३३ वें उद्देशक में कथित ऋषभदत्त के समान यावत् उदायन श्रमण समस्त दुःखों से रहित हुए। अभीचिकुमार का वैरालुबन्ध ८-तएणं तस्स अभीइस्स कुमारस्स अण्णया कयाइ पुव्व. रत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूचे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए, तएणं से उदायणे राया ममं अवहाय णियगं भाइणिजं केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पव्व. इए-इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुवखेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरियालसंपरिबुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ णयराओ णिग्गच्छड़, णिग्गच्छित्ता पुन्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव चंपा णयरी, जेणेव कूहिए राया, तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता कूणियं रायं उपसंपजिता णं विहरइ । तत्थ वि णं से विउलभोगसमिइसमण्णागए यावि होत्था। तएणं से अभीकुमारे समणोवासए यावि होत्था, For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-मः-३ उ. ६ अभीचिकुमार का वैरानुबन्ध २२४३ अभिगय० जाव विहरइ, उदायणमि रायरिसिमि समणुबद्धवरे यावि होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णिरयपरिसामंतेमु चोसहि असुरकुमारावामसयमहस्सा पण्णत्ता । तएणं से अभीइकुमारे वहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउ. णित्ता अद्धमासियाए मलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेएत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णिरयपरिसामंतेसु चौसट्टीए आयावा० जाव महस्सेसु अण्णयरंमि आयावा असुरकुमारावासंसि आयावा. असुरकुमारदेवत्ताए उववण्णो । तत्थ णं अत्थेगइयाणं आयावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं अभीइस्स वि देवस्स एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । प्रश्न-से णं भंते ! अभीडदेवे ताओ देवलोगाओ आउरखएणं ३ अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव अंतं काहिति । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॐ ॥ तेरसमसए छटो उद्देसो समत्तो ।। For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४४ भगवती मूत्र-श. १३ उ. ६ अभीचिकुमार का वैरानुबन्ध कठिन शब्दार्थ-अहं-मैं, अवहाय-छोड़ कर, अप्पत्तिएणं-अप्रीतिकर, मणोमाणसिएणं-मन सम्बन्धी, समणुबद्धवेरे-वैर भाव से बँधे हुए । भावार्थ-८ किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब जागरणा करते हुए अभीचि कुमार को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ, फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़ कर अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य पर स्थापित करके, श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी के समीप यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है। इस प्रकार के महान् अप्रीति रूप मनोमानसिक (आन्तरिक) दुःख से पीड़ित बना हुआ, अभीचि कुमार अपने अन्तःपुर के परिवार सहित, अपने भाण्डमात्रोपकरण आदि लेकर वहाँ से निकला और चम्पा नगरी आकर कोणिक राजा के आश्रय में रहने लगा। वहाँ भी उस के पास विपुल भोग-सामग्री थी। उस समय में अभीचि कुमार श्रमणोपासक था और जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था । श्रमणोपासक होते हुए भी अभीचि कुमार, उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबन्ध से युक्त था। उस काल उस समय में रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट असुरकुमारों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। वह अभीचि कुमार बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर और अर्द्धमासिक संलेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन करके, उस पाप-स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना, मरण के समय काल-धर्म को प्राप्त होकर, रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट, असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवासों में से किसी आवास में 'आयाव' रूप असुरकुमार देवपने उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही आयाव रूप असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है । अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है। प्रश्न-हे भगवन् अभीचि देव आयु-क्षय, स्थिति-क्षय और भव-क्षय होने के पश्चात् मर कर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? । उत्तर-हे गौतम ! वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रा १३ उ. ७ भाषां जीव या अजीव ? सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन यद्यपि अभीचिकुमार, जीवाजीवादि तत्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक था, तथापि उदायन राजपि के प्रति उसका वैरभाव शान्त नहीं हुआ । उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही वह कालधर्म को प्राप्त हो गया। इससे वह असुरकुमार देवों में उत्पन्न हुआ । मूलपाठ में असुरकुमार देवों के प्रसंग में 'आयाव' शब्द आया है। इससे 'आयाव' विशेष अथवा 'आताप' विशेष अनुरकुमार जाति के देव समझना चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के पास इनके आवास हैं । ।। तेरहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ अण्णा भासा ? २२४५ शतक १३ उद्देशक ७ भाषा जीव या अजीव ? १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी आया भंते ! भासा, -- १ उत्तर - गोयमा ! णो आया भासा, अण्णा भासा । For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४६ भगवती सूत्र - १३ उ. ७ भाषा जीव या अजीव ? २ प्रश्न - रूविं भंते! भासा, अरूविं भासा ? २ उत्तर - गोयमा ! रूविं भासा, णो अरूविं भासा । ३ प्रश्न - सचित्ता भंते ! भासा, अचित्ता भासा ? ३ उत्तर - गोयमा ! णो सचित्ता भासा, अचित्ता भासा | ४ प्रश्न - जीवा भंते ! भासा, अजीवा भासा ? ४ उत्तर - गोयमा ! णो जीवा भासा, अजीवा भासा । ५ प्रश्न - जीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा ? ५ उत्तर - गोयमा ! जीवाणं भासा, णो अजीवाणं भासा । ६ प्रश्न - पुविं भंते! भासा, भासिजमाणी भासा भासासमयवीइक्कंता भासा ? णो ६ उत्तर - गोयमा ! णो पुव्विं भासा, भासिजमाणी भासा, भासासमयवीइक्कंता भासा । ७ प्रश्न - पुवि भंते! भासा भिज्जइ, भासिजमाणी भासा भिज्जर, भासासमयवीइक्कंता भासा भिज्जइ ? ७ उत्तर - गोयमा ! णो पुव्विं भासा भिज्जर, भासिजमाणी भासा भिज्जइ, णो भासासमयवीकंता भासा भिज्जइ । ८ प्रश्न - कड़विहा णं भंते ! भासा पण्णता ? ८ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहा भासा पण्णत्ता, तंजहा - १ सच्चा, २ मोसा, ३ सच्चामोसा, ४ असच्चामोसा । For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती स्त्र-श. १३ उ. ७ मापा जीव या अजीव २२४७ कठिन शब्दार्य-आया-आत्मा (जीव), अण्णा-अन्य, मिज्जइ- भेदन होती है । - भावार्थ--१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा"हे भगवन् ! भाषा, आत्मा (जीव स्वरूप) है या अन्य (आत्मा से भिन्न ) है ?" १ उत्तर-हे गौतम ! भाषा, आत्मा नहीं है, अन्य (आत्मा से भिन्न अर्थात् पुद्गल स्वरूप) है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा रूपी है या अरूपी ? २ उत्तर-हे गौतम ! भाषा रूपी है, अरूपी नहीं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा सचित्त है या अचित्त ? ३ उत्तर-हे गौतम ! भाषा सचित्त नहीं, अचित्त है । ४ प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा जीव है या अजीव ? .४ उत्तर-हे गौतम ! भाषा जीव नहीं, अजीव है। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा जीवों के होती है या अजीवों के ? .५ उत्तर-हे गौतम ! भाषा जीवों के होती है, अजीवों के नहीं होती। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! बोलने के पूर्व भाषां कहलाती है, बोलते समय भाषा कहलाती है या बोलने के बाद भाषा कहलाती है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! बोलने के पूर्व भाषा नहीं कहलाती, बोलते समय भाषा कहलाती है । बोलने के पश्चात् भी भाषा नहीं कहलानी। ...७ प्रश्न-हे भगवन् ! बोलने से पूर्व भाषा का भेदन होता है, बोलते समय भाषा का भेदन होता है या बोलने के पश्चात् भाषा का भेदन होता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! बोलने से पूर्व भाषा का भेदन नहीं होता, बोलते समय भाषा का भेदन होता है। बोलने के पश्चात् भी भाषा का भेदन नहीं होता। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? । ८ उत्तर-हे गौतम ! भाषा चार प्रकार की कही गई है । यथा-सत्य भाषा, मृषा भाषा (असत्य भाषा), सत्यमृषा भाषा (मिश्र भाषा), असत्यामषा भाषा (व्यवहार भाषा)। For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४८ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ७ भाषा जीव या अजीव ? विवेचन-सातवें उद्देशक में भाषा का वर्णन किया जाता है । भाषा जीव के द्वारा बोली जाती है और वह जीव के बन्ध और मोक्ष का कारण होती है । 'जीव का धर्म होने से भाषा भी ज्ञान के समान 'आत्मा' (जीव) कही जाती है, अथवा भाषा जीव स्वरूप नहीं होकर पुद्गल रूप है, क्योंकि भाषा श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्य होने से मूर्त है । अतएव जीव से भिन्न है।' इस शंका के कारण यह प्रश्न किया गया है कि 'भाषा आत्मा है ? या अन्य है'-इसका उत्तर दिया गया कि-'भाषा आत्म-स्वरूप नहीं, पुद्गल है । इसलिए भाषा आत्मा से अन्य है ।' आत्मा के द्वारा प्रेरित लोष्ठादि के समान भाषा अचेतन है। पहले जो यह कहा गया कि 'भाषा जीव के द्वारा व्याप्त होती है, अत: भाषा भी ज्ञान के समान जीव होनी चाहिये'-इस कथन में दोष आता है। क्योंकि जीव मे अत्यन्त भिन्न चाकू आदि में भी जीव का व्यापार देखा जाता है। भाषा रूपी है। वह श्रोत्र ग्राह्य है। तथाविध कान के आभूषण के समान भाषा द्वारा श्रोत्रेन्द्रिय का उपकार और उपघात होता है । अथवा 'क्या भाषा अरूपी है ?' क्योंकि धर्मास्तिकायादि के समानं वह चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होती ?' इस शंका से दूसरा प्रश्न किया गया है। इसका उत्तर दिया गया है कि 'भाषा रूपी है।' भाषा को अरूपी सिद्ध करने के लिये जो चक्षु-अग्राह्यत्व रूप हेतु दिया है, वह अनैकान्तिक (सदोष) है । परमाणु, वायु और पिशाचादि रूपी होते हुए भी चक्षु ग्राह्य नहीं होते। भाषा सचित्त नहीं, वह जीव के द्वारा निसृष्ट पुद्गल समूह है । भाषा जीव (प्राण-धारण रूप) नहीं है, क्योंकि उनमें उच्छ्वासादि प्राणों का अभाव है। कुछ लोक वेदभापा (चार वेदों की भाषा) को अपौरुपेयी मानते हैं। उनके मत के अभिप्राय को मन में रख कर यह प्रश्न किया गया है कि 'भाषा जीवों के होती है या अजीवों के' उत्तर दिया गया है कि भाषा जीवों के होती है । वर्गों का समूह 'भाषा' कहलाता है । वर्ण कण्ठ, तालु आदि के व्यापार, जीव से उत्पन्न होते हैं । कण्ठ, तालु आदि का व्यापार जीव में ही पाया जाता है। यद्यपि ढोल, मृदंग आदि अत्रीव वाजों से भी शब्द उत्पन्न होता है तथापि वह भापा रूप नहीं है। क्योंकि भाषा-पर्याप्ति से जनित शब्द को ही भाषा रूप से माना गया है। 'बोलने के पूर्व भाषा होती है या वोग्ते समय भाषा होती है अथवा बोलने के पीछे भापा होती है ?' इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि-जिस प्रकार मिट्टी, पिण्ड अवस्था में घड़ा नहीं कहलाती, इसी प्रकार बोलने से पहले भाषा नहीं कहलाती। जिस For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १३७. मन और वाया आत्मा है या अनात्मा ? २२४९ प्रकार घट अवस्था में वर्तमान ‘घट' कहलाता है, उसी प्रकार बोलते समय भाषा 'भाषा' कहलाती है। जिस प्रकार कपालावस्था (फूटे हुए घड़े के ठीकरे की अवस्था में) घट नहीं कहलाता, उसी प्रकार भाषा परिणाम का समय व्यतीत हो जाने पर अर्थात् बोलने के बाद भाषा नहीं कहलाती। बोली जाती हुई भाषा का भेदन होता है । किन्तु बोलने के पहले और बोलने का समय व्यतीत हो जाने पर भाषा का भेदन होता है। इसका यह अभिप्राय है कि कोई मन्द प्रयत्न वाला वक्ता होता है, वह अपने मुख से अभिन्न गन्द-द्रव्यों को निकालता है । निकले हए उन शब्द-द्रव्यों के असंख्येय होने से तथा अति स्थल होने मे भेदन होता है । भिन्न होते हुए वे शब्द-द्रव्य संख्येय योजन जा कर शब्द-परिणाम का त्याग ही कर देते हैं। कोई वक्ता महा प्रयत्न वाला होता है । वह आदान-विसर्ग (ग्रहण करने और छोड़ने रूप दोनों)प्रयत्नों मे भिन्न करके ही शब्द-द्रव्यों को छोड़ता है । छोड़े हुए द्रव्य सूक्ष्म होने से और बहुत होने के अनन्त गुण वृद्धि से बढ़ते हुए छहों दिशाओं में लोकान्त तक पहुंच जाते हैं। जिस अवस्था में शब्द-परिणाम होता है, उममें 'भाष्यमाणता' ममझनी चाहिये । भाषा का समय व्यतीत हो जाने पर (जिस समय शब्द भाषा-परिणाम को छोड़ देता है, उस समय) भाषा का भेदन नहीं होता, क्योंकि उस समय भाषा का अभाव है । मन और काया आत्मा है या अनात्मा ? ९ प्रश्न-आया भंते ! मणे, अण्णे मणे । ९ उत्तर-गोयमा ! णो आया मणे, अण्णे मणे । जहा भासा तहा मणे वि, जाव णो अजीवाणं मणे। १० प्रश्न-पुट्विं भंते ! मणे, मणिजमाणे मणे ? १० उत्तर-एवं जहेव भासा । ११ प्रश्न-पुदि भंते ! मणे भिजह; मणिजमाणे मणे भिज्जइ, For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५० मणसमयवीइक्कंते मणे भिज्जइ ? ११ उत्तर - एवं जहेव भासा । भगवती सूत्र - श. १३.उ.-७ मन और काया आत्मा के अनात्मा ? १२ प्रश्न - कवि णं भंते ! मणे पण्णत्ते ? १२ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहे मणे पण्णत्ते, तं जहा - १ सच्चे, जाव ४ असच्चामोसे | १३ प्रश्न - आया भंते ! काये, अण्णे काये ? १३ उत्तर - गोयमा ! आया वि कार्य, अण्णे विकाये । १४ प्रश्न - रूविं भंते ! काये, अरूविं काये ? पुच्छा | १४ उत्तर - गोयमा ! रूविं विकार्य, अरूविं वि काये, एवं एक्क्के पुच्छा । गोयमा ! सचित्ते वि काये, अचित्ते व काये । जीवेविका, अजीवे वि काये, जीवाण वि काये, अजीवाण वि काये । १५ प्रश्न - पुवि भंते ! काये ? - पुच्छा | १५ उत्तर - गोयमा ! पुगिं पि काये, कायिजराणे वि काये, कायसमयवक्ते व काये | १६ प्रश्न - पुव्विं भंते! काये भिजइ ? पुच्छा | १६ उत्तर - गोयमा ! पुबि पि काये भिज्जइ, जाव काये भिन्नइ । १७ प्रश्न - कवि णं भंते ! काये पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-दा. १३ उ. ७ मन और काया आत्मा है. या अनात्मा ? २२५१ १७ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहे काये पण्णत्ते, तं जहा-१ ओराले, २ ओरालियमीसए, ३ वेउविए, ४ वेउब्वियमीसए, ५ आहारए, ६ आहारगमीसए, ७ कम्मए। . कठिन शब्दार्थ-मणिज्जमाणे-मनन करते समय। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! मन, आत्मा है या आत्मा से अन्य ? ९ उत्तर-हे गौतम ! मन आत्मा नहीं, आत्मा से अन्य है, इत्यादि जिस प्रकार भाषा के विषय में कहा, उसी प्रकार मन के विषय में भी, यावत् 'अजीवों के मन नहीं होता'-तक कहना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! मनन से पूर्व मन होता है, मनन के समय मन होता है या मनन-समय बीत जाने पर मन होता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार भाषा के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार मन के विषय में भी कहना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! मनन के पूर्व मन का भेदन होता है, मनन के समय मन का भेदन होता है या मनन-समय बीत जाने पर मन का भेदन होता है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! भाषा सम्बन्धी कथन यहाँ भी कहना चाहिये। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! मन कितने प्रकार का कहा गया है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! मन चार प्रकार का कहा गया है । यथा१ सत्यमन, २ मृषामन, ३ सत्यमृषामन और ४ असत्यामृषामन ।। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! काय आत्मा है या आत्मा से अन्य ? १३ उत्तर-हे गौतम ! काय, आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! काय रूपी है या अरूपी ? १४ उत्तर-हे गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी। इसी प्रकार पूर्ववत् एक-एक प्रश्न करना चाहिये । (उत्तर) हे गौतम ! काय सचित्त भी है और अचित्त भी। काय जीव रूप भी है । और अजीव. रूप भी । काय जीवों For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ७ मन और काया आत्मा है या अनात्मा ? के भी होती है और अजीवों के भी। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! पहले काय होती है, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? - १५ उत्तर-हे गौतम ! जीव का सम्बन्ध होने के पहले भी काया होती है, चीयमान (पुद्गलों का ग्रहण होते समय) भी काया होती और कायर्या-समय (पुद्गलों के ग्रहण का समय) व्यतीत हो जाने पर भी काया होती है। . १६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों द्वारा ग्रहण करने के पहले काया का भेवन होता है, इत्यादि प्रश्न ? १६ उत्तर-हे गौतम ! पहले भी काया का भेदन होता है, यावत् (पुद्गलों के ग्रहण का समय बीत जाने पर) भी भेदन होता है। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! काया (योग) कितने प्रकार की कही गई है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! काया सात प्रकार की कही गई है। यथा१ औदारिक, २ औदारिक मिश्र, ३ वैक्रिय, ४ वैक्रिय मिश्र, ५ आहारक, ६ आहारक मिश्र और ७ कार्मण । विवेचन-मन सम्बन्धी सूत्रों का विवेचन भाषा सम्बन्धी सूत्रों के समान समझना चाहिए । मन शब्द का अर्थ इस प्रकार है-मन द्रव्य का जो समुदाय, मनन करने में उपकारी होता है और मन: पर्याप्ति नाम-कर्म के उदय से होता है, उसे 'मन' कहते हैं ? . काया के होने पर ही मन होता है, इसलिए अब काया का कथन किया जाता है। इस विषय में कोई शङ्का करता है कि-'काया आत्म स्वरूप ही है, क्योंकि काया द्वारा किये हुए कर्मों का अनुभव आत्मा को होता है । अथवा काया, आत्मा से सर्वथा भिन्न है, क्योंकि काया के एक अंश का छेदन होने.पर भी आत्मा का छेदन नहीं होता।' ___ इसका समाधान यह है कि काया कथंचित् आत्म-स्वरूप है, क्योंकि काया का स्पर्श करने पर आत्मा को भी अनुभव होता है । काया कथंचित् आत्मा से भिन्न भी है, क्योंकि काया का विनाश होने पर आत्मा का विनाश नहीं होता । यदि काया को आत्मा से सर्वथा अभिन्न माना जाय, तो काया का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जायगा। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिये काया, आत्मा से कचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है। दूसरी अपेक्षा यह भी है कि कार्मण-काय की अपेक्षा आत्मा काया है, क्योंकि कार्मण For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १: उ. ७ मन और काया आत्मा है या अनात्मा ? २२५३ . काय ओर संसारी आत्मा, परस्पर अभिन्न रूप से रहते हैं । औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा काया आत्मा से भिन्न है। ___औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा काया रूपी है किंतु कार्मण-काय रूपी होते हुए भी अनि सूक्ष्म होने से काया को अरूपी भी माना गया है । जीवित अवस्था में चैतन्य युक्त होने से काया सचित्त है और मृतावग्था में चैतन्य का अभाव होने से काया अचित्त भी है । विवक्षित उच्छ्वासादि प्राणयुक्त होने से औदारिकादि शरीर की अपेक्षा काया जीव भी है और उच्छ्वासादि रहित. होने पर काया अजीव भी है । जीवों के भी काय (शरीर) होता है और लेप आदि से बनाया हुआ शरीर का आकार अजीव-काय भी है। जीव का सम्बन्ध होने के पहले भी काया होती है। जैसे कि मेंढक का मृत कलेवर । उसमें भविष्य में जीव का सम्बन्ध होते वह जीव का काय बन जाता है । जीव के द्वारा उपचित किया जाता हुआ भी काय होता है । जैसे कि-जीवित शरीर । काय ममय व्यतीत हो जाने पर भी काय होता है । जैसे कि-मृत कलेवर ।। जिम घड़े में मध रखने का विचार हो, उसको शहद भरने के पहले ही 'मधु-घट' कहते हैं. उसी प्रकार जीव के द्वारा काय रूप से ग्रहण करने के पूर्व भी प्रतिक्षण पुद्गलों का चय-अपचय होने के कारण द्रव्य-काय का भेदन होता है । जीव के द्वारा ग्रहण करने के समय भी काय का भेदन होता है । जैसे कि-बालू-रेत के कणों से भरी हुई मुष्टि के समान उस काय में से पुद्गल प्रतिक्षण परिणटित होते रहते हैं । जिस प्रकार जिस घड़े में घी रखा था, अब उसमें से घी निकाल लेने पर भी उसे 'घृतघट' कहते हैं। उसी प्रकार कायसमय व्यतीत हो जाने पर भी भूत-भाव की अपेक्षा उसे 'काय' कहते हैं । । चूंर्णिकार ने तो काय शब्द का अर्थ सब पदार्थों का सामान्य 'चय' रूप किया है। इसका यह अभिप्राय है कि आत्मा भी काय अर्थात् प्रदेश संचय है और पुद्गल आदि प्रदेश संचय रूप होने से काय आत्मा से भिन्न भी है। पुद्गल स्कन्धों की अपेक्षा काय रूपी भी है और जीव धर्मास्तिकायादि की अपेक्षा काय अरूपी भी । जीवित शरीर की अपेक्षा काय सचित्त भी है और अचेतन संचय की अपेक्षा काय अचित भी । उच्छ्वासादियुक्त अवयव संचय की अपेक्षा काय जीव है और उच्छ्वासादि अवयव संचय के अभाव में काय अजीव भी । जीव का काय अर्थात् जीव-राशि और अजीव का काय अर्थात् परमाणु आदि की राशि । इस प्रकार अपेक्षा विशेष से काय शब्द का भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५४ भगवती सूत्र-ग. १३ उ. ७ मृत्यु के विविध प्रकार समझना चाहिये । काय के औदारिक आदि सात भेद हैं। इन सातों का अर्थ विस्तार पूर्वक पहले लिखा जा चुका है। मृत्यू के विविध प्रकार १८ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! मरणे पण्णत्ते ? १८ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा-१ आवी. चियमरणे २ ओहिमरणे ३ आइंतियमरणे ४ बालमरणे ५ पंडियमरणे। ___ १९ प्रश्न-आवीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ... १९ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ दवावीचियमरणे, २ खेत्तावीचियमरणे ३ कालावीचियमरणे ४ भवावीचियमरणे ५ भावावीचियमरणे। २० प्रश्न-दवावीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २० उत्तर-गोयमा ! चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णेरड्यदव्वावीचियमरणे, २ तिरिक्खजोणियदव्वावीचियमरणे, ३ मणुस्सदव्वावीचियमरणे, ४ देवदवावीचियमरणे । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'णेरड्यदव्वावीचियमरणे गेरइयदबावीवियमरणे' ? . For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - य. १३ उ. ७ मृत्यु के विविध प्रकार उत्तर - गोयमा ! जण्णं णेरइया णेरइए दव्वे वट्टमाणा जाई दवाई रइयाउयत्ताए गहियाई, बढ़ाई, पुट्टाई, कडाई पट्टवियाई, णिविट्ठाई, अभिणिविट्टाई, अभिसमण्णागयाई, भवंति ताई दव्वाई, आवीचियमणुममयं णिरंतरं मरंति त्ति कट्टु से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं gas - 'रइयदव्वावीचियमरणे, एवं जाव देवदव्वावीचियमरणे । २१ प्रश्न - खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २१ उत्तर - गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १ णेरइयखेत्तावीचियमरणे, जाव ४ देवखेत्तावीचियमरणे । २२ प्रश्न-से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'णेरइयखेत्तावीचियमरणे णेर०२' ? २२ उत्तर - गोयमा ! जणं णेरइया णेरइयखेत्ते वट्टमाणा जाई.. दव्वाई रइयाउयत्ताए० एवं जहेब दव्वावीचियमरणे तहेव खेत्ता - वीचियमरणे वि । एवं जाव भावावीचियमरणे । कठिन शब्दार्थ - गहियाई गृहीत - स्पर्श रूप से ग्रहण किये, बढाई-बन्धन रूप से बांधे, पुट्ठाई-प्रदेशों से पुष्ट किये, कडाई - विशिष्ट अनुभाग - रस से किये गये, पटुबियाई - स्थिति रूप से प्रस्थापित किये, णिविट्ठाई - जीव- प्रदेशों में निविष्ट-प्रवेश किये हुए, अभिनिविट्ठाई - अभिनिविष्ट - अत्यन्त गाढ़ रूप से प्रवेश किये हुए, अभिसमण्णागयाई - अभिसमन्वागत-उदयांभिमुख बने हुए । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! मरण कितने प्रकार का कहा गया है ? १८ उत्तर - हे गौतम! मरण पांच प्रकार का कहा गया है । यथा २२५५ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५६ भगवती सूत्र - १३ ७ मृत्यु के विविध प्रकार १ आवीचिक मरण, २ अवधि मरण, ३ आत्यन्तिक मरण, ४ बाल मरण और ५ पण्डित मरण | १९ प्रश्न - हे भगवन् ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया ? १९ उत्तर - हे गौतम ! आवीचिकमरण पाँच प्रकार का कहा गया । यथा-१ द्रव्यावीचिकमरण, २ क्षेत्रावीचिकमरण, ३ कालावीचिकमरण, ४ भवावीचिकमरण और ५ भावावीचिकमरण । २० प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया ? २० उत्तर - हे गौतम ! चार प्रकार का कहा गया है । यथा-१ नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण, २ तिर्यञ्चयोनिक द्रव्यावीचिकभरण, ३ मनुष्य द्रव्यावोचिकमरण और ४ देव द्रव्यावीचिकमरण । प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक द्रव्यावोचिकमरण को नैरयिकद्रव्यावीचिकमरण क्यों कहते हैं उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक द्रव्य (जीव ) पने वर्तते हुए नरधिक जीद, जिन द्रव्यों को नैरयिक आयुष्यपने स्पर्श रूप से ग्रहण किये हैं, बन्धन रूप से बांधे हैं, प्रदेश रूप से पुष्ट किये हैं, विशिष्ट रस युक्त किये हैं, स्थिति रूप से स्थापित किये हैं, जीव प्रदेशों में प्रविष्ट किये हैं, अभिनिविष्ट अर्थात् अत्यन्त गाढ़ रूप से प्रविष्ट किये हैं और अभिसमन्वागत अर्थात् उदयाभिमुख किये है, उन द्रव्यों को आवीचिकमरण से निरन्तर प्रति सनय छोड़ते हैं । इस कारण हे गौतम ! नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण को नैरयिक द्रव्यावीचिकमरण कहते हैं । इसी प्रकार ( तिर्यञ्चयोनिक द्रव्यावीचिकमरण, मनुष्य द्रव्यावीचिकमरण) यावत् देव द्रव्यावीचिकमरण जानना चाहिये । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! क्षेत्रावीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया ? २१ उत्तर - हे गौतम ! चार प्रकार का कहा गया । यथा-नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण, तिर्यञ्च योनिक क्षेत्रावीचिकमरण, (मनुष्य क्षेत्रावीचिकरमण ) यावत् देव क्षेत्रावीचिकमरण । For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मत्र-श. १? 3. यु के विविध प्रकार २२५७ २२ प्रश्न-हे भगवन ! नरयिक क्षेत्रावीनिकमरण 'नरयिक क्षेत्रावीचिक मरण' क्यों कहलाता है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक क्षेत्र में रहे हुए नरयिक जीव ने जिन द्रव्यों को स्वयं नैरयिक आयष्यपने ग्रहण किये हैं, यावत उन द्रव्यों को प्रति समय निरन्तर छोड़ते हैं, इत्यादि द्रव्यावीचिक मरण के समान यहां भी कहना चाहिये । इसलिये हे गौतम ! नैरयिक क्षेत्रावीचिकमरण, 'नरयिक क्षेत्रावीचिकमरण' कहलाता है । इसी प्रकार यावत् (कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण) भावावीचिक मरण तक कहना चाहिये । २३ प्रश्न-ओहिमरणे णं भते . काविहे पण्णत्ते ? २३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--१ दव्वोहिमरणे, २ खेतोहिमरणे, जाव ५ भावोहिमरणे । २४ प्रश्न-दबोहिमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २४ उत्तर-गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णेरइयदव्वो. हिमरणे जाव ४ देवदव्वोहिमरणे । __२५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-णेरइयदव्बोहिमरणे णेरड्यदव्वोहिमरणे ? - २५ उत्तर-गोयमा ! जण्णं णेरड्या णेरड्यदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाइं संपयं मरंति, तेणं णेरड्या ताई दव्वाइं अणागए काले पुणो वि मरिसंति, से तेणटेणं गोयमा ! जाव दब्बोहिमरणे । एवं तिरिक्खजोणिय, मणुस्स०, देवदन्दोहिमरणे वि। एवं एएणं गमेणं For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १३ उ. ७ मृत्यु के विविध प्रकार खेतो हिमरणेवि, कालोहिमरणे वि, भवोहिमरणे वि, भावोहिमरणे वि । २२५८ २६ प्रश्न - आइतियमरणे णं भंते ! पुच्छा । २६ उत्तर - गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - १ दव्वाइंतियमरणे, २ खेत्ताइंतियमरणे, जाव ५ भावाइंतियमरणे । २७ प्रश्न - दव्वाइंतियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २७ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १ णेरइयदव्वाइंतियमरणे, जाव ४ देवदव्वाइंतियमरणे । २८ प्रश्न-से केणेणं मँते ! एवं बुचड़ - 'रइयदव्वाइंतियमरणे र० २' ? २८ उत्तर - गोयमा ! जण्णं णेरड्या णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाई संपयं मरंति, तेणं णेरइया ताइं दव्वाई अणागए काले णो पुणो विमरिस्संति, से तेणद्वेणं जाव मरणे । एवं तिरिक्ख०, मणुस्स० देवाइंतियमरणे, एवं खेत्तातियमरणे वि. एवं जाव भावाइंतियमरणेवि । 3 भावार्थ - २३ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिमरण कितने प्रकार का कहा गया ? २३ उत्तर - हे गौतम! पांच प्रकार का कहा गया । यथा - द्रव्यावधिमरण, क्षेत्राधिमरण, ( कालावधिमरण, भवावधिमरण) यावत् भावावधिमरण ! २४ प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्यावधिमरण कितने प्रकार का कहा गया ? For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगवती मुत्र-अ.] मृत्य विविध प्रकार २४ उत्तर - हे गौतम! चार प्रकार का कहा गया । यथा-नैरयिक द्रव्याधिमरण, ( तिर्यञ्वयोनिक द्रव्यावधिमरग, मनुष्य द्रव्यावधिमरण) यावत् देव द्रव्यावधिमरण । २५ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक द्रव्यावधिमरण 'नैरयिक द्रव्यावधिमरण' क्यों कहलाता है ? ܼܝܢ २५ उत्तर - हे गौतम ! नैरयिकपने रहे हुए नैरयिक जीव, जिन द्रव्यों को इस समय ( वर्तमान समय) में छोड़ते हैं, फिर वे ही जीव, नैरयिक होकर उन्हीं द्रव्यों को ग्रहण कर फिर भी छोड़ेंगे, इस कारण हे गौतम! नैरयिक द्रव्याधिमरण 'नैरविक द्रव्यावधिमरण' कहलाता है । इसी प्रकार तिर्यञ्च - योनिक द्रव्यावधिमरण, मनुष्य द्रव्यावधिमरण और देव द्रव्यावधिमरण भी कहना चाहिये । तथा इसी पाठ से क्षेत्रावधिमरण, कालावधिमरण, भवावधिमरण और भावावधिमरण भी कहना चाहिये । २६ प्रश्न - हे भगवन् ! आत्यन्तिकमरण कितने प्रकार का कहा गया ! २६ उत्तर - हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया । यथा - द्रव्यात्यन्तिकमरण, क्षेत्रात्यन्तिकमरण यावत् भावात्यन्तिकमरण । २७ प्रश्न- हे भगवन् ! द्रव्यात्यन्तिकमरण कितने प्रकार का कहा गया ? २७ उत्तर - हे गौतम ! चार प्रकार का कहा गया । यथा-नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरण, यावत् देवद्रव्यात्यन्तिकमरण । । २८ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरण 'नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरण' क्यों कहलाता है ? २८ उत्तर- हे गौतम ! नैरयिकपने रहे हुए नैरयिक जीव, जिन द्रव्यों को वर्तमान समय में छोड़ते हैं, वे नैरयिक जीव, उन द्रव्यों को भविष्यत्काल में फिर नहीं छोड़ेंगे, इस कारण हे गौतम ! नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरण 'नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरण' कहलाता है । इसी प्रकार तियंचयोनिक द्रव्यात्यन्तिकमरण, मनुष्य द्रव्यात्यन्तिकमरण और देव द्रव्यात्यन्तिकमरण भी जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार क्षेत्रात्यन्तिकमरण यावत् भावात्यन्तिकमरण भी जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६० भगवती सूत्र-श. १३ उ. ७ मृत्यु के विविध प्रकार २९ प्रश्न-बालमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २९ उत्तर-गोयमा ! दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ वलयमरणं, जहा खदए, जाव १२ गिद्धपढे । ३० प्रश्न-पंडियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३० उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ पाओवगमणे य २ भतपञ्चक्खाणे य। ३१ प्रश्न-पाओवगमणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३१ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ णीहारिमे य अणीहारिमे य, जाव णियमं अपडिकम्मे । ३२ प्रश्न-भत्तपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३२ उत्तर-एवं तं चेव, णवरं णियमं सपडिकम्मे । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ® ॥ तेरसमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! वाल मरण कितने प्रकार का कहा गया? २९ उत्तर-हे गौतम ! बारह प्रकार का कहा गया । यथा-वलय मरण इत्यादि दूसरे शतक के पहले उद्देशक के स्कन्दकाधिकार के अनुसार यावत् गध्रपृष्ठ मरण तक जानना चाहिये। ३० प्रश्न-हे भगवन् ! पण्डित मरण कितने प्रकार का कहा गया ? ३० उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया। यथा-१ पादप्रोप For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३ उ. ७ मृत्यु के विविध प्रकार गमन मरण और २ भक्तप्रत्याख्यान मरण । ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! पादपोपगमन मरण कितने प्रकार का कहा गया ? ३१ उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया । यथा - १ निर्धारिम और अनिर्धारिम यावत् अवश्य अप्रतिकर्म-तक कहना चाहिये । ३२ प्रश्न- हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान मरण कितने प्रकार का कहा गया ? २२६१ ३२ उत्तर - हे गौतम ! पूर्व कथनानुसार उसके निर्धारिम और अनिर्हारिम- ये दो भेद होते हैं। इनमें विशेषता यह है कि दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान मरण अवश्य ही सप्रतिकर्म ( शरीर संस्कार सहित ) होता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं । विवेचन - आयुष्य पूरा होने पर आत्मा का शरीर से पृथक् होना, अथवा शरीर मे प्राणों का निकलना तथा बन्धे हुए आयुष्य में से प्रति समय आयु- दलिकों का क्षय होना 'मरण' कहलाता है । वीचि (तरंग के समान) प्रति समय भोगे हुए आयुष्य-कर्म के पुद्गलों का अन्यअन्य आयुष्य के दलिकों के उदय होने के साथ क्षय होना 'आवीचि मरण' कहलाता है । अवधिमरण - अवधि ( मर्यादा) सहित मरण । नरकादि गतियों के कारणभूत वर्तमान आयुष्य कर्म के पुद्गलों को एक बार भोग कर छोड़ देने के बाद जीव, फिर उन्हीं पुद्गलों को भोग कर मृत्यु प्राप्त करे - उसे 'अवधि मरण' कहते हैं । आत्यन्तिक मरण - आयुष्य कर्म के है, उन्हें फिर नहीं भोगना पड़े, तो उन होता है । जिन दलिकों को एक बार भोग कर छोड़ दिया दलिकों की अपेक्षा जीव का 'आत्यन्तिक मरण, ' बालमरण-व्रत रहित प्राणियों का मरण 'बाल-मरण' कहलाता है । पण्डितमरण-सर्व-विरत साधुओं का मरण 'पण्डित-मरण' कहलाता है । आवीचिकमरण, अवधिमरण और आत्यन्तिकमरण के प्रत्येक के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा पांच-पांच भेद किये गये हैं । फिर उनके भी प्रत्येक के नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, इस प्रकार गति की अपेक्षा चार-चार भेद किये गये हैं । बालमरण के वलयमरण ( वलन्मरण) यावत् गृधपृष्ठ मरण तक बारह भेद किये For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६२ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ८ कम-प्रकृति गये हैं । इन बारह भेदों का विस्तृत अर्थ दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में स्कन्दक परिव्राजक के प्रकरण में दिया गया है। पण्डित-मरण के दो भेद किये गये हैं । यथा-पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान । पादपोपगमन मरण-संथारा करके कटे हुए वृक्ष के समान जिम स्थान पर, जिम रूप में एक वार लेट जाय, फिर उसी स्थान पर उसी रूप में लेटे रहना और उसी रूप में समभाव पूर्वक मरण हो जाना-'पादपोपगमन मरण' है। इस मरण में हाथ-पैर हिलाने एवं आँख टमकारने तक का भी आगार नहीं होता। भक्तप्रत्याख्यान-यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग करने के बाद समभावपूर्वक जो मृत्यु होती है, उसे 'भक्त-प्रत्याख्यान मरण' कहते हैं। इसे ''भवत-परिज्ञा' भी कहते हैं। उपर्युक्त दोनों पण्डित-मरणों के निर्दारिम और अनिहारिम ये दो-दो भेद है। ग्रामादि के एक भाग में संथारा किया जाय, जहाँ से मृत कलेवर को ग्रामादि से बाहर ले जाना पड़े, उसे 'निभरिम' कहते हैं। पर्वत की गफा आदि में जो मंथारा किया जाय, जहाँ से मृत कलेवर को बाहर न लेजाना पड़े, उसे 'अनिहारिम' कहते हैं । पादपोपगमनमरण अवश्य अप्रतिकर्म होता है । इस मरण में हाथ, पैर आदि दिलाने एवं हलन-चलनादि कुछ भी नहीं किया जाता है । भक्तप्रत्याख्यान मरण अवश्य मप्रतिकर्म होता है। उसमें हाथ, पैर आदि हिलाने का आगार रहता है । ॥ तेरहवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १३ उद्देशक ८ कर्म-प्रकृति १ प्रश्न-कइ णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? . For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग तीन... १३ उ. ५ अणगार की चैक्रिय शक्ति ___१ उत्तर-गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, एवं बंधट्टिइउद्देमो भाणियन्बो णिरवमेसो जहा पण्णवणाए । * सेवं भंते ! मेवं भंते ! त्ति के ॥ तरसमसए अट्टमो उद्देसो समत्तो । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! कर्म-प्रकृतियां आठ कही गई है । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र के २३ वें पद के द्वितीय 'बन्ध-स्थिति' उद्देशक का सम्पूर्ण कथन करना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। ॥ तेरहवें शतक का आठवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १३ उद्देशक अनगार की वैक्रिय-शक्ति १-रायगिहे जाव एवं क्यासी-(प्रश्न) से जहाणामए केह पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिचहत्थगएणं अप्पाणेणं उद्धं वेहासं उप्पएज्जा ? For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १३ उ. ५ अनगार की वैक्रिय-शक्ति १ उत्तर-गोयमा ! हंता, उप्पएन्जा। २ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू केयाघडियाकिचहत्थगयाई रूवाइं विउवित्तए ? २ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हाथएवं जहा तइयसए पंचमुद्देसए जाव ‘णो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउब्धिति वा विउविस्मंति वा'। ३ प्रश्न-से जहाणामए केड़ पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिच्चगएणं अप्पा. णेणं० ? ३ उत्तर-सेसं तं चेव, एवं सुवण्णपेलं, एवं ग्यणपेलं, वइरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं, एवं वियलकिड्ड, मुंबकिड्डे, चम्मकिड्डे कंबलकिड्डं, एवं अयभार, तंबभारं, तउयभार, सीसगभारं, हिरण्णभारं सुवण्णभारं, वइरभारं । कठिन शब्दार्थ-केयाघडियं-रस्सी से बांधा हुआ घड़ा, अप्पाणेणं-आत्मा से (स्वयं) वेहासं-आकाश में, किच्चहत्थगएणं-कार्य हस्तगत करके (वैक्रिय लब्धि से ऐसा रूप बना कर) हिरण्णपेलं-चांदी की पेटी, वियलकिडं-बांस के टुकड़ों से बनी हुई चटाई, सुंबकि९वीरण की बनी हुई चटाई। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, रस्सी से बन्धी हुई घटिका लेकर जाता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी वैक्रिय लब्धि से रस्सी से बन्धी हुई घटिका हाथ में लेकर स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १३.३. ९ अनगार की वैक्रिय-शक्ति १ उत्तर - हाँ, गौतम ! उड़ सकता है । २ प्रश्न - हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, रस्सी से बांधी हुई घटिका हाथ में धारण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? २ उत्तर - हे गौतम ! तीसरे शतक के पाँचवें उद्देशक में कहे अनुसार युवति युवा के हस्तग्रहण के दृष्टान्तानुसार सभी कहना चाहिये । यह उनकी शक्ति मात्र है, सम्प्राप्ति ( सम्पादन ) द्वारा कभी इतने रूप विकुर्वे नहीं, विकुर्वता नहीं और विकुर्वेगा भी नहीं । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, हिरण्य ( चाँदी) की पेटी लेकर गमन करता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी हिरण्य की पेटी हस्तगत करके (ऐसे रूप की विकुर्वणा करके) स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! यह सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। इसी प्रकार स्वर्ण की पेटी, रत्नों की पेटी, वज्र की पेटी, वस्त्रों की पेटी और आभूषणों की पेटी लेकर आकाश में गमन कर सकता । इसी प्रकार विदलकट ( बांस की चटाई ) शुम्बकट ( वीरण घास की चटाई ) चर्मकट ( चर्म से भरी हुई चटाई या खाट आदि) कम्बलकट ( ऊन के कम्बल का बिछौना) तथा लोह का भार, ताम्बे का भार, कलई का भार, शीशे का भार, हिरण्य का भार, स्वर्ण का भार और वज्र का भार लेकर ( इन सभी रूपों की विकुर्वणा करके ) ऊँचे आकाश में उड़ सकता है । २२६५ ४ प्रश्न - से जहाणामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया - उल्लंचिया उपाया अहोसिरा चिट्ठेजा; एवामेव अणगारे विभावि - प्पा वग्गुलीकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं० ? ४ उत्तर - एवं जण्णोवयवत्तव्वया भाणियव्वा, जाव विउव्वि संति वा । For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-]. १२ ५. ". अनगार की वैक्रिय-शक्ति ५ प्रश्न-से जहाणामए जलोया सिया, उदगंसि कायं उविहिया उबिहिया गच्छेजा एवामेव० ? ५ उत्तर-सेसं जहा वग्गुलीए। ६ प्रश्न-से जहाणामए बीयंबीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेजा, एवामेव अणगारे० ? ६ उत्तर-सेसं तं चेव । ७ प्रश्न-से जहाणामए पक्खिविरालए सिया, रुक्खाओ रुख डेवेमाणे डेवेमाणे गन्छेजा, एवामेव अणगारे० ? । ७ उत्तर-सेसं तं चेक। ८ प्रश्न-से जहाणामए जीवंजीवगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेजा, एवामेव अणगारे० ? ८ उत्तर-सेसं तं चेव । ___९ प्रश्न-से जहाणामए हंसे सिया, तीराओ तीरं अभिरममाणे अभिरममाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे हंसकिन्चगएणं अप्पाणेणं० ? ९ उत्तर-तं चेव । १० प्रश्न-से जहाणामए समुद्दवायसए सिया, वीईओ वीई डेवेमाणे डेवेमाणे गच्छेजा, एवामेव० ? १० उत्तर-तहेव । For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र--ग. १: उ. १ अनगार की वैकिय-मान कठिन शब्दार्थ-वगली-चमगादड़ पक्षी, उल्लंबिया-ऊपर पकड़ कर, बीयंबीयगमउणे-बीजबीजक पक्षी, पक्खि विरालए-विडालक पक्षी, डेवेमाणे-जाते हुए, जलोयाजलाका, समतुरंगेमाणे-घोड़े के समान एक साथ पर उठाते हुए। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई बागुलपक्षिणी (चमगादड़) अपने दोनों पर वृक्षादि में ऊंचे लगा कर (ऊँचे पैर और नीचे सिर लटका कर) रहती है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी बागुली को तरह विकुर्वणा करके स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? ४ उत्तर-हां, गौतम ! उड़ सकता है। इस प्रकार यहाँ पर यज्ञोपवीत की वक्तव्यता तीसरे शतक के पांचवें उद्देशक के समान कहनी चाहिये अर्थात जैसे कोई ब्राह्मण गले में जनेऊ डालकर गमन करता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी वैसे रूप की दिकुर्वणा कर सकता है, यावत् सम्प्राप्ति द्वारा विकुर्वेगे नहीं-तक कहना चाहिये। __ ५ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार कोई जलोक (पानी में रहने वाला बेइंद्रिय जीव) अपने शरीर से पानी को प्रेरित करकै गमन करती है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी वैसे रूप को विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है। ५ उत्तर-हे गौतम ! यह सभी वर्णन बागुली के समान जानना चाहिये । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई एक बीजबीजक पक्षी, अपने दोनों पैरों को घोड़े की तरह एक साथ उठाता हुआ गमन करता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी वैसे रूपों को विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? ६ उत्तर-हां, गौतम ! उड़ सकता है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार कोई बिलाडक पक्षी, एक वृक्ष से दूसरे वक्ष पर और दूसरे से तीसरे पर, गमन करता है, क्या भावितात्मा अनगार भी उस प्रकार के रूप की विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? ७ उत्तर-हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। ८ प्रश्न- भगवन् ! जैसे कोई एक जीवंजीवक नामक पक्षी अपने For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भूत्र-स. १३ उ. ९ अनगार की वैक्रिय-गवित दोनों पैरों को घोड़े की तरह एक साथ उठाता हुआ गमन करता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी ऐसे रूपों की विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई हंस, एक तीर से दूसरे तीर पर क्रीडा करता हुआ जाता है, उसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी हंस के समान विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? ९ उत्तर-हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई समुद्रवायस (समुद्र का कौआ) एक कल्लोल का उल्लंघन करता हुआ दूसरी कल्लोल (तरंग-लहर) पर जाता है, उसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी विकुर्वणा करके आकाश में गमन कर सकता है ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिये । ११ प्रश्न-मे जहाणामए केइ पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेजा,. एवामेव अणगारे वि भावियप्पा चक्ककिचहत्थगएणं अप्पाणेणं० ? ११ उत्तर-सेसं जहा केयाघडियाए; एवं छत्तं, एवं चमरं । १२ प्रश्न-से जहाणामए केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेजा, एवं चेव, एवं वइरं, वेरुलियं जाव रिटें, एवं उप्पलहत्थगं, पउम. हत्थगं, कुमुयहत्थगं; एवं जाव से जहाणामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेजा.? . १२ उत्तर-एवं चेव । १३ प्रश्न-से जहाणामए केइ पुरिमे भिमं अवदालिय अव For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी सूत्र- १३ उ. ५ अनगार का वैक्रिय-गचित हालिय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भिमकिचगएणं अप्पा. णणं० ? १३ उत्तर-तं चेव । १४ प्रश्न-म जहाणामए मुणालिया सिया, उदगंसि कायं उम्मजिय-उम्मजिय चिट्ठज्जा, एवामेव० ? । १४ उत्तर-सेसं जहा वग्गुलीए । १५ प्रश्न-से जहाणामए वणसंडे सिया, किण्हे, किण्होभासे, जाव णिउरुंबभृए, पासाईए ४, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वणमंडकिचगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? १५ उत्तर-मेमं तं चेव । । १६ प्रश्न-से जहाणामए पुक्खरणी सिया, चउकोणा, समतीरा, अणुपुव्वसुजाय० जाव सद्दुण्णइयमहुरसरणाइया पासाईया ४, एवा. मेव अणगारे वि भावियप्पा पोक्वरणीकिचगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वहासं उप्पएन्जा ? _१६ उत्तर-हंता उप्पएजा ? १७ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं पभू पोक्ख. रणीकिनगयाइं रूवाइं विउवित्तए ? १७ उत्तर-सेसं तं चेव जाव विउव्विस्संति वा । १८ प्रश्न-से भंते ! किं मायी विउव्वइ, अमायी विउव्वइ ? For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७० भगवती सूत्र-श. ५६ उ. ५ अनगार की वैक्रिय-शक्ति १८ उत्तर-गोयमा ! मायी विउव्वइ, णो अमायी विउव्वइ । मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइय० एवं जहा तइयसए चउत्थुदेसए जाव 'अस्थि तस्स आराहणा' । 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति * ॥ तेरसमसए णवमो उद्देसो समत्तो ।। कठिन शब्दार्थ-मुणालिया-नलिनी, अवद्दालिय-तोड़ता हुआ, उम्मज्जिय-डुबाता हुआ। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष हाथ में चक्र लेकर जाता है, उसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी चक्रकृत्य को हस्तगत करके (तदनुसार विकुर्वणा करके) आकाश में उड़ सकता है ? __ ११ उत्तर-हाँ, गौतम ! शेष सभी पूर्व कथित रज्जुबद्ध घटिका के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार छत्र और चामर का भी कहना चाहिये । १२ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, रत्न लेकर गमन करता है, उसी प्रकार वज्र, वड्र्य यावत् रिष्टरत्न तथा उत्पल और पद्म यावत् कोई पुरुष सहस्रपत्र हाथ में लेकर गमत करता है, उसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी स्वयं ऐसे रूपों की विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? १२ उत्तर-हाँ, गौतम ! उसी प्रकार जानना चाहिये। - १३ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष कमल को डण्डी को तोड़ता हआ गमन करता है, उसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी स्वयं इस प्रकार की विकुर्वणा कर आकाश में उड़ सकता है ? १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! शेष पूर्ववत् । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! जैसे कोई मृणालिका (नलिनी) अपने शरीर For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र . १३ . ९ अनगार की वैक्रिय-शक्ति को पानी में डुबाती और मुख बाहर रखती हुई रहती हैं, क्या भावितात्मा अनगार भी उसी प्रकार की विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? २२७१ १४ उत्तर - हां, गौतम ! शेष सभी वागुली की तरह जानना चाहिये । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे कोई वन-खण्ड हो, जो काला, काले प्रकाश वाला, यावत् मेघ के समूह वत् प्रसन्नता देने वाला यावत् दर्शनीय हो, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं उस वन खण्ड के समान विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? १५ उत्तर - हां, गौतम ! शेष पूर्ववत् । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! जैसे कोई पुष्करणी हो, जो चतुष्कोण, समतीर, अनुक्रम से सुशोभित यावत् पक्षियों के मधुर शब्दों से युक्त, प्रसन्नता देने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी उस पुष्करणी के समान विकुर्वणा करके आकश में उड़ सकता है ? १६ उत्तर - हां, गौतम ! उड़ सकता है ।, १७ प्रश्न - हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार पूर्वोक्त पुष्करणी के समान कितने रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? १७ उत्तर - हे गौतम! शेष पूर्ववत् जानना चाहिये । परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा इतने रूपों की विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! पूर्वोक्त रूपों की विकुर्वणा मायी अनगार करता है या अमायो ( माया रहित) अनगार करता है ? १८ उत्तर - हे गौतम! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता । मायी अनगार उस विकुर्वणा रूप प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल कर जाय, तो उसे आराधना नहीं होती, इत्यादि तीसरे शतक के चौथे उद्देशक के अनुसार यावत् आलोचना और प्रतिक्रमण करले तो उसको 'आराधना होती है'-तक कहना चाहिये, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है- कह For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७२ भगवती सूत्र - श. १३३. १० छाद्यस्थिक समुद्घात कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन - यहाँ अनेक प्रकार की विकुर्वणा का कथन किया गया है। इस प्रकार की विकुर्वणा, वैकिलब्धि सम्पन्न मायी ( प्रमादी ) अनगार करता है, अमायी ( अप्रमादी ) अनगार नहीं करता । इस प्रकार की विकुर्वणा करके यदि वह ( मायी अनगार) इस प्रमाद-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर लेता है, तो आराधक होता है । यदि आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करता है, तो विराधक होता है । || तेरहवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १३ उद्देशक १० छाद्मस्थिक समुद्घात १ प्रश्न - क णं भंते ! छाउमत्थिय समुग्धाया पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा१ वेयणासमुग्धा एवं छाउमत्थिय समुग्धाया णेयव्वा, जहा पण्णवणाए, जाव - आहारगसमुग्धायेत्ति । सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरड़ - || तेरसमस दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ तेरसमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ - छाउमत्थिय - छाद्मास्थिक (छद्मस्थ सम्बन्धी ) | For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. १३७ १० छानस्थिक समुद्घात भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! छामस्थिक समुद्घात कितनी कही गई है १ उत्तर - हे गौतम ! छाद्मस्थिक समुद्घात छह कही गई है । यथावेदना समुद्घात, इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के छत्तीसवें 'समुद्घात' पद के अनुसार छाद्मस्थिक समुद्घात, यावत् आहारक समुद्घात तक कहनी चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । २२७३ विवेचन - वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीयादि कर्म-प्रदेशों को, उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर, प्रबलता पूर्वक उनकी घात (निर्जरा) करना 'समुद्घात' कहलाता है । छाद्मस्थिक समुद्घात छह हैं । वेदना समुद्घात - वंदना के कारण होने वाली समुद्घात को वेदना समुद्घात' कहते हैं । यह असातावेदनीय कर्म मे होती है । तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव, अनन्तानन्त कर्म-स्कन्धों मे व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उनमे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान तथा स्कन्ध आदि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौडाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है । उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असातावेदनीय कर्म- पुद्गलों की निर्जरा करता है । कषाय समुद्घात - क्रोधादि के कारण होने वाली समुद्घात को 'कषाय समुद्घात' कहते हैं । यह कषाय मोहनीय कर्म के आश्रित होती है, अर्थात् तीव्र कषाय के उदय मे व्याकुल जीव, अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख, उदर आदि के छिद्रों और कान, स्कन्ध आदि के अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौड़ाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय कर्म रूप पुद्गलों की निर्जरा करता है । मारणान्तिक समुद्घात - मरण काल में होने वाली समुद्घात को 'मारणान्तिक समुद्घात' कहते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्यकर्म के आश्रित होती है अर्थात् कोई जीव आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाल कर उनसे मुख, उदरादि के छिद्रों को और कान, स्कन्धादि के अन्तरालों को पूर्ण करके विष्कम्भ (घेरा ) और मोटाई में शरीर परिमाण एवं लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यातवें For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७४ भगवता मूत्र-स. १६ उ. १० छानस्थिक समुद्घात भाग परिमाण और अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्यात योजन क्षेत्र को व्याप्त करता है और प्रभूत आयुकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। वैक्रिय समुद्घात-वैक्रिय के आरम्भ करने पर जो समुद्घात होती है, उसे 'वैकिय ममुद्घात' कहते हैं । वह वैक्रिय शरीर नामकर्म के आथित होती है । अर्थात् वैक्रिय, लब्धिवाला जीव, वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण दण्ड निकालता है और पूर्व-बद्ध वैक्रिय-शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है । तेजस समुद्घात-यह तेजोलेश्या निकालते समय में रहने वाले तेजस शरीर नाम कर्म के आश्रित होती है अथति तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धिवाला कोई साधु आदि. सात आठ कदम पीछे हटकर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्र में संख्यय योजन परिमाण जीव-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है और तैजस नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जर। करता है। आहारक समुद्घात-आहारक शरीर का आरम्भ करने पर होने वाली ममुद्घात 'आहारक समुद्घात' कहलाती है । वह आहारक नामकर्म के आश्रित होती है ! अर्थात् आहारक शरीर की लब्धिवाला अनगार, आहारक शरीर की इच्छा करता हुआ विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण ओर लम्बाई में संख्यय योजन परिमाण अपने आत्म-प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर यथा-स्थूल पूर्ववद्ध आहारक नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है। प्रज्ञापना सूत्र के छत्तीसवें पद में 'केवली समुद्घात' का भी वर्णन है । किन्तु यहाँ छाद्मस्थिक समुद्घातों का वर्णन होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है । ॥ तेरहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ तेरहवां शतक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ ९ गाहा १ चर २ उम्माय ३ सरीरे ४ पोग्गल ५ अगणी तहा ६ किमाहारे । ७ मंसि ८ मंतरे खलु ९ अणगारे १० केवली चेव ॥ कठिन शब्दार्थ- चरम - अंतिम | भावार्थ - १ चरम शब्द सहित होने से प्रथम उद्देशक का नाम चरम उद्देशक है, २ 'उन्माद' अर्थ का प्रतिपादक होने से दूसरा 'उन्माद' उद्देशक है, ३ शरीर शब्दोपलक्षित होने से तीसरा शरीरोद्देशक है, ४ पुद्गल का अर्थ प्रतिपादन करने से चौथा पुद्गलोद्देशक है, ५ अग्निशब्दोपलक्षित होने से पाँचवाँ अग्नि उद्देशक है, ६ 'किमाहार' (किस आहार वाला होता है) प्रश्न युक्त होने से छठा 'किमाहारोद्देशक' है, ७ 'चिरसंसिट्ठो सि गोयमा !' इस पद में आए संश्लिष्ट शब्द युक्त होने से सातवाँ 'संश्लिष्ट' उद्देशक है, ८ नरकपृथ्वी के 'अंतर' का प्रतिपादन करने से आठवाँ अन्तर उद्देशक है, ९ प्रारम्भ में 'अनगार' पद होने से नौवां अनगार उद्देशक है और १० प्रारम्भ में 'केवली' पद होने से दसवाँ केवली उद्देशक है । इस प्रकार चौदहवें शतक में दस उद्देशक हैं । For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ उद्देशक १ चरम-परम के मध्य की गति २ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वीइक्कते, परमं देवावासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेजा, तस्स णं भंते ! कहि गई, कहिं उववाए पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! जे से तत्थ परियस्सओ तल्लेसा देवावासा तहिं तस्स गई तहिं तस्स उववाए पण्णत्ते। से य तत्थ गए विराहेजा, कम्मलेस्सामेव पडिपडइ, से य तत्थ गए णो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपजित्ता णं विहरइ। ३ प्रश्न-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीइक्कते, परमं असुर० ? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारावासं जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं, जाव विहरह । कठिन शब्दार्थ-पडिपडइ-गिरता है, विराहेज्जा-विराधे । .. . भावार्थ-२ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछाहे भगवन् ! कोई भावितात्मा अनगार-जिसने चरम (पूर्ववर्ती) सौधर्मादि देवलोक का उल्लंघन कर दिया और परम (परभागवर्ती) सनत्कुमारादि देवलोक को प्राप्त नहीं हुआ, इस मध्य में ही यदि वह काल कर जाय, तो उसकी कौनसी गति होती है ? कहाँ उपपात होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! चरम देवावास और परम देवावास के निकट उस For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मृत्र-7 . १४ उ. ५ चरम-परम के मध्य को गति २२७७ लेश्यावाला जो देवावास है, वहां उसकी गति होती है, वहां उसका उपपात होता है । वहाँ जाकर यह अनगार यदि पूर्व-लेश्या को छोड़ता है, तो कर्म-लेश्या (भावलेल्या) से ही गिरता है और यदि वहां जाकर उस लेश्या को नहीं छोड़ता है, तो वह उसी लेश्या का आश्रय कर रहता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई भावितात्मा अनगार जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन कर गया और परम असुरकुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि इसके बीच में ही वह काल कर जाय, तो कहां जाता है, कहां उत्पन्न होता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! इसी प्रकार जानना चाहिये और इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास और वंमानिकावास पर्यन्त-यावत् 'विचरते है' तक कहना चाहिये । विवेचन-उपर्युक्त प्रश्न का आशय यह है कि कोई भावितात्मा अनगार, जो लेश्या के उत्तरोनर प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों में वर्तता है, वह पूर्ववर्ती सौधर्मादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थिति-बन्ध आदि का उल्लंघन कर गया और परम (ऊपर रहे हुए) सनत्कुमारादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थिति-बन्ध आदि अध्यवसाओं को प्राप्त नहीं हुआ, इसके बीच में ही यदि काल कर जाय, तो कहां उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि चरम देवावास और परम देवावास के पाम रहे हुए, उस लेश्या वाले देवावासों में उत्पन्न होता हैं । आशय यह है कि सौधर्मादि देवलोक और सनत्कुमारादि देवलोकों के पास में जो ईशान आदि देवलोक हैं, उनमें जिस लेश्या में वह अनगार काल करता है, उन्हीं लेश्यावाले देवावासों में उत्पन्न होता है । क्योंकि कहा है "जल्लेसे मरइ जोवे, तल्लेसे चेव उववज्जह" अर्थात्जीव, जिस लेश्या में काल करता है, उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। • वहां उत्पन्न होने के बाद यदि परिणामों की विराधना करता है, तो भावलेश्या स गिर जाता है अर्थात् शुभभाव लेश्या से गिर कर अशुभभाव लेश्या में चला जाता है, क्योंकि देव और नैरयिक, द्रव्य-लेण्या से नहीं गिरते, किन्तु भाव-लेश्या से गिरते है । उनकी द्रव्य-लेण्या अवस्थित होती। चरम और परम देवावासों के मध्यम देवावास में यदि उन परिणामों की विराधना For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७८ भगवती सूत्र--श. १४ उ. : नैरपिकों की शीघ्र-गति नहीं करता, तो जिस लेश्या से वहां उत्पन्न हुआ है, उसी लेश्या में रहता है । ___ शंका-जो भावितात्मा अनगार है वह असुरकुमारों में कैसे उत्पन्न होता है ? वहाँ तो संयम के विराधक जीव उत्पन्न होते हैं ? समाधान-शंका उचित है। इनमें पूर्व-काल की अपेक्षा भावितात्मापन समझना चाहिये। अन्त समय में वे संयम की विराधना वाले होने से असुरकुमारादि में उत्पन्न हो सकते है। अथवा यह 'बालतपस्वी भावितात्मा' समझना चाहिये । नैरयिकों की शीघ-गति ४ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गई, कहं सीह गइविसए पण्णत्ते ? ४ उत्तर-गोयमा ! मे जहाणामए-केइ पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव णिउणसिप्पोवगए आउंटियं वाहं पसारेजा, पसारियं वा वाहं आउंटेजा, विक्विणं वा मुढिं साहरेजा, साहरियं वा मुट्ठि विक्विरेजा, उणिमिसियं वा अच्छि णिम्मिसेजा, णिम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवे एयारूवे ? णो इणटे समटे, णेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जति णेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा गई, तहा सीहे गइविसए पण्णत्ते; एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियवे । सेमं तं चेव । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-य. १४ : भैरवकों की शीघ्र गति कठिन शब्दार्थ- सोहा - शीघ्र, पसारेज्जा-फैलावे, आउंटेज्जा-संकुचित करे, उण्णिमिसियं खुली हुई, णिउणसिप्पोवगए - शिल्पशास्त्र में निपुण, विविखण्णं- फैलाई हुई ( खोली हुई), अच्छि आँख, णिम्मिसेज्जा बन्द करे ( मीचे ) । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों की शीघ्रगति किस प्रकार की कही गई है और उनकी शीघ्रगति का विषय कैसा कहा गया है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! जैसे कोई बलिष्ठ, युगवान् ( सुषम-दुषमादि काल में उत्पन्न हुआ विशिष्ट बल वाला) यावत् निपुण पुरुष, शिल्पशास्त्र का ज्ञाता हो, वह अपने संकुचित हाथ को शीघ्रता से पसारे ( फैलावे ) और पसारे हुए हाथ को संकुचित करे, खुली हुई मुट्ठी बन्द करे और बन्द मुट्ठी खोले, खुली हुई आँख बन्द करे और बन्द आँख उघाड़े, तो हे भगवन् ! नैरयिक जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति और शीघ्रगति का विषय होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि नैरयिक जीव, एक समय की ( ऋजुगति से ) दो या तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! नरयिक जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति और शीघ्रगति का विषय कहा गया है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये । विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिये । शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये । २२७९ विवेचन - यहाँ एक भव से दूसरे भव में जाने को 'गति' कहा है। नैरयिक जीव, नरक गति में एक समय, दो समय और तीन समय की गति से उत्पन्न होते हैं । उसमें एक समय की ऋजुगति होती है और दो और तीन समय की 'विग्रह गति' होती है । इस गति को यहाँ 'शीघ्र गति' कहा है। हाथ को फैलाने और संकोच करने में तो असंख्यात समय लगते हैं, इसलिये उनको शीघ्रगति नहीं कहा है। जब जीव, समश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति स्थान • जाकर उत्पन्न होता है, तब उसके एक समय की ऋजुगति होती है और जब विषम श्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है, तब दो अथवा तीन समय की विग्रह गति होती है और एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट चार समय की विग्रह-गति होती है । जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह पहले समय में नीचे आता है। दुसरे समय में तिच्र्च्छा उत्पत्तिस्थान For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ १ नैरमिक अनन्तरोपपन्नंकादि में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो समय की विग्रह गति होती है। जब कोई जीव, भरत क्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में वायव्य कोण ( विदिशा ) में उत्पन्न होता है, तब एक समय में समश्रेणी द्वारा नीचे जाता है। दूसरे समय में पश्चिम दिशा में जाता है और तीसरे समय में तिर्च्छा वायव्य कोण में रहे अपने उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है । इस प्रकार नैरयिक जीवों की शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों की चार समय की विग्रह-गति इस प्रकार होती है-जीव की गति, श्रेणी के अनुसार होती है । इसलिये अनाड़ी से बाहर रहा हुआ एकेन्द्रिय जीव जब दूसरे भव में जाता है, तब पहले समय में सनाड़ी से बाहर अधोलोक की विदिशा ने दिशा की ओर जाता है । दूसरे समय में लोक के मध्यभाग में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊँचा ( ऊर्ध्व - लोक में ) जाता है । और चौथे समय में त्रसनाड़ी से निकल कर दिया में व्यवस्थित स्थान में जाता है । यह बात सामान्य रूप से बहुत एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई है और इसी प्रकार गति करते हैं, अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय की भी विग्रह गति संभव है । वह इस प्रकार सम्भवित होती है। पहले समय में त्रसनाड़ी से बाहर, अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है। दूसरे समय में लोक के मध्यभाग में प्रवेश करता है । तीसरे समय में ऊर्वलोक में जाता है। चौथे समय में वहाँ से दिया की ओर जाता है। और पाँचवें समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्ति स्थान में जाता है । इस प्रकार यह पांच समय की विग्रहगति कही गई है। कहा भी है "विदिसाउ दिसि पढमे बीए पइसरइ नाडिमज्झम्मि । उड़ढं तइए तुरिए उनीह विदिसं तु पंचमए ॥ " यह गति सम्भवित रूप से बताई गई है, किन्तु जीव उत्कृष्ट चार समय की ही गति करते हैं, जो ऊपर बतला दी गई । नैरायिक अनन्तरोपपन्नकादि ५ प्रश्न - णेरड्या णं भंते! किं अणंतरोववण्णगा, परंपरोववण्णगा, अनंतर परंपरअणुववण्णगा ? २२८० For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती १०. नैरनिक भगतपनकादि ५ उत्तर - गोयमा ! रइया अनंतराववण्णा वि, परंपरोववष्णगाव, अनंतर परंपरअणुववण्णगाव । प्रश्न-से केणणं भंते! एवं बुचड़ जाव अनंतर परंपरअणुववण्णगा वि ? उत्तर - गोयमा ! जे णं णेरड्या पढमसमयोववष्णगा ते णं णेरइया अनंतशेववण्णगा, जे णं णेरइया अपटमसमयोववण्णा ते णं या परंपरोवणगा, जे णं णेरड्या विग्गहगइसमावण्णगा ते णं शेरइया अणंतरपरंपरअणुववण्णगा, से तेण्डेणं जाव अणुववण्णगा वि एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया । ६ प्रश्न - अनंत रोबवण्णगाणं भंते! णेरड्या किं णेरइयाउयं पकरेति, तिरिक्ख० मणुस्स०, देवाउयं पकरेंति ? ६ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाज्यं पकरेंति, जाव णो देवाउयं पकरेति । ७ प्रश्न - परंपरोववण्णगाणं भंते! णेरड्या किं णेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ? ७ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयाज्यं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्सा उयं पि पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति । ८ प्रश्न - अनंतर परंपरअणुववण्णगा णं भंते ! णेरइया किं णेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । २२८१ " For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८२ भगवती सूत्र-स. १४ ३. १ नरयिा. अननरोपपन्नकादि ८ उत्तर-णो णेरइयाउयं पकरेंति, जाव णो देवाउयं पकौँति, एवं जाव वेमाणिया, णवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोक्वण्णगा चत्तारि वि आउयाइं पकरेंति, सेसं तं चेव। . कठिन शब्दार्थ--अणुववण्णगा-अनुपपन्नक-उत्पन्न नहीं होने वाले । ___ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक अनन्तरोपपन्नक है, परम्परोपपन्नक हैं अथवा अनन्तपरम्परानुपपन्नक हैं ? . ___५ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक अनन्तरोपपन्नक भी हैं, परम्परोपपन्नक भी हैं और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक हैं ? प्रश्न-हे भगवन् ! इस विविधता का क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हए अभी प्रथम समय हो हआ है, (उत्पत्ति में एक समयादि का अन्तर नहीं पड़ा) उनको अनन्तरोपपन्नक कहते हैं ? जिन नरयिकों को उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय हो गये हैं (प्रथम समय के सिवाय द्वितीयादि समय हो गये हैं) उन्हे ‘परम्परोपपन्नक' कहते हैं और जो नैरयिक जीव, नरक में उत्पन्न होने के लिये विग्रहगति में चल रहे हैं, उनको 'अनन्तरपरम्परानुपपन्नक' कहते है। इस कारण हे गौतम ! नैरथिक जीव यावत् अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं। इस प्रकार निरन्तर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नरयिक, नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं, तिथंच का आयुष्य बांधते हैं, मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं या देव का आयुष्य बांधते हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बांधते यावत् देव का आयुष्य भी नहीं बांधते । ७प्रश्न-हे भगवन् ! परम्परोपपन्नक नरयिक, नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं, यावत् देव का आयुष्य बांधते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १८ उ. १ नैरयिक अनंतरोपपन्नकादि २२८३ ७ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, तिर्यच या मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं । देवता का आयुप्य भी नहीं बांधते । ८ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरपरम्परानुपपन्नक नरयिक, नरयिक का आयुष्य बांधते हैं, इत्यादि प्रश्न । ८ उत्तर-हे गौतम ! वे नैयिक यावत् देव में से किसी का भी आयुष्य नहीं बांधते । इसी प्रकार. यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये । विशेषता यह है कि परम्परोपपन्नक पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक और मनुष्य, चारों प्रकार का आयुष्य बांधते है । शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये। विवेचन-जिनकी उत्पत्ति में मम्य आदि का अन्तर नहीं है, अर्थात् जिनकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही है, वे 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं। जिनको उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय हो गये हैं, उन्हें परम्परोपपन्नक' कहते हैं । जिनकी अनन्तर और परम्पर यह दोनों प्रकार की उत्पनि नहीं-से विग्रहगति समापनक जीव 'अनन्नरपरम्परानुपपन्नक' कहलाते हैं, क्योंकि अनन्तरोत्पत्ति भव के उत्पत्ति क्षेत्र के प्रथम समय में होती है, परम्परोत्पत्ति द्वितीयादि समय में होती है और विग्रहगति में दोनों प्रकार की उत्पत्ति का अभाव है। अनन्त रोपपन्नक और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक जीव, नरकादि चारों गतियों का आयुष्य नहीं बांधत । क्योंकि उस अवस्था में उस प्रकार के अध्यवसाय नहीं होते हैं। इसलिये उस समय चारों गति के जीवों के आयुप्य का बन्ध नहीं होता । परम्परोपपन्नक नैरयिक जीव, अपना आयुप्य छह मास शेष रहने पर, भवप्रत्यय से तिर्यञ्च अथवा मनुष्य के आयुष्य का बंध करते हैं। इसी प्रकार देवों के विषय में भी जानना चाहिये । परम्परोपपन्नक मनुष्य और तिर्यञ्च तो चारों ही गति का आयुष्य बांधते हैं । अपनी आयुष्य के तृतीयादि भाग में या कोई-कोई छह मास बाकी रहते आयुष्य बांधते हैं । - यहां टीकाकार ने मतान्तर देते हुए बतलाया है कि नरयिक और देव, उत्कृष्ट छह माम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहने पर भी अगले भव का आयुष्य बांध सकते हैं, किन्तु यह बात प्रज्ञापना सूत्र के छठे पद के मूलपाठ से विरुद्ध जाती है। वहां बतलाया गया है कि नारक और देव छह मास का आयुष्य शेष रहने पर नियमतः पर-भव का आयुष्य बांध लेते हैं। For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८४ भगवा त्र-. १४ उ. । नैरयिक अनंतरोपपत्रकादि ९ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं अणंतरणिग्गया, परंपरणिग्गया, अणंतरपरंपरअणिग्गया ? ९ उत्तर-गोयमा ! रइया णं अणंतरणिग्गया वि जाव अणंतरपरंपरणिग्गया वि। प्रश्न-से केणटेणं जाव अणिग्गया वि ? उत्तर-गोयमा ! जे णं णेरड्या पढमसमयणिग्गया ते णं णेरइया अणंतरणिग्गया जे णं णेरड्या अपढमसमयणिग्गया ते णं गेरइया परंपरणिग्गया, जे णं गेरइया विग्गहगइसमावण्णगा ते णं णेरड्या अणंतरपरंपरअणिग्गया, से तेणटेणं गोयमा ! जाव . अणिग्गया वि, एवं जाव वेमाणिया । ___ १० प्रश्न-अणंतरणिग्गया णं भंते ! णेरड्या किं णेरइयाउयं . पकरेंत जाव देवाउयं पकरेंति ? १० उत्तर-गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, जाव णो देवा. उयं पकरोति। ___११ प्रश्न-परंपरणिग्गया णं भंते ! णेरइया किं णेरइयाउयं० पुच्छा। ११ उत्तर-गोयमा ! मेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि पकौंति। १२ प्रश्न-अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते ! णेरइया-पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-१. १४ 3. . रायक अनन्तरोपपनकादि ... २२८'. १२ उत्तर-गोयमा ! णो णेरड्याउयं पकरेंति, जाव णो देवाउयं पकरेंति एवं णिरवसेसं जाव वेमाणिया । १३ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! किं अणंतरवदोववण्णगा, परंपर. खेदोक्वण्णगा, अणंतरपरंपरखेदाणुववष्णगा ? १३ उत्तर-गोयमा ! णेरड्या० एवं एएणं अभिलावणं तं चैव चत्तारि दंडगा भाणियव्वा । * मेवं भंते ! मेवं भंते ! ति ॐ ॥ चोदसमसए पढमो उद्देसो समत्तो ।। कठिन शब्दार्थ-अणंतरणिग्गया-अनन्तर निर्गत-एक भव में निकल कर दूसरा भव प्राप्त होने के प्रथम समयवर्ती जीव, परंपरणिग्गया-परम्पर निर्गत (जिन जीवों को एक भव से निकल कर भवान्तर को प्राप्त हुए दो तीन आदि समय हो गये हैं, अणतरपरंपरअणिग्गया-अनन्तरपरम्प र अनिर्गत--जो एक भव से निकल कर भवान्तर में उत्पत्ति स्थान को प्राप्त नहीं हुए, अभी जो विग्रहगति में ही चल रहे हैं ऐसे जीव ।। ___ भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक अनन्तर निर्गत हैं, परम्पर निर्गत हैं या अनन्तरपरम्पर अनिर्गत है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव अनन्तर निर्गत भी होते हैं, परम्पर निर्गत भी होते हैं और अनन्तरपरम्पर निर्गत भी होते हैं। • प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? उत्तर-हे गौतम ! जिन नैरयिक जीवों को नरक से निकल कर उत्पत्ति स्थान में पहुंचने का प्रथम समय ही है, वे 'अनन्तर निर्गत' हैं। जिन नैरयिक जीवों को नरक से निकल कर उत्पत्ति स्थान में पहुंचने के प्रथमसमय व्यतिरिक्त द्वितीयादि समय हो गये है, वे ‘परम्पर निर्गत' हैं और जो नैरयिक For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८६ भगवती सूत्र-श. १४ 32 ने रयिक अनंतरोपपन्नकादि जीव, विग्रह-गति समापन्नक हैं, वे 'अनन्तरपरंपर अनिर्गत' हैं । इस कारण है गौतम! ऐसा कहा गया है कि नरयिक जीव यावत् 'अनन्तरपरम्पर अनिर्गत' हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तर निर्गत नैरयिक जीव, नरकायुष्य बाँधते है, यावत् देवायुष्य बांधते हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे नरकायुष्य नहीं बांधते यावत् देवायुष्य भी नहीं बांधते। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! वे परम्परनिर्गत नैरयिक नरकायुष्य बांधते हैं, इत्यादि प्रश्न। ११ उत्तर-हे गौतम ! वे नरकायुष्य भी बांधते हैं और यावत् देवायुष्य भी बांधते हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरपरम्पर अनिर्गत नरयिक क्या नरकायुष्यबांधते हैं, इत्यादि प्रश्न । १२ उत्तर-हे गौतम ! वे नरकायुष्य नहीं बांधते यावत् देवायुष्य भी नहीं बांधते । इसी प्रकार शेष सभी यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, अनन्तर खेदोपपन्न हैं, परम्पर खेदोपपन्न है या अनन्तरपरम्पर खेदानुपपन्न है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीव, अनन्तर खेदोपपन्न भी हैं, परम्पर खेदोपपन्न भी हैं और अनन्तरपरम्पर खेदानुपपन्न भी हैं। इसी अभिलाप द्वारा पूर्वोक्त रूप से चार दण्डक कहने चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन ! यह इसी प्रकार है-कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-परम्पर निर्गत नैरयिक सभी गति का आयुष्य बांधते हैं। क्योंकि परम्पर निर्गत नैरयिक मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही होते हैं । वे सर्वायुबन्धक होते हैं । इस प्रकार परम्पर निर्गत सभी वैक्रिय जन्म वाले जीव, अर्थात् देव और नरयिक तथा औदारिक जन्म वाले भी कितनेक जीव मनुष्य और तिर्यञ्च होते हैं । इसीलिये परम्पर निर्गत जीव मभी गति का आयुष्य बांधते हैं । For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ. २ उन्माद के भेद समयादि के अन्तर से रहित प्रथम समय में जिनकी उत्पत्ति दुःख युक्त है, उन्हें 'अनन्तरखेदोपपन्नक' कहते हैं, जिनकी खेद युक्त उत्पत्ति में दो तीन आदि समय व्यतीत हो चुके हैं, उन्हें 'परम्परखेदोपपन्नक' कहते हैं। जिनकी अनन्तर या परम्पर वेद युक्त उत्पत्ति नहीं है, उन्हें 'अनन्तरपरम्पर वेदानुपपन्नक' कहते हैं। ऐसे जीव विग्रह-गतिवर्ती होते हैं । इन जीवों के विषय में पूर्वोक्त चार दण्डक कहने चाहिए। वे चार दण्डक ये हैं(१) खेदोपपन्नक दण्डक (२) दीपपन्नक सम्बन्धी आयुष्य-बन्ध का दण्डक ( ३ ) खेदनिर्गत दण्डक (४) खेदनिर्गत सम्बन्धी आयुष्य बन्ध का दण्डक । ये चारों दण्डक पूर्व कहे अनुसार कहने चाहिये । || चौदहवें शतक का पहला उद्देशक सम्पूर्ण || xxxwxx शतक १४ उद्देशक २ उन्माद के भेद १ प्रश्न - कsविहे णं भंते ! उम्मार पण्णत्ते ? १ उत्तर - गोयमा ! दुविहे उम्मार पण्णत्ते, तं जहा - जक्खा - वेसे यं मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदपणं । तत्थ णं जे से जक्खावेसे से णं सुहवेयणतराए चैव सुहविमोयणतराए चेव । तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदपणं से णं दुहवेयणतराए चैव दुहविमोयणतराए चेव । २२८७ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८८ भगवती सूत्र-श. १४ उ. २ उन्माद के भंद . २ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे उम्माए पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा-जक्खा. वेसे य मोहणिजस्स य कम्मरस उदएणं । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'णेरइयाणं दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा-जक्खावेसे य मोहणिजस्स जाव उदएणं' ? उत्तर-गोयमा ! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्माय पाउणेजा, मोहणिजस्स वा कम्मरस उदएणं मोहणिजं उम्मायं पाउणेजा, से तेणटेणं जाव उम्माए ।' ३ प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! कइविहे उम्माए पण्णत्ते ? ३ उत्तर-एवं जहेव णेरड़याणं; णवरं देवे वा से महिइढीयतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से गं तेर्सि असुभाणं पोग्गलाणं . पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मायं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा, सेसं तं चेव, से तेणटेणं जाव उदएणं, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं एएसि जहा णेरइयाणं; वाणमंतरजोइस-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं। कठिन शब्दार्थ-उम्माए-उन्माद, जयखावेसे-यक्षावेश, सुहविमोयणतराए-मुग्वपूर्वक मुक्त होने योग्य । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है । यथा For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. २ उन्माद के भेद यक्षावेश से और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला। इन दोनों में से जो यक्षावेश रूप उन्माद है, वह सुखपूर्वक वेदा जा सकता है और सुखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है । मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद दुःखपूर्वक वेदा जाता है और दुःखपूर्वक ही छुड़ाया जा सकता है । २ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? २ उत्तर-हे गौतम ! उनके दो प्रकार का उन्माद कहा गया है, यथायक्षावेश रूप उन्माद और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद । प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! कोई देव, यदि नैयिक जीवों पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तो उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से वह नरयिक जीव, यक्षावेश रूप उन्माद को प्राप्त होता है और मोहनीय कर्म के उदय से मोहनीय कपजन्य उन्माद को प्राप्त होता है । इस कारण हे गौतम ! दो प्रकार का उन्माद कहा गया है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिकों के समान दो प्रकार का उन्माद कहा गया है । विशेषता यह है कि उनसे महद्धिक देव, असुरकुमारों पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से वे यक्षावेश रूप उन्माद को प्राप्त होते हैं और मोहनीय कर्म के उदय से मोहनीय कर्मजन्य उन्माद को प्राप्त होते हैं। शेष सब पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । पृथ्वीकायिक से लेकर मनुष्यों तक, नैरयिकों के समान कहना चाहिये। जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी कहना चाहिये । विवेचन-उन्माद-जिससे स्पष्ट चेतना अर्थात् विवेक-ज्ञान नष्ट हो जाय, उसे For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १० उ. २ उन्माद के भेद 'उन्माद' कहते हैं । यह दो प्रकार का है- १ यक्षावेश उन्माद और २ मोहनीय उन्माद | यक्षावेश उन्माद - शरीर में यक्ष आदि देव विशेष के प्रवेश करने से जो उन्माद होता है, उसे 'यक्षावेश उन्माद' कहते हैं । मोहनीय उन्माद - मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का पारमार्थिक ( वास्तविक सत् असत् का ) विवेक नष्ट हो जाता है, उसे 'मोहनीय उन्माद' कहते हैं । इसके दो भेद हैं- १ मिथ्यात्व - मोहनीय उन्माद और २ चारित्र - मोहनीय उन्माद । मिथ्यात्वमोहनीय उन्माद से जीव अतत्त्व को तत्त्व मानता है और तत्त्व को अतत्त्व मानता है । चारित्र मोहनीय उन्माद से जीव विषयादि के स्वरूप को जानता हुआ भी अज्ञानी के समान उनमें प्रवृत्ति करता है । अथवा चारित्रमोहनीय की 'वेद' नामक प्रकृति है, उसके उदय से जीव हिताहित का भान भूल कर उन्मत्त हो जाता है। जैसा कि कहा है: २२९० " चिते दट्ठमिच्छs दोहं नीससइ तह जरे दाहे । भत्तअरोअग मुच्छा उम्माय न याणइ मरणं ।। " अर्थात् वेदोदय से उन्मत्त बना हुआ जीव, विषयों का चिन्तन करता है, उन्हें देखने की इच्छा करता है, नहीं मिलने पर दीर्घ निःश्वास लेता है, फिर ज्वर और दाहग्रस्त पुरुष के समान पीड़ित होता है, अन्न-पानी में अरुचि हो जाती है, फिर मुर्च्छा आती है, फिर उन्मत्त ( विक्षिप्त चित्त - पागल ) हो जाता है और यहाँ तक कि मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है । इन दोनों उन्मादों में से मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा यक्षावेश उन्माद सुखपूर्वक वेदने योग्य और सुखपूर्वक छुड़ाने योग्य होता है । यक्षावेश उन्माद की अपेक्षा मोहजन्य उन्माद दुःखपूर्वक वेदन किया जाता है। क्योंकि वह अनन्त संसार - परिभ्रमण का कारण होता है और संसार परिभ्रमण रूप दुःख-वेदन उसका स्वभाव होता है । यक्षावेश, सुख वेदनतर है, क्योंकि वह एक भवाश्रयी होता है । मोहनीय उन्माद का छुड़ाना सरल नहीं होता, वह दुःखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है । विद्या, मन्त्र, तन्त्र और देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य है । यक्षावेश सुख-विमोचनतर है । यक्षाविष्ट पुरुष को खोड़ा-बेड़ी आदि बन्धन में डाल देने पर वह वश में हो जाता है । कहा भी है: "सर्वज्ञ मन्त्रवाद्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः ?" अर्थात्-सर्वज्ञ रूप मन्त्रवादी महापुरुष मी मोहजन्य उन्माद से उन्मत्त बने हुए सभी पुरुषों को, अपने वश में करने ( उनके मिथ्यात्व रूपी मोहउन्माद को दूर करने) में For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ २ देवकृत जल-वर्षा ममर्थ नहीं है । इसलिये कवि अपनी भाषा में कहता है कि - मिथ्यामोहोन्माद की किस के साथ तुलना की जा सकती है ? अर्थात् इसकी तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती । २२९१ देवकृत जल-वर्षा भंते ! पज्जपणे कालवासी वुट्टिकायं पकरेइ ? ४ प्रश्न - अस्थि ४ उत्तर - हंता अस्थि । ५ प्रश्न - जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया वुट्टिकाय काउकामे Has से कह मियाणि पकरेड ? ५ उत्तर - गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अभितर परिसर देवे सहावेइ, तरणं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसर देवे सहावेंति, तपणं ते मज्झिमपरिसगा देवा साविया समाणा वाहिरपरिसर देवे सहावेंति, तरणं ते बाहिरपरिसगा देवा सहाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सदावेंति, तणं ते बाहिरबाहिरगा देवा सदाविया समाणा आभिओगिए देवे सहावेंति, तरणं ते जाव सद्दाविया समाणा वुट्टिकाइए देवे सहावेंति, तरणं ते बुट्टिकाइया देवा सदाविया समाणा बुट्टि कार्य करेंति, एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया वुट्टिकायं पकरेंति । For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९२ भगवती सूत्र-श. १४ उ. २ देववृत जल-वर्षा - ६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंत । ६ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा बुटिकायं पक रेंति ? उत्तर-गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता एएसि णं जम्मणमहिमासु वा णिक्खमणमहिमासु वा णाणुप्पायमहिमासु वा परिणिव्वाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंति, एवं णागकुमारा वि. एवं जाव थणियकुमारा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया एवं चेव । · कठिन शब्दार्थ-पण्णे-पर्जन्य (मेघ) टिकायं-वृष्टिकाय ( जल समूह ) काउकामेकरने की इच्छा वाला, कहमियाणि-किस प्रकार, ताहे-तव, सद्दावेइ-बुलावे, किंपत्तियंकिसलिए । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कालवर्षी (काल-समय पर बरसने वाला) मेघ, वृष्टिकाय (जल समूह) बरसाता है । ४ उत्तर-हां, गौतम ! बरसाता है। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र, वृष्टि करने की इच्छा वाला होता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र, वृष्टि करने की इच्छा वाला होता है, तब आभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है, बुलाये हुए वे आभ्यन्तर परिषद् के देव, मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं, वे मध्यम परिषद् के देव, बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं । बाह्य परिषद् के देव, बाह्य For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवर्ती मुत्र-श. १४ ३. देवरत नमस्काय २२९३ वाह्य (बाहर-बाहर) के देवों को बुलाते हैं । वे बाह्य-बाह्य देव, आभियोगिक देवों को बुलाते हैं । वे आभियोगिक देव, वृष्टिकाधिक देवों को बुलाते हैं। तत्पश्चात् वे वृष्टि कायिक देव, वष्टि करते हैं। इस प्रकार हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव भी वृष्टि करते है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! करते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव वृष्टि क्यों करते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! अरिहन्त भगवन्तों के जन्म-महोत्सव, निष्क्रमणमहोत्सव, ज्ञानोत्पत्ति-महोत्सव और निर्वाण-महोत्सव के अवसर पर, असुरकुमार दर वृष्टि करते हैं । इसी प्रकार नागकुमार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिये। देवकृत तमस्काय ७ प्रश्न-जाहे णं भंते ! ईसाणे देविंद देवराया तमुक्कायं काउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेइ ? । ____७ उत्तर-गोयमा ! ताहे चेव णं से ईसाणे देविंदे देवराया अभितरपरिसाए देवे सदावेइ, तएणं ते अभितरपरिसगा देवा सदाविया समाणा एवं जहेव सकस जाव तएणं ते आभि ओगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे सद्दावेंति, तएणं ते तमुक्काझ्या देवा सदाविया समाणा तमुक्कायं पकरेंति, एवं For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९४ भगवती सूत्र...: 3. २ देवकृत तमस्काय खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं पकरेइ । __८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति ? ८ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति ? उत्तर-गोयमा ! किड्डा रइपत्तियं वा पडिणीयविमोहणट्टयाए वा गुत्तिसारक्खणहेउं वा अप्पणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति, एवं जाव वेमाणिया। 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॐ ॥ तेरसमसए वीओ उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-तमुक्कायं-तमस्काय, किड्डा-क्रीड़ा, रइपत्तियं-रति (बिलास) के लिए. पडिणीयविमोहणट्टयाए-शत्रु को मोहित करने के लिए, गुत्तिसारक्खणहेउ-गुप्त निधि की रक्षा के लिए, सरीरपच्छायणट्ठयाए-शरीर छुपाने के लिए। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! जब देवेन्द्र देव-राज ईशान, तमस्काय करने की इच्छा करता है, तब किस प्रकार करता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करने की इच्छा करता है, तब आभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है । वे आभ्यन्तर परिषद् के देव मध्यम परिषद् को बुलाते हैं, इत्यादि वर्णन शक्र वर्णन के समान जाना चाहिये, यावत् वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मत्र-ग. १४ उ. : अदगार की अवगणना करने वाले देव २२९५ है, और वे तमस्कायिक देव, तमस्काय करते हैं। हे गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान, तमस्काय करता है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देव भी तमस्काय करते है ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! करते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के तमस्काय करने के कौन से कारण हैं ? उत्तर-हे गौतम ! क्रीड़ा और रति के निमित्त, शत्रु को विस्मित करने के निमित्त, छिपाने योग्य धन की रक्षा के लिए और अपने शरीर को प्रच्छादित करने के लिए असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-अन्धेरे के सम्ह को 'तमस्काय' कहते हैं । क्रीड़ा, रति के निमित्त, शत्रु को विस्मित करने के लिए, गोपनीय द्रव्य की रक्षा के लिये और अपने शरीर को प्रच्छादित करने (ढकने) के लिए-इन चार कारणों से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योनिपी और वैमानिक देव तमस्काय करते हैं , ॥ चौदहवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १४ उद्देशक ३ * अनगार की अवगणना करने वाले देव १ प्रश्न-देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भावि. यप्पणो मझमज्झेणं वीइवएज्जा ? For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९५ भगवता सूत्र-श. १४ उ. : अनगार को अवगणना करने वाले इव -... १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए वीडवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएज्जा । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'अत्थेगइए वीइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएज्जा' ? उत्तर-गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-मायीमिच्छा. दिवीउवषण्णगा य अमायीसम्मदिट्ठीउववण्णगा य, तत्थ णं जे से मायीमिच्छदिट्ठीउववण्णए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता णो वंदइ, णो णमंसइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ, णो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं जाव पज्जुवासइ, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं वीइवएजा । तत्थ णं जे से अमायी. सम्मदिविउववण्णए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ पासित्ता वंदइ, णमंसइ, जाव पज्जुवासइ । से णं अणगारस्स भावियप्पणो मझमझेणं णो वीइवएजा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुइ जाव णो वीइवएजा। २ प्रश्न-असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे ? २ उत्तर-एवं चेव, देवदंडओ भाणियन्वो जाव वेमाणिए । कठिन शब्दार्थ-वीइवएज्जा-चला जाता है । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या महाकाय (बड़े परिवार वाला) और महाशरीर (बड़े शरीर वाला) देव, भावितात्मा अनगार के बीच में होकर जाता है ? For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र. १४ उ : नैरविकादि में आदर-सत्कार ११ उत्तर - हे गौतम ! कोई जाता है और कोई नहीं जाता । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? उत्तर-हे गौतम ! देव दी प्रकार के कहे गये हैं, तद्यथा-नायीमिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायी- समदृष्टि उपपन्नक । मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव, भावितात्मा अनगार को देखकर भी वन्दना नमस्कार नहीं करता और कल्याणकारी, मंगलकारी, देवतुल्य, ज्ञानवान् नहीं समझता यावत् पर्युपासना नहीं करता । इसलिये वह देव, भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर चला जाता है और अमायी समदृष्टि उपपन्नक देव, भावितात्मा अनगार को देखकर वन्दना नमस्कार करता है यावत् पर्युपासना करता है । वह भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर नहीं जाता। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई देव जाता है। और कोई नहीं जाता । २ प्रश्न - हे भगवन् ! महाकाय ( बड़े परिवार वाला) और महाशरीर ( बड़े शरीर वाला) असुरकुमार देव, भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर जाता है ? २२६७ २ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् जानना चाहिये । इस प्रकार देव-दण्डक यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये । विवेचन - यहाँ महाकाय का अर्थ है- 'प्रशस्त काय वाला' अथवा 'महाकाय (परिवार) वाला देव । यहाँ देव - दण्डक कहने का आशय यह है कि नैयिक और पृथ्वीं कायिकादि जीवों के उपर्युक्त कार्य एवं साधनों का अभाव है । यह केवल देवों में ही संभव है । इसलिये इस प्रसंग में देव दण्डक ही कहा गया है । नैरयिकादि आदर-सत्कार ३ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! णेरइयाणं सक्कारे इ वा, सम्माणे इवा, किकम्मे इवा, अभुट्टाणे इ वा, अंजलिपग्गहे इ वा For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९८ भगवती सूत्र-ग. १४ उ. ३ नरयिकादि में आदर-सत्कार आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पदाणे इ वा, इंतस्स पच्चुग्गच्छ. णया, ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ? ३ उत्तर-णो इणटे समढे। ४ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा, सम्माणे इ वा, जाव पडिसंसाहणया ? ४ उत्तर-हंता अस्थि, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं जाव चउरिंदियाणं एएसिं जहा णेरइयाणं । ५ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सरकारे इ वा जाव पडिसंसाहणया ? ५ उत्तर-हंता अस्थि, णो चेव णं आसणाभिग्गहे इवा, आसणाणुप्पदाणे इ वा । मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं। कठिन शब्दार्थ-अस्थि-है, सक्कारे-सत्कार अर्थात् वन्दना आदि के द्वारा अथवा उत्तम वस्त्रादि देने के द्वारा आदर करना, सम्माणे-सम्मान-तथाविध सेवा करना, किइकम्मे-कृतिकर्म-वन्दना करना अथवा उनकी इच्छानुसार कार्य करना, अन्भट्टाणे-अभ्युत्थानआदर करने योग्य पुरुप को देख कर आसन छोड़ कर खड़ा हो जाना, अंजलिपग्गहे-अंजलिप्रगृह-दोनों हाथ जोड़ना, आसणाभिग्गहे-आसनाभिग्रह-आसन लाकर देना और 'इस पर विराजो'-ऐसा कहना, आसणाणुप्पदाणे-आसनानुप्रदान-आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाकर विछाना, इंतस्स पच्चुग्गच्छणया-आते हुए आदरणीय पुरुप के सम्मख जाना, ठियस्स पज्जुवासणया-बैठे हुए आदरणीय पुरुप की सेवा करना, गच्छंतस्स पडिसंसाहणयाजब आदरणीय पुरुष उठ कर जावें तो कुछ दूर तक उनके पीछे जाना । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक, जीवों में सत्कार, सम्मान For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १४ उ.३ देवों में छोटे-बड़े का आदर-सम्मान २२९५ कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलि-प्रग्रह, आसनाभिग्रह, आसनानप्रदान, सम्मुख जाना बैठे हुए आदरणीय पुरुष की सेवा करना और जब वे उठकर जायें, तब कुछ दूर तक उनके पीछे जाना, इत्यादि विनय है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । अर्थात् नैरयिक में सत्कार आदि विनय नहीं है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों में सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन आदि विनय है ? ४ उत्तर-हाँ, गौतम है। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये । जिस प्रकार नरयिकों के लिए कहा, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक से लेकर यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना चाहिये । - ५ प्रश्न-हे भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-योनिक जीवों में सत्कार यावत् अनुगमन इत्यादि विनय है ? ५ उत्तर-हाँ गौतम ! है, परन्तु आसनाभिग्रह (आसन देना) और आसनानुप्रदान (आसन को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना)रूप विनय नहीं होता । जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्य यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये। विवेचन-सत्कार सम्मान आदि विनय, नैरयिक और पृथ्वीकायिकादि जीवों में नहीं है । क्योंकि उनके पास इस प्रकार के साधन नहीं है। तथा वे सदा दुःख में पड़े हुए रहते हैं। देवों में छोटे-बड़े का आदर-सम्मान ६ प्रश्न-अप्पड्ढीए णं भंते ! देवे महड्ढियस्त देवस्स मझं. मझेणं वीइवएजा ? ६ उत्तर-णो इणटे समढे। For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०० भगवती सूत्र-ग. १४ उ ३ दवा में छोटे-बड़े का आदर-सम्मान ७ प्रश्न-समिड्ढीए णं भंते ! देवे समिढियस्स देवरस मज्झमझेणं वीइवएजा ? ___ ७ उत्तर-णो इणटे समढे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा। ८ प्रश्न-से णं भंते ! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू, अणवकमित्ता पभू ? ८ उत्तर-गोयमा ! अक्कमित्ता पभू, णो अणक्कमित्ता पभृ । ९ प्रश्न-से णं भंते ! किं पुट्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएजा, पुट्विं वीइवएजा पच्छा सस्थेणं अवकमज्जा ? ९ उत्तर-एवं एएणे अभिलावेणं जहा दसमसए आइड्ढीउद्देसए तहेव णिरवसेसं चत्तारि दंडगा भाणियव्वा जाव 'महड्ढिया वेमाणिणी अप्पड्ढियाए वेमाणिणीए०' । कठिन शब्दार्थ-अप्पड्ढोए-अल्पद्धिक (अल्पऋद्धि वाला) महड्ढीए-महद्धिक (महाऋद्धि वाला) अक्कमित्ता-प्रहार करके, अणक्कमित्ता-प्रहार न करके, पमत्तं-प्रमत्त (असावधान)। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! अल्पऋद्धि वाला देव, महाऋद्धि वाले देव के मध्य में होकर जा सकता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ७ प्रश्न-हे भगवन् ! समद्धिक (समान ऋद्धि वाला) देव, समानऋद्धि वाले देव के मध्य में होकर जा सकता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। यदि वह समान ऋद्धिवाला देव प्रनत्त (असावधान) हो, तो जा सकता है। For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ ३. ३ देवों में छोटे-बड़े का आदर-सम्मान २३०१ ८ प्रश्न - हे भगवन् ! मध्य में होकर जाने वाला देव शस्त्र का प्रहार कर के जा सकता है या बिना प्रहार किये हो जा सकता है ? ८ उत्तर रहे गौतम! शस्त्र का प्रहार करके जा सकता है, प्रहार किये बिना नहीं जा सकता । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! वह देव पहले शस्त्र का प्रहार करता है और पीछे जाता है, या पहले जाता है और पीछे शस्त्र का प्रहार करता है ? ९ उत्तर - हे गौतम ! पहले शस्त्र का प्रहार करता है और पीछे जाता है । ऐसा नहीं होता कि पहले जाता है और पीछे प्रहार करता है । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा दसवें शतक के 'आइडिय' नामक तीसरे उद्देशक के अनुसार सम्पूर्ण रूप मे चारों दण्डक, यावत् 'महाऋद्धि वाली वैमानिक देवी अल्प ऋद्धिवाली देवी के मध्य में होकर जा सकती है'- - तक कहना चाहिये । विवेचन - देव और देव - यह प्रथम दण्डक है । देव और देवी दूसरा दण्डक है | देवी और देवतासरा दण्डक है और देवी और देवी- यह चौथा दण्डक है । इन चार दण्डकों में तीन आलापक कहने चाहिये । वे इस प्रकार हैं- अल्पद्धिक और महद्धिक यह प्रथम आलापक है, समद्धिक और समद्धिक यह दूसरा आलापक है। महद्धिक और अपदिक, यह तीसरा आलापक है । इनमें से अल्पद्धिक और महद्धिक का तथा समर्द्धिक और समर्द्धक का ये दो आलापक तो मूल पाठ में साक्षात् कहे गये हैं । समद्धिक आलापक के अन्त में शेष सूत्र का अंश इस प्रकार कहना चाहिये - 'पहले शस्त्र का प्रहार कर के पीछे जाता है, परन्तु पहले जाकर पीछे शस्त्र का प्रहार नहीं करता ।' तीसरा आलापक इस प्रकार कहना चाहिये । प्रश्न - हे भगवन् ! महद्धिक देव, अपद्धिक देव के मध्य में होकर जा सकता है ? उत्तर - हाँ, गौतम ! जा सकता है । प्रश्न - हे भगवन् ! मद्धिक देव, शस्त्र का प्रहार कर के जा सकता है, या शस्त्र का प्रहार किये बिना ही जा सकता है ? उत्तर - हे गौतम ! शस्त्र का प्रहार करके भी जा सकता है और शस्त्र का प्रहार किये बिना भी जा सकता है । प्रश्न - हे भगवन् ! पहले शस्त्र का प्रहार करत है और पीछे जाता है, या पहले जाता For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०२ भगवती सूत्र-३१. १४ उ. ३ नरयिकों में पुद्गल परिणाम है और पीछे शस्त्र प्रहार करता है ? उत्तर-हे गौतम ! पहले शस्त्र का प्रहार करके पीछे भी जा सकता है अथवा पहले जा कर पीछे भी शस्त्र का प्रहार कर सकता है। नैरयिकों में पुद्गल परिणाम १० प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केरिसयं पोग्गल. परिणामं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ? १० उत्तर-गोयमा ! अणिटुं जाव अमणाम, एवं जाव अहे. सत्तमापुढविणेरड्या, एवं वेयणापरिणामं, एवं जहा जीवाभिगमे बिइए णेरइयउद्देसए जाव प्रश्न-अहेसत्तमापुढविणेरड्या णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणामं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ? उत्तर-गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति * ॥ तेरसमसए तईओ उद्देसो समत्तो। कठिन शब्दार्थ-केरिसयं-कैसा, पच्चणुभवमाणा-अनुभव करते हुए, अणिठेंअनिष्ट, अमणाम-मन के प्रतिकूल । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गल परिणाम का अनुभव करते हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम (मन के प्रतिकूल) पुदगल परिणाम का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मग पत्री पुत्र-शः १४.३. ४ पुद्गल के वर्णादि परिवर्तन २३०३ नरयिकों तक कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत वेदना परिणाम का भी अनुभव करते हैं, इत्यादि जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक के अनुसार कहना चाहिये, यावत् प्रश्न-हे भगवन् ! अधःसप्तम पृथ्वी के मैरयिक, किस प्रकार की परिग्रह संज्ञा परिमाण का अनुभव करते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम परिग्रह संज्ञा परिणाम का अनुभव करते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-नरयिक जीव, अनिष्ट यावत् अमनाम (मन के प्रतिकूल) पुद्गल परिणाम का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार शीत, उष्ण, भूख, प्यास, खुजली, परतन्त्रता, भय, शोक, जरा और व्याधि, इन दस प्रकार की वेदनाओं का भी अनुभव करते हैं । इस विषय में यहाँ जीवाभिगम सूत्र का अतिदेश किया गया है । वहाँ पुद्गल परिणाम वेदना आदि बीस द्वार कहे हैं। ॥ चौदहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १४ उद्देशक ४ पुद्गल के वर्णादि परिवर्तन १ प्रश्न-एस णं भंते ! पोग्गले तीयमणंतं सासयं समयं लुक्खी, समयं अलुक्खी, समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा ? पुट्वि For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र . १४ . ४ पुद्गल के वर्णादि परिवर्तन च णं करणं अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणमइ ? अह से परिणामे णिजिणे भवइ तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया ? १ उत्तर - हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीयं० तं चैव जाव एगरूवे सिया । २ प्रश्न - एस णं भंते ! पोग्गले पडुप्पण्णं सासयं समयं ० १ २३०४ २ उत्तर - एवं चैव एवं अणागयमतं पि । ३ प्रश्न - एस णं भंते! संधे तीयमतं ? ว ३ उत्तर - एवं चेव, संधे वि जहा पोग्गले । कठिन - शब्दार्थ - लुक्खी - रूक्ष, अलक्खी - अरूक्ष (स्निग्ध), तीयमणंत - अनन्त भूतकाल, सासयं - शाश्वत, पडुप्पण्णं - प्रत्युत्पन्न ( वर्त्तमान) भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! यह पुद्गल ( परमाणु या स्कन्ध ) अनन्त, अपरिमित और शाश्वत अतीत काल में एक समय तक रूक्ष स्पर्श वाला रहा, एक समय तक अरूक्ष अर्थात् स्निग्ध स्पर्श वाला और एक समय तक रूक्ष और स्निग्ध दोनों प्रकार के स्पर्शवाला रहा ? पहले करण अर्थात् प्रयोग करण और वित्रता करण के द्वारा अनेक वर्ण और अनेक रूप वाले परिणाम से परिणत हुआ और उस अनेक वर्ण आदि परिणाम के क्षीण होने पर वह पुद्गल एक वर्ण वाला और एक रूप वाला रहा था ? १ उत्तर - हाँ, गौतम ! यह पुद्गल अतीत काल में इत्यादि यावत् 'एक रूप वाला था' - तक कहना चाहिये । २ प्रश्न - हे भगवन् ! यह पुद्गल ( परमाणु या स्कन्ध ) शाश्वत वर्तमान काल में, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । २ उत्तर - हे गौतम! पूर्वानुसार जानना चाहिये । इसी प्रकार अनन्त अनागत काल के विषय में भी जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ४ जीव का दुःप और गुख. ३ प्रश्न-हे भगवन् ! यह स्कन्ध, अनन्त शाश्वत, अतीत-काल में इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पुद्गल के विषय में कहा, उसी प्रकार स्कन्ध के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-यहाँ 'पुद्गल' शब्द मे परमाणु और स्कन्ध दोनों लिये जा सकते हैं । परमाण में भिन्न समय में रुक्ष स्पर्श और भिन्न समय में स्निग्ध स्पर्श पाया जा सकता है। द्वयणुक आदि स्कन्ध में तो एक ही समय में रूक्ष और स्निग्ध दोनों स्पर्श पाये जा सकते हैं। क्योंकि उसका एक देश रूक्ष और एक देश स्निग्ध हो सकता है। वह अनेक वर्णादि परिणाम में परिणत होता है और फिर एक वर्णादि परिणाम को भी परिणत होता है। अर्थात् एक वर्णादि परिणाम के पहले प्रयोग-करण द्वारा अथवा विस्रसाकरण द्वारा अनेक वर्णादि रूप पर्याय को प्राप्त होता है । परमाणु तो समय-भेद से अनेक वर्णादि रूप से परिणत होता है और स्कन्ध समय-भेद से या युगपद् अनेक वर्णादि रूप से परिणत हो सकता है। उस परमाणु या स्कन्ध का जब अनेक वर्णादि परिणाम क्षीण हो जाता है, तब वह एक वर्णादि पर्याय से परिणत हो जाता है । यहाँ भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्काल, इन तीनों काल सम्बन्धी प्रश्न करके उत्तर दिया गया है। इसी प्रकार स्कन्ध के विषय में भी प्रश्नोत्तर किया गया है। जीव का दुःख और सुख ४ प्रश्न-एस णं भंते ! जीवे तीयमणंतं सासयं समयं दुक्खी , समयं अदुक्खी, समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा ? पुट्विं च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं परिणमइ ? अह से वेयणिजे णिजिण्णे भवइ, तओ पच्छ एगभावे एगभूए सिया ? ४ उत्तर-हंता गोयमा ! एस णं जीवे जाव एगभूए सिया, For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०६ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ४ परमाणु की शाश्वतता एवं पड्डुप्पण्णं सासयं समयं, एवं अणागयमणंतं सासयं समयं । । कठिन शब्दार्थ-णिज्जिण्णे-निर्जीर्ण (क्षीण) । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदुःखी (सुखी) तथा एक समय में दुःखी और सुखी था और प्रथम करण (प्रयोग-करण) और विलसा करण द्वारा अनेक भाव वाले और अनेक रूप वाले परिणाम से परिणत हुआ था ? इसके बाद वेदनीय एवं ज्ञानावरणीयादि कर्मों की निर्जरा होने पर जीव, एक भाव वाला और एक रूप वाला था ? ४ उत्तर-हाँ, गौतम ! यह जीव यावत् एक रूप वाला था। इसी प्रकार शाश्वत वर्तमान काल में तथा अनन्त और शाश्वत भविष्यत्काल के विषय में भी कहना चाहिये। विवेचन-यह प्रत्यक्ष जीव, अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखों के कारणों से दुःखी था, एक समय में मुख के हेतुभूत कारणों से मुखी था और एक समय दुःखी और सुखी दोनों था। इस प्रकार अनेक परिणामों में परिणत होकर पुनः किसी समय एक भाव परिणाम में परिणत हो जाता है । एक भाव परिणाम में परिणत होने के पूर्व काल, स्वभावादि कारण-समूह से एवं शुभाशुभ कर्म बंध की हेतुभूत क्रिया से, दुःख-सुखादि रूप अनेक भाव रूप परिणाम से परिणत होता है । फिर दुःखादि अनेक भावों के हेतुभूत वेदनीय कर्म और ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षीग होने पर स्वाभाविक सुख रूप एक भाव से परिणत होता है । यहाँ जीव के सुखी-दुःखी आदि परिणामों के विषय में भूत, भविष्यत्, वर्तमान-तीनों काल सम्बन्धी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। परमाणु की शाश्वतता ५ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सासए, असासए ! ५ उत्तर-गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए । For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ. ४ परमाणु की शादवतता प्रश्न-से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'सिय सासए, सिय असा स ? उत्तर - गोयमा ! दव्वट्टयाए सासए वण्णपज्जवेहिं, जाव फासपज्जवेहिं असासए, मे तेणद्वेणं जाव सिय सासए, सिय असासए । ६ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं चरिमे. अचरिमे ? , ६ उत्तर - गोयमा ! दव्वादेसेणं, णो चरिमे अचरिमे, खेत्तादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, कालादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, भावादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे । कठिन शब्दार्थ - दट्टयाए द्रव्य की अपेक्षा, वण्णपज्जवेहि-वर्ण-पर्यायों से, दवादेसे -- द्रव्यादेश से ( द्रव्य की अपेक्षा) चरिमे - अंतिम | २३०७ भावार्थ-५ प्रश्न- हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? ५ उत्तर - हे गौतम ! कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है इसका ? उत्तर - हे गौतम ! द्रव्यार्थ रूप से परमाणु-पुद्गल शाश्वत है और वर्णपर्याय यावत् स्पर्श पर्यायों द्वारा अशाश्वत है । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि परमाणु-पुद्गल कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु- पुद्गल चरम है या अचरम ? ६ उत्तर - हे गौतम! परमाणु- पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा चरम नहीं, अचरम है | क्षेत्रादेश से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम है । कालादेश से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम है और भावादेश से भी कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है । विवेचन - परमाणु- पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है, क्योंकि स्कन्ध के साथ मिल जाने पर भी उसका परमाणुत्व नष्ट नहीं होता । उस समय वह 'प्रदेश' शब्द से कहा For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०८ भगवती सूत्र-शः ५४ उ. ४ जीव अजीव परिणाम जाता है । वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा वह अशाश्वत है, क्योंकि पर्याय विनश्वर हैं । ___ जो परमाणु विवक्षित परिणाम से रहित होकर पुन: उस परिणाम को कभी भी प्राप्त नहीं होता, वह परमाणु उस परिणाम की अपेक्षा चरम' कहलाता है। जो परमाणु उस परिणाम को पुनः प्राप्त होता हैं, वह उस अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है । द्रव्य की अपेक्षा परमाणु चरम नहीं, अचरम है, क्योंकि विवक्षित परिणाम से रहित बना हुआ परमाणु सघातपरिणाम को प्राप्त हो कर कालान्तर में पुनः परमाणु परिणाम को प्राप्त होता है । __क्षेत्रादेश से (क्षेत्र की अपेक्षा) परमाणु कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है । जिस क्षेत्र में किसी केवलज्ञानी ने केवली-समुद्घात की थी, उस समय जो परमाणु वहां रहा हुआ था, अब समुद्घात प्राप्त उस केवलज्ञानी के सम्बन्ध विशिष्ट से वह परमाणु : किसी भी समय उस क्षेत्र का आश्रय नहीं करता, क्योंकि वे समुद्घात प्राप्त केवली निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं । वे उस क्षेत्र में पुनः कभी भी नहीं आयेंगे, इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा परमाणु 'चरम' कहलाता है। विशेषण रहित क्षेत्र की अपेक्षा परमाणु फिर उस क्षेत्र में अवगाढ़ होता है, इसलिये 'अचरम' कहलाता है। काल की अपेक्षा कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है । यथा-जिस प्रातःकाल आदि समय में केवली ने समुद्घात किया था, उस काल में जो परमाणु रहा हुआ था, वह परमाणु उस केवलीसमुद्घात विशिष्ट काल को पुनः प्राप्त नहीं करता । क्योंकि वे केवलज्ञानी तो मोक्ष चले गये । अतएव पुनः कभी समुद्घात नहीं करेंगे । इसलिये उस अपेक्षा काल से चरम है ओर विशेषण रहित काल की अपेक्षा परमाणु अचरम है । भाव की अपेक्षा परमाणु चरम भी है और अचरम भी है । यथा-केवलीसमुद्घात के समय जो परमाणु वर्णादि भाव विशेष को प्राप्त हुआ था, वह परमाणु विवक्षित केवलीसमुद्घात विशिष्ट वर्णादि परिणाम की अपेक्षा चरम है। क्योंकि उस केवलज्ञानी के निर्वाण प्राप्त कर लेने से वह परमाणु पुनः विशिष्ट परिणाम को प्राप्त नहीं होता। जीव अजीव परिणाम ७ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? । ७ उत्तर-गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा-जीव For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १४ उ. ४ जीव अजीव परिणाम परिणामे य अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं गिरवसेसं भाणियव्वं । * मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ ®. ॥ चोदसमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-णिरवसेसं-परिपूर्ण । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा गया ? ७ उत्तर-हे गौतम ! परिणाम दो प्रकार का कहा गया है । यथा-जीव परिणाम और अजीव परिणाम । इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनो सूत्र का तेरहवा परिणाम-पद सम्पूर्ण कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--परिणाम का लक्षण इस प्रकार है-- "परिणामो हयन्तिरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥" अर्थात्-द्रव्य की अवस्थान्तर प्राप्ति को 'परिणाम' कहते हैं । द्रव्य का सर्वथा एक रूप में रहना अथवा विनाश हो जाना यह 'परिणाम' शब्द का अर्थ नहीं है। परिणाम के दो भेद हैं-जीव परिणाम और अजीव परिणाम । जीव परिणाम के दस प्रकार है । यथा-१ गति, २ इन्द्रिय, ३ कषाय, ४ लेश्या, ५ योग, ६ उपयोग, ७ ज्ञान ८ दर्शन, ९ चारित्र और १० वेद । अजीव परिणाम के भी दस भेद हैं । वे इस प्रकार हैं१ बन्धन, २ गति, ३ संस्थान, ४ भेद, ५ वर्ण, ६ गन्ध, ७ रस, ८ स्पर्श, ९ अगुरुलघु और १० शब्द परिणाम । ॥ चौदहवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ उद्देशक ५ जीवों का अग्नि प्रवेश १ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएजा ? १ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए वीइवएजा, अत्यंगइए णो वीइवएजा। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-'अत्थेगइए वीइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएज्जा ?' उत्तर-गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगइसमावण्णगा य. अविग्गहगइसमावण्णगा य, तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावण्णए णेरइए से णं अगणिकायस्स मझमज्झेणं वीइवएजा। प्रश्न-से णं तत्थ झियाएजा ? उत्तर-णो इणटे समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावण्णए णेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झंमज्झेणं णो वीइवएज्जा, से तेणटेणं जाव ‘णो वीइवएज्जा'। २ प्रश्न-असुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायस्स पुच्छा। २ उत्तर-गोयमा !. अत्थेगहए वोहवएजा, अत्यंगइए णो . पाएजा । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १४ उ. ५ जीवों का अग्नि प्रवेश २३११ वीइवएजा। प्रश्न-से केणटेणं जाव णो वीइवएजा ? उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाविग्गहगइसमावण्णगा य अविग्गहगइसमावष्णगा य । तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे से णं-एवं जहेव गेग्इए जाव 'कमई । तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएजा। प्रश्न-जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ? उत्तर-णो इणटे, समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, से तेणटेणं०, एवं जाव थणियकुमारे । एगिदिया जहा गैरइया । कठिन शब्दार्थ-झियाएज्जा-जलता है । कमइ-जाता है-लगता है। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नारक जीव, अग्निकाय के बीच में होकर जा सकता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! कोई नरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? • उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-विग्रहगति समापन्नक (एक गति से दूसरी गति में जाते हुए) और अविग्रह-गति-समापन्नक (उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त हुए)। इनमें से जो विग्रहगति समापनक हैं। वे अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वे अग्नि से जलते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ९४ उ ५ जीवों का अग्नि प्रवेश उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योंकि उस पर अग्नि रूप शस्त्र असर नहीं करता । जो अविग्रह- गति समापन्नक हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर नहीं जा सकते ( क्योंकि नरक में बादर अग्नि नहीं होती ) इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा २३१२ सकता । २ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार देव अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! कोई जा सकते हैं और कोई नहीं जा सकते । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है इसका ? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-विग्रह गति समापनक और अविग्रह गति समापन्नक । जो विग्रह गति समापन्नक असुरकुमार हैं, वे नैरयिकों के समान हैं यावत् 'उन पर अग्नि-शस्त्र असर नहीं करता । जो अविग्रह गति समापन्नक असुरकुमार हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में होकर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता । प्रश्न- जो अग्नि के मध्य में जाता है वह जलता है ? उत्तर - यह अर्थ समर्थ नहीं। क्योंकि उस पर अग्नि आदि शस्त्र असर नहीं करता । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई असुरकुमार जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये । एकेन्द्रियों के विषय में नैरयिकों के समान कहना चाहिये । ३ प्रश्न - वेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं ? ३ उत्तर - जहा असुरकुमारे तहा वेईदिएवि, णवरं - प्रश्न- जेणं वीइवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? उत्तर - हंता झियाएजा सेसं तं चैव एवं जाव चउरिदिए । For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १४ उ. ५ जीवों का अग्नि प्रवेटा ४ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायपुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए वीइवएजा, अत्थेगइए णो वीइ. वएजा। प्रश्न-से केणटेणं० ? उत्तर-गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगइममावण्णगा य अविग्गहगइसमावण्णगा य । विग्गहगइसमावण्णए जहेव णेरइए, जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ' । अविग्गहगइसमावण्णगा पंचिंदियतिरिकग्वजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-इटिप्पत्ता य अणिढिप्पत्ता य। तत्थ णं जे से इढिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिया से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएजा, अत्थेगइए णो वीइवएजा। प्रश्न-जे णं वीइवएजा से णं तत्थ झियाएजा ? उत्तर-णो इणढे समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थ णं जे से अणिढिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगइए अगणि. कायस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएन्जा अत्थेगइए णो वीइवएज्जा । प्रश्न-जे णं वीइवएजा से णं तत्य झियाएजा ? उत्तर-हंता झियाएजा, से तेणटेणं जाव ‘णो वीइवएज्जा' एवं मगुस्से वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे । For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१४ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ जीवों का अग्नि प्रवेश कठिन शब्दार्थ--इडिपत्ता--ऋद्धिप्राप्त । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में होकर जाते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार बेइन्द्रियों के विषय में कहना चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि प्रश्न-'जो बेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जाते हैं, वे जलते उत्तर-हों, वे जल जाते हैं। शेष सभी पूर्ववत् यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-योनिक जीव अग्नि के मध्य में होकर जाते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! कोई जाता है और कोई नहीं जाता । प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक दो प्रकार के कहे गये है। यथा-विग्रहगति-समापन्नक और अविग्रहगति-समापनक । जो विग्रहगति-समापनक पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक हैं, उनका कथन नरयिक की तरह जानना चाहिये यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता। जो अविग्रहगति-समापन्नक पञ्चेन्द्रिय तियंचयोनिक हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-ऋद्धि प्राप्त (वैक्रिय लब्धि यक्त) और ऋद्धि अप्राप्त (वैक्रिय लब्धि रहित) । जो पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक ऋद्धि प्राप्त हैं, उनमें से कोई अग्नि में होकर जाता है और कोई नहीं जाता। प्रश्न-जो जाता है वह जलता है क्या ? उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं। उन पर शस्त्र असर नहीं करता । ऋद्धि अप्राप्त पंचेन्द्रिय तियंच-योनिकों में से कोई अग्नि में होकर जाता है और कोई नहीं जाता। प्रश्न-जो जाता है क्या वह जलता है ? For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ ५ जीवों का अग्नि प्रवेश के उत्तर - हाँ, जलता है । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि'कोई अग्नि में होकर जाता है और कोई नहीं जाता।' इसी प्रकार मनुष्य विषय में भी कहना चाहिये । असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी कहना चाहिये । विवेचन - विग्रह गति को प्राप्त जीव, विग्रहगति समापन्नक कहलाता है। वह कार्मण शरीर युक्त होता है। कार्मण शरीर सूक्ष्म होने से उस पर अग्नि आदि शस्त्र असर. नहीं कर सकते । २३१५ अविग्रहगति समापन्नक का अर्थ है- उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त । किन्तु अविग्रहगतिसमापन्नक का अर्थ 'ऋजुगति प्राप्त' - यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है । क्यों कि उसका यहां प्रकरण नहीं है । उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त नैरयिक जीव, अग्निकाय के बीच में होकर नहीं जाता, क्योंकि नरक में बादर अग्निकाय का अभाव है । बादर अग्निकाय का सद्भाव मनुष्य क्षेत्र में ही है । उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में "हुयासणे जलंतम्मि दडपुव्वो अणेगसो" इत्यादि वर्णन आया है । वहाँ वह अग्नि के समान कोई उष्ण द्रव्य समझना चाहिये । विग्रहगति प्राप्त अमुरकुमार का वर्णन, विग्रह गति प्राप्त नैरयिक के समान जानना चाहिये | अविग्रगति प्राप्त ( अर्थात् उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त हुआ) असुरकुमार जो मनुष्यलोक में आता है, वह यदि अग्नि के मध्य में होकर जाता है, तो वह जलता नहीं, क्यों कि वैक्रिय शरीर अति सूक्ष्म है और उसकी गति अति शीघ्र है । जो असुरकुमार मनुष्यलोक में नहीं आता, वह अग्नि के बीच में होकर नहीं जाता । विग्रह - गति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जाते हैं । वे सूक्ष्म होने अग्नि के बीच में होकर नहीं जाते, होने से उनका अग्नि के बीच में होकर से जलते नहीं है । अविग्रहगति प्राप्त एकेन्द्रिय जीव, क्योंकि वे स्थावर हैं । अग्नि और वायु, गति त्रस जाना संभव है । किन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है । यहाँ तो स्थावरपने की विवक्षा है । स्थावर जीवों में गति का अभाव है । वायु आदि की प्रेरणा से पृथ्वी आदि का अग्नि के मध्य में गमन संभव है । परन्तु यहाँ पर स्वतन्त्रतापूर्वक गमन की विवक्षा की गई है । एकेन्द्रिय जीव, स्थावर होने से स्वतन्त्रतापूर्वक अग्नि के मध्य में होकर नहीं जा सकते । For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२३१६ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ जीवों के इप्टानिष्ट शब्दादि ~ जीवों के इष्टानिष्ट शब्दादि ५-णेरइया दस-ठाणाहिं पञ्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा१ अणिटा सदा २ अणिट्ठा रूवा ३ अणिट्टा गंधा ४ अणिट्ठा रसा ५ अणिट्टा फासा ६ अणिट्ठा गई ७ अणिट्टा ठिई ८ अणिढे लावण्णे ९ अणिटे जसो-कित्ती १० अणिटे उट्ठाण कम्म-बल. वीरिय-पुरिसक्कारपरक्कमे । ६-असुरकुमारा दस ठाणाई पचणु-भवमाणा विहरंति, तं जहा-१ इट्ठा सद्दा, २ इट्टा रूवा जाव इट्टे उट्टाण-कम्म बल वीरियपुरिसकारपरकमे, एवं जाव थणियकुमारा। ___७-पुटविकाइया छ ठाणाई पचणुव्भवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा फासा, इटाणिट्ठा गई, एवं जाव परकम्मे एवं जाव वगस्सइकाइया। ____-बेइंदिया सत्त ठाणाई पचणुभवमाणा विहरंति, तं जहाइटाणिट्ठा रसा, सेसं जहा एगिदियाणं । ९-तेइंदिया अट्ठ ठाणाई पचणुभवमाणा विहरंति, तं जहाइट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा वेइंदियाणं । १०-चउरिदिया णव ठाणाई पचणु-भवमाणा विहरंति, तं जहा-इटाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं । For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ ५ जीवों के इष्टानिष्ट संदादि २३१७ ११- पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पञ्चणुभवमाणा विहरति तं जहा - इट्टाणिट्टा सद्दा, जाव परत्रकर्म एवं मणुस्सा वि वाणमंतर - जोइमिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । कठिन शब्दार्थ लावण्ण-लावण्य । भावार्थ - ५ - नैरयिक जीव, दस स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा१ अनिष्ट शब्द, २ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गन्ध, ४ अनिष्ट रस, ५ अनिष्ट स्पर्श, ६ अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अनिष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यश:कीfa और १० अनिष्ट उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम । ६ - असुरकुमार, दस स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-१ इष्टशब्द, २ इष्टरूप, यावत् १० इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार- पराक्रम । इस प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये । ७- पृथ्वीकायिक जीव, छह स्थानों का अनुभव करते हैं । इष्टानिष्ट स्पर्श, २ इष्टानिष्ट गति, यावत् ६ इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिये । ८- बेइन्द्रिय जीव, सात स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-१ इष्टानिष्ट रस, इत्यादि शेष एकेन्द्रियों के समान कहना चाहिये । ९ - इन्द्रिय जीव, आठ स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट गन्ध, शेष बेइन्द्रियों के समान कहना चाहिये । १० - चतुरिन्द्रिय जीव, नौ स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट रूप, शेष तेइन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिये । ११- पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, दस स्थानों का अनुभव करते हैं । यथा - १ इष्टानिष्ट शब्द यावत् १० इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम । इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिये । असुरकुमारों के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक तक कहना चाहिये । विवेचन - नैरयिक जीव, अनिष्ट शब्द आदि दस स्थानों का अनुभव करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१८ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृत्ति उनकी अप्रशस्त विहायोगति रूप अथवा नरक गति रूप अनिष्ट गति होती है । नरक में रहने रूप अथवा नरक आयु रूप अनिष्ट स्थिति होती है। शरीर का बेडौल होना-अनिष्ट लावण्य होता है । अपयशः और अपकीत्ति रूप अनिष्ट यशः-कीत्ति होती है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ नैरयिक जीवों का उत्थानादि वीर्य, विशेष अनिष्ट, निन्दित होता है। एकेन्द्रिय जीवों में शब्द, रूप, गन्ध और रस नहीं होते । इसलिये वे उपर्युक्त दस स्थानों में से छह स्थानों का अनुभव करते हैं। वे शुभ और अशुभ क्षेत्र में उत्पन्न हो सकते हैं । और उनके साता और असाता दोनों के उदय का संभव है । इसलिये उनमें इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पर्शादि होते हैं । यद्यपि एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं, इसलिये उनमें स्वाभाविक रूप से गमन-गति का संभव नहीं है, तथापि उनमें पर-प्रेरित गति होती है। वह शुभाशुभ रूप होने से इष्टानिष्ट गति कहलाती है । मणि में इप्ट लावण्य होता है और पत्थर में अनिष्ट लावण्य होता है । इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों में इष्टानिष्ट लावण्य होता है । स्थावर होने से एकेन्द्रिय जीवों में उत्थानादि प्रकट रूप से दिखाई नहीं देते, किन्तु सूक्ष्म रूप से तो उनमें उत्थानादि है ही। तथा पूर्वभव में अनुभव किये हुए उत्थानादि के संस्कार के कारण भी इनमें उत्थानादि होते हैं और वे इप्टानिष्ट होते हैं । ऐसा जानना चाहिये। देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृत्ति १२ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू, तिरियपव्वयं वा तिरियभित्तिं वा उल्लं. घेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? १२ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समढे। . १३ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढिीए जाव महेसवखे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू , तिरिय० जाव पल्लंघेत्तए वा ? For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ देव की पुद्गल सहायी विशेष प्रवृति २३१९ १३ उत्तर-हंता पभू। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ चोदसमसए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-महेसक्खे-महामुख वाला, अपरियाइत्ता-बिना प्राप्त (ग्रहण) किये । भावार्थ-१२ प्रश्न- हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिर्छा पर्वत को अथवा तिछौँ भीत को उल्लंघने (एक वार उल्लंघने) में और प्रलंघने (बार-बार उल्लंघन करने) में समर्थ है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके तिर्छा पर्वत को या तिझे भीत को उल्लंघन-प्रलंघन करने में समर्थ है ? १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! समर्थ है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं ? विवेचन-भवधारणीय शरीर से व्यतिरिक्त पुद्गल, 'बाहर के पुद्गल' कहलाते हैं । उन पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी देव, मार्ग में आने वाले पर्वत या पर्वत-खण्ड तथा भीत आदि का उल्लंघन नहीं कर सकता। वाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें उल्लंघन कर सकता है । . । चौदहवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ उद्देशक नैरयिकादि के आहारादि १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-णेरइया णं भंते ! किमाहारा, किंपरिणामा, किंजोणिया, किंठिईया पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णं पोग्गलाहारा, पोग्गलपरिणामा, पोग्गलजोणिया, पोग्गलठिईया, कम्मोवगा, कम्मणियाणा, कम्मठिईया, कम्मुणामेवविप्परियासमेंति, एवं जाव वेमाणिया । २ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! किं वीइदव्वाई आहारैति, अवीइ. दवाई आहारेंति ? २ उत्तर-गायमा ! णेरड्या वीइदवाई पि आहारेंति, अवीइ. दबाई पि आहारेंति। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-णेरड्या वीइ० तं चैव जाव आहारेंति ? उत्तर-गोयमा ! जे णं णेरइया एगपएसूणाई पि दव्वाई आहा. रेंति, ते णं णेरइया वीइदब्वाइं आहारेंति, जे णं णेरइया पडि. पुण्णाई दव्वाइं आहारेंति ते णं णेरड्या अवीइदव्वाइं आहोरेंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव आहारेंति, एवं जाव वेमा. णिया आहारेंति । For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १४ उ. ६ नैरयिकादि के आहारादि २३२१ __कठिन शब्दार्थ-चीइदव्वाइं-कुछ कम द्रव्य (एक या इससे अधिक प्रदेश कम आहार द्रव्य) । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा - "हे भगवन् ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं। उनकी क्या योनि है और उनकी स्थिति का क्या कारण कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं और उसका पुद्गल रूप परिणाम होता है। उनकी योनि शीत-उष्ण स्पर्शवाली है। आयुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति का कारण है । बन्ध द्वारा वे कर्म को प्राप्त हुए हैं। नैरयिकपने के निमित्तभूत कर्म वाले हैं। कर्म-पुदगल से उनकी स्थिति है और कर्मों के कारण वे अन्य पर्याय को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिये। २ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं या अवीचि द्रव्यों का ? उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचि द्रव्यों का भी। . प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! जो नैरयिक, एक प्रदेश भी न्यून द्रव्यों का आहार करते हैं, वे बीचि द्रव्यों का आहार करते हैं और जो परिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नरयिक जीव, वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचि द्रव्यों का भी । इसी प्रकार यावत् 'वैमानिक' तक कहना चाहिये । विवेचन-जितने पुद्गलों से सम्पूर्ण आहार होता है, उसे 'अवीचि द्रव्य' कहते हैं । सम्पूर्ण आहार से एक प्रदेश भी कम आहार हो, उसे 'वीचि द्रव्य' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ६ देवेन्द्र के भोग देवेन्द्र के भोग ३ प्रश्न-जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाइं भोगभोगाई भुजिउंकामे भवइ से कहमियाणि पकरेइ ? ___३ उत्तर-गोयमा ! ताहे व णं से सक्के देविंदे देवराया एगं - महं णेमिपडिरूवगं विउव्वह; एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं जाव अधंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं । तस्स णं णेमिपडिरूवगस्स उवरिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीणं फासो, तस्स णं णेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झदेसभागे तत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं विउव्वइ पंच जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं, अड्ढाइन्जाइं जोयणसयाइं विक्खंभेणं, अन्भुग्गय मूसिय० वण्णओ जाव पडिरूवं । तस्स णं पासायवडिंसगस्स उल्लोए पउमलयाभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे । तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे जाव मणीणं फासो, मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं । तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं महं एगे देवसयणिजे विउव्वइ, सयणिज्जवण्णओ जाव पडिरूवे । तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, दोहि य अणिएहिं पट्टाणिएण य गंधव्वाणिएण य सदधिं महयाहयणट्ट० जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र या. १४ उ ६ देवेन्द्र के भोग कठिन शब्दार्थ - भुंजिका मे-भोग करने की इच्छा वाले, णेमिपडिख्वगं - चक्र के आकार । -तक भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, भोगने योग्य मनोज्ञ स्पर्शादि भोगों को भोगने की इच्छा करता है, तब वह किस प्रकार भोगता है ? ३ उत्तरर - हे गौतम! उस समय देवन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के समान गोलाकार स्थान की विकुर्वणा करता है । उसकी लम्बाई चौड़ाई एक लाख योजन और परिधि तीन लाख ( तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल ) यावत् होती है । उस चक्र के आकार वाले स्थान के ऊपर बराबर बहुसम रमणीय भूमिभाग होता है ( वर्णन ) यावत् वह 'मनोज्ञ स्पर्शवाला होता है'कहना चाहिये । उस चक्राकार स्थान के ठीक मध्य भाग में एक महान् प्रासादाai ( प्रासादों में भूषण रूप सुन्दर भवन अर्थात् सभी भवनों में श्रेष्ठ भवन ) की विकुर्वणा करता है। वह ऊँचाई में पांच सौ योजन होता है। उसका विष्कम्भ (विस्तार) ढ़ाई सौ योजन होता है । वह प्रासाद अभ्युद्गत ( अत्यन्त ऊँचा ) और प्रभा के पुञ्ज से व्याप्त होने से मानो हँसता हुआ होता है, इत्यादि प्रासाद वर्णन जानना चाहिये, यावत् वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है । उस प्रासादावतंसक का ऊपरी भाग, पद्म और लताओं के चित्रण से विचित्र यावत् दर्शनीय होता है । उस प्रासादावतंसक के भीतर का भाग सम और रमणीय होता है, यावत् 'वहाँ मणियों का स्पर्श होता है' - तक जानना चाहिये । वहाँ आठ योजन ऊंची एक मणि-पीठिका होती है, जो वैमानिकों की मणिपीठिका के समान होती है । उस के ऊपर एक महान् देवशय्या की विकुर्वणा करता है। उस देवशय्या का वर्णन यावत् 'प्रतिरूप' तक कहना चाहिये । वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपने-अपने परिवार सहित आठ अग्रमहिषियों के साथ गन्धर्वानीक और नाटयानीक-इन दो प्रकार की अनीकाओं के साथ जोर से आहत ( बजाये हुए) नाट्य गीत और वादित्र के शब्दों द्वारा यावत् भोगने योग्य दिव्य भोगों को भोगता है । For Personal & Private Use Only २३२३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२४ भगवती मूत्र-ग. १४ उ. ६ देवेन्द्र के लोग ४ प्रश्न-जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्वाइं० ? ४ उत्तर-जहा सक्के तहा ईसाणे वि गिरवसेसं, एवं सणंकुमारे वि, णवरं पासायवडेंसओ छ जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, तिण्णि जोयणसयाइं विक्खंभेणं, मणिपेढिया तहेव अट्ठजोयणिया। तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगं सीहासणं विउव्वइ सपरिवारं भाणियव्वं । तत्थ णं सणंकुमारे देविंदे देवराया वावत्तरीए सामा णियसाहस्सीहिं जाव चरहिं वावत्तरीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि य वहूहिं सर्णकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिबुडे महया० जाव विहरइ । एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अच्चुओ, णवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियव्यो, पासायउच्चत्तं जं सपसु सएमु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्वधं वित्थारो, जाव अच्चुयस्स णवजोयणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धपंचमाइं जोयणसयाइं विक्खंभेणं, तत्थ णं गोयमा ! अच्चुए देविंदे देवराया दसहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ, सेसं तं चेव । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॐ ॥ चोदसमसए छटुओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब देवन्द्र देवराज ईशान, दिव्य भोग भोगने की इच्छा करता है, तब वह किस प्रकार भोगता है ? For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवती सूत्र - . १४ . ६ देवेन्द्र के भोग ४ उत्तर- जिस प्रकार शक के लिये कहा है, उसी प्रकार ईशान और सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है । मणिपीठिका भी उसी प्रकार साठ योजन की है उसके ऊपर एक महान् सिंहासन, अपने परिवार के योग्य आसनों सहित विकुर्वता है, इत्यादि कहना चाहिये । वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख ८८ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत से देव और देवियों के साथ प्रवृत्त हो कर महान् गोत और वादित्र शब्दों के साथ यावत् भोग भोगता है । सनत्कुमार के समान यावत् प्राणत तथा अच्युत देवलोक तक कहना चाहिये । विशेषता में जिसका जितना परिवार हो उतना कहना चाहिये । अपने-अपने विमानों की ऊँचाई के बराबर प्रासाद को ऊँचाई और उससे आधा विस्तार कहना चाहिये । यावत् अच्युत देवलोक का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है । उसमें हे गौतम ! देवेन्द्र देव-राज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् भोग भोगता है । शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - यहाँ शक्रेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र के भोग भोगने की पद्धति का निरूपण किया गया है । सनत्कुमारेन्द्र मात्र सिंहासन की विकुर्वणा करता है, परन्तु शक्र और ईशान की तरह देव शय्या की विकुर्वणा नहीं करता। क्योंकि वह स्पर्शमात्र से विषयोपभोग करता है । इसलिये उनको शय्या का प्रयोजन नहीं है । सनत्कुमारेन्द्र का परिवार ऊपर बतला दिया गया है । माहेन्द्र के सित्तर हजार सामानिक देव और दो लाख अस्सी हजार आत्मरक्षक देव होते हैं । ब्रह्मलोकेन्द्र के साठ हजार, लांतक के पचास हजार, शुक्र के चालीस हजार, सहस्रार के तीस हजार, आनत-प्राणत के वीस हजार और आरण - अच्युत के दस हजार सामानिक देव होते हैं । इनसे चार गुणा आत्मरक्षक देव होते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के विमान ६०० योजन ऊँचे हैं । इसलिये उनके प्रासादों की ऊंचाई भी छह सौ योजन होती है । ब्रह्म और लांतक में सात सौ योजन शुक्र For Personal & Private Use Only २३२५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. १४ उ भगवान् और गौतम का भवान्तरीय संबंध और सहस्रार में ८०० योजन, आनत और प्राणत, आरण और अच्युत में प्रासाद नौ मो योजन ऊँचे होते हैं और उसका विस्तार साढ़े चार सौ योजन होता है। अच्युत देवलोक में अच्युतेन्द्र दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् विचरता है। यहां इतनी विशेषता है। कि सनत्कुमार आदि इन्द्र, सामानिकादि देवों के परिवार सहित चक्र के आकार वाले स्थान में जाते हैं । क्योंकि उनके समक्ष स्पर्श आदि विषयों का उपभोग करना अविरुद्ध है । शन्द्र और ईशानेन्द्र वहां परिवार सहित नहीं जाते । क्योंकि वे काय-मेवी होने से उनके समक्ष परिचारणा (काया द्वारा विषयोपभोग सेवन ) करना लज्जनीय और अनुचित है । || चौदहवें शतक का छट्टा उद्देशक सम्पूर्ण || २३२६ शतक १४ उद्देशक ७ भगवान् और गौतम का भवान्तरीय संबंध १ - राग जाव परिसा पडिगया । गोयमाई ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतित्ता एवं वयासी - 'चिर संसिडोसि मे गोयमा ! चिरसंधुओसि मे गोयमा ! चिरपरिचिओसि मे गोयमा ! चिरजुसिओसि मे गोयमा ! चिराणुगओसि मे गोयमा ! चिराणुबत्तीस मे गोयमा ! अनंतरं देवलोए अनंतरं माणुस्सए भवे, किं परं ? मरणा कायस्त भैया, इओ चुया दो वि तुल्ला एगट्ठा अवि For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १४ उ ७ भगवान् गौतम का भवांतरीय संबंध सेसमणाणत्ता भविसामो । २ प्रश्न - जह णं भंते ! वयं एयमहं जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववाइया वि देवा एयम जाणंति पासंति ? २ उत्तर - हंता गोयमा ! जहा णं वयं एयमहं जाणामो, पासामो तहा अणुत्तरोववाइया वि देवा एयमहं जाणंति पासंति । प्रश्न-से केणट्टेणं जाव पासंति ? २३०३ उत्तर - गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अनंताओ मणोदव्ववग्गणाओ लद्वाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति से तेणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव पासंति । कठिन शब्दार्थ - आमंतेत्ता - आमंत्रित ( बुला ) कर । भावार्थ- १ - राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने -'हे गौतम !' इस प्रकार भगवान् गौतम को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा - " हे गौतम! तू मेरे साथ चिरसंश्लिष्ट है ( मेरे साथ चिरकाल से स्नेह से बद्ध है) हे गौतम ! तू मेरे साथ चिरसंस्तुत है ( लम्बे काल के स्नेह से तूने मेरी प्रशंसा की है) हे गौतम ! तू मेरे साथ चिर परिचित है ( तेरा मेरे साथ लम्बे समय से परिचय रहा है) हे गौतम! तू मेरे साथ चिर सेवित या चिर प्रीत है ( तूने लम्बे काल से मेरी सेवा की है अथवा मेरे साथ प्रीति रखी है) हे गौतम ! तू मेरे साथ चिरानुगत है ( चिरकाल से तूने मेरा अनुसरण किया है) हे गौतम! तू मेरे साथ चिरानुबृत्ति है ( तेरा मेरे साथ चिरकाल से अनुकूल वर्ताव रहा है) हे गौतम ! इससे ( पूर्व के) अनन्तर देव भव में और उससे अनन्तर मनुष्य-भव में तेरा मेरे साथ संबंध था। अधिक क्या कहा जाय, इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छूट For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२८ भगवती सूत्र - १४ उ ७ भगवान् और गौतम का भवान्तरीय सम्बन्ध जाने पर अपन दोनों तुल्य (एक सरीखे ) और एकार्थ ( एक प्रयोजन वाले अथवा एक सिद्धि क्षेत्र में रहने वाले ) विशेषता रहित और किसी प्रकार के भेदभाव रहित हो जावेंगे । २ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस प्रकार अपन दोनों इस पूर्वोक्त अर्थ को जानते-देखते हैं, तो क्या अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को इसी प्रकार जानते-देखते हैं ? २ उत्तर - हाँ गौतम ! जिस प्रकार अपन दोनों पूर्वोक्त बात को जानतेदेखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस बात को जानते देखते हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार अपन दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी जानतेदेखते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अवधिज्ञान की लब्धि से मनोद्रव्य की अनन्त वर्गणाएं ज्ञेय रूप से उपलब्ध है, प्राप्त है, अभिसमन्वागत हुई है । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि यावत् अनुत्तरोपपातिक देव जानते देखते हैं । विवेचन - केवलज्ञान की प्राप्ति न होने से खिन्न बने हुए गौतम स्वामी को आश्वासन देने के लिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, गौतम स्वामी के साथ अपना चिरकाल का परिचय बताते हुए कहते हैं कि हे गौतम ! तू खिन्न मत हो । इम शरीर के छूटने पर अपन दोनों एक समान सिद्ध हो जायेंगे । भगवान् के कथन से आश्वासन प्राप्त कर गौतम स्वामी ने दूसरा प्रदन किया कि जायेंगे। यह बात आप तो केवल हे भगवन् ! भविष्य काल में अपन दोनों तुल्य हो ज्ञान से जानते हैं और में आपके कथन मे जानता हूं, किन्तु क्या अनुत्तरोपपातिक देव भी यह बात जानते-देखते हैं ? - यह इस प्रश्न का आशय है । भगवान् ने कहा कि अनुत्तरोपपातिक देव विशिष्ट अवधिज्ञान के द्वारा मनोद्रव्य वर्गणा को जानते-देखते हैं । अयोगी अवस्था में अपन दोनों का निर्वाण गमन का निश्चय करते हैं। इस अपेक्षा से For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ७ द्रव्यादि की तुल्यता यह कहा जाता है कि वे अपन दोनों की भावी तुल्य अवस्था रूप अर्थ को जानते और देखते हैं। द्रव्यादि की तुल्यता ३ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! तुल्लए पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा ! छव्विहे तुल्लए पण्णत्ते, तं जहा-१ दब्ब. तुल्लए २ खेततुल्लए ३ कालतुल्लए ४ भवतुल्लए ५ भावतुल्लए ६ संठाणतुल्लए । ४ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'दव्वतुल्लए' २ ? ४ उत्तर-गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दवओ णो लुल्ले, दुपएसिए खधे दुपएसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुल्ले, एवं जाव दसपएसिए, तुल्लसंखेजपएसिए खंधे तुल्लसंखेजपएसियस्स बंधस्स दव्वओ तुल्ले, तुल्लसंखेजपएसिए खंधे तुल्लसंखेजपएसियवइ. रित्तस्स खंधस्स दबओ णो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेजपएसिए वि एवं तुल्लअणंतपएसिए वि, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ'दवतुल्लए' २। For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܐܐ ܕ भगवती सूत्र - १३ द्रव्यादि की तुल्यता कठिन शब्दार्थ-तुल्लए (मान)। भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! तुल्य छह प्रकार के कहे गये हैं। यथा-१ द्रव्य तुल्य २ क्षेत्र तुल्य ३ काल तुल्य ४ भव तुल्य ५ भाव तुल्य और ६ संस्थान तुल्य । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्य तुल्य, 'द्रव्य तुल्य' क्यों कहलाता है ? ४ उत्तर - हे गौतम! एक परमाणु-पुद्गल, दूसरे परमाणु- पुद्गल के साथ द्रव्य से तुल्य है, किन्तु परमाणु- पुद्गल से व्यतिरिक्त (भिन्न ) दूसरे पदार्थों के साथ परमाणु- पुद्गल द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध के साथ द्रव्य से तुल्य है, किन्तु द्विप्रदेशिक स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दस प्रदेशिक स्कन्ध तक कहना चाहिये । एक तुल्य संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे तुल्य संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध के साथ तुल्य है, परन्तु तुल्य संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ तुल्य संख्यात प्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार तुल्य असंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध और तुल्य अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिये। इस कारण से है गौतम ! द्रव्य तुल्य कहलाता है । - ५ प्रश्न - से केणणं भंते! एवं बुचड़ - 'खेत्ततुल्लए' खेत्ततुल्लए? ५ उत्तर - गोयमा ! एगपए सोगाडे पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले, एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसो गाढव - रित्तस्स पोग्गलस्म खेत्तओ णो तुल्ले, एवं जाव दसपएसोगाढे, तुल्लसंखेजपए सोगाढे तुल्लसंखेज ०, एवं तुल्लअसंखेज्जपएसो गाढे वि से तेणणं जाव 'खेत्ततुल्लए' खेत्ततुल्लए । For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-7 १४ द्रव्यादि की नल्यता भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षेत्र तुल्य, क्षेत्र तुल्य' क्यों कहलाता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल (आकाश के एक प्रदेश पर रहा हुआ पुद्गल) दूसरे एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल के साथ क्षेत्र से तुल्य कहलाता है । परन्तु एक प्रदेशावगाढ़ व्यतिरिक्त पुद्गल के साथ, एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल क्षेत्र से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दस प्रदेशावगाढ़ पुद्गल का भी कहना चाहिये । तथा एक तुल्य संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल, अन्य तुल्य संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल के साथ तुल्य होता है । इसी प्रकार तुल्य असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिये । इस कारण हे गौतम ! क्षेत्र तुल्य, 'क्षेत्र तुल्य' कहलाता है । प्रश्न-मे केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-कालतुल्लएकालतुल्लए ? ६ उत्तर-गोयमा ! एगसमयठिईए पोग्गले एगसमयटिईयस्स य पोग्गलस्म कालओ तुल्ले, एगसमयटिईए पोग्गले एगसमयठिईयवइरित्तस्म पोग्गलम्म कालओ णो तुल्ले, एवं जाव दससमयठिईए, तुल्लसंखेनसमयठिईए एवं चेव, एवं तुल्लअमं वेज समयटिईए वि, से तेणट्टेणं जाव 'कालतुल्लए कालतुल्लए । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! काल तुल्य, 'काल तुल्य' क्यों कहलाता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! एक समय की स्थिति वाला पुद्गल, अन्य एक समय की स्थिति वाले पुद्गल के साथ काल से तुल्य है, किन्तु एक समय की स्थिति वाले पुद्गल के अतिरिक्त दूसरे पुद्गलों के साथ, एक समय की स्थिति वाला पुद्गल काल से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् तुल्य दस समय की स्थिति वाला पुद्गल, तुल्य संख्यात समय की स्थिति वाला पुद्गल और इसी प्रकार तुल्य असंख्यात समय की स्थिति वाला पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिये । इस For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १: उ. ७ द्रव्यादि की तुल्यता कारण हे गौतम ! काल तुल्य, 'काल तुल्य' कहलाता है । ७ प्रश्न-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-'भवतुल्लए' भवतुल्लए ? ७ उत्तर-गोयमा ! णेरइए णेरइयस्म भवट्टयाए तुल्ले, णेरइयवहरित्तस्स भवट्ठयाए णो तुल्ले, तिरिक्खजोणिए एवं चेव, एवं मणुस्से, एवं देवे वि, से तेणटेणं जाव ‘भवतुल्लए' भवतुल्लए । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! भव तुल्य 'भव तुल्य' क्यों कहलाता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव, अन्य नरयिक जीव के साथ भव तुल्य है, किन्तु नरयिक जीवों के अतिरिक्त तिर्यंचादि दूसरे जीवों के साथ नैरयिक जीव, भव तुल्य नहीं हैं। इसी प्रकार तिर्यचयोनिक, मनुष्प और देव के विय में भी कहना चाहिये । इस कारण हे गौतम ! भव तुल्य, 'भव तुल्य' कहलाता है। ८८ प्रश्न-मे केणट्टेणं भंते ! एवं बुचइ-'भावतुल्लए' भावतुल्लए ? ८ उत्तर-गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगवइरित्तस्स पोग्गलम्स भावओ णो तुल्ले, एवं जाव दसगुणकालए, एवं तुल्लसंखेनगुणकालए पोग्गले, एवं तुल्लअसंखेजगुणकालए वि, एवं तुल्लअणंतगुणकालए वि, जहा कालए एवं णीलए लोहियए हालिदे सुक्किल्लए एवं सुन्भिगंधे एवं दुब्भिगंधे एवं तित्ते जाव महुरे, एवं कक्खडे जाव लुक्खे, उदइए भावे उदझ्यस्स For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग १४ उ. ; द्रव्यादि की तुल्यता भावस्म भावओ तुल्ले, उदइए भावे उदइयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ णो तुल्ले, एवं उपसमिए खड़ए खओवसमिए पारिणा. मिए, सण्णिवाइए भावे मण्णिवाइयस्स भावम्स, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'भावतुल्लए भावतुल्लए । कठिन शब्दार्थ-कक्खडे-कर्कग । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! भावतुल्य, 'भावतुल्य' क्यों कहलाता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! एक गुण काला वर्ण वाला पुद्गल, अन्य एक गुण काला वर्ण वाले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है । परन्तु एक गुण काला वर्ण के सिवाय दूसरे पुद्गलों के साथ एक गुण काला वर्ण वाला पुद्गल, भाव से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दस गुण काला पुद्गल, तुल्य संख्यात गुण काला पुद्गल, इसी प्रकार तुल्य असंख्यात गुण काला पुद्गल और इसी प्रकार तुल्य अनन्त गुण काला पुद्गल भी कहना चाहिये । जिस प्रकार काला वर्ण कहा, उसी प्रकार नीला, लाल, पीला और श्वेत वर्ण के विषय में भी कहना चाहिये। इसी प्रकार सुरभिगन्ध और दुरभि-गन्ध, इसी प्रकार तिक्त यावत् मधुर रस और इसी प्रकार कर्कश यावत् रूक्ष पुद्गल तक कहना चाहिये । औदयिक भाव, औरयिक भाव के साथ तुल्य है, परन्तु औदयिक भाव के सिवाय दूसरे भावों के साथ तुल्य नहीं है । इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के विषय में भी कहना चाहिये । सान्निपातिक भाव, सान्निपातिक भाव के साथ तुल्य है । इस कारण हे गौतम ! भाव तुल्य, 'भाव तुल्य' कहलाता है। ९ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'संठाणतुल्लए' संठाणतुल्लए ? ___ ९ उत्तर-गोयमा ! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणरस For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मुत्र- १४ उ. , द्रव्यादि की तुल्यता संठाणओ तुल्ले, परिमण्डलसंठाणे परिमंडलमंठाणवइरित्तम्म मंठाणओ णो तुल्ले, एवं वट्टे तंप्ते चउरंसे आयए, समचउरंसमंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरंससंठाणवइ. रित्तस्स संठाणस्स संठाणओ णो तुल्ले, एवं जाव परिमंडले वि, एवं जाव हुंडे, से तेणटेणं जाव 'संठाणतुल्लए' संठाणतुल्लए । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान तुल्य, 'संस्थान तुल्य' क्यों कहलाता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! परिमण्डल संस्थान, अन्य परिमण्डल संस्थान के साथ संस्थान तुल्य है, किन्तु दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान तुल्य नहीं है । इसी प्रकार वृत्त संस्थान, व्यस्त्र संस्थान, चतुरस्र संस्थान और आयत संस्थान के विषय में भी कहना चाहिये। एक समचतुरस्र संस्थान, अन्य समचतुरस्र संस्थान के साथ संस्थान तुल्य है, परन्तु समचतुरस्त्र के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान तुल्य नहीं है । इसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल यावत् हुण्डक संस्थान तक कहना चाहिये । इस कारण हे गौतम ! संस्थान तुल्य, 'संस्थान तुल्य' कहलाता है। विवेचन-कर्मों का उदय अथवा कर्मों के उदय में होने वाला जीव का परिणाम 'औदयिक भाव' कहलाता है । उदय प्राप्त कर्म का क्षय और उदय में नहीं आये हुए कर्म को अमुक काल तक रोकना 'औपशमिक भाव' है। अथवा कर्मों के उपशम से होने वाला जीव का परिणाम औपशमिक भाव' कहलाता हैं । कर्मों का क्षय अथवा कर्मों के क्षय से होने वाला जीव का परिणाम क्षायिक भाव' कहलाता है । उदय प्राप्त कर्म के नाश के साथ विपाकोदय को रोकना 'क्षायोपगमिक भाव' कहलाता है । अथवा कर्मो के क्षय तथा उपशम से होने वाला जीव का परिणाम 'क्षायोपमिक भाव' कहलाता है। क्षायोपशमिक भाव में विपाक वेदन नहीं होता, परन्तु प्रदेश वेदन होता है । औपथमिक भाव में विपाक-वेदन और प्रदेश-वेदन दोनों नहीं होते । क्षायोपशमिक.भाव और औपशमिक भाव में यही अन्तर है । जीव का अनादि काल में जो स्वाभाविक परिणाम है, वह पारि For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-दा. १४ उ. ७ द्रव्यादि की तुल्यता णामिक भाव' कहलाता है । औदयिक आदि दो-तीन भावों के संयोग में उत्पन्न होने वाला 'मानिपातिक भाद' कहलाता है । __आकार विशेष को 'मम्यान' कहते हैं। इसके दो भेद हैं । जीव संस्थान और अजीव मम्थान । अजीव संस्थान के पांच भेद हैं। यथा-(१) परिमण्डल-चूड़ी के समान बाहर से गोल और बीच में पोला होता है । इसके दो भेद हैं-घन और प्रतर । (२)वृत्तकुम्हार के चाक के समान बाहर से गाल और भीतर मे पोलान रहित होता है । इसके भी दो भेद है-घन और प्रतर । इन प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं। समसंख्या वाले प्रदेश युक्त और विषम संख्या वाले प्रदेश युक्त । (३) त्र्यम्र-त्रिकोण आकार वाला होता है । (४) चतुरस्र-चार कोनों वाला होता है। (५) आयत-दण्ड की तरह लम्बा होता है। तीन भेद हैं-श्रेण्यायत, प्रन गयन और घनायन । इनके प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं। समसंख्या वाले प्रदेश युक्त और विपम मख्या वाले प्रदेश युक्त । यह पांच प्रकार का संस्थानविस्रमा और प्रयोगमा होता है। ___ मम्थान नामकर्म के उदय से जीवों का जो आकार विशेष होता है, उसे 'जीव संस्थान' कहते है । इसके समचतुरस्र आदि छह भेद होते हैं । यथा-(१) समचतुरस्र-सम का अर्थ है-ममान, वन का अर्थ है-चार और 'अत्र' का अर्थ है-कोण । पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों घटनों का अन्तर. बाएं कन्धे और दाहिने घुटने का अन्तर तथा दाहिने कन्धे और बाएं घुटने का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। अथवा-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले हों, उसे 'समचतुरस्र संस्थान' कहते हैं । (२) न्यग्रोधपरिमण्डल-वट वृक्ष को 'न्यग्रोध' कहते हैं । जैसे वट वृक्ष ऊपर के भाग में फैला हुआ होता है और नीचे के भाग में संकुचित होता हैं, उसी प्रकार जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तार वाला अर्थात् सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए प्रमाण वाला हो और नीचे का भाग हीन अवयव वाला हो, उसे 'न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान' कहते हैं। • यद्यपि टीका में ममचतुरम सम्थान के उपरोक्त दोनों अर्थ मिलते हैं, किंतु पहला अर्थ गाय, भंस, सपं आदि तियंञ्चों में घटित नहीं हो सकता, जब कि समचतुरस्र संस्थान तियंञ्चों में भी पाया जाता है। इमलिए, 'समचतुरस्र 'संस्थान का जो दूसरा अर्थ दिया है, वह ठीक है। वह मनुष्य, तिर्यञ्च आदि सब में पटित हो सकता है। For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३६ भगवती सूत्र - श. १४ उ ७ आहारादि में मूच्छित अमूच्छित अनगार के नीचे का भाग । हीन हो, उसे 'सादि (३) सादि संस्थान - यहाँ 'मादि' शब्द का अर्थ है- नाभि जिस संस्थान में नाभि के नीचे का भाग पूर्ण हो और ऊपर का भाग संस्थान' कहते हैं । "कहीं-कहीं मादि संस्थान के स्थान पर 'माची संस्थान भी मिलता है । माची 'सेमल' ( शाल्मली ) वृक्ष को कहते हैं । 'शाल्मली' वृक्ष का धड़ जैसा पुष्ट होता है, वैसा ऊपर का भाग नहीं होता। इसी प्रकार जिस शरीर में नाभि के नीचे का भाग परिपूर्ण होता है और ऊपर का भाग हीन होता है, वह साची संस्थान है । (४) कुब्ज संस्थान - जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर गर्दन, आदि अवयव ठीक हों, परन्तु छाती, पेट और पीठ आदि टेढ़े मेढ़े हों, उसे 'कुब्ज संस्थान' कहते हैं । ( ५ ) वामन संस्थान - जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट आदि अवयव पूर्ण हों, परन्तु हाथ, पैर आदि अवयव छोटे हों, उसे 'वामन संस्थान' कहते हैं । कहीं-कहीं कुब्ज संस्थान और वामन संस्थान के उपरोक्त लक्षण ही व्यत्यय ( उलटे ) करके दिये हैं । (६) हुण्डक संस्थान - जिस शरीर में समस्त अवयव बेढब हों, अर्थात् एक भी अवयव सामुद्रिक शास्त्र प्रमाण के अनुसार न हो, उसे 'हुण्डक संस्थान' कहते हैं । ऊपर अजीव के परिमण्डल, वृत्त आदि पाँच संस्थान बतलाये गये हैं । इनके अतिरिक्त एक छठा संस्थान और भी है। उसका नाम है -अनित्यस्थ । विचित्र अथवा अनियत आकार - जो परिमण्डलादि से बिल्कुल विलक्षण हो, उसे 'अनित्थंस्थ' संस्थान कहते हैं । वनस्पतिकाय और पुद्गलों में अनियत आकार होने से वे 'अनित्थंस्थ' संस्थान वाले हैं। किसी प्रकार का आकार न होने से सिद्ध जीव भी 'अनित्थंस्थ' संस्थान वाले कहलाते हैं । आहारादि में मूर्च्छित-अमूर्च्छित अनगार १० प्रश्न - भत्तपञ्चक्खायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव अज्झोववणे आहारमाहारेड़, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणज्झोववण्णे आहारमाहारेड ? For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श १४ उ. ७ आहागदि में मिन-अमूच्छिन अगार :३४ - १० उत्तर-हंता गोयमा ! भत्तपञ्चकवायए णं अणगारे तं चैव । प्रश्न-मे केणट्टेणं भंते ! एवं बुचड़-भत्तपञ्चकवायए णं तं चेव ? ___ उत्तर-गोयमा ! भत्तपञ्चकवायए णं अणगार मुच्छिए जाव अन्झोववण्णे आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए जाव आहारे भवइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव आहारमाहारेड । कठिन शब्दार्थ-मुच्छिए-मन्छिन, वीससाए-म्वाभाविक रूप से । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान (आहार का त्याग) करने वाला अनगार, मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है और इसके बाद स्वाभाविक रूप से काल करता है ? इसके बाद अमूच्छित अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार, पूर्वोक्त रूप से. आहार करता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार, प्रथम मच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार करता है । इसके बाद स्वाभाविक रूप से काल करता है। इसके बाद यावत् आहार के विषय में अमूच्छिता राग रहित) होकर आहार करता है । इसलिये हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अन्गार पूर्वोक्त रूप से यावत् आहार करता है । विवेचन-भक्त-प्रत्याख्यान करने वाले किसी अनगार की ऐसी स्थिति बनती है । इसलिये उसका यहाँ निर्देश किया गया है । पहले तीव्र क्षुधा-वेदनीय कर्म के उदय से वह For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३८ ग. १४ उ. ७ लव-सप्तम देव आहार में गद्ध होता है, पीछे मारणान्तिक समुद्घात करता है । उससे निवृत्त होने के बाद परिणामों में प्रशान्तता आ जाती है । इमलिये वह आहार में मूर्छा और गद्धि रहित बन जाता है। टीकाकार ने तो उपयुक्त Fप मे अर्थ मंगति की है । धारणा के अनमार इसकी अर्थ-संगति इस प्रकार है कि संथारा करके काल करने वाला अनगार, जब काल करके देवलोक में उत्पन्न होता है, तब उत्पन्न होते ही वह पहले आमक्ति और गृद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करता है, फिर पीछे वह आसक्ति और गृद्धि रहित होकर आहार करता है। लव-सप्तम देव ११ प्रश्न-अत्यि णं भंते ! लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा ? ११ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-' लवसत्तमा देवा,' लवसत्तमा देवा ? ___उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जाव णिउणसिप्पोवगए सालीण वा, वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, जवजवाण वा, पक्काणं, परियाताणं, हरियाणं, हरियकंडाणं तिखेणं णवपजणएणं असिअएणं पडिसाहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविया पडिसंखिविया जाव इणामेव इणामेव त्ति कटु सत्त लवए लुएजा, जइ णं गोयमा ! तेसिं देवाणं एवइयं कालं आउए पहुप्पए तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिझंता जाव अंतं करेंता, मे तेणटेणं जाव 'लवसत्तमा देवा,' लवसत्तमा देवा ? For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १४ उ. ७ लव-सप्तम देव १२ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! 'अणुत्तरोववाइया देवा' २ ? १२ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-मे केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'अणुत्तरोववाइया देवा' ? उत्तर-गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं अणुत्तरा सद्दा, जाव अणुत्तरा फासा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव 'अणुत्तरोववाइया देवा' २।। ___ १३ प्रश्न-अणुतरोववाइया णं भंते ! देवा णं केवइएणं कम्मावसे. मेणं अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववण्णा ? ____ १३ उत्तर-गोयमा ! जावइयं छटुभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेइ एवइएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइया देवा देवत्ताए उपवण्णा । * मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति - ॥ चोदसमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-वोहीण-ब्रीहि (जौ), पहुप्पए-अधिक प्राप्त होता। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! 'लवसत्तम' देव हैं ? ११ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! उन्हें 'लवसत्तम देव' क्यों कहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई युवक पुरुष यावत् जो शिल्पकला का ज्ञाता हो, निपुण हो, वह पके हुए, काटने योग्य, पीले पड़े हुए और पीलीनाल (डण्डी) वाले शाली, बीहि, गेहूँ, जौ और जवजव (एक प्रकार का धान्य विशेष) को हाथ से For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४० भगवती सूत्र-श. १४ उ. ७ लव-मप्तम देव इकट्ठा करके मुट्ठी में पकड़ कर ये काटे'-इस प्रकार शीघ्रतापूर्वक, नवीन धार चढ़ाई हुई तीक्ष्ण दरांती से सात लव (कलिया) को जितने समय में काट लेता है, हे गौतम ! यदि उन देवों का इतना (सात लव काटे जितना) समय (पूर्वभव को) आयुष्य अधिक होता, तो वे उसी भव में सिद्ध हो जाते, यावत् सभी दुःखों का अन्त कर देते। इस कारण हे गौतम ! उन देवों को 'लवसप्तम' कहते हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! 'अनुत्तरौपपातिक' देव है ? १२ उत्तर-हां, गौतम ! है। प्रश्न-हे भगवन् ! वे 'अनुत्तरौपपातिक' देव क्यों कहलाते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देवों को अनुलर शब्द यावत् अनुत्तर स्पर्श प्राप्त हैं, इस कारण हे गौतम ! उनको यावत् अनुत्तरोपपातिक देव कहते हैं। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! कितना कर्म शेष रहने पर वे जीव, अनुत्तरोपपातिक देवपने उत्पन्न हुए हैं ? १३ उत्तर-हे नौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थ, षष्ठभक्त (बेला) द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा करते हैं, उतने कर्म शेष रहने पर साधु, अनुत्तरौपपातिकपने उत्पन्न हुए हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-शाली आदि धान्य का एक कवलिया काटने में जितना समय लगता है, उसे 'लव' कहते हैं । ऐसे सात लव सरिमाण आयप्य कम होने से वे विशुद्ध अध्यवसाय वाले मनुष्य मोक्ष में नहीं जा सके, किन्तु सर्वार्थमिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। वे लवसप्तम देव कहलाते हैं । और विजयादि विमानों में ३३ सागरोपम की स्थिति वाले एक भवावतारी देव भी लवसप्तम कहलाते है । कहा भी है:-- गाथा-सव्वट्ठ सिद्धगदेवा विजयाइसु उक्कोसठिइसु । एगावसेस गन्मा ते होंति लव सत्तमा देवा ।। ॥ चौदहवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४ उद्देशक पृथ्वियों और देवलोकों का अन्तर १ प्रश्न - इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाष पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए केवइयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ? १ उत्तर - गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साइं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । २ प्रश्न - सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वालुयप्पभाए य पुढवीए केवइयं ० ? २ उत्तर - एवं चैव, एवं जाव तमाए असत्तमाए य । ३ प्रश्न - अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए अलोगस्स य केवइयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ? ३ उत्तर - गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ - अबाहाए अंतरे - अबाधा (व्यवधान) से अन्तर । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी का कितना अबाधा - अन्तर कहा गया है ? १ उत्तर - हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा - अन्तर कहा गया है । २ प्रश्न - हे भगवन् ! शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा पृथ्वी का कितना अबाधा - अन्तर कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४२ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ८ पृथ्विय। आर देवलोकों का अन्तर २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, इसी प्रकार यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! अधःसप्तम पृथ्वी और अलोक का अबाधा-अन्तर कितना कहा गया है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य हजार योजन कहा गया है। ४ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोइसस्स य केवइयं०-पुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! सत्तणउए जोयणसए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । __ ५ प्रश्न-जोइसस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवइयं-पुच्छा। .५ उत्तर-गोयमा ! असंखेजाइं जोयण जाव अंतरे पण्णत्ते । १. ६ प्रश्न-सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणंकुमारमाहिंदाण य केवइयं०? ६ उत्तर-एवं चेव । ७ प्रश्न-सणंकुमारमाहिंदाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स य केवइयं०? ७ उत्तर-एवं चेव । ८ प्रश्न-चंभलोगस्स गं भंते ! लतगस्स य कप्परस केवइयं० ? For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १४ उ. ८ परिवयो और देवलोकों का अन्तर २३८ : ८ उत्तर-एवं चेव । ९ प्रश्न-लंतयस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स कंवइयं० ? ९ उत्तर-एवं चेव, एवं महासुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयकप्पाणं, एवं आणय-पाणयाण य कप्पाणं आरण-च्चुयाण य कप्पाणं, एवं आरण-च्चुयाणं गेविज. विमाणाण य, एवं गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य । ___भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और ज्योतिषी . देवों का अबाधान्तर कितना कहा गया ? ४ उत्तर-हे गौतम ! ७९० योजन का अबाधान्तर कहा गया । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषी देवों और सौधर्म-ईशान कल्पों का अबाधान्तर कितना कहा गया ? ५ उत्तर-हे गौतम ! असंख्यात योजन यावत् अवाधान्तर कहा गया। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों का अबाधान्तर कितना कहा गया ? .....६ उत्तर-इसी प्रकार जानना चाहिये । ७ प्रश्न-हे भगवन् ! सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प का अबाधान्तर कितना कहा गया ? ७ उत्तर-इसी प्रकार जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प का अबाधान्तर कितना है ? ८ उत्तर-इसी प्रकार जानना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! लान्तक और महाशुक्र कल्प' का अन्तर कितना है For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४॥ भगवता मूत्र-श. १४ उ. ८ पश्यिया और देवटाको का अन्तर ९ उत्तर-पूर्ववत् महाशुक्र और सहस्रार कल्प का अबाधान्तर भी इसी प्रकार जानना चाहिए और सहस्रार और आणत-प्राणत कल्पों का, आणत प्राणत कल्प और आरण-अच्युत कल्पों का, आरण-अच्युत और अवेयक विमानों का तथा ग्रेवेयक विमानों से अनुत्तर विमानों का अबाधान्तर भी पूर्ववत् जानना चाहिए। १० प्रश्न-अणुत्तरविमाणाणं भंते ! ईसिंपन्भाराए य पुढवीए .. केवइए-पुग्छ। १० उत्तर-गोयमा ! दुवालसजोयणे अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । ११ प्रश्न-ईमिपभाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगम्स य केवइए अवाहाए-पुच्छा। ११ उत्तर-गोयमा ! देसूणं जोयणं अवाहाए अंतर पण्णत्ते । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! अनुत्तर विमानों का और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का अबाधान्तर कितना कहा गया ? १० उत्तर-हे गौतम ! बारह योजन का अबाधान्तर कहा गया। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी और अलोक का अवाधान्तर कितना कहा गया ? ११ उत्तर-हे गौतम ! देशोन योजन (कुछ कम एक योजन) का अबाधान्तर कहा गया । विवेचन-यहाँ जो अन्तर बतलाया गया है, वह प्रमाणांगल से समझना चाहिये। ईपत्प्रागभारा पृथ्वी और अलोक के बीच में जो देशोन योजन का अन्तर बतलाया, वह उत्मेधांगल प्रमाण से समझना चाहिये । क्योंकि उम योजन के उपरितन कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना कही गई है, जो ३३३ धनुष और धनुप के विभाग प्रमाण है । यह अवगाहना उत्सेधांगुल योजन मानने से ही संगत हो सकती है । For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-का. १४ उ. ८ शाल वृक्षादि का परभव : २३४५ शाल वृक्षादि का परभव १२ प्रश्न-एम णं भंते ! सालसखे उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ? उत्तर-गोयमा ! इहेव रायगिहे णयरे सालरुखत्ताए पन्चायाहिति, मे णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूड़य-सक्कारिय-सम्माः णिए दिवे सच्चे मच्चोवाए सण्णिहियपाडिहरे, लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ । प्रश्न-से णं भंते ! तओहिंतो अणंतर उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववजिहिति ? उत्तर-गोयमा : महाविदेह वासे सिज्झिहिति, जाव अंत' काहिति। ___ १३ प्रश्न-एस णं भंते ! साललट्ठिया उण्हाभिहया तण्हा. भिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किचा जाव कहिं उववजिहिति ? . १३ उत्तर-गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले महेसरिए णयरीए सामलिरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति, सा णं तत्थ अचिय-वंदिय-पूइय० जाव लाउल्लोइयमहिए यावि For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४६ भविस्स | भगवती सूत्र - श. १४८ का परभव प्रश्न-से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उब्वद्वित्ता ? 2 उत्तर - सेसं जहा सालस्वस्त जाव अंतं काहिति । १४ प्रश्न - एस णं भंते ! उंबरलडिया उण्हाभिहया ३ कालमाने कालं किचा जाव कहिं उववजिहिति ? १४ उत्तर - गोयमा ! इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलि पुत्ते यरे पाडलिरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति । से णं तत्थ अच्चियवंद जाव भविस्म | प्रश्न- मे णं भंते ! अनंतरं उब्वद्वित्ता० ? उत्तर - सेस तं चैव जाव अंतं काहिति । कठिन शब्दार्थ - उण्हाभिहए - गर्मी में पीड़ित सच्चोवाए - सत्यावपात ( जिसकी सेवा करना मफल है ऐमा), लाउलोइयमहिए - लीप- पोत कर सत्कारित किया हुआ । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीड़ित, तृषा से व्याकुल, दावानल की ज्वाला से जला हुआ यह शाल वृक्ष, काल-मास में ( मरण के समय में ) काल करके कहां जायगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? १२ उत्तर - हे गौतम ! इसी राजगृह नगर में फिर शालवृक्षपने उत्पन्न होगा । वहाँ वह अचित, वन्दित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित और दिव्य (प्रधान) होगा । तथा वह सत्य, सत्यावपात, सन्निहितप्रातिहार्य (पूर्वभव सम्बन्धी देवों ने जिसका प्रतिहारपन्न - सामीप्य किया है) और जिसका पीठ ( चबूतरा ) लोपी हुई और पोती हुई तथा पूजनीय होगा । प्रश्न - हे भगवन् ! वह शालवृक्ष वहाँ से मरकर कहाँ जायगा और कहाँ उत्पन्न होगा ? For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १४ उ. ८ अम्बड़ परिव्राजक . उत्तर-हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीड़ित, तृषा से व्याकुल तथा दावानल को ज्वाला से जली हुई यह शाल-यष्टिका, काल-मास में काल करके कहां जाएगी, कहाँ उत्पन्न होगी ? । १३ उत्तर-हे गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विन्ध्याचल की तलहटी स्थित माहेश्वरी नगरी में शाल्मली वृक्ष रूप से उत्पन्न होगी । वहाँ वह अचित, वन्दित और पूजित होगी, यावत् उसका चबूतरा लीपा-पोता हुआ होगा । इस प्रकार वह पूजनीय होगी। प्रश्न-हे भगवन् ! वह काल करके कहां जाएगी, कहाँ उत्पन्न होगी? उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त शालवृक्ष के समान कहना चाहिये, यावत् वह सर्व दुःखों का अन्त करेगी। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीड़ित, तषा से व्याकुल और दावानल की ज्वाला से जली हुई यह उदुम्बर-यष्टिका (उम्बर वृक्ष की शाखा) काल करके कहां जाएगी, कहाँ उत्पन्न होगी ? १४ उत्तर-हे गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में पाटलीपुत्र नाम के नगर में पाटली वृक्षपने उत्पन्न होगी। वहाँ यह अचित, वन्दित यावत् पूजनीय होगी। प्रश्न-हे भगवन् ! वहाँ से काल कर, वह कहाँ जाएगी, कहाँ उत्पन्न होगी? उत्तर-पूर्वोक्त यावत् वह समस्त दुःखों का अन्त करेगी। विवेचन-उपर्युक्त शालादि वृक्षों में अनेक जीव होते हैं । तथापि प्रथम जीव की अपेक्षा ये तीन अम्बड़ परिव्राजक १५-तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०८ भगवती सूत्र-श १४ उ. ८ अम्बड़ परिवाजक सत्त अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि० एवं जहा उववाइए. जाव आराहगा। १६-बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्वइ, एवं खल अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए, एवं जहा उववाइए अम्मडस्स वत्तव्वया जाव दड्ढप्पइण्णो अंतं काहिति । कठिन शब्दार्थ-वत्तव्वया-वक्तव्यता, काहिति-करेंगे । भावार्थ-१५ उस काल उस समय अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य, ग्रीष्म-काल में विहार करते थे, इत्यादि औपपातिक सूत्रानुसार, यावत् 'वे आराधक हुए'-तक कहना चाहिये। १६-हे भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि , 'अम्बड़ परिव्राजक' कम्पिलपुर में सौ घरों में भोजन करता है, इत्यादि औप, पातिक सूत्र की अम्बड़ सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत् महद्धिक दृढ़प्रतिज्ञ होकर '. सभी दुःखों का अन्त करेगा। विवेचन-एक ममय-ग्रीष्म काल में अम्बड़ परिव्राजक के सात सो शिष्य, गंगा नदी के दोनों किनारों पर आए हए कम्पिलपूर नगर से पुग्मिताल नगर की ओर जा रहे थे। जब उन्होंने अटवी में प्रवेश किया, तब साथ में लिया हुआ पानी समाप्त हो गया। वे तृषा । से पीड़ित हुए । पास ही गंगा नदी में निर्मल जल बह रहा था, किंतु अदत्त ग्रहण न करने की उनकी प्रतिज्ञा थी। वे पानी लेने की आज्ञा देने वाले किसी पुरुष की खोज करने लगे। खोज करने पर भी उन्हें आजा देने वाला कोई पुरुष नहीं मिला। वे तृपा से अत्यन्त व्याकुल हुए । उनके प्राण संकट में पड़ गये । अन्त में अरिहन्त भगवान् को नमस्कार, करके उन सभी ने गंगा नदी के किनारे ही संथारा कर दिया और काल करके ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हए । वे सभी परलोक के आराधक हुए हैं। वैक्रिय-लब्धि के प्रभाव से लोगों को विस्मित करने के लिये अम्बड़ परिव्राजक सो घरों में रहता हुआ, मो घरों में भोजन करता है। For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र-स. १४ उ. ८ अव्यायाध देव-शक्ति अव्याबाध देव-शक्ति १७ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा ? १७ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुन्चइ-'अव्वावाहा देवा' २ ? उत्तर-गोयमा ! पभू णं एगमेगे अब्बावाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अन्छिपत्तंसि दिव्वं देविडिट दिव्वं देवज्जुई दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं वत्तीसइविहं पट्टविहिं उवदंमेत्तए, णो चेव णं तस्स पुरिसम्स किंचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ, एमुहुमं च णं उवदंसेज्जा, से तेणटेणं जाव 'अव्वाबाहा देवा' २ । १८ प्रश्न-पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं पाणिणा असिणा छिंदिता कमंडलुमि पक्खिवित्तए ? १८ उत्तर-हंता पभृ । प्रश्न-से कहमियाणिं पकरेइ ? उत्तर-गोयमा ! छिंदिया छिंदिया च णं पक्खिवेज्जा भिंदिया भिंदिया च णं पक्खिज्सेजा, कोट्टिया कोट्टिया व णं पक्खिवेज्जा, चुणिया चुणिया च णं पक्खिवेजा, तओ पच्छा खिप्पामेव पडि मंघाएज्जा, णो चेव णं तस्स पुरिसस्म किंचि आवाहं वा वाबाहं For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १४ उ ८ अव्याबाध देवशक्ति वा उप्पाराजा, छविच्छेदं पुण करेह, एसहमं च णं पक्खिवेज्जा । कठिन शब्दार्थ-छिदिया - छेदन करके, भिदिया-भेदन करके, चुणिया-चूर्ण करके, कोट्टिया - कूट कर, पाणिणा- हाथ से, असिणा - तलवार मे । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! अव्याबाध देव, अव्याबाध देव ( किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले ) कहे जाते हैं ? १७ उत्तर - हाँ गौतम ! कहे जाते 1 प्रश्न- हे भगवन् ! वे ' अव्याबाध देव ' क्यों कहलाते हैं ? उत्तर - हे गौतम ! प्रत्येक अव्याबाध देव, पुरुष के आँख की एक पलक पर दिव्य देवद्ध, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटक विधि बतलाने में समर्थ है। इससे वे उस पुरुष को स्वल्पमात्र भी दुःख नहीं होने देते और न उसके अवयव का छेदन करते हैं। इस प्रकार सूक्ष्मतापूर्वक नाटय-विधि बतला सकते हैं । इस कारण हे गौतम! वे 'अव्याबाध देव' कहलाते हैं । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ में ग्रहण की हुई तलवार से किसी पुरुष का मस्तक काट कर कमण्डलु में डालने में समर्थ है ? १८ उत्तर - हां गौतम ! समर्थ है । प्रश्न - हे भगवन् ! वह उस मस्तक को कमण्डलु में किस प्रकार डालता है ? उत्तर - हे गौतम! शत्र, उस पुरुष के मस्तक को छेदन (खण्ड-खण्ड ) करके, भेदन ( कपड़े की तरह चीर) कर, कूट कर (ऊखल में तिलों की तरह कूट कर ) चूर्ण कर (शिला पर लोढ़ी से गन्ध-द्रव्यादि पीसा जाता है, उसी प्रकार चूर्ण करके) कमण्डलु में डालता है । इसके बाद वह उस मस्तक के अवयवों को एकत्रित करता है और पुनः मस्तक बना देता है। इस प्रक्रिया में पुरुष के मस्तक का छेदन करते हुए भी उस पुरुष को किञ्चित् भी पीड़ा नहीं होने देता । इस प्रकार सूक्ष्मतापूर्वक क्रिया करके वह मस्तक को कमण्डलु में डालता है । For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ८ जृम्भक देवों के भेद और आवास ३५. . जम्भक देवों के भेद और आवास १९ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! जंभगा देवा २ ? १९ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंभगा देवा' २ ? उत्तर-गोयमा ! जंभगा णं देवा णिच्चं पमुइय-पक्कीलिया कंदप्परइमोहणीला, जेणं ते देवे कुद्धे पासेजा, से णं पुरिसे महंतं अयसं पाउणिज्जा, जे णं ते देवे तुट्टे पासेजा, से णं महंतं जसं पाउणेज्जा, से तेणटेणं गोयमा ! 'जंभगा देवा' । २० प्रश्न-कइविहा णं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ? २० उत्तर-गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा-१ अण्ण. जंभगा २ पाणजभगा ३ वत्थजंभगा ४ लेणजंभगा ५ सयणजभगा ६ पुष्फजंभगा ७ फलजंभगा ८ पुष्फफलजंभगा ९ विजाजंभगा १० अवियत्तजंभगा। २१ प्रश्न-जंभगा णं भंते ! देवा कहिं वसहि उति ? - २१ उत्तर-गोयमा ! सब्वेसु चेव दीहवेयड्ढेसु, चित्त-विचित्तजमग-पन्वएसु, कंचणपव्वएसु य, एत्थ णं जंभगा देवावसहि उर्वति। ... २२ प्रश्न-जंभगाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५२ भगवती सूत्र-श. १४. उ. , जम्भन देवों के भेद और आवाम २२ उत्तर-गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । 8 मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ ॥ चोदसमसए अट्टओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-पाउणेज्जा--प्राप्त करे। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जम्भक (स्वच्छन्दाचारी) देव हैं ? १९ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे जृम्भक देव क्यों कहलाते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! जम्भक देव, सदा प्रमोदी, अत्यन्त क्रीडाशील, कन्दर्प में रत और मैथुन सेवन के स्वभाव वाले होते हैं। जो पुरुष उन देवों को कुपित हुए देखता है, वह पुरुष महान् अपयश को प्राप्त करता है, तथा जो पुरुष उन देवों को तुष्ट (प्रसन्न) हुए देखता है, वह महायश को प्राप्त करता है । इस कारण हे गौतम ! वे 'जम्भक देव' कहलाते हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! जम्भक देव, कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! दस प्रकार के कहे गये हैं। यथा-१ अन्न जम्भक, २-पान जम्भक, ३ वस्त्र जम्भक, ४ लयन ज़म्भक, ५ शयन जम्भक, ६ पुष्प जम्भक, ७ फल जृम्भक, ८ पुष्पफल जम्भक, ९ विद्या जम्भक और १० अव्यक्त जम्भक। __ २१ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्भक देव कहां रहते हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! जम्भक देव, सभी दीर्घ (लम्बे) वैताढ्य पर्वतों में, चित्रविचित्र यमक और समक पर्वतों में तथा काञ्चन पर्वतों में रहते हैं ? . २२ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्भक देवों की स्थिति कितने काल को कही गई है? २२ उत्तर-हे गौतम! जम्भक देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। : For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ८ जागा देवों के भेद और आयाम २३५३ M विवेचन--जो दूसरों को पीड़ा नहीं पहुंचाते, उन्हें 'अव्यावाध देव' कहते हैं । लोकान्तिक दव नौ कहे हैं। यथा--, मारम्बत २ आदित्य : वन्हि ४ वरुण ५ गदंतोय ६ तृपित ५ अव्याबाध ८ आग्नेय ( अग्न्यर्चा) और ५ अरिष्ट (रिष्ठ) । इन नौ प्रकार के लोकान्तिक देवों में मे जो सातवां अव्यावाध भेद है, वे ही अव्यावाध देव कहलाते हैं। ये किमी प्रम्प के अवयव का छेदन करके भी उम कुछ भी पीड़ा नहीं होने देते । इस प्रकार की सूक्ष्मता पूर्वक य नाट्य विधि आदि बताते हैं । अपनी इच्छानुमार म्वतन्त्र प्रवृत्ति करने वाले एव निरन्तर क्रीड़ा में रत रहने वाले देव, 'जम्भक' कहलाते हैं। ये अति प्रसन्न चिन रहते हैं और मैथुन मेवन की प्रवृत्ति में आसक्त बने रहते हैं । ये तिच्छीलोक में रहते है। जिन मनुष्यों पर य प्रसन्न हो जाते हैं, उन्हें धन-सम्पत्ति आदि मे मखी कर देते हैं और जिन पर ये कुपित हो जाते हैं, उनको कई प्रकार से हानि पहुंचाने हैं। इनके दम भेद हैं । यथा-(१) अन्न जम्भक-भोजन के परिमाण को बढ़ा-घटा दने, उसे सरम या नौरस कर देने आदि की शक्ति वाले 'अन्नजम्भक' कहलाते हैं (२) पान जम्भक-पानी को घटा-बढ़ा देने वाले देव (३) वस्त्र जम्भक-वस्त्र को घटाने-बहाने आदि शक्ति.वाले देव (४) लयन जम्भक-घर, मकान आदि की रक्षा आदि करने वाले देव ( ५) आयन जम्भक-शय्या आदि की रक्षा आदि करने वाले देव (६)Aष्प जम्भक-फूलों की रक्षा आदि करने वाले देव (७) फल जृम्भक-फलों की रक्षा आदि करने वाले देव (८) पुष्प-फल जम्भक-फलों और फलों आदि की रक्षा करने वाले देव । कहीं-कहीं इसके स्थान में 'मन्त्र जम्भक' पाठ भी मिलता है (९) विद्या ज़म्भक-विद्याओं की रक्षा आदि करने वाले देव और (१०) अव्यक्त जृम्भक-सामान्य रूप से सभी पदार्थों की रक्षा आदि करने वाले देव । कहीं-कहीं इसके स्थान में 'अधिपति जम्भक' पाठ भी मिलता है। __ पांच महाविदह, पांच भरत और पांच एरवत-इन पन्द्रह क्षेत्रों में एक सो सित्तर दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं । प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक पर्वत होता है। महाविदेह की प्रत्येक विजयं में भी एक-एक पर्वत होता है । देवकुरु में शीतोदा नदा के दोनों किनारों पर चित्रकूट विचित्रकूट पर्वत हैं। उत्तरकुरु में सीता नदी के दोनों किनारों पर यमक पर्वत हैं । उत्तरकुरु में शीता नदी सम्बन्धी पांच नीलवान् आदि द्रह हैं। उनके पूर्व और पश्चिम दोनों तटों पर दस-दस काञ्चन पवंत है । इस प्रकार उनरकुरु में एक मी काञ्चन पर्वत हैं। इसी प्रकार देवकुरु में For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १४ उ ९ भावितात्मा अनगार और प्रकाशित पुद्गल शीतोदा नदी सम्बन्धी निषध आदि पांच द्रहों के दोनों तटों पर दस-दस काञ्चन पर्वत हैं । इस प्रकार ये भी सौ काञ्चन पर्वत हैं । दोनों मिलाकर दो सौ काञ्चन पर्वत हैं । इन पर्वतों पर जृम्भक देव रहते हैं । ॥ चौदहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २३५४ शतक १४ उद्देशक भावितात्मा अनगार और प्रकाशित पुद्गल १ प्रश्न - अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं ण जाणण पास, तं पुण जीवं सरूविं सकम्मलेस्सं जाणइ, पासइ ? १ उत्तर - हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पोसइ । २ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४ १ २ उत्तर - हंता अस्थि । ३ प्रश्न - कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति जाव पभाति ? For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती कवितामा अनगार और प्रकाशित पुद्गल २३५५ ३ उत्तर - गोयमा ! जाओ हमाओ चंदिम-सूरियाणं देवानं विमाणेहिंतो लेस्माओ बहिया अभिस्मिडाओ ताओ ओभासंति प्रभासेंति एवं एएणं गोयमा ! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति ४ । कठिन शब्दार्थ - अभिणिस्सडाओ- बाहर निकली हुई । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अपनी कर्म-लेश्या को नहीं जानने-देखने वाला भावितात्मा अनगार, सरूपी ( सशरीरी) और कर्म-लेश्या सहित जीव को जानता देखता है ? मुत्र - १० १ उत्तर- हां, गौतम ! भावितात्मा अनगार, जो अपनी कर्म सम्बन्धी लेश्या को नहीं जानता नहीं देखता, वह सरूपी कर्म-लेश्या वाले जीव को जानतादेखता है। २ प्रश्न - हे भगवन् ! सरूपी ( वर्ण आदि युक्त) सकर्मलेश्य ( कर्म के योग्य कृष्णादि लेश्या के) पुद्गल-स्कन्ध प्रकाशित होते हैं ? २ उत्तर- हां, गौतम ! वे पुद्गल-स्कन्ध प्रकाशित होते हैं । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! वे सरूपी कर्म-लेश्य पुद्गल कौन से हैं जो प्रकाशित होते हैं यावत् प्रभासित होते हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम ! चन्द्र और सूर्य के विमानों से बाहर निकले हुए प्रकाशित पुद्गल प्रकाशित होते हैं, यावत् प्रभासित होते हैं । इस प्रकार हे गौतम ! ये सभी सरूपी कर्म योग्य लेश्या वाले पुद्गल प्रकाशित होते हैं यावत् प्रभासित होते हैं । विवेचन - तप-संयम की भावना से जिसका अन्तःकरण सुवासित है, वह 'भावितात्मा अनगार' कहलाता है । वह भावितात्मा अनगार छद्मस्थ ( अवधिज्ञान आदि रहित ) होने ज्ञानावरणीयादि कर्म के योग्य अथवा कर्म सम्बन्धी कृष्णादि लेश्या को नहीं जान-देख सकता । क्योंकि कर्म-द्रव्य और लेश्या द्रव्य अति सूक्ष्म होते हैं । वे छद्मस्थ के लिए अगोचर है । परन्तु वह कर्म और लेश्या युक्त शरीरधारी जीव को जानता देखता है। क्योंकि शरीर For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५६ भागवती सूत्र-. १४ उ. ५ नैरयिको और देवो के पुद्गता चक्षुरिन्द्रिय ग्राह्य होता है और आत्मा का शरीर के साथ कथंचित् अभेद होने और स्वमं. विदित होने के कारण जानता-देखता है । ___ चन्द्र आदि के विमानों के पुद्गल, पृथ्वीकायिक होने मे मचेतन हैं और कर्म-लेश्या वाले हैं। किन्तु उनसे निकले हुए प्रकाश के पुद्गल, कर्म-लेश्या वाले नहीं होते, तथापि उनसे निकले हुए होने के कारण प्रकाश के पुद्गल उपचार से कर्म-लेण्या वाले कहे जाते हैं। नैरयिकों और देवों के पुदगल ४ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? ४ उत्तर-गोयमा ! णो अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला । ५ प्रश्न-असुरकुमाराणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला ? ५ उत्तर-गोयमा ! अत्ता पोग्गला, णो अणत्ता पोग्गला, एवं जाव थणियकुमाराणं । ... ६ प्रश्न-पुढविकाइयाणं-पुच्छा । ६ उत्तर-गोयमा ! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि पोग्गला । एवं जाव मणुस्साणं । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । . ७ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! किं इट्टा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला? ७ जत्तर-गोयमा ! णो इट्टा पोग्गला, अणिहा पोग्गला, जहा For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४९ रयिकों और देवों के अत्ता भणिया, एवं इट्टा वि कंता वि पिया वि मणुष्णा वि भाणि - यव्वा । एए पंच दंडगा । ८ प्रश्न - देवे णं भंते ! महटिए जाव महेसवखे व हरसं विउव्वित्ता प्रभू भासासहस्मं भासितए ? ८ उत्तर - हंता पभू । ९ प्रश्न - सा णं भंते ! किं एगा भासा भासासहस्सं ? ९ उत्तर - गोयमा ! एगा णं सा भासा, णो खलु तं भासा - सहस्सं । कठिन शब्दार्थ- अत्ता - आत ( दुःख विनाशक और मुखोत्पादक अथवा आप्तएकांत हितकारी ) | २३५७ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के आत्त पुद्गल ( सुखकारक पुद्गल) होते हैं या अनात्त ( दुःख कारक ) होते हैं ? ४ उत्तर - हे गीतम ! उनके आत्त पुद्गल नहीं होते, अनात्त होते हैं । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमारों के आत्त पुद्गल होते हैं या अनात्त ? ५ उत्तर - हे गौतम ! उनके आत्त पुद्गल होते हैं, अनात्त पुद्गल नहीं होते । इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक कहना चाहिये । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के आत पुद्गल होते हैं या अनात्त पुद्गल ? ६ उत्तर - हे गौतम ! उनके आत्त पुद्गल भी होते हैं और अनात्त पुद्गल भी । इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक कहना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिये । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के पुद्गल इष्ट होते हैं या अनिष्ट ? उत्तर - हे गौतम! इष्ट पुद्गल नहीं होते, अनिष्ट पुद्गल होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५८ भगवती सूत्र-स. ५४ उ. ९ मूर्य का अर्थ जिस प्रकार आत्त पुद्गलों के विषय में कहा, उसी प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलों के विषय में भी कहना चाहिये । इस प्रकार ये पाँच दण्डक कहने चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, हजार रूपों की विकुर्वणा करके, हजार भाषा बोलने में समर्थ है ? ८ उत्तर-हाँ, गौतम ! समर्थ है। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! वह एक भाषा है या हजार भाषा ? ९ ऊत्तर-हे गौतम ! वह एक भाषा है, हजार भाषा नहीं। विवेचन-एक समय में बोली जाती हुई सत्यादि किसी भी प्रकार की भाषा, एक जीवत्व और एक उपयोग होने से वह एक भाषा कहलाती है, हजार भाषा नहीं कहलाती। सूर्य का अर्थ १०-तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पगासं लोहियगं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव समुप्पण्णकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्द, जाव णमंसित्ता जाव एवं वयासी प्रश्न-किमियं भंते ! सूरिए, किमियं भंते ! सूरियस्स अट्ठे ? उत्तर-गोयमा ! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स अटे। ११ प्रश्न-किमियं भंते ! सूरिए किमियं भंते ! सूरियस्स पभा ? ११ उत्तर-एवं चेव, एवं छाया, एवं लेस्सा । For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १४ उ. ५ श्रमण-निग्रंथ का मुख्य २३५९ कठिन शब्दार्थ-अविरुग्गयं-तत्काल उदित, जासुमणाकुसुमपुंजप्पगासं-जामुमण नामक वृक्ष के फूलों के पुंज समान, किमियं-क्या है ? भावार्थ-१० उस काल उस समय में भगवान् गौतम स्वामी ने तत्काल उदित हुए और जासुमण वृक्ष के फूलों के पुंज समान लाल ऐसे बालसूर्य को देखा । सूर्य को देख कर श्रद्धावाले यावत् जिनको प्रश्न का कुतूहल उत्पन्न हुआ है, ऐसे भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट आकर यावत् वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा प्रश्न-हे भगवन् ! 'सूर्य' क्या है और सूर्य का अर्थ क्या है ? उत्तर-हे गौतम ! 'सूर्य' शुभ पदार्थ है और सूर्य का अर्थ भी शुभ है । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! 'सूर्य' क्या है और 'सूर्य को प्रभा' क्या है ? .. ११ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इसी प्रकार छाया (प्रतिबिम्ब) और लेश्या (प्रकाश का समूह) के विषय में भी जानना चाहिये। विवेचन-'सूर्य' शब्द का अन्वर्थ है-शुभ वस्तु । क्योंकि सूर्य विमानवर्ती पृथ्वीकायिक जीवों क आतप नामकर्म की पुण्य-प्रकृति का उदय है और लोक में भी सूर्य प्रशस्त (उत्तम) माना गया है तथा वह ज्योतिषी देवों का इन्द्र है । इन कारणों से 'सूर्य' शुभ है । इसका शब्दार्थ भी-'शूरों के लिये' है (क्षमा-शूर, तप-शूर दान-शूर और युद्ध-शूर आदि शूरवीरों के लिये) वह हितकारी है । इसलिये 'मूर्य' शब्द का अर्थ भी शुभ है । इन कारणों से 'सूर्य' का शब्दार्थ भी शुभ है। श्रमण-निर्ग्रन्थ का सुख १२ प्रश्न-जे इमे भंते ! अजत्ताए समणा णिग्गंथा विहरति, एए णं कस्स तेयलेस्सं वीइवयंति ? For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-जा. १ : उ. ; श्रमण-निर्गथ का सुगः १२ उत्तर-गोयमा ! मासपरियाए समणे णिग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं बोइवयइ, दुमासपरियाए समणे णिग्गंथे असु. रिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं बोइवयइ, एवं एएणं अभिलावणं तिमासपरियाए समणे निग्गंथ असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, चउम्मासपरियाए समणे णिग्गंथे गहगणणक्खत-तारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं तयलेस्सं वीइवयइ, पंच. मासपरियाए समणे णिग्गंथे चंदिम-सूरियाणं जोइसिंदाणं जोइ. सरायाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, छमासपरियाए समणे णिग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं०, सत्तमासपरियाए समणे णिग्गंथे सणं. कुमारमाहिंदाणं देवाणं. अट्टमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेय०, णवमासपरियाए समणे णिग्गंथे महासुक-सहस्साराणं देवाणं तेय०, दसमासपरियाए० आणय-पाणय-आरण-च्चुयाणं देवाणं०, एकारसमासपरियाए० गेवेजगाणं देवाणं०, वारसमासपरियाए समणे जिग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीइ. वयइ, तेण परं सुक्क सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करे। ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ * ॥ चोदसमसए णवमो उद्देसो समत्तो ।। For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श १४ उ ९ श्रमण-निर्ग्रथ का सुख २३६ ! कठिन शब्दार्थ-अज्जत्ताम-आर्यत्व युक्त ( निष्पाप चर्या वाले ), वीइवयंति-जाते है या उम्लघन करते है। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो श्रमण-निर्ग्रन्थ आयेपने (पापकर्म रहित पने ) विचरते है, वे किसकी तेजोलेश्या (तेज-सुख ) का अतिक्रमण करते है ( उनका सुख किन से बढ़कर है) ? १२ उत्तर-हे गौतम ! एक मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, वाणव्यन्तर देवों को तेजोलेश्या (सुख) का अतिक्रमण करता है (वह वाणव्यन्तर देवों से भी अधिक नुखी है) । दो नास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमणनिग्रंथ, असुरेन्द्र (चमरेन्द्र और बलीन्द्र) के अतिरिक्त दूसरे भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। इसी प्रकार इसी पाठ द्वारा तीन मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, असुरकुमार देवों को तेजोलेश्या का अति. क्रमण करता है। चार मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रथ, ग्रह गण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषी देवों की तेजोलेदया का अतिक्रमण करता है । पांच मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र और सूर्य को तेजोलेल्या का अतिक्रमण करता है । छह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, सौधर्म और ईशानवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है । सात माम की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमणनिग्रंथ, सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों की, आठ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की, नौ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, महाशुक्र और सहस्रार देवों की, दम मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवों की, ग्यारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रंथ, ग्रेवैयक देवों की और बारह मास की दीक्षापर्याय वाली श्रमण-निग्रंथ, अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । इसके बाद शुद्ध और शुद्धतर परिणाम वाला होकर सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६२ भगवती सूत्र-श. १४ उ. १० केवली और सिद्ध का ज्ञान M कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-यहाँ तेजोलेश्या शब्द का अर्थ 'सुख' विवक्षित है। क्योंकि तेजोलेश्या प्रशस्त लेश्या है और वह सुख का कारण है । बारह महीने की दीक्षा-पर्याय से अधिक दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, अमत्सरी, कृतज्ञ, सदनुष्ठान करने वाला और हितैषी होता है। वह निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला होता है । अतएव वह 'शुक्ल' है । इससे आगे बह शुक्लाभिजात (परम शुक्ल) होता है । तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त होता है। ॥ चौदहवें शतक का नोवां उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १४ उद्देशक १० केवली और सिद्ध का ज्ञान १ प्रश्न-केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणइ पासइ ? १ उत्तर-हंता जाणइ पासइ । २ प्रश्न-जहा णं भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ पासइ, तहा णं सिद्धे वि छउमत्थं जाणइ पासइ ? २ उत्तर-हंता जाणइ पासइ । ...३ प्रश्न केवली णं भंते ! आहोहियं जाणइ पासइ ? ३ उत्तर-एवं चेव । एवं परमाहोहियं, एवं केवलिं, एवं सिद्धं, जाव For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १४ उ. १० केवली और सिद्ध का ज्ञान प्रश्न - जहा णं भंते ! केवली सिद्ध जाणड़ पासइ, तहा णं सिधे वि सिद्धं जाणइ पासह ? उत्तर - हंता जाणड़ पासइ । ४ प्रश्न - केवली णं भंते ! भासेज वा वागरेज्ज वा ? २३६३ ४ उत्तर - हंता भासेज्ज वा वागरेज्ज वा । ५ प्रश्न - जहा णं भंते ! केवली भासेज्ज वा वागरेज वा तहा णं सिधे विभासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? ५ उत्तर - णां इडे समड़े | प्रश्न - से केण्णं भंते ! एवं वुबइ - 'जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा णो तहा णं सिधे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा' ? उत्तर - गोयमा ! केवली णं सउट्टाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे, सिद्धे णं अणुडाणे जाव अपुरिसक्कारपरक्कमे, मे तेणद्वेणं जाव वागरेज्ज वा । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, छद्मस्थ को जानतेदेखते हैं ? १ उत्तर - हाँ गौतम ! जानते-देखते हैं । २ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी छद्मस्थ को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी छद्मस्थ को जानते-देखते हैं ? २ उत्तर - हाँ गौतम ! जानते-देखते हैं । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी आधोवधिक (प्रतिनियत क्षेत्र विषयक अवधिज्ञान वाले) को जानते-देखते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६४ भगवती सूत्र-श. १४ उ. १० केवली और सिद्ध का ज्ञान ३ उत्तर-हाँ गौतम ! जानते-देखते हैं ? इसी प्रकार परमावधिज्ञानी, केवलज्ञानी और सिद्ध को भी जानते-देखते है। प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी, सिद्ध को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी सिद्धों को जानते-देखते हैं ? उत्तर-हाँ, जानते-देखते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! केवलज्ञानी बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं ? ४ उत्तर-हाँ गौतम! केवलज्ञानी बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं, उसी प्रकार क्या सिद्ध भी बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं ? ५ उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं। प्रश्न-हे भगवन्! सिद्ध क्यों नहीं बोलते ? उत्तर-हे गौतम ! केललज्ञानी उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार, पराक्रम सहित हैं, परन्तु सिद्ध उत्थान रहित यावत् पुरुषकारपराक्रम से रहित हैं, इस कारण सिद्ध, केवलज्ञानी के समान नहीं बोलते और न प्रश्न का उत्तर ही देते हैं। ६ प्रश्न-केवली णं भंते ! उम्मिसेज वा णिम्मिसेज वा ? ६ उत्तर-हंता उम्मिसेज वा णिम्मिसेज वा एवं चेव एवं आउंटेज वा पसारेज वा, एवं ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेएजा । ___७ प्रश्न-केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं रयणप्पभा. पुढविइ जाणइ पासइ ? For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मत्र-गा. ५४ 3. १० केवली और मिद का मान २३६५ ७ उत्तर-हंता जाणइ पामइ । : ८ प्रश्न-जहा णं भंते ! केवली इमं रयणप्पभं पुढविं रयणप्पभा. पुढवीइ जाणइ पासइ, नहा णं सिधे वि इमं रयणप्पभं पुढविं रयणपभापुढवीड़ जाणद पासह ? ८ उत्तर-हंता जाणइ पासइ । ९ प्रश्न-केवली णं भंते ! सक्करप्पभं पुढविं सक्करप्पभापुढवीइ जाणइ पासह ? ९ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव अहसत्तमं । १० प्रश्न केवली णं भंते ! सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ ? १० उत्तर-हंता जाणइ पासइ एवं चेव, एवं ईसाणं, एवं जाव अच्चुयं । ११ प्रश्न-केवली णं भंते ! गेवेजविमाणे गेवेजविमाणेत्ति जाणइ पासइ ? ११ उत्तर-एवं चेव, एवं अणुत्तरविमाणे वि । १२ प्रश्न केवली णं भंते ! ईसिप-भारं पुढविं ईसिपम्भारपुढवीइ जाणइ पासइ ? १२ उत्तर-एवं चेव । १३ प्रश्न-केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ पासइ ? For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६६ भगवती सूत्र-श. १४ उ. १० केवली और सिद्ध का ज्ञान १३ उत्तर-एवं चेव, एवं दुपएसियं खंधं, एवं जाव प्रश्न-जहा णं भंते ! केवली अणंतपएसियं खं, अणंतपएसिए खंधेत्ति जाणई पासइ, तहा णं सिधे वि अणंत्तपएसियं जाव पासइ ? उत्तर-हंता जाणइ पासइ। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ चोदसमसए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ चोदसमं सयं समत्तं ।। कठिन शब्दार्थ-उम्मिसेज्ज-आँख खोलना, णिम्मिसेज्ज-ऑग्व मीचना । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! केवलज्ञानी अपनी आँखें खोलते और मीचते हैं ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! वे आँखें खोलते और मोचते हैं। इसी प्रकार शरीर को संकुचित-विस्तृत करते हैं, खड़े रहते है, बैठते हैं तथा शय्या (वसति) और नषेधिकी (थोड़े समय के लिये वसति) करते हैं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! केवलज्ञानी, रत्नप्रमा पृथ्वी को-'यह रत्नप्रभा पृथ्वी है'-इस प्रकार जानते-देखते हैं? ७ उत्तर-हाँ गौतम ! जानते-देखते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी, रत्नप्रभा पृथ्वी को 'यह रत्नप्रभा पृथ्वी है'- इस प्रकार जानते-देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी रत्नप्रभा पृथ्वी को-'रत्नप्रभा पृथ्वी है'-इस प्रकार जानते-देखते हैं ? ८ उत्तर-हाँ गौतम ! जानते-देखते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! केवलज्ञानी, शर्कराप्रभा पृथ्वी को-'शकंराप्रभा For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? भगवती सूत्र - १४ उ. १० केवली और सिद्ध का ज्ञान पृथ्वी' इस प्रकार जानते-देखते हैं । ९ उत्तर-पूर्वोक्त रूप से, यावत् अधः सप्तम तक जानना चाहिये । १० प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, सौधर्म कल्प को जानते-देखते हैं ? १० उत्तर - हाँ, गौतम ! जानते देखते हैं । इसी प्रकार ईशान यावत् अच्युत कल्प तक कहना चाहिये । २३६७ ११ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, ग्रेवेयक विमानों को जानते-देखते हैं ? ११ उत्तर-पूर्वोक्त रूप से यावत् अनुत्तर विमान तक जानना चाहिए । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी को जानते-देखते १२ उत्तर - हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी, परमाणु पुद्गल को जानते-देखते है ? १३ उत्तरर- हाँ, गौतम ! जानते देखते हैं। इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत्प्रश्न - हे भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी, अनंत प्रदेशिक स्कंध को जानते-देखते है, उसी प्रकार सिद्ध भी अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध को यावत् जानतेदेखते हैं ? उत्तर - हाँ, गौतम ! जानते देखते हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन - यहाँ 'केवली' शब्द से 'भवस्य केवली' का ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि 'सिद्ध' के विषय में पृथक् प्रश्न किया गया है । 'भासेज्ज' का अर्थ बिना पूछे ही बोलते और 'वागरेज्ज' का अर्थ- प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हैं । || चौदहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ || चौदहवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५ गोशालक चरित्र णमो सुयदेवयाए भगवईए १-तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णाम णयरी होत्था, वण्णओ । तीसे णं सावत्थीए णयरीए वहिया उत्तरपुरच्छिम दिसि. भाए तत्थ णं कोट्टए णामं चेहए होत्था, वण्णओ । तत्थ णं सावत्थीए णयरीए हालाहला णामं कुंभकारी आजीविओवासिया परिवनड़, अड्ढा जाव अपरिभूया, आजीवियसमयंसि लट्ठा गहियहा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्टा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता. अयमा. उसो ! 'आजीवियसमये अटे, अयं परमटे, मेमे अणट्टे त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणी विहरइ । कठिन शब्दार्थ-अडा-आढ्य (ऋद्धिसम्पन्न ), अपरिभूया-किसी से नहीं दबने वाली। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ गोशालक चरित्र. २३६९ भगवती श्रुत देवता को नमस्कार हो । भावार्थ-उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी । वर्णन । श्रावस्ती नगरी के उत्तर-पूर्व में कोष्ठक नामक चैत्य ( उद्यान ) था । वर्णन | उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक ( गोशालक ) मत की उपासिका हालाहला नामक कुम्भारण रहती थी । वह ऋद्धि सम्पन्न यावत् अपराभूत थी । उसने आजीविक के सिद्धान्त का अर्थ (रहस्य) प्राप्त किया था, अर्थ पूछा था, अर्थ का farar fear था, उसकी अस्थि और मज्जा, प्रेम और अनुराग द्वारा रंगी हुई थी । है आयुष्यमन् ! आजीविक का सिद्धान्त रूप अर्थ, यही खरा अर्थ है और यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं। इस प्रकार वह आजीविक के सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करती हुई रहती थी । तेणें काले तेणं समर्पणं गोसाले मंखलिपुत्ते चउच्चीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघ संपरिवडे आजीवियसमपर्ण अप्पाणं भावेमाणे विहरड । तपणं तस्स गोसा लस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णया कयाइ इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउ भविथा, तं जहा - १ साणे २ कलंदे ३ कण्णियारे ४ अच्छिदे ५ अग्गिवेसायणे ६ अज्जुणे गोमायुपुत्ते । तए णं ते छ दिसाचरा अट्टविहं पुब्वयं मग्गदसमं सएहिं सएहिं मइदंसणेहिं णिज्जुहंति, णिज्जुहित्ता गोसा मंखलिपुत्तं उवट्टाइंस । भावार्थ-उस काल उस समय में चौबीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला नामक कुम्भारण की कुम्भारापण ( मिट्टी के बर्तनों की दुकान) में आजीविक संघ से परिवृत होकर आजीविक सिद्धांत से For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७० भगवती सूत्र-श. १५ गोगालक चरित्र । अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। किसी दिन उस मंखलिपुत्र गोशालक के पास ये छह दिशाचर आये । यथा-१ शान २ कलन्द ३ कणिकार ४ अछिद्र ५ अग्निवेश्यायन और ६ गोमायुपुत्र अर्जुन । उन छह दिशाचरों ने पूर्वश्रुत में कहे हुए आठ प्रकार के निमित्त, नौवां गीतमार्ग तथा दसवां नृत्यमार्ग को अपने-अपने मतिदर्शन से पूर्वश्रुत में से उद्धत कर मंखलिपुत्र गोशालक का शिष्य भाव से आश्रय ग्रहण किया। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महाणिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं मवेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई वागरणाई वागरेइ, तं जहा-"१ लाभं २ अलाभं ३ मुहं ४ दुक्खं ५ जीवियं ६ मरणं तहो”। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महाणिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए णयरीए अजिणे जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवलिप्पलावी, असव्वण्णू सवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसदं पगासेमाणे विहरइ । कठिन शब्दार्थ-अणइक्कमणिज्जाई-अनतिक्रमणीय (विपरीतता से रहित-सत्य) । भावार्थ-इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महानिमित्त के स्वल्प उपदेश द्वारा सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को इन छह बातों के विषय में अनतिक्रमणीय (जो अन्यथा-असत्य न हो) उतर देने लगा। वे छह विषय ये है-१ लाभ २ अलाभ ३ सुख ४ दुःख ५ जीवन और ६ मरण । मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महानिमित्त के स्वल्प उपदेश मात्र से, श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी 'मैं जिन हूँ'-इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त नहीं होते For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक चरित्र हुए भी ' में अर्हन्त हूँ' - इस प्रकार मिथ्या वकवाद करता हुआ, केवली नहीं होते हुए भी ' मैं केवली हूँ ' ' - इस प्रकार मिथ्या भाषण करता हुआ, सर्वज्ञ नहीं होते हुए भी ' में सर्वज्ञ हूँ ' - इस प्रकार मिथ्या कथन करता हुआ और 'जिन' नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ अर्थात् अपने लिए 'जिन' विशेषण का प्रयोग करता हुआ विचरता था । २२७१ विवेचन - शान, कलन्द आदि छह दिशाचर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के संयम से पतित (पार्श्वस्थ ) शिष्य थे- ऐसा प्राचीन टीकाकार कहते हैं और चूर्णिकार तो इस प्रकार कहते हैं कि ये भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिये ( शिष्यानुशिष्य ) थ । निमित्त के आठ भेद ये हैं-१ दिव्य २ ओत्पात ३ अन्तरिक्ष ४ भोम ५ अंग ६ स्वर ७ लक्षण और ८ व्यञ्जन । इन आठ महानिमित्तों के द्वारा गोशालक लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण, इन छह बातों को यथार्थ रूप में बतलाता था । २ - तपणं सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खर, जाव एवं परूवेइ - ' एवं खलु देवाणु - पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे faers, से कहमेयं मण्णे एवं ? तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव छट्ट-टेणं एवं जहा वितियसए नियंठुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसद्दं णिसामेइ, बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ ४ - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जि जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरइ, से कहमेयं मण्णे एवं ' ? -. For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७२ भगवती सूत्र-श. १५ गोयालक चरित्र तएणं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म जाव जायसड्ढे जाव भत्तपाणं पडिदंसेड़, जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी"एवं खलु अहं भंते ! छटुं० तं चेव जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरइ;” से कहमेयं भंते ! एवं ? तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उट्ठाणपरियाणियं परिकहियं । कठिन शब्दार्थ-उट्ठाण परियाणियं-उत्थान पारियानिक अर्थात् जन्म से लेकर पूरा जीवन वृत्तान्त । भावार्थ-२ इसके बाद श्रावस्ती नगरी में सिंघाड़े के आकार वाले त्रिक यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्य इस प्रकार कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगे-" हे देवानुप्रियो ! यह मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' होकर अपने आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है, तो इस प्रकार कैसे माना जाय ?" ___ उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे, यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुनकर चली गई । उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी, गौतम गोत्रीय इन्द्रभति अनगार यावत् छठछठ का पारणा करते थे, इत्यादि दूसरे शतक के पांचवें उद्देशक अनुसार यावत् गोचरी के लिए फिरते हुए गौतम स्वामी ने बहुत-से मनुष्यों के शब्द सुने । लोग इस प्रकार कहते थे कि-" हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' होकर अपने-आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है । उसको यह बात कैसे मानी जाय ?" लोगों से ऐसा सुनकर और अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछने की श्रद्धा वाले हुए यावत् आहार-पानी भगवान् को दिखलाया, यावत् पर्युपासना करते हुए वे इस प्रकार बोले-"हे भगवन् ! मैं छठ के पारणे इत्यादि पूर्वोक्त कहना चाहिये यावत् गोशालक 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मूत्र-ण. १५ गोगालक चरित्र २३७३ यह कथन कैसा है ? हे भगवन् ! आरके श्रीमुख से मैं मंखलिपुत्र गोशालक का जन्म से लेकर अन्त तक वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ।" 'गोयमाई' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासीजण्णं गोयमा ! से वहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइवखइ ४ ‘एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरइ' तं णं मिच्छा । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु एयस्स गोसालम्स मंखलिपुत्तस्स मंसलिणामं मंखे पिया होत्था । तस्स णं मंलिस्स मंखस्स भदाणामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव पडिरूवा । तएणं सा भद्दा भारिया अण्णया कयाइ गुम्विणी यावि होत्था। भावार्थ-(भगवान् ने फरमाया) 'हे गौतम' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से कहा-हे गौतम ! बहुत-से मनुष्य जो परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि 'मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' होकर और अपने आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है'-यह बात मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि मंखलिपुत्र गोशालक का मंखलि नामक मंख जाति का पिता था। उस मंखलि नामक मंख के भद्रा नाम की भार्या थी । वह सुकुमाल हाथ-पाँव वाली यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) थी। किसी समय वह भद्रा भार्या गर्भवती हई। तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे णामं सण्णिवेसे होत्था, रिद्ध-स्थिमिय० जाव सण्णिभप्पगासे, पासाईए ४ । तत्थ णं सरवणे For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७४ भगवती सूत्र-श. ५५ गोशान्टक चरित्र सण्णिवेसे गोबहुले णामं माहणे परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए, रिउव्वेद० जाव सुपरिणिट्टिए यावि होत्था । तरस णं गोबहुलस्स, माहणस्स गोसाला यावि होत्था । तपणं से मंखली मंखे अण्णया कयाइ भद्दाए भारियाए गुम्विणीए सद्धि चित्तफलगहत्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाणे जेणेव सरवणे सण्णिवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता गोबहुलस्स माहणरस गोसालाए एगदेससि भंडणिक्खेवं करेइ, भंड० णिवखेवं करेत्ता सरवणे सण्णि-वेसे उच्च-णीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिवखायरियाए अडमाणे वसहीए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, वसहीए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणे अण्णस्थ वसहिं अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए । तएणं सा भद्दाभारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण-राइंदियाणं वीइनकंताणं सुकुमाल० जाव पडिरूवगं दारगं पयाया। ___कठिन शब्दार्थ - गुदिवजीए-गर्भवती, चित्तफलगहत्याए-चित्र-फलक ( चित्रांकित पटिया) हाथ में लेकर, मखतणे-मख लोपन से (चित्र बना कर आजीविका करने वाले भिक्षों की वृत्ति से)। भावार्थ-२ उस काल उस समय में 'शरवण' नाम का ग्राम था। वह ऋद्धि सम्पन्न, उपद्रव रहित यावत् देवलोक समान प्रकाश वाला और मन को For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक चरित्र २३७५ प्रसन्न करने वाला था। उसमें गोबहुल नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत था । वह ऋगवेद आदि ब्राह्मण-शास्त्रों के विषय में निपुण था । उस. गोबहुल ब्राह्मण के एक गोशाला थी । एक दिन वह मंखलि नामक भिक्षाचर, अपनी गर्भवती भद्रा भार्या को साथ लेकर निकला। वह चित्रपट से अपनी आजीविका चलाता हुआ अनुक्रम से शरवण नामक सन्निवेश में आया और गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में अपने भण्डोपकरण रखे । वह शरवण ग्राम में ऊँच, नोच और मध्यम कुलों के घर-समुदाय में भिक्षाचर्या के लिये फिरने लगा। वह अपने निवास के लिये किसी स्थान की खोज करने लगा। सभी ओर गवेषणा करने पर भी उसे कोई रहने योग्य स्थान नहीं मिला, तो उसने गोबल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में ही वर्षाऋतु बिताने के लिये निवास किया । भद्रा ने नौ मास और साढ़े सात रात-दिन बीतने पर एक सुकुमाल हाथ-पैर वाले यावत् सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । ___तएणं तस्स दारगस्सः अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते जाव बारमाहे दिवसे अयमेयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं णामधेजं करेंति-"जम्हा णं अम्हं इमे दारए गोवहुलस्स माहणस्स गोसालाए जाए तं होउ णं अम्हें इमस्स दारगस्स णामधेनं 'गोसाले' 'गोसाले' ति । तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेनं करेंति 'गोसाले' ति। तएणं से गोसाले दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेते जोव्वणगमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएक्कं चित्तफलगं करेइ, सयमेव० २ करेत्ता चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । भावार्थ-ग्यारह दिन बीत जाने के बाद बारहवें दिन उस बालक के For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७६ भगवती सूत्र-श. १५ भगवान् से गोशालक का समागम माता-पिता ने गोशाला में उत्पन्न होने के कारण बालक का गुणनिष्पन्न नाम 'गोशालक' दिया। गोशालक बाल्यावस्था से मुक्त हो, विज्ञान से परिणत मतिवाला होकर यौवन को प्राप्त हुआ। वह स्वयं स्वतन्त्र रूप से हाथ में चित्रपट लेकर मंखपने की वृत्ति से आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। विवेचन-गोशालक के पिता का नाम मंखलि था। उसका जाति ‘मंख' थी। इस जाति के लोग हाथ में चित्रपट लेकर भिक्षावृत्ति से आजीविका करते हैं। मंखलि भी इसी प्रकार आजीविका करता था। भगवान से गोशालक का समागम ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगपहिं एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । तएणं अहं गोयमा ! पढमं वासं अद्धमासं अदमासेणं खममाणे अट्ठियगामं णिस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए, दोच्चं वासं मासंमासेणं खममाणे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे जेणेव रायगिहे णयरे, जेणेव णालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिहामि अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हिता तंतुवायसालाए एगदेससि वासावासं उवागए । तएणं अहं गोयमा ! पढमं मासखमणं उवसंपजित्ता णं विहरामि । For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १५ भगवान् से गोशालक का समागम २३७७ कठिन शब्दार्थ-णिम्साए-निधाय मे-आश्रय लेकर, उवागए-आया। भावार्थ-३-हे गौतम ! उस काल उस समय तीस वर्ष तक गृहवास में रह कर और माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर (आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुत स्कन्ध के पन्द्रहवें भावना अध्ययन के अनुसार-'माता-पिता के जीवित रहते मैं दीक्षा नहीं लंगा'-इस प्रकार का अभिग्रह पूर्ण होने पर, मैंने सुवर्णादि का त्याग कर इत्यादि यावत्) एक देवदूष्य वस्त्र को ग्रहण कर मुण्डित हुआ और गृहस्थवास का त्याग कर अनगार प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय हे गौतम ! मैं पहले वर्ष में, अर्द्धमास-अर्द्धमास क्षमण करते हुए, अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षावास रहने के लिये आया। दूसरे वर्ष में मास-मास क्षमण. युक्त अनुक्रम से विहार करते हुए, राजगृह नगर के नालन्दा पाड़ा में आया और नालन्दा पाड़ा के बाह्य भाग मे, तन्तु वाय (कपड़ा बुनने-वाले की) शाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके वर्षावास रहा । तत् पश्चात् हे गौतम ! मैं प्रथम नासक्षमण स्वीकार कर विचरने लगा। तएणं मे गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं . अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुट् िचरमाणे जाव दूडजमाणे जेणेव रायगिहे णयरे, जेणेव णालंदा वाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडणिक्खेवं करेइ, भंडणिक्खेवं करित्ता रायगिहे णयरे उच्च णीय० जाव अण्णस्थ कत्थ वि वसहिं अलभमाणे तीसे य तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए, जत्थेव णं अहं गोयमा ! तएणं अहं गोयमा ! पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिवख For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ भगवान् से गोशालक का समागम मामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदा बाहिरियं मज्झंमज्झेणं जेणेव रायगिहे णयरे तेणेव उवागच्छामि, रायगिहे णयरे उच्चणीय० जाव अडमाणे विजयस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविट्टे । कठिन शब्दार्थ - अडमाणे- फिरते हुए । भावार्थ - उस समय मंखलिपुत्र गोशालक, चित्रपट से आजीविका करता हुआ, अनुक्रम से एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगृह आया और नालन्दापाड़ा के बाहरी भाग में, बुनकर की शाला के एक भाग में अपना भण्डोपकरण रखा । फिर राजगृह नगर में ऊँच नीच और मध्यम कुल में भिक्षा के लिये जाते हुए, उसने वर्षावास के लिये दूसरा स्थान ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु उसे कहीं स्थान नहीं मिला । अतः जिस तन्तुवाय शाला के एक भाग में में रहा हुआ था, वहीं वह भी रहने लगा । हे गौतम! में प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में आया। फिर ऊँच नीच और मध्यम कुल में यावत् आहार के लिये फिरते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया । २३७८. तुडु० तरणं से विजए गाहावई ममं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट ० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्ठेड़, खिप्पामेव आसणाओ अब्भुद्विता पायपीढाओ पच्चोरूहड़ पायपीढाओ पचोरू हित्ता पाउयाओ ओमुयह, पाउयाओ ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करिता अंजलिम उलियहत्थे ममं सत्तटुपयाई अणुगच्छह, अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता ममं वंदड़ णमंसह, णमंसित्ता ममं विउलेणं असण- पाणखाइमसाइमेणं पडिला भेस्सा For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १५ भगवान् से गोशाक का सम गम २३७२ मित्ति कटु तुट्टे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, पडिलाभिए वि तुटे । तएणं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुधेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुदधेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए णिवधे, मंसारे परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच दिवाई पाउन्भूयाई, तं जहा-१ वसुधारा वुट्टा २ दसवण्णे कुसुमे णिवाइए २ चेलुक्खेवे कए ४ आहयाओ देवदुंदुभीओ ५ अंतरा वि य णं आगासे-'अहो दाणे, अहो दाणे' त्ति घुटे । कठिन शब्दार्थ-पाउयाओ-पादुका को, ओमुयइ--छोड़ना है । भावार्थ-मुझे प्रवेश करते देख कर विजय गाथापति प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ। वह शीघ्र ही सिंहासन से नीचे उतरा और पादुका (खड़ाऊ) का त्याग किया। फिर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। दोनो हाथ छोड़ कर सातआठ चरण मेरे सामने आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। 'आज में भगवान् को पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से प्रतिलागा'-ऐसा विचार कर सन्तुष्ट हुआ। वह प्रतिलाभते समय भी सन्तुष्ट हुआ था और प्रतिलाभित करने के बाद भी सन्तुष्ट रहा । विजय गाथापति ने द्रव्य को शुद्धि से, दायक की शुद्धि से और पात्र की शुद्धि से तथा त्रिविध (मन, वचन, काया) और तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदित) को शुद्धि से मुझे प्रतिलाभित करने के निमित्त से देव का आयुष्य बांधा । संसार परिमित किया। दान के प्रभाव से उसके घर में पांच दिव्य प्रकट हुए। यथा-१ वसुधारा की वृष्टि २ पांच वर्ण के पुष्पों की वृष्टि ३ ध्वजा रूप वस्त्र का फहराना ४ देवदुन्दुभि का वादन और ५ आकाश में- अहो दान, अहोदान' की ध्वनि । तएणं रामगिहे णयरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अण्ण For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८०. भगवती सूत्र - श. १५ भगवान् से गोशालक का समागम मण्णस्म एवमाइक्खड़, जाव एवं परूवेड़- 'धणे णं देवाणुप्पिया ! विजय गाहावई, कत्थे णं देवाणुपिया ! विजए गाहावई, कयपुण्णे णं देवापिया ! विजए गाहावई, कयलक्खणे णं देवाशुप्पिया ! विजए गाहावई, कपा णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहा वइस्स, सुद्धे णं देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयरस गाहावइस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साहु साहुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंचदिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - १ वसुधारा बुट्टा, जाव - 'अहो दाणे अहो दाणे' त्ति घुडे, तं धण्णे, कयत्थे, कयपुण्णे, कलक्खणे, कया णं लोया, सुलधे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स विजयस्स गाहावइस्स' । भावार्थ - राजगृह नगर में शृंगाटक त्रिकमार्ग यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगे कि - हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतपुण्य ( पुण्यशाली ) है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतलक्षण ( उत्तम लक्षणों वाला ) है । हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति के उभय लोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है । जिस के घर में तथारूप के उत्तम सौम्य आकार वाले श्रमण को प्रतिलामित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, यावत् 'अहोदान' 'अहोदान' की उद्घोषणा हुई है, इसलिये विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है। उसके दोनों लोक सार्थक है और उस विजय गाथापति का मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है । For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ शिप्पत्य ब्रहण २३८१ शिष्यत्व ग्रहण तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म समुप्पण्णसंमए समुप्पण्णकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागन्छित्ता पामड़ विजयरस गाहावइस्म गिहंमि वसुहारं वुटुं, दसवण्णं कुसुमं णिवडियं, ममं च णं विजयस्स गाहावड़स्स गिहाओ पडिणिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हट्ट-तुट्टे जेणेव मम अतिए तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता ममं तिकवुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता ममं बंदड़ णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता ममं एवं वयासी--'तुम्भे णं भंते ! ममं धम्मायरिया. अहं णं तुभं धम्मंतेवासी ।' तएणं अहं गोयमा ! गोसा. लस्स मंग्वलिपुत्तस्स एयमटुं णो आढामि, णो परिजाणामि, तुसि. णीए संचिट्ठामि । तएणं अहं गोयमा ! रायगिहाओ णयराओ पणि. णिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता णालंद बाहिरियं मझमज्झेणं जेणेव तंतुवायमाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता दोच्चं मासखमणं उपसंपज्जित्ता णं विहरामि । ___ कठिन शब्दार्थ-णो आडामि-आदर नहीं किया, तुसिणीए संचिट्टामि-मौन पूर्वक स्थिर रहा। भावार्थ-मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत मनुष्यों से यह घटना सुनी और अवधारण की । उसके मन में संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। वह विजय For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - दा १५ शिष्यत्व ग्रहण गाथापति के यहाँ आया। उसने विजय गाथापति के घर में बरसी हुई वसुधारा, पांच वर्ण के फूलों को और विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए मुझे देखा । गोशालक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ। वह मेरे पास आया और तीन वार प्रदक्षिणा करके वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार बोला- " हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और में आपका धर्म-शिष्य हूँ ।" हे गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया, स्वीकार भी नहीं किया और मौन रहा । तत्पश्चात् हे गौतम! में राजगृह नगर से निकल कर नालन्दा के बाहरी भाग की तन्तुवायशाला में आया और दूसरा मासक्षमण स्वीकार कर लिया । २३८२ तणं अहं गोयमा ! दोच्चं मासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदं बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे णयरे जाव अडमाणे आनंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुष्पविट्टे । तरणं से आणंदे गाहावई ममं एजमाणं पासइ - एवं जहेव विजयस्स, णवरं ममं विउलाए खजगविहीए 'पडिला भेस्सामि' त्ति तुझें, सेसं तं चेव, जाव तच्चं मासखमण उवसंपजित्ता णं विहरामि । भावार्थ - इसके पश्चात् दूसरे मासक्षमण के पारणे के समय, तन्तुवाय शाला से निकला और आनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया । आनन्द गायापति ने मुझे आता हुआ देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान है, विशेषता यह है कि 'मैं विपुल खण्ड - खाद्य ( मीठा खाजा ) भोजन सामग्री से प्रतिलाभूंगा' - ऐसा विचार कर वह आनन्द गाथापति सन्तुष्ट हुआ, इत्यादि पूर्ववत् । यावत् मैंने तीसरा मासक्षमण स्वीकार कर लिया । For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ शिष्यत्व ग्रहण २३८३ तएणं अहं गोयमा ! तच्चं मासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता तहेव जाव अडमाणे सुणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविटे । तएणं से सुणंदे गाहावई एवं जहेव विजय गाहावई, णवरं ममं सव्वकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेइ, मेसं तं चेव जाव चउत्थं मासक्खमणं उपसंपजिता णं विहरामि । भावार्थ-तीसरे मासक्षमण के पारणे के लिये मैंने तन्तुवायशाला से बाहर निकल कर यावत् सुनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया। सुनन्द गाथापति ने मुझे आते हुए देखा यावत् उसने मुझे सर्वकाम-गुणयुक्त (सर्व रसों से यक्त) भोजन द्वारा प्रतिलाभित किया। शेष पूर्ववत् । मैंने चौथा मासक्षमण स्वीकार किया। तीसे णं णालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते एत्थ णं कोल्लाए णामं सण्णिवेसे होत्था, सण्णिवेस वण्णओ। तत्थ णं कोल्लाए सण्णिवेसे बहुले णामं माहणे परिवसइ, अइढे जाव अपरिभूए, रिउज्वेय० जाव सुपरिणिट्टिए यावि होत्था । तएणं से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासियपाडिवगंसि विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं माहणे आयामेत्था । तएणं अहं गोयमा ! चउत्थमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंद बाहिरियं मझमझेणं णिग्गच्छमि, णिग्गच्छिचा जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव उवागच्छामि, तेणेव उवा. For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८४ भगवती मूत्र-स. १५ शिष्यत्व ग्रहण गच्छिता कोल्लाए सण्णिवेसे उच्च-णीय० जाव अडमाणस्स बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पवितु। तएणं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेव जाव ममं विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं पडिलाभिस्सामिति तुटे। सेसं जहा विजयस्स, जाव बहुले माहणे बहुले माहणे। कठिन शब्दार्थ-महुघयसंजुत्तेणं-मधु (शक्कर) और घृत से युक्त । ___ भावार्थ-नालन्दा के बाहरी भाग से कुछ दूर 'कोल्लाक' नामक सन्निवेश (ग्राम) था। (वर्णन)कोल्लाक सन्निवेश में बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था । वह आढय यावत् अपराभूत था। वह ऋग्वेद आदि में निपुण था। उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चातुर्मास की प्रतिपदा के दिन पुष्कल, मधु और घी से संयुक्त परमान (खीर)द्वारा ब्राह्मणों को भोजन कराया। हे गौतम ! चौथे मासक्षमण के पारणे के लिये तन्तुवायशाला से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश में ऊंच नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाचरी के लिये जाते हुए मैने बहुल ब्राह्मग के घर में प्रवेश किया। बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते हुए देखा, इत्यादि पूर्ववत् । यावत् 'मैं मधु (खांड) और घृत संयुक्त परमान से प्रतिला गा'-ऐसा विचार कर बहुल ब्राह्मण सन्तुष्ट हुआ। शेष पूर्ववत् यावत् 'बहुल ब्राह्मण धन्य है।' विवेचन-जो आहारादि उद्गमादि दोषों से रहित होता है, वह 'द्रव्य-शुद्ध' कहलाता है। किसी भी प्रकार की आशंसा (इह लोकादि फल प्राप्ति की इच्छा) से रहित होकर जो दाता, दान देता है, वह 'दायक-शुद्ध' कहलाता है । लेने वाला निर्ग्रन्य निस्पृह भाव से केवल संयम यात्रा के निर्वाह के लिये लेता है, वह 'पात्र-शुद्ध' कहलाता है । ४-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहे णयरे सम्भितरवाहिरियाए ममं सव्वओ समंता मग्गण For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १५ शिष्यत्व ग्रहग गसणं करेइ, ममं कत्थवि सुई वा खुई वा पवित्तिं वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छद, तेणेव उवागच्छित्ता साडियाओ य पाडियाओं य कुंडियाओ य वाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेड़, आयामेत्ता सउत्तरोठं मुंडं कारेइ, सउत्त. रोटुं मुडं कारिता तंतुवायसालओ पडिणिक्खमइ, तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमित्ता णालंदं वाहिरियं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छिन्ना जेणेव कोल्लागसण्णिवेसे तेणेव उवागच्छइ । तएणं तस्स कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ. जाव परूवेड़-'धण्णे णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्म माहणस्स बहुलस्स माहणस्स ।' __ कठिन शब्दार्थ-मग्गणगवेसणं-मार्ग की खोज करना (ढूंढना), खुइं-क्षुति (छींक), सउत्तरोनें-दाढ़ी और मूंछ सहित । - भावार्थ-४-इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा, तो उसने राजगह नगर के बाहर और भीतर सभी ओर मेरी खोज की, परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति (शब्द) और क्षुति (छोंक) और प्रवृत्ति न पाकर पुनः तन्तुवायशाला में गया। उसने अपनी शाटिका (अन्दर पहनने का वस्त्र)पाटिका (ऊपर पहनने का वस्त्र) कुण्डी, उपानत (पगरखियाँ) और चित्रपट, ब्राह्मगों को देकर दाढ़ी और मूंछ सहित मस्तक का मुण्डन करवाया, फिर तन्तुवायशाला और नालन्दापाड़ा से निकल कर कोल्लाक सन्निवेश में आया। कोल्लक सन्निवेश के बाहरी भाग में बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार बातें कर रहे थे-'हे देवानुप्रियो ! बहुल ब्राह्मण धन्य है' इत्यादि, पूर्वोक्त यावत् बहुल ब्राह्मग का जन्म और जीवन का फल प्रशंसनीय है।' For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ शिष्यत्व ग्रहण तरणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एम सोचा णिसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था - 'जारिसिया णं ममं धम्मायरियरस धम्मोवएसगरस समणस्स भगओ महावीरस्स इड्ढी जुई जसे बले वीरिए पुरिसकारपरक मे दधे पत्ते अभिसमण्णागए, णो खलु अत्थि तारिसिया णं अण्णस्स कस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्ढी जुई जाव परकमे लदुधे पत्ते अभिसमण्णागए; तं णिस्संदिदुधं च णं एत्थ ममं धम्मायरि धम्मो एसए समणे भगवं महावीरे भविस्सइति कट्ट कोल्लागसणिवेसे सभितरवाहिरिए ममं सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करे ममं सव्वओ जाव करेमाणे कोल्लागर्साण्णवेसस्स वहिया पणियभूमीए मए सधि अभिसमण्णागए । तरणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तु ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं वयासी- 'तुम्भे णं भंते! मम धम्मायरिया. अहं णं तुब्भं अंतेवासी ।' तरणं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहं पडिसुणेमि । तएणं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्त्रेणं सद्धि पणियभूमीए छ्वासाई लाभ अलाभं सुखं दुक्खं सकारमसकारं पञ्चभवमाणे अणिच्च जागरियं विहरित्था | २३८६ भावार्थ - उस समय बहुत से मनुष्यों से यह बात सुन कर अवधारण कर, मंखलिपुत्र गोशालक को विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र - श. १५ तिल का पौधा और गोशालक की कुचेष्टा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है, अभिसनन्वागत हुआ है, वैसी ऋद्धि, युति यावत् पुरुषकारपराक्रम अन्य किसी भी तथारूप के श्रमण-माहण को लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं हुआ । इसलिये मेरे 'धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे ' - ऐसा विचार करके वह कोल्लाकसन्निवेश के बाहर और भीतर, सभी ओर मेरी खोज करने लगा । खोज करते हुए वह कोल्लाक सन्निवेश के बाहर के भाग में मनोज्ञ भूमि में मेरे पास आया । लिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर मेरी तीन वार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोला- 'हे भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं। और में आपका शिष्य हूँ ।' हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की उस बात को सुना ( अर्थात् स्वीकार किया) । इसके पश्चात् हे गौतम ! में मंखलिपुत्र गोशालक के साथ प्रणीत भूमि में लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार- अतत्कार का अनुभव करता हुआ और अनित्यता का चिन्तन करता हुआ विचरता रहा । विवेचन-- मूलपाठ में 'पणियभूमिए' पाठ दिया है, जिसका एक अर्थ टीकाकार ने 'भाण्ड विश्राम स्थान' दिया है और दूसरा अर्थ दिया है 'मनोज्ञ भूमि ।' मूलपाठ में 'पडिसुणेमि' पाठ दिया है, जिसका अर्थ टीकाकार ने लिखा है'अभ्युपगच्छामि' अर्थात् 'मैंने गोशालक को शिष्यरूप से स्वीकार किया ।' २३८७ इस प्रकार के अयोग्य को भगवान् ने शिष्यरूप से कैसे स्वीकार किया ? इसका समाधान यह है कि यह अवश्य ही भावी भाव था । अर्थात् यह इसी प्रकार होनहार था । इसलिये भगवान् ने उसे स्वीकार किया । तिल का पौधा और गोशालक की कुचेष्टा ५- तणं अहं गोयमा ! अण्णया कयाइ पढमसरदकालसमयंसि अप्पट्टिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुचेणं सधि सिद्धत्थ For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८८ भगवती सूत्र-श. १५ तिल का पौधा और गशालक को कुचेष्टा गामाओ जयराओ कुम्मगाम जयरं संपट्टीए विहाराए । तस्स णं सिद्धत्थगामस्स णयरस्स कुम्मगामरस णयररस य अंतरा एत्थ णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुप्फिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अईव अईव उपसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्टइ । तएणं से गोसाले मंखलि. पुत्ते तं तिलथंभगं पासइ, पासित्ता ममं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसिता, एवं वयासी-एस णं भंते ! तिलथंभए किं णिप्फजि. स्सइ णो णिफजिस्सइ ? एए य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कहिं गच्छिहिंति, कहिं उववजिहिंति ?' तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी -'गोसाला ! एस णं तिलथंभए णिप्फजिस्स, णो ण गिफजिस्सइ; एए य मत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता उदाइत्ता' एयस्स चेव तिलथंभगरस एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाइस्संति । कठिन शब्दार्थ-अप्पट्टिकायंसि-अप्प (अल्प शब्द का यहाँ अभाव अर्थ है), जब वर्षी नहीं हो रही थी, संपट्ठीए-जाने के लिए, तिलसंगलियाए-तिल की फली में। भावार्थ ५-हे गौतम ! अन्यदा किसी दिन प्रथम शरद काल के समयजब वृष्टि नहीं हो रही थी, मैं गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम नामक नगर से चल कर कर्मग्राम नामक नगर की ओर जा रहा था, सिद्धार्थग्राम और कर्मग्राम के मध्य तिल का एक बड़ा पौधा था, जो पत्र-पुष्प युक्त, हरितपने से अत्यन्त शोभायमान था। गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा और मुझे बन्दन-नमस्कार कर पूछा-“हे भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ? इन सात तिलों के फूल के जीव मर कर कहां जावेंगे, कहां उत्पन्न होंगे?" हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक को मैने इस प्रकार कहा-“हे गोशालक ! यह तिल का For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ तिल का पौधा और गोशालय की कुचेष्टा २३८९ पौधा निष्पन्न होगा । वह निष्पन्न होने से वञ्चित नहीं रहेगा । ये सात तिलपुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न होंगे।" तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयमढें णो सद्दहइ, गो पत्तियइ, णो रोएइ, एयमढें असद्दहमाणे अपत्तिय. माणे, अगएमाणे मम पणिहाए 'अयं णं मिच्छावाइ भवउ' त्ति कट्ट ममं अंतियाओ सणियं सणियं पचोसकड़, पञ्चोसकित्ता जेणेव में तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता त तिलथंभगं सलेठ्ठयायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडित्ता एगते एडेह । तक्खणमेत्तं च णं गोयमा ! दिव्वे अभवद्दलए पाउ-भूए । तएणं से दिव्वे अभ. बद्दलए खिप्पामेव पतणतणाएइ, खिप्पामेव पविज्जुयाइ, खिप्पामेव णचोदगं गाइमट्टियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासइ, जेणं से तिलथंभए आसत्थे पञ्चायाए, तत्थेव वद्धमूले, तत्थेव पइट्ठिए। ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तस्सेव तिलयंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पचायाया। कठिन शब्दार्थ-तक्खणमेतं-तत्काल, पाउम्भूए-प्रकट हुए, पतणतणाएइ-जोर से गर्जन करने लगे, पविज्जयाइ-बिजली चमकने लगी, पविरलपफुसियं-थोड़े या हलके स्पर्श वाले, आसत्थे-स्थिर हुआ, पइटिए-प्रतिष्ठित हुआ। मेरी बात पर गोशालक ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। 'मेरे For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९० भगवती सूत्र-श. १५ तेजोलेश्या के प्रहार से गोशालक की रक्षा लिए ये मिथ्यावादी होवें'-ऐसा सोच कर, गोशालक मेरे पास से धीरे-धीरे पीछे खिसका और तिल के पौधे के निकट आकर उसे मिट्टी सहित मूल से उखाड़ कर एक ओर फेंक दिया और मेरे निकट आकर साथ हो गया। पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल आकाश में दिव्य बादल हुए और गर्जना करने लगे, बिजली चमकने लगी और अधिक पानी और कीचड़ नहीं हो, इस प्रकार थोड़े पानी और छोटी बन्दों वाली, रज एवं धल को शान्त करने वाली दिव्य वष्टि हई, जिससे वह तिल का पौधा वहीं स्थिर हो गया, विशेष स्थिर हो गया और बद्ध-मूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया। वे सात तिल-पुष्प के जीव मर कर .. उसी तिल के पौधे को एक फली में, सात तिल रूप में उत्पन्न हुए। विवेचन-आगम की भाषा में मार्गशीर्ष और पौष-इन दो महीनों को 'शरद ऋतु' कहते हैं । 'प्रथम शरद्-काल समय' का अर्थ है-'मार्गशीर्ष मास' कोई आश्विन और कार्तिक को शरद् ऋतु कहते हैं । किन्तु यहाँ ऐसा अर्थ करना असंगत है । क्योंकि ये दोनों मास चातुर्मास के अन्तर्गत हैं और चातुर्मास में भगवान् विहार नहीं करते। यद्यपि भगवान् ने मौन रहने का अभिग्रह किया था, किन्तु एकादि प्रश्न का उत्तर देना उनके नियम विरुद्ध नहीं था, क्योंकि उनके याचनी आदि भाषा बोलना खुला था। इसीलिये गोशालक के तिल सम्बन्धी प्रश्न का भगवान् ने उत्तर दिया। . - वायु के द्वारा उड़कर आकाश में छाई हुई धूल के कण 'रज' कहलाते है और भूमिस्थित धूल के कण 'रेणु' कहलाते हैं । तेजोलेश्या के प्रहार से गोशालक की रक्षा ६-तएणं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि जेणेव कुम्मग्गामे+ णयरे तेणेव उवागच्छामि, तएणं तस्स कुम्मग्गामस्स णयरस्स वहिया वेसियायणे णामं वालतवस्सी छटुंछट्टेणं अणिविख + "कुडग्गाम" पाठ भी अन्य प्रतियों में है। For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ तेजोलेश्या के प्रहार से गागालक की रक्षा तेणं. तबोकम्मेणं उइदं वाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहे आयावणभूमिए आयावेमाणे विहरइ, आइचतेयतवियाओ य से छप्पईओ सवओ समंता अभिणिम्सवंति पाण-भूय जीव सत्त-दयट्टः याए च णं पडियाओ पडियाओ तत्थेव भुजो भुजो पच्चोरुहेइ । कठिन शब्दार्थ-सद्धि-साथ, पगिज्झिय-रख कर, आयावणभूमिए-आतापना भूमि में, आइच्चतेयवियाओ-मूर्य के नाप स नपी हुई, छप्पईमो-षट्पदी (यकाएँ), पडियाओ. गिरी हुई। __भावार्थ ६-हे गौतम ! इसके बाद मैं गोशालक के साथ कर्मग्राम नगर में आया। उस समय कूर्मग्राम के बाहर वैश्यायन नामक बाल-तपस्वी निरन्तर छठ-छठ तप करता था और दोनों हाय ऊँचे रख कर सूर्य के सम्मुख खड़ा हो, आतापना ले रहा था । सूर्य की गर्मों से तपी हुई जुएँ उसके सिर से नीचे गिर रही थी और वह तपस्वी, सर्व प्राण, भत, जीव और सत्त्व की दया के लिये, पड़ी हुई उन जूओं को उठा कर पुनः सिर पर रख रहा था। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं वालतवस्सि पासइ, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं सणियं पञ्चोसकइ, ममं० २ पच्चोसकित्ता जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सिं एवं वयासी-'किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जूयासेज्जायरए' ? तएणं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमढें णो आढाइ, णो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-'किं भवं मुणी मुणिए, For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९२ भगवती मू . १५ तेजोलेश्या के प्रहार में गोशालक की रक्षा जाव सेजायरए'। तएणं से वेसियायणे वालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावगभूमीओ पच्चोरूहह, आयावणभूमीओ पचोरूहित्ता तेयासमुग्घाएणं समोहण्णइ, तेया० २ समोहणित्ता सत्तनुपयाई पञ्चोसक्कड़, सत्तट्ठपयाई पञ्चोसकित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयं णिसिरह । कठिन शब्दार्थ-सणियं सणियं-धीरे-धीरे, पच्चीसक्कइ-पीछे हटा, जया सेज्जापरए-यूका के घर के स्वामी, मुणिए-तत्त्वज्ञाता, तेयं-तेज (तेजो लेश्या)। भावार्थ-मंखलीपुत्र गोशालक ने वैश्यायन बाल-तपस्वी को देखा तो मेरा साथ छोड़कर पीछे खिसका और वैश्यायन बाल-तपस्वी के पास पहुंचा। गोशालक ने उससे कहा-"तुम तत्त्वज्ञ मुनि हो अथवा जुओं के शय्यातर हो" वश्यायन बाल-तपस्वी ने गोशालक के इस कथन का आदर नहीं किया और स्वीकार भी नहीं किया, वह मौन रहा । गोशालक ने वंश्यायन वाल-तपस्वी को दूसरी बार और तीसरी बार इसी प्रकार पूछा-"तुम तत्त्वज्ञ मुनि हो या जुओं के शय्यातर हो?" गोशालक ने दूसरी बार और तीसरी बार इसी प्रकार पूछा, तब वैश्यायन कुपित हुआ यावत् क्रोध से धमधमायमान होकर आतापनाभूमि से नीचे उतरा, फिर तेजस-समुद्घात करके सात-आठ चरण पीछे हटा और गोशालक के वध के लिये अपने शरीर में से तेजोलेश्या बाहर निकाली । तएणं अहं गोयमा ! गोसालम्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपण?. याए वेसियायणस्स चालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं णिसिरामि, जाए सा ममं सीयलि. For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र. १. १५ जालेल्या के प्रहार में गोचालय की रसा३ याए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सा उसिणा तेय. लेस्सा पडिहया । तएणं से वेसियायणे वालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए तं उसिणं तेयलेस्म पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरंगस्स किंचि आवाहं वा वावाहं वा छविच्छेयं वा अकीरमाणं पासित्ता तं उसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, तं उसिणं तेग्लेम्स पडिमाहरित्ता ममं एवं वयासी-'से गयमेयं भगवं' ! 'से गयमेयं भगवं' !। काठन शब्दार्थ-पडिसाहरणट्टयाए-पीछे हटाने के लिए, सीयलियं तेयलेस्सं-शीतल जोलण्या, पडिहया-प्रतिहत (पीछी हटी हुई), गय मेयं-मैने जान लिया । भावार्थ-हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक के ऊपर अनुकम्पा करके वैश्यायन बाल-तपस्वी को तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिये, शीतल तेजोलेश्या बाहर निकाली। मेरी उस शीतल तेजोलेश्या से वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण-तेजोलेश्या का प्रतिघात हो गया। मेरी शीतल तेजोलेश्या से अपनी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ और गोशालक के शरीर को किञ्चित् भी पीड़ा अथवा अवयव का छेद नहीं हुआ जान कर, वैश्यायन बाल-तपस्वी ने अपनी उष्ण-तेजोलेश्या को पीछी खींच ली और मेरे प्रति इस प्रकार बोला"हे भगवन् ! मैंने जाना । हे भगवन् ! मैने जाना।" तएणं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी-किं णं भंते ! एस जूयासेजायरए तुम्भे एवं वयासी-से गयमेयं भगवं ! से गयमेयं भगवं' ? तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'तुमं गं गोसाला ! वेसियायणं बालतवस्सि पाससि, For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९४ भगवती सूत्र-श. १५ तेजोलेन्या के प्रहार से गोगालक का रक्षा पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसकसि, जेणेव वेसि. यायणं बालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि, तेणेव उवागच्छित्ता वेसियायणं वालतवस्सिं एवं बयासी-'किं भवं मुणी मुणिए. उदाह जूयासेजायरए' ? तएणं से वेसियायणे वालतवस्सी तव एयमढें णो आढाइ, णो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्टइ। तएणं तुम गोसाला ! वेसियायणं वालतवस्सिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी'किं भवं मुणी मुणिए, जाव सेजायरए' ? तएणं से वेसियायणे बालतवस्सी तुमं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव पच्चोसकइ, पञ्चोसकित्ता तव वहाए सरीरगंमि तेयलेस्सं णिस्सरइ । तएणं अहं गोसाला ! तव अणुकंपण?याए वेसियायणस्स वालतवस्सिस्स उसिणतेयलेस्सापडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं णिस्सिरामि, जाव पडिहयं जाणित्ता तव य सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वावाहं वा छविच्छेयं वा अकीरमाणं पासित्ता तं उसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, तं उसिणं तेयलेस्सं पडि. साहरित्ता ममं एवं वयासी-'से गयमेयं भगवं' से गयमेयं भगवं । ___कठिन शब्दार्थ-आसुरुत्ते-शीघ्र कुपित हुए, वाहाए-मारने के लिए, णिस्सिरइनिकाली। - भावार्थ-इसके पश्चात् गोशालक ने मुझ से पूछा कि-"हे भगवन्! इस जओं के शय्यातर बाल-तपस्वी ने आपको-" हे भगवन् ! मैंने जाना । हे भगवन ! मैंने जाना ।" इस प्रकार क्या कहा ? " तब हे गौतम ! मैंने गोशालक से For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १५ तजा लण्या क. प्रहार से गाशालक की रक्षा १५ इस प्रकार कहा कि हे गोशालक ! तूने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा और मेरे पास से हट कर धीरे-धीरे वहाँ गया। फिर तूने वैश्यायन बाल-तपस्वी से इस प्रकार कहा-"तू ज्ञाततत्त्व मुनि है अथवा जुओं का शय्यातर है ?" वैश्यायन ने तेरे इस कथन का आदर-स्वीकार नहीं किया और मौन रहा । इस के बाद तूने उसे दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा, तब वह वैश्यायन बालतपस्वी कुपित हुआ यावत् तेरा वध करने के लिये अपने शरीर में से तेजो-लेश्या बाहर निकाली। उस समय मैने तुझ पर अनुकम्पा करके वंश्यायन बाल-तपस्वी की तेजोलेश्या का प्रति संहरण करने के लिये शीत-तेजोलेश्या निकाली यावत् उससे उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ और तेरे शरीर को कुछ भी पीड़ा नहीं हई जानकर अपनी उष्णतेजोलेश्या को पीछा खींच लिया। फिर उसने मुझे इस प्रकार कहा-" हे भगवन् मैंने जाना । हे भगवन् ! मैंने जाना ।" तएणं से गोसाले मंसलिपुत्ते ममं अंतियाओ पयमढें सोचा, णिसम्म भीए जाव संजायभए ममं वंदइ णमंसइ, ममं वंदित्ता णमं. सित्ता एवं वयासी-'कहं णं भंते ! संखित्तविउल-तेयलेस्से भवई' ? तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जेणं गोसाला! एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छटुंछटेणं अणिक्खितेणं तवोकम्मेणं उड्ढे वाहाओ पगिझिय पगिज्झिय जाव विहरइ, से गं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ।' तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमटुं सम्मं विणएणं पडिसुणेइ । कठिन शब्दार्थ-भीए-डरा, सणहाए- नख सहित, एगेण य वियडासएणं-विकटाशय (चुल्लूभर पानी)। भावार्थ-इसके बाद हे गौतम ! मेरी उपरोक्त बात सुन कर गोशालक For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का पृथक् होना डरा यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोला- " हे भगवन् ! संक्षिप्त- विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है ? " मैंने कहा - " हे गोशालक ! नख सहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें उतने मात्र से और एक विकटाशय ( चुल्लू भर ) पानी से निरन्तर छठ-छठ की तपस्या के साथ दोनों हाथ ऊँचे रख कर यावत् आतापना लेने वाले पुरुष को छह मान के अन्त में संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है । गोशालक ने मेरे कथन को विनयपूर्वक सम्यग् रूप से स्वीकार किया । २३९६ विवेचन वैश्यायन बालतपस्वी के लिये गोशालक ने 'मुर्गा, मुणिए' इन दो शब्दों का प्रयोग किया है । इसका टीकाकार ने पहला अर्थ तो यह किया है कि- 'मणि' अर्थात् तत्त्वों को जान कर 'मुणी' - मुनि अर्थात् तपस्वी ।' दूसरा अर्थ किया है 'मुणी अर्थात् तपस्विनी और 'मुणिए' अर्थात् तपस्वी । तीसरा अर्थ किया है-'मृणी' अर्थात् यति-मुनि और 'मुणिए' अर्थात् ग्रहगृहीत ( ग्रह से गृहीत ) | भगवान् ने गोशालक की रक्षा की, इसका कारण यह है कि भगवान् दया के सागर हैं। आगे सुनक्षत्र और सर्वानुभूति इन दो मुनियों की रक्षा नहीं करेंगे, इसका कारण यह है कि यह अवश्यंभावी भाव था अर्थात् ऐसा होनहार था । तेजोलेश्या अप्रयोगकाल में संक्षिप्त होती है और प्रयोगकाल में विपुल होती है । इसलिए 'संक्षिप्त - विपुल तेजोलेश्या' - ऐसा कहा गया है । गोशालक का पृथक होना ७- तणं अहं गोयमा ! अण्णया कयाड़ गोसा लेणं मंखलिपुत्तेणं सधि कुम्मगामाओ णयराओ सिद्धत्थग्गामं णयरं संपट्टिए विहाराए, जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए । तणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी तुम्भे णं भंते ! For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत। सूत्र-१. १' गाशाला का पृथक होना तया ममं एवं आइक्खह, जाव परवेह-'गोसाला ! एम णं तिलथं. भए णिप्फजिस्सइ, णो ण णिप्फजिरसइ, तं चेव जाव पञ्चा. याइस्संति' तं णं मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसह-'पस णं से तिलथंभए णो णिफण्णे अणिप्फण्णमेव । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता. उद्दाइत्ता णो एयस्स चेव तिलथंभगस्स- एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया' । कठिन शब्दार्थ-आइक्खह--कहा था । भावार्थ-७-इसके बाद हे गौतम ! अन्यदा एक दिन मंलिपुत्र गोशालक के साथ में कर्मग्राम नगर से सिद्धार्थ ग्राम नगर की ओर जाने लगा । जब हम उस तिल के पौधे के स्थान के निकट आये, तो गोशालक ने मुझ से कहा"हे भगवन् ! आपने मुझे उप्त समय कहा था कि "हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा यावत् तिलपुष्प के जीव सात तिल रूप से उत्पन्न होंगे, किंतु आपको वह बात मिथ्या हुई। क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा ऊगा ही नहीं और वे तिलपुष्प के सात जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल रूप से उत्पन्न नहीं हुए।" तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुमं णं गोसाला ! तया ममं एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमटुं णो सद्दहसि, णो पत्तियसि, णो रोयसि, एयमटुं असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छा. "वाई भवः' त्ति कटु ममं अंतियाओ सणियं सणियं पञ्चोसकसि, For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का पृथक होना पच्चोसकित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, तेणेव उवागच्छित्ता जाव एगंतमंते एडेसि। तक्खणमेत्तं गोसाला ! दिव्वे अभवद्दलए पाउ भूए । तरणं से दिव्वे अभवद्दलए खिप्पामेव त चैव जाव तस्स चैव तिलथं भगस्स एगाए तिलसंगलियांए सत्त तिला पच्चायाया; तं एस णं गोसाला ! से तिलथंभए णिष्फण्णे, णो अणिफण्णमेव । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उदाइत्ता उदाइत्ता एयस्स चैव तिलथंभयस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया । एवं खलु गोसाला ! वणस्सइकाइया पउट्टपरिहारं परिहरंति । कठिन शब्दार्थ - एगतमते एडेसि एकान्त में डाला । भावार्थ - इसके उत्तर में मैंने गोशालक से कहा- " हे गोशालक ! जब मैने तुझ से ऐसा कहा, तब तेने मेरे कथन की श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की और ऐसा सोच कर कि ' मेरे निमित्त से ये मिथ्यावादी होंवें' - तू मेरे पास से पीछे खिसका और उस तिल के पौधे को यावत् मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फेंक दिया । हे गोशालक ! उस समय तत्क्षण आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए, यावत् गर्जना करने लगे, यावत् वे तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल रूप से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये हे गोशालक ! वह तिल का पौधा निष्पन्न हुआ है और वे सात तिल-पुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिल - फली में सात तिल रूप से उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकायिक जीव मर कर प्रवृत्तपरिहार का परिहार ( उपभोग) करते हैं। अर्थात् मर कर उसी शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । २३९८ For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र . १५ गोपालक का पृथक होना तणं मे गोमाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणम्स, जाव परूवेमाणस्स एयमहं णो महइ ३, एयमहं असद्दहमाणे जाव अरोपमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता ताओ निलयं भयाओ तं तिलसंगलियं खड्इ, खुड़िता करयलंसि सत्त तिले पप्फोडे । तएणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ते सत्त तिले गणमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपजित्था - ' एवं खलु सव्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरति ' - एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पट्टे एस णं गोयमा ! गोसालस मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए अवक्रमणे पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ - खुड्डुइ-तोड़ देता है, पउट्टे परिवर्तन, अवक्कमणे - अपक्रमण ( पृथक् होना ) | भावार्थ- गोशालक ने मेरे इस कथन की श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की, यावत् उस तिल के पौधे के पास जा कर उसकी तिलफली को तोड़ कर और हाथ में मसल कर सात तिल बाहर निकाले । इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक को सात तिलों की गिनती करते हुए इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ'सभी जीव प्रवृत्तपरिहार करते हैं, अर्थात् मर कर उसी शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं ।' हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह 'परिवर्त परिहार वाद' है । हे गौतम! मुझ से ( तेजोलेश्या की विधि प्राप्त करने के बाद) मंखलिपुत्र गोशालक का यह अपक्रमण है अर्थात् वह मुझ से पृथक् हुआ है । २:९९ विवेचन - वनस्पतिकाय के जीव बार-बार मर कर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं | इसको 'वनस्पतिकायिक परिवर्त परिहार' कहते हैं । गौशालक सभी जीवों के लिए 'परिवर्त परिहार' मानने लग गया। यह उसकी मिथ्या मान्यता है । For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०० भगवती सूत्र - श. १५ तेजोलेश्या की साधना x जिन प्रलापी.... तेजोलेश्या की साधना ८-तणं से गोमाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासरणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड् बाहाओ पगिज्झिय २ जाव विहरड़ । तरणं मे गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छहं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से जाए । कठिन शब्दार्थ - बियडासएण - विकटाशय या विकटाश्रय अर्थात् चुल्लू भर पानी । भावार्थ -८- इसके बाद वह मंखलिपुत्र गोशालक, उड़द के बाकलों को नख सहित एक मुट्ठी से और एक चुल्लू भर पानी के द्वारा निरन्तर छठ-छठ के तप के साथ दोनों हाथ ऊंचा रख कर और सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर आतापना भूमि में आतापना लेने लगा । ऐसा करते हुए छह मास के अन्त में गोशालक को संक्षिप्त-विपुल तेजोश्या उत्पन्न हो गई । जिन - प्रलापी गोशालक का रोष ९ - तरणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णया कयाड़ इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउ भवित्था, तं जहा - साणे तं चेव, सव्वं जाव अजिणे जिणसहं पगासेमाणे विहरह, तं णो खलु गोयमा ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव जिणसद्दं पगासेमाणे विहरइ, गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे, जिणप्पलावी For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ जिन-प्रलापा गोशालक का रोप २४०१ जाव पगामेमाणे विहरइ । तपणं सा महतिमहालया महच परिसा जहा सिवे जाव पडिगया। तएणं सावत्थीए णयरीए सिंघारग० जाव बहुजणो अण्णमण्णम्स जाव परवेइ-'जं णं देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिंणप्पलावी जाव विहरई' तं मिन्छा । समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ-'एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तम्स मंखली णामं मखे पिया होत्था । तएणं तस्स मंखलिस्स एवं चेव तं सव्वं भाणियव्वं, जाव अजिणे जिणसदं पगासेमाणे विहग्इ, तं णो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव विहरड, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्प. लावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणमहं पगासेमाणे विहरई'। भावार्थ-९-अन्यदा किसी दिन गोशालक से ये छह दिशाचर आ कर मिले । यथा-शान इत्यादि (पूर्वोक्त वर्णन यावत् "यह जिन नहीं होते हुए भी अपने लिए 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है") हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक वास्तव में 'जिन' नहीं है, परन्तु 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है । गोशालक 'अजिन' है । तत्पश्चात् वह अत्यन्त बड़ी परिषद् ग्यारहवें शतक के नौवें उद्देशक में, शिव राजर्षि के चरित्र के अनुसार धर्मोपदेश सुन कर और वन्दनानमस्कार कर चली गई। श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक त्रिक मार्ग यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य इस प्रकार यावत् प्ररूपणा करने लगे--'हे देवानुप्रियों ! मंखलिपुत्र For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०२ भगवती सूत्र-श. १५ जिन-प्रलापी गोशालक का रोप गोशालक 'जिन' होकर अपने आपको 'जिन' कहता हुआ विचरता है। यह बात मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-"मंखलिपुत्र गोशालक का-'मंखलि' नामक मंख (भिक्षाचर विशेष) पिता था, इत्यादि । पूर्वोक्त सारा वर्णन यावत् गोशालक 'जिन' नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है"-तक जानना चाहिए। इसलिए मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है । वह व्यर्थ ही 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ विचरता है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी 'जिन' हैं, यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा, णिसम्म आसुरुत्ते, जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पञ्चोकहइ, आयावणभूमीओ पच्चोरुहित्ता सावत्थिं णयरिं मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजी. वियसंघसंपरिबुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं यावि विहरइ । कठिन शब्दार्थ-अमरिसं-अमर्प-क्रोध । भावार्थ-यह बात गोशालक ने बहुत से मनुष्यों से सुनी । सुनते ही वह अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् मिसमिसाट करता हुआ (क्रोध से दांत पीसता हुआ) आतापना भूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ, होलाहला कुमारिन की बर्तनों को दूकान पर आया । वह आजीविक संघ से परिवृत होकर अत्यन्त अमर्ष (क्रोध) को धारण करता रहा। For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४०३ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत १०-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णाम थेरे पगइभदए जाव विणीए छटुं-छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवमा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तएणं से आणंदे थेरे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्च-णीयमज्झिम, जाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकागवणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयइ । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी-एहि ताव आणंदा ! इओ एगं महं उवमियं णिसामेहि ।' तएणं से आणंदे थेरे गोसा. लेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ । कठिन शब्दार्थ-अदूरसामंतेणं-निकट, वोइवयइ-गया, उवमियं-उपमा । भावार्थ-१० उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य, आनन्द नामक स्थविर थे । वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे और वे निरन्तर छठ-छठ की तपस्या करते हुए और संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । वे आनन्द स्थविर छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरिसी में स्वाध्याय आदि यावत् गौतम स्वामी के समान भगवान् से आज्ञा मांगी और For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०४ भगवता सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में गोचरी के लिये चले । वे हालाहला कुम्भारिन की दूकान के समीप होकर जा रहे थे कि गोशालक ने आनन्द स्थविर को देखा। गोशालक ने स्थविर को सम्बोधित कर कहा-“हे आनन्द ! यहाँ आ और मेरे एक दृष्टांत को सुन।" गोशालक से सम्बोधित होकर आनन्द स्थविर, हालाहला ... कुम्भारिन की दूकान में गोशालक के पास आये। तएणं से गोसाले मंलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वयासी-“एवं खलु आणंदा ! इओ चिराईयाए अद्धाए केइ उच्चावया वणिया अत्थत्थी, अत्थलुद्धा, अत्थगवेसी, अस्थकंखिया. अत्थपिवासा अस्थगवेसणयाए णाणाविहविउलपणियभंडमायाए मगडीसागडेणं सुबह भत्तपाणं पत्थयणं गहाय एगं महं अगामियं, अणोहियं छिण्णावायं दीहमद, अडविं अणुप्पविट्ठा । तपणं तेसिं वणियाणं तीसे अगामिल याए, अणोहियाए, छिण्णावायाए. दीहमद्धाए अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजेमाणे परिभुजेमाणे खीणे । तएणं ते वणिया वीणोदगा समाणा तण्हाए परिभवमाणा अण्णमण्णे सद्दावेंति, अण्णमण्णे सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुजेमाणे परिभुजेमाणे खीणे, तं सेयं खलु देवाणुः प्पिया ! अम्हं इमोसे अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सवओ For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४०० समंता मग्गणगवेसणं करेत्तए' त्ति कटु अण्णमग्णस्स अंतिए एयमढे पडिमुणेति, अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेत्ता तीसे णं अगामियाए जाव अडवीए उदगस्म सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति, उदगस्म सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एगं महं वणमंडं आमाएंति, किण्हं किण्होभासं जाव णिउरंवभूयं पासाईयं जाव पडिरूवं । तस्म णं वणमंडस्म बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महेगं बम्मीयं आमाएंति । तस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पुओ अभुग्गयाओ अभिणिसढाओ तिरियं सुसंपग्गहियाओ, अहे पण्णगद्धरूवाओ, पण्णगढसंटाणसंठियाओ, पासाईयाओ जाव पडिरूवाओ। तएणं ते वणिया हट्टतुट० अण्णमण्णं सद्धावेंति, अण्णमण्णं सद्दावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमीसे अगामियाए जाव सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करमाणेहिं इमे वणसंडे आसाइए, किण्हे, किण्होभासे, इमस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए इमे वम्मीए, आसाइए, इमस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पुओ अब्भुग्गयाओ, जाव पडिरूवाओ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पि भिंदित्तए, अवियाई ओरालं उदगरयणं अस्साएस्सामो। तएणं ते वणिया अण्णमण्णस्स अंतियं एयमढें पडिसुणेति, अण्णमण्णस्स अंतियं एयमढें, पडिसुणेत्ता तस्स- वम्मीयस्स पढमं वप्पिं भिंदति । For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०६ भगवती सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत तेणं तत्थ अच्छं पत्थं जच्चं तणुयं फालियवण्णाभं ओरालं उदगरयणं आसाएंति । तएणं ते वणिया हट्टतुट० पाणियं पिबंति, पाणियं पिबित्ता वाहणाई पजेति, वाहणाइं पजेत्ता भायणाई भति। ___ कठिन शब्दार्थ-चिराईयाए अद्धाए-बहुत पुराने समय में, अत्यत्थी-धनार्थी, सगड़ीसागडेणं-गाई-गाड़ियों में, अगामियं-अभिलाषा के अविषय भूत अथवा-जिसमें कोई गांव नहीं-ऐसा वन, अणोहियं-अगाध, अडवि-अटवी, खोणे-क्षय हुआ, वम्मीयं-वल्मीक (बांबी), वप्पुओ-वल्मीक शिखर, अच्छे-स्वच्छ, पत्थं-पथ्यकारी, जच्चं-अकृत्रिम. तणयंहलका, फालियवण्णाभं-स्फटिक के समान वर्ण वाला। भावार्थ-गोशालक ने आनन्द स्थविर से कहा-"हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले अनेक प्रकार के धन के अर्थी, धन के लोभी, धन के गवेषी, धनाकांक्षी एवं धन को तृष्णा वाले कई छोटे-बड़े वणिक, धन उपार्जन करने के लिये अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुएं, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भर कर और पर्याप्त अन्न पानी रूप पाथेय लेकर एक महा अटवी में प्रविष्ट हुए। वह अटवी ग्राम रहित, पानी के प्रवाह रहित, सार्थ आदि के आगमन से रहित और लम्बे मार्ग वाली थी। उस अटवी के कुछ भाग में जाने के बाद उनका साथ लिया हुआ पानी समाप्त हो गया । पानी रहित और तृषा से पीड़ित वे व्यापारी एक-दूसरे से कहने लगे-"हे देवानुप्रियो ! अपने साथ का पानी समाप्त हो गया है, इसलिये अब हमें इस अटवी में सभी ओर पानी की खोज करना श्रेयस्कर है । वे लोग उस अटवी में पानी की खोज करने लगे। पानी की खोज करते हुए उन्होंने एक बड़ा वनखण्ड देखा। वह वन-खण्ड श्याम और श्याम कान्ति वाला यावत् महामेघ के समूह जैसा प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् सुन्दर था। उस वन-खण्ड के मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक (बांबी) देखा । उस वल्मीक के सिंह की केशराल के समान ऊंचे उठे हुए चार शिखर थे। वे शिखर तिछे विस्तीर्ण, नीचे अर्द्ध सर्प के समान (विस्तीर्ण) और ऊपर संकुचित थे । अर्द्ध सर्प की आकृति वाले, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् सुन्दर थे । उस वल्मीक को For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत देखकर वे वणिक् प्रसन्न और प्रियो ! इस भयंकर अटवी में चार सुन्दर शिखर देख रहे हैं, इसलिये हे देवानुप्रियो ! इस बल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें बहुत-सा उत्तम पानी मिलेगा'. ऐसा विचार कर उन व्यापारियों ने वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ा, जिससे उनको स्वच्छ, हितकारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा बहुत पानी प्राप्त हुआ । वे सभी प्रसन्न और सन्तुष्ट हुए । उन व्यापारियों ने पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिये । २४०७ सन्तुष्ट हुए और परस्पर कहने लगे- 'हे देवानुपानी की तपास करते हुए अपन वल्मीक के ये भायणाई भरेता दोच्च पि अण्णमण्णं एवं वयासी - 'एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हेहिं इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए ओराले उदगरयणे अरसाइए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोच्चं पिवप्पं भिंदित्तए; अवियाई एत्थ ओरालं सुवण्णरयणं अस्साएरसामो' । तरणं ते वणिया अण्ण मण्णस्स अंतियं एयमहं पडिसुर्णेति, अण्णमण्णस्स अतियं एयमहं पडणेत्ता तस्स वम्पीयरस दोच्चं पिवप्पं भिंदंति, ते णं तत्थ अच्छं जच्च तावणिजं महत्थं महग्घं महरिहं ओरालं सुवण्णरयणं अस्साएंति । तएणं ते वणिया हट्टतुटु भायणाई भरेंति पवहणाई भरेति । O कठिन शब्दार्थ -- महग्घं -- महामूल्य | भावार्थ-तत् पश्चात् उन्होंने परस्पर विचार किया -- 'हे देवानुप्रियों ! प्रथम शिखर को तोड़ने से अपने को बहुत-सा उत्तम पानी प्राप्त हुआ है, अब For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०८ भगवती सूत्र-स. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत हमें दूसरा शिखर तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण प्राप्त होगा'-ऐसा विचार कर उन्होंने वल्मीक के दूसरे शिखर को तोड़ा। उसमें से उन्हें स्वच्छ, उत्तम, ताप को सहन करने योग्य महाअर्थवाला और महामूल्य वाला पर्याप्त स्वर्ण मिला। स्वर्ण प्राप्त करने से प्रसन्न और सन्तुष्ट बने हुए उन व्यापारियों ने अपने पात्र भर लिये और वाहनों (गाड़ियों) को भी भर लिया। ___ भरित्ता तच्चं पि अण्णमण्णं एवं वयासी-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए ओगले उदगरयणे आसाइए, दोच्चाए वप्पाए भिण्णाए ओराले सुवण्णरयणे आसाइए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स तच्चं पि वप्पं भिंदित्तए । अवियाई एत्थं ओरालं मणिरयणं अस्साएस्सामो' । तएणं ते वणिया अण्णमण्णस्स अतियं एयमढें पडिंसुणेति, अण्ण० २-सुणेत्ता तस्स वम्मीयस्स तच्चं पि वप्पं भिंदंति । । ते णं तत्थ विमल णिम्मलं णित्तलं णिकलं महत्थं महग्धं महरिह ओरालं मणिरयणं आसाएंति । तएणं ते वणिया हट्ठतुटु० भाय. णाई भति, भा० भरित्ता पवहणाई भरेंति, भरित्ता चउत्थं पि अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इम्मस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए ओराले उदगरयणे आसाइए, दोचाए वप्पाए भिण्णाए ओराले सुवण्णरयणे आसाइए, तच्चाए वप्पाए भिण्णाए ओराले मणिरयणे आसाइए । ____कठिन शब्दार्थ-णिक्कलं-निष्कल (दोष रहित) । For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४०१ भावार्थ-फिर तीसरी बार उन्होंने विचार किया-'हे देवानुप्रियो ! इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से हमें स्वच्छ पानी मिला और दूसरे को तोड़ने से उत्तम स्वर्ण मिला। इसलिये हे देवानुप्रियो ! अब तीसरा शिखर तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें उदार मणिरत्न प्राप्त होंगे'-ऐसा विचार कर उन्होंने तीसरा शिखर तोड़ा, जिसमें से उन्हें विमल, निर्मल, गोल, निष्कल (दोष रहित) महान् अर्थवाले, महामूल्यवाले उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। मणिरत्नों को प्राप्त करके वे व्यापारी अत्यन्त हृष्ट और तुष्ट हुए। उन्होंने मणिरत्नों से अपने पात्र और वाहन भर लिये। तत्पश्चात् वे वणिक चौथी बार भी परस्पर विचार विमर्श करने लगे-हे देवानुप्रियो ! इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर स्वच्छ जल मिला । दूसरे के तोड़ने से प्रचुर स्वर्ण रत्न प्राप्त हुआ। तीसरे शिखर को तोड़ने से उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स चउत्थं पि वप्पं भिंदित्तए, अवियाई उत्तमं महग्यं महरिहं ओरालं वहररयणं अस्साएस्सामों। कठिन शब्दार्थ-वइररयणं-वज्ररत्न । ___ भावार्थ-अतः हे देवानुप्रियो ! अब हमें इस वल्मीक के चौथे शिखर को भी तोड़ना श्रेयस्कर है। इससे हमें उत्तम, महामूल्य वाले, महाप्रयोजन वाले और महापुरुषों के योग्य उदार वज्ररत्न प्राप्त होंगे। ___तएणं तेसिं वणियाणं एगे वणिए हियकामए, सुहकामए, पत्थकामए आणुकंपिए णिस्सेसिए, हिय-सुह-णिस्सेसकामए ते वणिए एवं वयामी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए ओराले उदगरयणे जाव तच्चाए वप्पाए भिण्णाए ओराले मणिरयणे आसाइए तं होउ अलाहिं पजत्तं णे For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत एसा चउत्थी वप्पा मा भिज्जउ चउत्थी णं वप्पा उवसग्गा यावि होत्था' | कठिन शब्दार्थ - - णिस्सेसिए - - कल्याणकारी, सउवसग्गा--उपद्रवकारा । भावार्थ- उन व्यापारियों में से एक वणिक उन सब का हितकामी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयस चाहने वाला था । उसने अपने सभी साथियों से कहा - 'हे देवानुप्रियो ! हमें प्रथम शिखर तोड़ने से स्वच्छ जल मिला यावत् तीसरे को तोड़ने से मणिरत्न प्राप्त हुए। अब बत कीजिए, अपने लिये इतना पर्याप्त है । अब हमें इस चौथे शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर नहीं होगा । कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना अपने लिये उपद्रवकारी हो सकता है । २४१० तणं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगरस सुहकामगस्म जाव हिय- सुह- णिस्सेसका मगरस एवमाइरखमाणरस, जाव परूवेमाणस्स एयम णो सद्दति, जाव णो रोयंति, एयमहं असद्दहमाणा जाव अरोपमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थं पिवपि भिंदंति । ते णं तत्थ उग्गविसं चडविसं घोरविसं महाविसं अइकायमहाकायं मसिमूसाकालगं यणविसरोसपुण्णं अंजणपुंजणिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलचलंतजीहं धरणितलवेणिभूयं उपकड फुडकुडिलजडुलकक्खडविक डफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोसं अणागलियचंडतिव्वरोसं समुहिं तुरियं चवलं धर्मतं दिट्टिविसं सप्पं संघट्टेति । तएणं से दिट्टिविसे सप्पे ते हिं वणिएहिं संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे सणियं For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत २४११ सणियं उडेइ, उट्ठित्ता सरसरसरम्स वम्मीयस्स सिहरतलं दुरुहेइ, सिहरतलं दुरुहेत्ता आड़च्चं णिज्झाइ, आइन्च णिज्झाइत्ता ते वणिए अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओं समंता ममभिलोएति । तरणं ते वणिया ते दिड्डीविसेर्ण सप्पेणं अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओ समंता समभिलोइया ममाणा खिप्पामेव सहमत्तोवगरणमायाए एगाहच्चे कूडाहच्चं भासरासी कया यावि होत्या । तत्थ णं जे से वणिए ते िवणियाणं हियकामए, जाव हिय- सुह- णिस्सेसकामए से णं अणुकंपयाए देवयाए सभंडमत्तोवगरणमायाए णियगं णयरं साहिए" । कठिन शब्दार्थ-एगाहच्च - एक ही प्रहार से मार देना, कूडाहच्चं - पाषाणमय महायन्त्र की तरह आघात करना । भावार्थ-उस हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक की बात पर उन व्यापारियों ने श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की और वल्मीक के चौथे शिखर को तोड़ डाला । शिखर टूटते ही उसमें से उग्र विष वाला, प्रचण्ड विष वाला, घोर विष वाला, महाविष वाला, अतिकाय (मोटा ) मषि और मूषा के समान काले वर्ण वाला, दृष्टि के विष से रोष पूर्ण, काजल के पुञ्ज समान कान्ति वाला, लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिव्हा वाला, पृथ्वीतल के वेणी समान, उत्कट, स्पष्ट, कुटिल, जटिल, कर्कश, विस्तीर्ण, फटाटोप करने (फण को फैला कर विस्तृत करने) में दक्ष, अग्नि से तपाये हुए लोहे के समान धमधमायमान शब्द वाला, उग्र और तीव्र रोष वाला, त्वरित, चपल, धमधमायमान शब्द करने वाला इत्यादि विशेषणों से युक्त एक दृष्टि-विष सर्प का उन्हें स्पर्श हुआ । स्पर्श होते ही वह दृष्टि-विष सर्प अत्यन्त कुपित हुआ यावत् मिसमिसाट शब्द करता For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१२ भगवती सूत्र - श. १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत हुआ शीघ्रतापूर्वक उठा और सरसराट करता हुआ वल्मीक के शिखर पर चढ़ कर सूर्य की ओर देखा । सूर्य की ओर से दृष्टि हटा कर उस महा सर्प ने व्यापारी वर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से देखा । सर्पराज की दृष्टि मात्र से उन afrat को पात्र और उपकरणों सहित, एक ही प्रहार से कूटाघात ( पाषाण मय महा यन्त्र के आघात के समान) से तत्क्षण जला कर भस्म कर दिया। उन afणकों में से जो वणिक् उनका हितकामी यादत् निःश्रेयसकामी था, उस पर अनुकम्पा करके उस नागरूप देव ने भण्डोपकरण सहित अपने नगर में रख दिया ।' " एवामेव आणंदा ! तव वि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेणं णायपुत्त्रेणं ओराले परियाए आसाइए, ओराला कित्ति-सह- सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुव्वंति, गुवंति थुवंति इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' । तं जड़ मे से अज किंचि वि वदह तो णं तवेणं तेपणं एगाहच्चं कूडाहचं भासरासिं करोमि, जहा वा वालेणं ते वणिया । तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि, संगोवामि, जहा वा से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए जाव णिस्सेसकामए अनुकंपयाए देवयाए सभंड० जाव साहिए, तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस धम्मोवएसगस्स समणस्स णायपुत्तस्स एयमहं परिक हेहि "। कठिन शब्दार्थ - गुवंति - गाये जाते हैं, थुवंति-स्तुति होती है । भावार्थ-इ - इस प्रकार हे आनन्द ! तेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, श्रमण ज्ञात पुत्र ने उदार (प्रधान) पर्याय प्राप्त की है और देव मनुष्य एवं असुरों For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - दा १५ व्यापारियों की दुर्दशा का दृष्टांत सहित इस लोक में 'श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण भगवान् महावीर' इस प्रकार की उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक (यश) व्याप्त हुआ है, प्रसृत हुआ है और सर्वत्र उनकी प्रशंसा और स्तुति हो रही है । यदि वे आज मुझे कुछ भी कहेंगे, तो मेरे तप-तेज से, जिस प्रकार सर्प ने एक ही प्रहार से वणिकों को कूटाघात के समान जला कर भस्म कर दिया, उसी प्रकार में भी जला कर भस्म कर दूंगा । हे आनन्द ! जिस प्रकार वणिकों के उस हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक् पर नागदेव ने अनुकम्पा की और उसे भण्डोपकरण सहित अपने नगर में पहुँचा दिया, उसी प्रकार में मेरा संरक्षण और संगोपन करूंगा । इसलिये हे आनन्द ! तू जा और अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह बात कह दे ।" तणं से आनंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए. जाव संजाय भए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं सावत्थि णयरिं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छछ, णिग्गच्छित्ता जेणेव कोट्टए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छछ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेह, करिता बंद णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु अहं भंते ! छट्टक्खमणपारणगंसि तुब्भेहिं अभ गुण्णाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्च णीय० जाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए० जाव वीईवयामि, तरणं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए० जाव पासित्ता एवं वयासी - रहि ताव २४१३ For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१४ मंगवती सूत्र-श. १५ श्रमण एवं श्रमण भगवन्त का तप-तेज आणंदा ! इओ एगं महं उवमियं णिसामेहि' । तएणं अहं गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छामि । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! इओ चिराईयाए अद्धाए केइ उच्चावया वणिया० एवं तं चेव सव्वं णिरवसेसं भाणियव्वं, जाव 'णियगणयरं साहिए'। तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स जाव परिकहे हि । भावार्थ-गोशालक की बात सुन कर आनन्द स्थविर भयभीत हुए । वे वहां से लौट कर त्वरित गति से शीघ्र ही कोष्ठक उद्यान में, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप आये और तीन बार प्रदक्षिणा एवं वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-'हे भगवन् ! आज छठ-क्षमण के पारणे के लिए आपको आज्ञा लेकर श्रावस्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में गोचरी के लिये जाते हुए जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दूकान के अदूर सामन्त होकर जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और मुझे बुला कर कहा-"हे आनन्द ! यहां आ और मेरे एक दृष्टान्त को सुन ।" तब मैं उसके पास गया । गोशालक ने मुझ से इस प्रकार कहा-“हे आनन्द ! आज से बहुत काल पहले कुछ वणिक इत्यादि पूर्ववत् यावत् नागदेव ने उसे अपने नगर में रख दिया। इसलिये हे आनन्द ! तू जा और अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक को यावत् कह ।" .. श्रमण एवं श्रमण भगवंत का तप-तेज ११ प्रश्न-तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं श्रमण भगवंत का तप-तेज एगाहच्चं कूडाहच्चं भामरासिं करेत्तए, विसए णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स जाव करेत्तए, समत्थे णं भंते ! गोसाले जाव करेत्तए ? ११ उत्तर-पभू णं आणंदा ! गोमाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए । विमए णं आणंदा ! गोमाल. जाव करेत्तए । समत्थे णं आणंदा ! गोसाले जाव करेत्तए, णो चेव णं अरहंते भगवंत, पारियावणियं पुण करेजा। जावइए णं आणंदा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए, एत्तो अणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए अणगाराणं भगवंताणं, खतिखमा पुण अणगारा भगवंतो। जाव. इए णं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुण. विसिट्टयराए चेव तवतेए थेराणं भगवंताणं खतिखमा पुण थेरा भगवंतो । जावइए णं आणंदा ! थेराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए अरहंताणं भगवंताणं खति. खमा पुण अरहंता भगवंतो ! तं पभू णं आणंदा ! गोसाले मंखलि. पुत्ते तवेणं तेएणं जाव करेत्तए, विसए णं आणंदा जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा ! जाव करेत्तए, णो चेव णं अरहंते भगवंते, पारियावणियं पुण करेजा। कठिन शब्दार्थ-समत्थे-समर्थ है, पारियावणियं-परितापना । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१६ . भगवती सूत्र-न. १. श्रमणों को मौन रहने की सूचना . - - - से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जलाकर भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है ? हे भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषय मात्र है या वह ऐसा करने में समर्थ है ? ११ उत्तर-हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से यावत भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है । हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यावत यह विषय है । हे आनन्द ! वह ऐसा करने में समर्थ है, परन्तु अरिहन्त भगवान को जलाकर भस्म करने में समर्थ नहीं है, तथापि उनको परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है । हे आनन्द ! गोशालक का जितना तप-तेज है, उससे अननार भगवन्तों का तप-तेज अनन्त गुण विशिष्ट है, किन्तु अनगार भगवन्त क्षान्तिक्षम (क्षमा करने में समर्थ) हैं । हे आनन्द ! अनगार भगवन्तों का जितना तपतेज है, उससे अनन्त गुण विशिष्ट तप-तेज स्थविर भगवन्तों का है, किन्तु स्थविर भगवन्त क्षान्ति-क्षम होते हैं । हे आनन्द ! स्थविर भगवन्तों का जितना तप-तेज होता है, उससे अनन्त गुण विशिष्ट तप-तेज अरिहंत भगवन्तों का होता है, किन्तु अरिहन्त भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं। हे आनन्द ! मखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है। यह उसका विषय (शक्ति) है और वह वैसा करने में समर्थ भी है । परन्तु अरिहंत भगवन्तों को भस्म करने में समर्थ नहीं है, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है। विवेचन-प्रभुत्व दो प्रकार है-विषय मात्र की अपेक्षा और सम्प्राप्ति रूप अर्थात् कार्य रूप में परिणत कर देने की अपेक्षा । इसीलिये यहाँ मूल पाठ में विषय की अपेक्षा से और सामर्थ्य की अपेक्षा से पुनः प्रश्न किया गया है। श्रमणों को मौन रहने की सूचना १२ -तं गच्छ णं तुम आणंदा! गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमटुं परिकहेहि-'मा णं अजो! तुम्भं केइ गोसालं मंखलिपुत्तं For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... भगवती मूत्र-श. १५ श्रमणों को मौन रहने की सूचना २४७ धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोपउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडि. सारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ, गोसाले णं मंग्वलिपुत्ते समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छ विपडिवण्णे। तपणं से आणंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसद, वंदित्ता णमंमित्ता जेणेव गोयमाइ ममणा णिग्गंथा तेणेव उवागच्छड़, तेणेव उवागच्छित्ता गोयमाइ समणे णिग्गंथे आमं. तेइ, आमंतित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु अन्जो ! छट्टवखमणपारण. गंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्च-णीय तं चेव सव्वं जाव णायपुत्तस्स एयमढें परिकहेहि, तं मा णं अज्जो ! तुम्भं केइ गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडि. चोयणाए पडिचोएउ, जाव मिच्छं विपडिवण्णे । कठिन शब्दार्थ--पडिचोयणाए--प्रेरणा, पडिसाहरणाए-भूली हुई बात को याद दिलाना, पडोयारेणं-प्रत्युपचार द्वारा या प्रत्युपकार द्वारा, विपडिवण्णे-विरोधी हो गया है। भावार्थ-१२-हे आनन्द ! इसलिये तू जा और गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को कह कि "हे आर्यों ! गोशालक के साथ उसके मत के प्रतिकूल तुम कोई भी धर्म सम्बन्धी चर्चा, प्रतिसारणा (उसके मत के प्रतिकूल अर्थ को स्मरण कराने रूप) तथा प्रत्युपचार (तिरस्कार रूप वचन) मत करना । गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेषतः मिथ्यात्व म्लेच्छपन अथवा अनार्यपन) धारण किया है। भगवान् को वन्दना नमस्कार करके आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों के पास आये और उन्हें सम्बोधन कर इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! आज छठक्षमण पारणे के लिए श्रमण भगवान् महा For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप वीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर मैं श्रावस्ती नगरी में इत्यादि वर्णन । हे आर्यो ! आप कोई भी गोशालक के साथ उसके मत के प्रतिकूल धर्म-चर्चा मत करना यावत् उसने श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ विशेषतः अनार्यपन धारण किया है । २४१८ विवेचन - स्वयं धर्म में स्थिर रहते हुए जो दूसरे माधुओं को धर्म में स्थिर करे. वे 'स्थविर' कहलाते हैं । उनके तीन भेद हैं - ५ वय स्थविर-साठ वर्ष की अवस्था के साधु, २ सूत्र स्थविर स्थानांग और समवायांग सूत्र के ज्ञाता और ३ प्रत्रज्या स्थविर-वीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले । गोशालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप १३ - जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं - एयमहं परिकहेइ तावं च णं से गोमाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिणिक्खमइ. पडिणिक्खमित्ता आजीवियसंघ संपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं जाव सावत्थि णयरिं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव कोट्टए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ्छ, तेणेव उवागच्छत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते टिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी- 'सुछु णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी, साहूणं आउसो कोसवा ! ममं एवं वयासी - गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले ० २, जेणं से मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुकाभिजाइए भवित्ता कालमासे For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १५ गोगालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप २४१९ कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे, अहं णं उदाइणाम कुंडियायणीए, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स मगरगं विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्म सरीरगं अणुप्पविसामि गो० २ अणुप्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि जे वि आई आउसो कासवा ! अम्हं समयंसि केइ सिझिमु वा सिझंति वा सिज्झिम्संति वा सव्वे ते चउरासीइं महाकप्पसयसहस्साई, सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत्त सण्णिगम्भे, सत्त पउट्टपरिहारे, पंच कम्माणि सयसहस्साई सद्धिं च सहस्साई ञ्चसए तिण्णि य कम्मसे अणुपुव्वेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिवायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा। कठिन शब्दार्थ-कासवा-काश्यप गोत्रीय, सुक्के-शुक्ल (पवित्र), पउट्टपरिहारएक शरीर छोड़ कर दूसरे को प्राप्त करना। .... भावार्थ-१३-जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को, भगवान् की आज्ञा सुना रहे थे, इतने में ही गोशालक आजीविक संघ सहित हालाहला कुम्भारिन की दुकान से निकल कर, अत्यन्त रोष को धारण करता हुआ शीघ्र और त्वरित गति से कोष्ठक उद्यान में, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आया। श्रमण भगवान महावीर स्वामी से न अति दूर न अति निकट खड़ा रह कर उनसे इस प्रकार कहने लगा-“हे आयुष्यमन् ! काश्यप गोत्रीय ! मेरे विषय में तुम अच्छा कहते हो, हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है। (परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिये कि) जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२० भगवती सूत्र-श १५ गोशालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र परिणाम वाला) होकर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ है। मैं तो कौंडिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ। मैंने गौतम-पुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश कर, यह सातवां परिवृत्तपरिहार (शरीरान्तर प्रवेश) किया है । हे आयुष्यमन् काश्यप ! हमारे सिद्धांत के अनुसार जो मोक्ष में गये हैं, जाते हैं और जावेंगे, वे सभी चौरासी लाख महाकल्प (काल विशेष) सात देव भव, सात संयूथनिकाय, सात संज्ञी गर्भ (मनुष्य गर्भावात), सात परिवृत्त परिहार (शरीरान्तर प्रवेश) और पांच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करने के बाद सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते है और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में करेंगे। से जहा वा गंगा महाणयी जओ पबूढा, जहिं वा पज्जुत्थिया, एस णं अद्धा पंचजोयणसयाई आयामेणं, अद्धजोयणं विवखंभेणं, पंच धणुसयाई उव्वेहेणं, एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा, सत्त महागंगाओ सा एगा सादीणगंगा, सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मच्चुगंगा, सत्त मच्चुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ, सा एगा आवतीगंगा, सत्त आवती. गंगाओ सा एगा परमावती, एवामेव सपुव्वावरेणं एगं गंगासयसहस्सं सत्तर सहस्सा छच्च गुणपण्णं गंगासया भवंतीति मक्खाया। . भावार्थ-जिस प्रकार गंगा महानदी जहां से निकलती है और जहाँ समाप्त होती है, उस गंगा का अद्धा (मार्ग) लम्बाई में पांच सौ योजन है, For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १५ गोगालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप . २४:१ चौड़ाई में आधा योजन है और गहराई में पांच सौ धनुष है । इस प्रकार गंगा के प्रमाण वाली सात गंगा नदियाँ मिल कर एक महागंगा होती है। सात महागंगा मिल कर एक सादीन गंगा होती है। सात सादीन गंगा मिल कर एक मत्युगंगा होती है। सात मृत्युगंगा मिल कर एक लोहित गंगा होती है । सात लोहित गंगा मिल कर एक अवन्ती गंगा होती है। सात अवन्ती गंगा मिल कर एक परमावती गंगा होती है। इस प्रकार पूर्वापर मिल कर एक लाख मत्तरह हजार छह सौ ऊनपचास गंगा नदियां होती हैं। तासिं दुविहे उद्धारे पण्णत्ते, तं जहा-सुहमवोंदिकलेवरे चेव वायरवोंदिकलेवरे चेव । तत्थ णं जे मे सुहमयोंदिकलेवरे से ठप्पे । तत्थ णं जे से वायरवोदिकलेवरे तओ णं वाससए गए वाससए गए पगमेगं गंगावालुयं अवहाय जावइएणं कालेणं से कोटे खीणे, ‘णीरए, पिल्लेवे, णिट्ठिए भवइ सेत्तं सरे सरप्पमाणे । एएणं सरप्पमाणेणं तिण्णि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे, चउरासीई महाकप्पसयसहस्साइं से एगे महामाणसे । अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चहत्ता उवरिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजइ १ । से णं तत्थ दिबाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता पढमे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ १ । से णं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता मझिल्ले माणसे मंजूहे देवे उववजइ २ । से णं तत्थ दिव्वाइं भोगभोगाइं जाव विहरित्ता ताओ देवलोयाओ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२२ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालय का आगमन और दानिक प्रलाप .. आउक्खएणं ३ जाव चइत्ता, दोच्चे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ २ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता हेडिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजइ ३ । से णं तत्थ दिव्वाइं जाव चइत्ता तच्चे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ ३। से णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजइ ४ । से णं तत्थ दिव्वाई भोग० जाव चइत्ता चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाइ ४ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता मझिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजइ ५ । से णं तत्थ दिव्वाइं भोग० जाव-चइत्ता पंचमे सण्णिगम्भे जीवे पञ्चायाइ ५ । से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता हिडिल्ले माणुग्मुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ ६ । से णं तत्थ दिव्वाई भोग० जाव-चइत्ता छठे सण्णिगब्भे जीवे पञ्चायाइ ६ । कठिन शब्दार्थ-ठप्पे-स्थाप्य, अवहाय-छोड़ कर।। भावार्थ-उन गंगा नदियों के वालुका कण का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है । स्था-सूक्ष्म बोन्दि कलेवर रूप और बादर बोन्दि कलेवर रूप। इन में से सूक्ष्म बोन्दि कलेवर रूप उद्धार स्थाप्य है (यह निरुपयोगी है) अतएव उसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उनमें से जो बादर बोन्दि कलेवर रूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में एक-एक वालुका कण निकाला जाय और जितने काल में उक्त गंगा के समुदाय रूप वह कोठा खाली हो, नीरज (रज रहित) हो, निर्लेप हो और निष्ठित (समाप्त)हो, तब एक 'शर प्रमाण काल कहलाता है। इस प्रकार के तीन लाख शर प्रमाण काल द्वारा एक 'महाकल्प' होता है। चौरासी लाख महाकल्प द्वारा एक 'महामानस' होता है । अनन्त संयूथ (अनंत For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र १५ गोशालक का आगमन और दामिक प्रलाप जीव के समुदाय रूप निकाय से जीव च्यत्र कर संयूथ - देवभव में ) उपरितन मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा उत्पन्न होता है और वहां दिव्य भोग भोगता है । उस देवलोक का आयुष्य, देवभव और देव-स्थिति का क्षय होने पर प्रथम संज्ञी गर्भज पञ्चेन्द्रिय मनुष्यपने उत्पन्न होता है । इसके बाद वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा संपूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य भोग भोगता है । वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति क्षय होने पर दूसरी बार संज्ञीगर्भ ( गर्भज मनुष्य ) में जन्मता है। इसके बाद वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तत मानस शर प्रमाण आयुष्य द्वारा संथ ( देवनिकाय) में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य भोग भोगकर, वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञी-गर्भ में जन्मता है । वहाँ से यावत् निकल कर उपरितन मानसोतर ( महामानस ) आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य-भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर चौथे संज्ञी - गर्भ में जन्मता है । वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उपजता है । वहाँ दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से न्यव कर पांचवें संज्ञी-गर्भ में उत्पन्न होता है । वहाँ से मर कर तुरन्त अधस्तन जानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है । वहाँ दिव्य-भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर छठे संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होता है । २८२३ मेणं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता वंभलोगे णामं से कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे, जहा ठाणपए जाव पंच वर्डेसगा पण्णत्ता, तं जहा - १ असोगवडेंसए, जाव पडि रूवा । से णं तत्थ देवे उववज्जइ ७ । से णं तत्थ दस सागरोवमाई दिव्वाई भोग० जाव चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे पचायाइ ७ । For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२४ भगवती सूत्र -श. १५ गोशालक का आगमन और प्रलाप से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाण० जाव वीइक्कंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउकुंडल कुंचिय केसर मट्टगंडतलकण्णपीढए देवकुमारसप्प भए दारए पयाइ । से णं अहं कासवा ! तर अहं आउसो कासवा कोमारियपव्वजाए कोमारएणं बभ चेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाणं पडिलभामि; संखाणं पडिलभित्ता इमे सत्त पट्टपरिहारे परिहरामि तं जहा - १ एणेजस्स, २ मल्लरामस्स, ३ मंडियस्स, ४ रोहस्स, ५ भारद्दाइस्स, ६ अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स ७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स । भावार्थ- वहां से मर कर तुरन्त जो ब्रह्मलोक नामक कल्प ( देवलोक ) कहा गया है, वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है । प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार वर्णन, यावत् उसमें पांच अवतंसक विमान कहे गये हैं । यथा - अशोकावतंसक यावत् वे प्रतिरूप ( सुन्दर ) हैं । उस देवलोक में उत्पन्न होता है । वहाँ दस सागरोपम तक दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर सातवें संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होता है। वहां नौ मास और साढ़े सात रात्रिदिवस व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु और दर्भ के कुण्डल के समान संकुचित केश वाला, कान के आभूषणों से जिसके कपोल भाग शोभित हो रहे हैं ऐसा देवकुमार के समान कान्ति वाला एक बालक जन्मा हे काश्यप ! वह मैं हूँ । इसके पश्चात् हे आयुष्यमन् काश्यप ! कुमारावस्था में प्रव्रज्या द्वारा, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्य द्वारा, अविद्ध कर्ण (व्युत्पन्न बुद्धि वाले ) मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न हुई और सात परिवृत्त परिहार (शरीरान्तर प्रवेश ) में संचार किया । यथा - १ ऐणेयक २ मल्लराम ३ मण्डिक ४ रोह ५ भारद्वाज, ६ गौतमपुत्रअर्जुन और ७ मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूव-स. १५ गाभाटक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप २०२५ तत्थ णं जे मे पढमे पउट्टपरिहारे से णं गयगिहस्स णयरस्स बहिया मंडिकुञ्छिसि चेड्यंमि उदाइरस कुंडियायणस्स सरीरं विप्पजहामि, उदा० . २-जहित्ता एणेजगरस सरीरगं अणुप्पविसामि, एणे. २-प्पविसित्ता बावीसं वामाई पढमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से दोच्चे पउट्टपरिहारे से णं उदंडपुरस्म णयरस्स वहिया चंदोयरणंसि चेइयमि एणेज्जगस्स सरीरगं विप्पजहामि, एणे० २जहित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि. मल्ल० २-विसित्ता एकवीसं वासाई दोच्च पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंपाए णयरीए वहिया अंगमंदिरंसि चेइयंसि मल्लरामस्स सरीरगं विप्पजहामि, मल्ल० २-जहिता मंडियस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, मंडि० २--प्पविसित्ता वीसं वासाइं तच्चं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से चउत्थे पउट्ट. परिहारे से णं वाणारसीए णयरीए बहिया काममहावणंसि चेइयंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, मंडि० २-जहित्ता रोहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, रोह० २-पविसित्ता एकूणवीसं वासाई. चउत्थं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से णं आलभियाए णयरीए बहिया पत्तकालगयंसि चेइयंसि रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि, रोह० २-जहिता भारहाइस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, भा० २-प्पविसित्ता अट्टारस वासाई पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२६ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप तत्थ णं जे से छटे पउट्टपरिहारे से णं वेसालीए णयरीए बहिया कोंडियायणंसि चेइयंसि भारदाइयस्स सरीरं विप्पजहामि, भा० २जहित्ता अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अ० २प्पविसित्ता सत्तरस्स वासाई छर्ल्ड पउट्टपरिहारं परिहरामि । __ भावार्थ-इनमें से जो प्रथम परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर प्रवेश) राजगृह नगर के बाहर मण्डिकुक्षि नामक उद्यान में, कुण्डियायन गोत्रीय उदायन के शरीर का त्याग कर के ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया, प्रवेश कर के बाईस वर्ष तक प्रथम शरीरान्तर में परिवर्तन किया। दूसरे परिवत्त-परिहार में उदण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में ऐणेयक के शरीर का त्याग कर मल्लराम के शरीर में प्रवेश किया और इक्कीस वर्ष तक दूसरे परिवत्त-परिहार का उपभोग किया। तीसरा परिवृत्त-परिहार चम्पा नगरी के बाहर अगमन्दिर नामक उद्यान में, मल्लराम के शरीर का त्याग कर के मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया और वहां बीस वर्ष तक तीसरे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। चौथा परिवृत्तपरिहार वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन नामक उद्यान में मण्डिक के शरीर का त्याग कर, रोहक के शरीर में प्रवेश किया और उन्नीस वर्ष तक चौथे परिवत्त-परिहार का उपभोग किया। पांचवां परिवत्त-परिहार आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकाल नामक उद्यान में रोहक के शरीर का त्याग कर के भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया और अठारह वर्ष तक पांचवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। छठा परिवृत्त-परिहार वैशाली नगरी के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का त्याग कर के गौतम पुत्र-अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया और वहाँ सतरह वर्ष तक छठे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। तत्थ गंजे से सत्तमे पउट्टपरिहारे मे णं इद्देव सावत्थीए णयरीए For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ गागालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अन्जुण २ विपजहित्ता । गोसालम्स मंखलि. पुत्तस्स सरीरगं 'अलं थिर धुवं धारणिजं मीयसह उण्हसहं खुहा. सहं विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरमघयण त्ति कटु तं अणुप्पवितामि, नं० २-प्पविमिता सोलस वासाइं इमं सत्तमं पउट्ट. परिहारं परिहरामि । एवामेव आउसो कासवा ! पगेणं तेत्तीसेणं वासमएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाया, तं मुटु णं आउमो कासवा ! ममं एवं क्यासी, साहु, णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी-'गोसाले मखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासि' त्ति गोसाले० २। भावार्थ-सातवां परिवत्त परिहार इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभारिन को दुकान में गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग कर के मंखलिपुत्र गोशालक का शरीर समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, शीत को सहन करने वाला, उष्णता को सहन करने वाला, क्षुधा को सहन करने वाला, डांस-मच्छर आदि के विविध परोषह और उपसर्गों को सहन करने वाला तथा स्थिर संहनन वाला है, ऐसा समझ कर उपमें प्रवेश किया और इसमें सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूं। इस प्रकार हे आयुष्यमन् काश्यप ! मैंने एक सौ तेतीस वर्षों में ये सात परिवृत्त-परिहार किये हैं। ऐसा मैंने कहा है । इसलिये हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मुझे ठीक कहते हो। हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मुझे खूब अच्छा कहते हो कि 'मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है। मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है।' विवेचन-मंखलिपुत्र गोशालक अत्यन्त कुपित होता हुआ भगवान् के पास आया For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२८ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक को चोर म मा ।। और उपालम्भ पूर्वक व्यंग वचनों से कहने लगा कि-'तुम मुझे अपना धर्मान्तेवामी कहते हो, तो बहुत अच्छी बात है, परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिये कि-आपका धर्मान्तेवासी मंखलिपुत्र गोशालक तो शुभ भावों में काल करके देवलोक में उत्पन्न हुआ है। मैं आपका धर्मान्तेवासी नहीं हूँ। में तो कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ और गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके, मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया है । यह मेरा मातवां परिवृत्त परिहार है।' उपरोक्त बात कह कर. गोशालक ने अपने सिद्धान्तानुसार मोक्ष जाने वालों का क्रम बतलाया है । इस प्रसंग में उसने अपने सिद्धान्तानुसार महाकल्प, संयूथ, शर प्रमाण, मानस शर प्रमाण, उद्धार आदि का वर्णन किया है । इस विषय में टीकाकार और चूर्णिकार ने लिखा है कि "गोशालक का सिद्धान्त अस्पष्ट एवं संदिग्ध होने से ज्ञात नहीं होता। इसलिए केवल शब्दार्थ मात्र लिखा है।" वास्तव में यह सब गोगालक की कल्पना मात्र है। अतः उसकी अर्थ संगति तो हो हो कैसे सकती है ? गोशालक की चौर से सदृशता १४-तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'गोसाला ! से जहाणामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं परम्भ माणे प० २ कत्थ य गइडं वा दरिं वा दुग्गं वा णिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्माएमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं आवरित्ता णं चिडेजा से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मण्णइ अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मगइ, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुमं पि For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगवतां सुत-शः १९ गोगोलक द्वारा भगवान् का रिकार गोसाला ! अणपणे मंते अण्णमिति अप्पाणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! णारिहसि गोमाला ! सच्चेव ते सा छाया णो अण्णा' । कठिन शब्दार्थ-तेणए-स्तेन (चोर), गामेल्लए हि-ग्रामवामियों से, गडुंग ( खड्डा ), दरि - गुफा, णिण्णं - निम्न ( शुल्क मरोवर आदि), तणसूएण-तृणंसूक अर्थात् तृणांग्र ( तिनके के अग्रभाग से ).. अताणं आवरेता अपने को छुपात्रे, अप्पच्छष्णे - अप्रच्छन्न, अनिल के.ढका हुआ नहीं | भावार्थ - १४ - (गोशालक के उपर्युक्त कथन पर ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा - " हे गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर, ग्रामवासियों के द्वारा पराभव पाता हुआ, खड्डा, गुफा, दुर्ग (दुःख पूर्वक - कठिनता से जाने योग्य स्थान ) निम्न (नीचा स्थान ) पर्वत या विषम स्थान at प्राप्त नहीं करता हुआ, एक ऊन बड़े रोम ( केश) से, शण के रोम से, कपास के रोम से और तृण के अग्रभाग से अपने को ढक कर बैठ जाय और वह नहीं ढका हुआ भी अपने-आपको ढका (छुपा) हुआ माने, अप्रच्छन्न होते हुए भी अपने आपको छिपा हुआ माने, लुका हुआ नहीं होते हुए भी अपने आपको लुका हुआ माने, अपलापित (गुप्त) नहीं होते हुए भी अपने आपको गुप्त माने, उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य ( दूसरा ) नहीं होते हुए भी अपने आपको अन्य बता रहा है । हे गोशालक ! तू ऐसा मत कर । तू ऐसा करने के योग्य नहीं है। तू वही है, तेरी वही प्रकृति है । तू अन्य नहीं है ।" गोशालक द्वारा भगवान् का तिरस्कार १५ - तप से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेण भगवया महावीरेणं एवं चुत्ते समाणे आमुरुते ५ समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहि आउस, उच्चा० २ आउसित्ता उच्चावयाहिं उद्धं १२४२९ For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३० भगवती सूत्र-श. १५ सर्वानुभूति अनगार का देहोत्सर्ग सणाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसेत्ता उच्चावयाहिं णिव्छभंणाहिं णिभंछेइ, उ. २ णिभंछेत्ता उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं, णिच्छोडेइ, उ० २ णिछोडेता एवं वयासी–ण? सि कयाइ, विणट्टे सि कयाइ, भटे सि कयाइ, णटु-विण?-भटे सि कयाइ, अज ण भवसि णाहि ते ममाहिंतो सुहमत्थि'। कठिन शब्दार्थ-आउसणाहि-आक्रोश वचनों से, उद्धंसणाहि-कुलादि को होन बताने रूप आक्रोश वचन, गिमंछणाहि-कठोर वचनों से, णिच्छोडणाहि-कर्कश वचन । भावार्थ-१५-जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा, तब गोशालक अत्यंत कुपित हुआ और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनेक प्रकार के अनुचित एवं आक्रोश पूर्ण वचनों से तिरस्कार करने लगा। वह अनेक उद्घर्षणा (पराभव) युक्त वचनों से अपमान करने लगा। अनेक प्रकार की निर्भर्त्सना द्वारा निर्भत्सित करने लगा। अनेक प्रकार के कर्कश वचनों से अपमानित करने लगा। यह सब करके गोशालक बोला-'मैं मानता हूं कि कदाचित् आज तू नष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू विनष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू भ्रष्ट हुआ है, कदाचित् आज तू नष्ट-विनष्ट और भ्रष्ट हुआ है। आज तू जीवित नहीं रह सकता। मेरे द्वारा तेरासुख (शुभ) होने वाला नहीं है।' सर्वानुभूति अनगार का देहोत्सर्ग १६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीररस अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभई णाम अणगारे पगइभद्दए, जाव विणीए, धम्मायरियाणुरागेणं एयमढे असदहमाणे उट्ठाए उढेइ, For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -ग. .५ मर्वानुभूति अनगार का देहात्मग उ०२ उद्वित्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, ते० २ गच्छित्ता गोसालं मखलिपुत्तं एवं क्यासी-जे वि ताव गोसाला ! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं णिप्तामेइ, से वि ताव वंदइ णमंमड़, जाव कल्लाणं मंगलं देवयं पज्जुवासह, किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया चेव पवाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्वाविए, भगवया चेव बहुस्सुईकए, भगवओ चेव मिच्छं विप्पडिवण्णे, तं मा एवं गोसाला ! णारिहसि गोसाला ! सच्चेव ते सा छाया णो अपणा । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सब्वाणुभइणामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ सव्वाणुभई अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरामिं करेइ । तएणं से गोमाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभई अणगारं तवेणं तेएणं एगा. हच्च कूडाहच्च भासरासिं करित्ता दोच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ. जाव मुहं णत्थि । कठिन शब्दार्थ-पाईण जाणवए-पूर्व जनपद (देश) के. पवाविए-प्रव्रजित किया, मुंडाविए-मुण्डित किया, सेहाविए-व्रत पालने में शिक्षित किया, भासरासि-राख का ढेर । भावार्थ-१६ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुमति अनगार था, जो प्रकृति का भद्र और विनीत था। वह अपने धर्माचार्य के अनुराग से गोशालक की बात पर अश्रद्धा करता हुआ उठा और गोशालक के पास जा कर इस प्रकार कहने लगा-“हे गोशालक ! For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र - श. १५ सुनक्षत्र मुनिका देहात्सग जो मनुष्य तथारूप के श्रमण माहण के पास एक भी आर्य ( निर्दोष) धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उनको वन्दन- नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप, ज्ञानस्वरूप मान कर पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे लिये तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुझे दीक्षा दी, तुझे शिष्य रूप से स्वीकार किया और तुझे मुण्डित किया, भगवान् ने तुझे व्रत समाचारी सिखाई, भगवान् ने तुझे (तेजोलेश्या आदि विषयक) उपदेश देकर शिक्षित किया और भगवान् ने तुझे बहुश्रुत बनाया, इतने पर भी तू भगवान् के साथ अनापना कर रहा है ? हे गोशालक ! तू ऐसा मत कर । हे गोशालक ! तू ऐसा करने के योग्य नहीं है । तू वही मंखलिपुत्र गोशालक है, दूसरा नहीं । तेरी वही प्रकृति है ।" सर्वानुभूति अनगार की बात सुन कर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज के द्वारा एक ही प्रहार में कूटाघात की तरह सर्वानुभूति अनगार को जला कर भस्म कर दिया। उन्हें भस्म कर के गोशालक फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनेक प्रकार के आक्रोश वचनों से बकने लगा, यावत् 'आज मेरे से तुम्हें सुख (शुभ) होने वाला नहीं है ।' २४३२ विवेचन - यद्यपि गोशालक के सामने बोलने की भगवान् ने मनाई की थी, तथापि अपने धर्माचार्य के अनुराग से सर्वानुभूति अनगार में नहीं रहा गया और उन्होंने गोशालक से उचित बात कही । जिस पर कुपित होकर उसने उनको जला कर भस्म कर दिया । सुनक्षत्र मुनि का देहोत्सर्ग १७- तेणं कालणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवर सुणक्खत्ते णामं अणगारे पगड़भदए, जाव विणीए, धम्मायरियाणुरागेणं जहा सव्वाणुभूई तहेव जाव सच्चेव ते सा छाया णो अण्णा । तरणं से गोसाले मंखलिपुत्ते For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १५ मुनक्षत्र मुनि का होत्मन मुणवत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते ममाणे आमुमते ५ सुणवत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेड़ । तएणं से सुणखत्ते अणगारे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए ममाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड, ते० २-गच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो बंदह णमंमइ, वंदित्ता णमंमित्ता सयमेव - पंच महन्वपाई आरुभेइ. म० २ आरुभेता समगा य समणीओ य खामेइ, सम० २ खामित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते आणु-: पुवीए कालगए। कठिन शब्दार्थ-आरुमेह-आरोपित किया। भावार्थ-१७-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी का अन्तेवासी कौशल देश (अयोध्या देश) में उत्पन्न हुआ सुनक्षत्र नामक अनगार था, जो प्रकृति से भद्र और विनीत था । उसने भी धर्माचार्य के अनुराग से सर्वानभूति के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत् हे गोशालक ! तू वही है, तेरी वही प्रकृति है, तू अन्य नहीं है । सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी जलाया । अंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जला हुआ सुनक्षत्र अनगार, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट आया और तीन बार प्रदक्षिणा देकर वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके स्वयं पंच महाव्रतों का उच्चारण किया और सभी साधु-साध्वियों को खमाया, फिर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुआ। विवेचन-सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र अनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या छोड़ी। जिससे वे तुरन्त तो भस्म नहीं हुए, किन्तु जलने से घायल हो गये। उन्हें भगवान को वन्दना-नमस्कार कर, साधु-साध्वियों को खमाकर और आलोचना प्रतिक्रमण करने का अवसर प्राप्त हो गया । वे समाधि पूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए । For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३४ भगवती सूत्र -श. १५ आक्रमणकारी स्वयं आहत आक्रमणकारी स्वयं आहत १८-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुणक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावित्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ, सव्वं तं चेव जाव सुहं पत्थि । तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जे वि ताव गोसाला ! तहारूवस्स समणस्स वा माहणरस वा तं चेव जाव पज्जुवासइ, किमंग पुण गोसाला ! तुमं मए चेव पव्वाविए, जाव मए चेव बहुस्सुईकए, ममं चेव मिच्छं विपडिवण्णे ? तं मा एवं गोसाला ! जाव णो अण्णा । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ तेयासमुग्धाएणं समोहण्णइ, तेया०-हणित्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्काइ, पञ्चोसक्कित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं णिसिरइ । से जहाणामए वाउक्कलिया इ वा वायमंडलिया इ वा मेलंसि वा कुइडंसि वा थंभंसि वा थूमंसि वा आवरिजमाणी वा णिवारिज्जमाणी वा सा णं तत्थ णो कमइ, णो पक्कमइ, एवामेव गोसालस्स वि मंखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि णिसिटे समाणे से णं तत्थ णो कमइ, णो पक्कमइ, अंचियंचियं करेइ, अचि० २ करित्ता आयाहिणपयाहिणं करेइ, For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवती सूत्र-श. १५ आक्रमणकारी स्वयं आहत २४३५ आ० २ करित्ता उड्ढं वेहासं उप्पइए; से णं तओ पडिहए पडिणियत्ते समाणे तमेव गोसालस्म मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो २ अणुप्पवितु। __ कठिन शब्दार्थ-पच्चोसक्कइ-पीछे हटा, वायक्कलिया-वातात्कालिका-ठहर-ठहर कर चलने वाली हवा, वायमंडलिया-मण्डलाकार वायु-मलिया। भावार्थ-१८-अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जला कर गोशालक तीसरी बार फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पर अनेक प्रकार के अनुचित वचनों द्वारा आक्रोश करने लगा, इत्यादि पूर्ववत, यावत् 'आज मुझ से तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है ।' तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा- "हे गोशालक ! जो तथा प्रकार के श्रमणमाहण से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि, यावत् वह भी उसको पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या है ? मैंने तुझे प्रवजित किया यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत किया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार मिथ्यात्व (अनार्यपन) स्वीकार किया है । हे गोशालक ! ऐसा मत कर । ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है । यावत् तू वही है, अन्य नहीं है। तेरी वही प्रकृति है ।" श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और तैजस समुद्घात कर के सात, आठ चरण पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वध करने के लिये अपने शरीर में से तेजोलेश्या निकाली। जिस प्रकार वातोत्कलिका (ठहर-ठहर कर चलने वाली वायु) और मण्डलाकार वायु पर्वत, भीत, स्तम्भ या स्तूप द्वारा स्खलित एवं निवृत हो जाती है, किन्तु उसे गिराने में समर्थ-विशेष समर्थ नहीं हो सकती, इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वध करने के लिये मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने शरीर में से बाहर निकाली हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान् को क्षति पहुंचाने में समर्थ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३६ भगवती सूत्र---. १५ आक्रमणकारी स्वय आदत नहीं हुई। पन्तु वह गमनागमन करने लगी, फिर उसने प्रदक्षिणा दी और आकाश में ऊंची उछली। फिर आकाश से नीचे गिरती हुई वह तेजो-लेश्या गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई और उसे जलाने लगी। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेएणं अण्णाइट्टे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-'तुमं णं आउमो कासवा ! ममं तवेणं तेएणं अण्णाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करैस्समि। तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-'णो खलु अहं गोसाला तव तवेणं तेएणं अण्णाइट्टे समाणे अंतो छण्हं जाव कालं करिस्सामि, अहं णं अण्णाई सोलस वासाई जिणे । सुहत्थी विहरिस्सामि, तुम णं गोसाला ! अप्पणा चेव सएणं तेएणं अण्णाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव मत्थे चेव कालं करिस्ससि । भावाथ-वह अपनी ही तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त हुआ। क्रुद्ध गोशालक ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से कहा-"आयुष्यमन् काश्यप ! मेरी तपोजन्य तेजोलेश्या द्वारा पराभव को प्राप्त हो कर, तू पित्त-ज्वर युक्त शरीर वाला होगा और छह मास के अन्त में दाह की पीड़ा से छद्मस्थ अवस्था में ही मर जायगा।" तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गोशालक से इस प्रकार कहा'हे गोशालक ! तेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर में छह मास के अन्त में यावत् काल नहीं करूंगा, परन्तु दूसरे सोलह वर्ष तक जिनपने For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ जन-चर्चा २४३७ गन्धहस्ती के समान विचरूंगा । परन्तु हे गोशालक ! तू स्वयं अपनी ही तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त हो कर सात रात्रि के अन्त में पित्त-ज्वर से पीड़ित होकर, छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जायगा ।" - जन-चर्चा १९-तएणं मावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणों अण्णमण्णस्स एवमाइक्वइ, जाव एवं परूवेइ-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! सावत्थीए णयरीए बहिया कोट्टए चेइए दुवे जिणा संलवंति, एगे वयह-तुमं पुट्विं कालं करिस्ससि. एगे वयई तुम पुब्बि कालं करिस्ससि, तत्थ णं के पुण सम्मावाई के पुण मिच्छा. वाई ? तत्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से वयइ-समणे भगवं महा. . वीरे सम्मावाई, गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावाई । काठन शम्वार्थ-अहप्पहाणे जणे--यथा-प्रधान मनुष्य । भावार्थ-१९-श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक यावत् राजमार्ग में बहुत से मनुष्य कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगे-“हे देवानुप्रियो ! श्रावस्ती नगरी के बाहर, कोष्ठक उद्यान में दो जिन परस्पर संलाप करते हैं, उनमें से एक इस प्रकार कहता है कि तू पहले काल कर जायगा' और दूसरा उसे कहता है कि 'तू पहले मर जायगा।' इन दोनों मेंन मालम कौन सत्यवादी है और कौन मिथ्यावादी है ।" उन लोगों में से जो प्रधान मनुष्य हैं, वे कहते हैं कि “श्रमण भगवान महावीर स्वामी सत्यवादी हैं और मंखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी है।" For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३८ भगवती सूत्र-श. १५ धर्म-चर्चा का आदेश धर्म-चर्चा का आदेश 'अजो' ति समणे भगवं महावीरे समणे णिग्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी-'अजो' ! से जहाणामए तणरासी इ वा कट्टरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा अगणिझामिए अगणिझू सिए अगणिपरिणामिए हयतेए गयतेए णट्ठतेए भट्टतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाव एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते मम वहाए सरीरगंसि तेयं णिसिरेत्ता हयतेए गयतेए . जाव विण?तेए जाए, तं ;देणं अजो ! तुब्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, धम्मि० २ पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मि० २ पडि. सारित्ता धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, धम्मि० २ पडोयारेत्ता अद्वेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य कारणेहि य णिप्पट्ठः पसिणवागरणं करेह । : कठिन शब्दार्थ-भगणिझामिए-अग्नि से किचित् जलाया हुआ, अगणिसिए-अग्नि -से नष्ट किया हुआ, छंदेणं-अपनी इच्छानुसार-यथेष्ट, हयतेए-जिसका तेज हत हो गया, गयतेए-गत तेज, पडिचोयणाए-प्रति प्रेरणा-उपदेश, पडिसारणा-धर्म का स्मरण कराना, णिप्पटुपसिणवागरणेण-प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकने योग्य बना दो। भावार्थ-तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने श्रमण-निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा-“हे आर्यो ! जिस प्रकार तण-राशि, काष्ठ-राशि, पत्र. राशि, त्वचा (छाल) राशि, तुष-राशि, भूसा-राशि, गोमय (गोबर) राशि, For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ धर्म-चर्चा में गोशालक की पराजय २४३९ और अवकर (कचरा) राशि, अग्नि से दग्ध, अग्नि से नष्ट एवं परिणामान्तर को प्राप्त होती है और जिसका तेज हत हो गया हो, तेज चला गया हो, नष्ट हो गया हो, भ्रष्ट हो गया हो, लुप्त हो गया हो यावत् उसो प्रकार मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे वध के लिये अपने शरीर से तेजोलेश्या बाहर निकाली थी, अब उसका तेज हत (नष्ट) हो गया है यावत् उसका तेज नष्ट, विनष्ट, भ्रष्ट हो गया है । इसलिये है आर्यो ! अब तुम अपनी इच्छानुसार गोशालक के के साथ धर्म-चर्चा करो। धामिक प्रतिप्रेरणा, प्रतिसारणा आदि करो और अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण और कारणों के द्वारा पूछे हुए प्रश्न का उत्तर न बन सके, इस प्रकार उसे निरुत्तर करो। विवेचन- गोशालंक के साथ धार्मिक चर्चा और प्रश्नोत्तर आदि करने के लिये भगवान् ने पहले साधुओं को मना किया था, परन्तु अब गोशालक के तेजोलेश्या के प्रभाव मे रहित होने के बाद भगवान् ने धर्म-चर्चा करने की छूट दी । इस का कारण यह है कि चर्चा सुन कर गोशालक के अनुयाया अनेक स्थविर साधु, उसके मत का त्याग कर सत्य मार्ग को अंगीकार कर सकें। धर्म-चर्चा में गोशालक की पराजय २०-तएणं ते समणा णिग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडि. चोएंति, ध० २ पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेंति, ध० २ पडिसारेत्ता धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति, ध० २ पडो For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४० भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक के अनेक स्थविर भगवान् के आश्रय में यारित्ता अढेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव वागरणं करेंति । भावार्थ-२०-जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और गोशालक के साथ धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना (उसके मत के प्रतिकूल वचन) प्रतिसारणा (उसके मत के प्रतिकूल अर्थ का स्मरण कराना) तथा प्रत्युपचार किया और अर्थ हेतु तथा कारण मादि द्वारा उसे निरुत्तर किया। गोशालक के अनेक स्थविर भगवान् के आश्रय में २१-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहिं णिग्गंथेहिं धग्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइज्जमाणे जाव णिप्पटुपसिणवागरणे कीरमाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे णो संचाएइ समणाणं णिग्गं. थाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए, छविच्छेयं वा करेत्तए । तएणं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहिं णिग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएजमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं, धम्मिएणं पडोयारेण य पडोयारेजमाणं, अद्वेहि य हेहि य जाव करेमाणं, आसुरुत्तं जाव : मिसि. मिसेमाणं समणाणं णिग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आबाहं वा वावाहं वा छविच्छेयं वा अकरेमाणं पासंति, पासित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमंति, आयाए अवक्क For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १५ गोगालक की दुर्दशा मित्ता जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागन्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिकबुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति आ० २-करेत्ता वंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपजित्ता णं विहरंति, अत्थेगड़या आजीविया थेरा गोसालं चेव मंग्वलिपुत्तं उपसंपजित्ता णं विहरति । कठिन शब्दार्थ-उबसपज्जिता प्राप्त होकर । भावार्थ-२१-श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा प्रतिचोदना एवं अर्थ, हेतु, व्याकरण एवं प्रश्नों से यावत् निरुत्तर किया गया, तब गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् मिममिसाहट करता हुआ क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित हुआ, परन्तु श्रमणनिग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा, उपद्रव तथा अवयव-छेद करने में समर्थ नहीं हुआ। जब आजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण-निर्ग्रन्थों से धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना, प्रतिसारणा और प्रत्युपचार द्वारा तथा अर्थ, हेतु. व्याकरण, प्रश्नोत्तर से गोशालक निरुतर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् क्रोध से प्रज्वलित हो रहा है, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को कुछ भी पीड़ा उपद्रव एवं अवयव छेद नहीं कर सका, तब वे आजीविक, मंखलिपुत्र गोशालक के आश्रय से निकल कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आश्रय में आये और तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया, तथा श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आश्रय ले कर विचरने लगे और कुछ आजीविक स्थविर, मंखलिपुत्र गोशालक का आश्रय ले कर ही विचरते रहे । गोशालक की दुर्दशा २२-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्ठाए हव्वमागए तमढें For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४२ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक की दुर्दशा अमाहेमाणे, रुंदाई पलोएमाणे, दीहुण्हाई णीससमाणे, दाढियाए लोमाइं लुंचमाणे अवडं कंडूयमाणे, पुयलिं पप्फोडेमाणे, हत्थे विणिदुधुणमाणे, दोहि वि पाएहिं भूमि कोट्टेमाणे, 'हा हा अहो ! हओ अहमस्सि त्ति कटु समणस्स भगवओ महावीरम्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ; पडिणिस्खमित्ता जेणेव सावत्थी णयरी, जेणेव हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अंबकूणगहत्यगए, मजपाणगं पियमाणे, अभिक्खणं गायमाणे, अभिक्खणं णचमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे, सीयलपणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ । ___ कठिन शब्दार्थ-रुंदाई पलोएमाणे-दिशाओं में लम्बी दृष्टि फकता हुआ, अवडं-गर्दन के पीछे का भाग, पुलि-पुत-प्रदेश-वैठने के कूल्हे, कंड्यमाणे-ग्वजालता हुआ, हत्यविणिटुणमाणे-हाथों को हिलाता हुआ, होऽहमस्सि-में मारा गया, अंबकूणहत्थगए-आम्रफत हाथ में लेकर, मज्जमाणगं-मद्यपानक, अभिक्खणं-बार-बार, हव्वमागए-शीघ्र आया था, तमढें-वह अर्थ, असाहेमाणे-विना साधे, दोहुण्हाई-दीघ उष्ण । . भावार्थ-२२-मंखलिपुत्र गोशालक जिस कार्य को सिद्ध करने के लिये आया था, वह सिद्ध नहीं कर सका, तब वह दिशाओं की ओर लम्बी दृष्टि फेंकता हुआ, दीर्घ और गरम-गरम निःश्वास छोड़ता हुआ, दाढ़ी के बालों को नोचता हुआ, गर्दन के पीछे के भाग को खुजालता हुआ, पुत-प्रदेश को प्रस्फोटित करता हुआ, हाथों को हिलाता हुआ और दोनों पैरों को भूमि पर पटकता हुआ-"हा हा !! अरे ! में मारा गया"-ऐसा विचार कर श्रमण भगवान् महावीर For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक की तेज-शक्ति और दाम्भिक चेष्टा २४४३ स्वामी के समीप से और कोष्ठक उद्यान से निकल कर श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभारिन की दुकान में आया। इसके बाद हाथ में आम्रफल (आम की गुठली)लिया और मद्यपान करता हुआ, बारम्बार गाता हुआ, बारम्बार नाचता हुआ, बारंबार हालाहला कुम्भारिन को अजलि करता हुआ और मिट्टी के बर्तन में रहे हुए मिट्टी मिश्रित शोतल पानी से अपने शरीर को सिंचन करता हुआ विचरने लगा। विवेचन-तेजोलेल्या जनित दाह के उपशम के लिये चूसने के निमित्त हाथ में आम्रफल (गुठली) लिया । नाचना, गाना आदि मद्यपान कृत विकार है। गोशालक की तेज-शक्ति और दाम्भिक चेष्टा २३-'अजो' ति ममणे भगवं महावीरे समणे णिग्गंथे आमं. तित्ता एवं वयासी-'जावइए णं अजो ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं ममं वहाए सरीरगंसि तेये णिसट्टे, से णं अलाहि पजत्ते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा-१ अंगाणं २ बंगाणं ३ मगहाणं ४ मलयाणं ५ मालवगाणं ६ अच्छाणं ७ वच्छाणं ८ कोच्छाणं ९ पाढाणं १० लाढाणं ११ वजाणं १२ मोलीणं १३ कासीणं १४ कोसलाणं १५ अवाहाणं १६ संभुतराणं घायाए, वहाए, उच्छायणयाए, भासीकरणयाए। कठिन शब्दार्थ-उच्छायणयाए--उच्छेदन-नष्ट करने के लिये, भासीकरणयाए--- भस्म करने के लिए। भावार्थ-२३-" हे आर्यो !" इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान् For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४८ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक की तेज-शक्ति और दाम्भिक चेष्टा महावीर स्वामी ने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुला कर कहा - हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरा वध करने के लिये अपने शरीर में से जो तेजोलेश्या निकाली थी, वह निम्न लिखित सोलह देशों का घात करने में, वध करने में, उच्छेदन करने में और भस्म करने में समर्थ थी । यथा-१ अंग, २ बंग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालव, ६ अच्छ, ७ वत्स, ८ कौत्स ९ पाट, १० लाट, ११ वज्र, १२ मौली, १३ काशी, १४ कौशल, १५ अबाध और १६ संभुक्तर । जं पि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंकारास अंचकूण गहत्थगए, मज्जपाणं पियमाणे, अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरह, तस्स वि य णं वज्जस्स पच्छादट्टयाए इमाई अट्ट चरिमाई पण्णवे । तं जहा - १ चरिने पाणे २ चरिमे गेये ३ चरिमे णट्टे ४ चरिमे अंजलिकम्मे ५ चरिमे पोक्खलसंवट्टए महामेहे ६ चरिमे सेयणए गंधहत्थी ७ चरिमे महासिलाकंटए संगामे ८ अहं च णं इमीसे ओसप्पिणीए चवीसाए तित्थयराणं चरिमे तित्थयरे सिज्झिस्सं जाव अंतं करेस्सं ति । जं पिय अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टीयापाणपणं आयंचणिउदपणं गायाइं परिसिंचमाणे विहरड़, तस्स विय णं वज्रस्स पच्छादण्डयाए इमाई चत्तारि पाणगाईं चत्तारि अपाणगाई पण्णवे । कठिन शब्दार्थ-आयंचणिउद एणं- कुम्भकार के बर्तन में रहा हुआ मिट्टी मिश्रित जल, वज्जस्स पच्छादणट्टयाए दोपों को ढकने के लिए | For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५. गोगावे का तज-गक्ति और दाम्भिक चेष्टा २४४५ हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला कुम्भारिन को दूकान में, आम्रफल हाथ में ग्रहण कर के मद्यपान करता हुआ यावत बारम्बार अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है। वह अपने दोषों को ढकने के लिये इन आठ 'चरम' वस्तुओं की प्ररूपणा करता है। यथा-१ चरम पान, २ चरम गान, ३ चरम नाट्य, ४ चरम अंजलिकर्म, ५ चरम पुष्कल-संवर्तक महामेघ, ६ चरम सेचनकगंधहस्ती ७ चरम महाशिला कण्टक संग्राम और ८ में (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवपिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थंकरपने सिद्ध होऊँगा यावत् समस्त दुःखों का अन्त करूंगा। "हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी के पात्र में रहे हुए मिट्टी मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है । इस पाप को छिपाने के लिये चार प्रकार के पानक (पीने योग्य ) और चार प्रकार के अपानक (नहीं पीने योग्य, किन्तु शीतल और दाहोपशमन) को प्ररूपणा करता है । विवेचन-दाह-ज्वर के ताप से तप्त गोशालक, शीतल जल से अपने शरीर को सिंचन करने लगा और मद्यपान आदि भी करने लगा। अपने इन दोपों को छिपाने के लिये उसने आठ प्रकार के चरमों को प्ररूपणा का। 'ये फिर कभी नहीं होंगे'-इस दृष्टि से इसको चरम कहा है । इस आठ में से मदिरापान, गान, नाटय और अञ्जलिकर्म, ये चार तो स्वयं गोशालक से सम्बन्धित हैं। उसकी मान्यतानुसार वह निर्वाण चला जायगा, इसलिये इन्हें वह फिर नहीं करेगा । क्यों कि वह अपने को चरम (अन्तिम) जिन मानता है, तथा लोगों में यह बतलाने के लिये कि जलसिंचन आदि में दाहोपशम के लिये नहीं करता हूं, किन्तु जिन (तीर्थकर.). जब सोक्ष पाते हैं, तब उनके .ये. चार बातें अवश्य होती हैं । अतः इनके करने में कोई दोप नहीं है। __ पुष्कल संवर्तक आदि तीन बातों का कथन यहाँ प्रकरण में उपयोगी नहीं, तथापि चरम का समानता बतलाने के लिये, अपने दोषों को छिपाने के लिए, अपने को अतिशय ज्ञानी प्रकट करने के लिए तथा जन-चितरञ्जन के लिये इन्हें चरम रूप से कहा है, जिससे इनके साथ पूर्वोक्त चार बातों पर लोग सरलता मे श्रद्धा कर सकें। आठवें चरम में उसने अपने आपको चरम तीर्थकर बतलाया है। For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४६ भगवती सूत्र-श. ५५ पानक-अपानक w wmarwom पानक-अपानक २४ प्रश्न-से किं तं पाणए ? २४ उत्तर-पाणए चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ गोपुट्ठए २ हत्थमदियए ३ आयवतत्तए ४ सिलापन्भट्टए, सेत्तं पाणए । २५ प्रश्न-से किं तं अपाणए ? २५ उत्तर-अपाणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-१ थालपाणए २ तयापाणए ३ सिंबलिपाणए ४ मुद्धपाणए । . २६ प्रश्न-से किं तं थालपाणए ? - २६ उत्तर-थालपाणए जं णं दाथालगं वा दावारगं धा दाकुं. भगं वा दाकलसं वा सीयलगं उल्लगं हत्येहिं परामुसइ, ण य पाणियं पियइ सेत्तं थालपाणए । २७ प्रश्न-से किं तं तयापाणए ? २७ उत्तर-तयापाणए जं णं अंचं वा अंबाडगं वा जहा पओगपए जाव बोरं वा तिंदुरुयं वा तरुणगं वा, आमगं वा आसगंसि आवीलेइ वा पविलेइ वा, ण य पाणियं पियइ, सेत्तं तयापाणए। २८ प्रश्न-से किं तं सिंबलिपाणए ? २८ उत्तर-सिंबलिपाणए जं णं कलसंगलियं वा, मुग्गसंग For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ पानक-अपानक लियं वा मामसंगलियं वा मिंवलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आससि आवलेइ वा पविलेड वा ण य पाणियं पियइ, सेत्तं सिंबलपाणए । २९ प्रश्न - से किं तं सुद्धपाणए ? २४४७ २९ उत्तर - युद्धपाणए जे णं छमामे सुद्धखाइमं खाइ, दो मासे पुढविसंथारो गए, दो मासे कट्टसंथारोवगए, दो मासे दम्भसंथारोवगए, तस्स णं बहुपडिपुण्णाणं छण्हं मासाणं अंतिम राई मे दो देवा महटिया जाव महेसरखा अतियं पाउच्भवंति, तं जहा - पुण्णभ य माणिभद्दे य । तरणं ते देवा सीयलए हिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुसंति, जे णं ते देवे साइज्जइ, से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेs, जेणं ते देवे णो साइज्जइ तस्स णं सयंसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवइ, से णं सरणं तेएणं सरीरगं झामेइ, स० २ झामित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ, सेत्तं सुद्धपाणए । कठिन शब्दार्थ - गोपुट्ठए - गाय की पीठ पर से गिरा हुआ, आमगं-अपक्व । भावार्थ -- २४ प्रश्न - पानी कितने प्रकार का कहा गया है ? २४ उत्तर- पानी चार प्रकार का कहा गया है । यथा-गाय की पीठ से गिरा हुआ, हाथ से मसला हुआ, सूर्य के ताप से तपा हुआ और शिला से गिरा हुआ । यह चार प्रकार का पानी है । २५ प्रश्न - अपानक कितने प्रकार का है ? For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४८ भगवती सूत्र-श. १५ पानक-अपानक २५ उत्तर-अपानक चार प्रकार का कहा गया है । यथा-स्थाल का पानी, वृक्षादि की छाल का पानी, सिम्बली (मटर आदि) की फली का पानी और शुद्ध पानी। २६ प्रश्न-स्थाल पानी कितने प्रकार का कहा गया है ? २६ उत्तर-पानी से भीगा हुआ स्थाल, पानी से भीगा हुआ बारक (करवा-मिट्टी का छोटा बर्तन), पानी से भीगा हुआ घड़ा (बड़ा घड़ा)। पानी से भीगा हुआ कलश अथवा पानी से भीगा हुआ मिट्टी का बर्तन, जिसका हाथ से स्पर्श करे, परन्तु पानी पोवे नहीं । यह स्थाल-पानी कहा गया है । २७ प्रश्न-त्वचा पानी (वृक्षादि की छाल का पानी) किस प्रकार का होता है ? २७ उत्तर-आम्र, अम्बाडग इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवें प्रयोग पद के अनुसार यावत् बोर, तिन्दुरुक पर्यन्त । वह तरुण (अपक्व) और कच्चा हो, उसे मुख में रख कर थोड़ा चूसे या विशेष रूप से चूसे परन्तु पानी नहीं पीवे । यह त्वचा पानी कहा गया है। २८ प्रश्न-सिम्बली पानी किस प्रकार का होता है ? २८ उत्तर-कलाय सिम्बली (धान्य विशेष) मंग की फली, उड़द की फली, सिम्बली (वृक्ष विशेष) की फली आदि अपक्व और कच्ची हो उनको मुख में थोड़ा चबावे विशेष चवावे, परन्तु उसका पानी नहीं पीवे। यह सिम्बली पानी कहलाता है। २९ प्रश्न-शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? २९ उत्तर-जो छह महिने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महिने तक पृथ्वी संस्तारक पर सोता है, दो महीने लकड़ी के संस्तारक पर सोता है और दो महीने तक दर्भ के सस्तारक पर सोता है, इस प्रकार छह महीने पूर्ण होने पर अंतिम रात्रि में उसके पास महद्धिक यावत् For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १५ आजीविकोपागक अयंगुल २४४९ महासुख वाले दो देव प्रकट होते हैं। यथा-पूर्णभद्र और माणिभद्र । वे देव शीतल और गीले हाथों से उसके शरीर के अवयवों का स्पर्श करते हैं। उन देवों की जो अनुमोदना करता है, वह आशीविष कर्म करता है और जो उन देवों की अनुमोदना नहीं करता, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाती है। वह अग्निकाय अपने तेज द्वारा उसके शरीर को जलाती है। तत्पश्चात् वह सिद्ध हो जाता है यावत् समस्त दुःखों का अंत करता है। वह शुद्ध-पानक कहलाता है। विवेचन-गोशालक ने मद्यपान तथा आम का चूसने और मिट्टी मिश्रित शीतल जल में अपने गैर को मिनन आदि रूप अपने पापों को छिपाने के लिये पानक और भपानक आदि की मन मे कल्पना करके प्ररूपणा की है। आजीविकोपासक अयंपुल ३०-तत्थ णं सावत्थीए णयरीए अयंपुले णामं आजीविओ. वासए परिवमड़, अड्ढे जाव अपरिभूए, जहा हालाहला, जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तएणं तस्स अयं. पुलस्स आजीविओवासगस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयास कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्या-'किसंठिया हल्ला पण्णत्ता' ? तएणं तस्स अयं. पुलम्स आजीविओवासगस्स दोच्चं पि अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु.ममं धम्मायरिए, धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी इहेव For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५० भगवती सूत्र-श. १५ आजीविकोपासक अयंपुल सावत्थीए णयरीए हालाहलाए कुंभकारीए कंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहग्इ, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते गोसालं मंखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते पहाए कय० जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे, साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, सा० २ पडि. णिक्खमित्ता पायविहारचारेणं सावत्थिं णयरिं मज्झंमज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अंबकूणगहत्थगयं जाव अंजलिकम्मं करेमाणं सीयलएणं मट्टिया० जाव गोयाइं परिसिंचमाणं पासइ, पासित्ता लजिए, विलिए, विड्डे सणियं २ पञ्चोसकइ । कठिन शब्दार्थ-हल्ला-गोवालिका (तृण के समान आकार वाला एक कीड़ा) साओ-अपने, विड्डे-लज्जित हुआ। भावार्थ-३०-उस श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का आजीविक मत का उपासक रहता था। वह ऋद्धि सम्पन्न यावत् अपराभूत था। वह हालाहला कुम्भारिन की तरह यावत् आजीविक सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करता हआ रहता था । किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब-जागरणा करते हुए अयंपुल आजीविकोपासक को यह विचार उत्पन्न हुआ कि-'हल्ला' नामक कीट विशेष का आकार कैसा होता है । फिर अयंपुल आजीविकोपासक को विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ आजीविकोपासक अयंपल २४४५१ उत्पन्न ज्ञान, दर्शन को धारण करने वाले यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी है । वे इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भारिन की दुकान में आजीविक संघ सहित, आजीविक सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । अतः कल प्रातःकाल यावत् सूर्योदय होने पर गोशालक को वन्दन और पर्युपासना कर यह प्रश्न पूछना मेरे लिये श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नान-बलिकर्म किया, फिर अल्पभार और महामूल्यवान् आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत कर वह अपने घर से बाहर निकला और पैदल चलता हुआ हालहला कुम्भारिन की दूकान पर आया। उसने गोशालक को हाथ में आम्रफल लिये हुए यावत् हालाहला कुम्भारिन को बारंबार अंजलि-कर्म करते हए एवं मिट्टी मिश्रित शीतल जल द्वारा अपने शरीर के अवयवों को सिंचन करते हुए देखा और देखते ही लज्जित, उदास और ब्रीडित (अधिक लज्जित) हुआ। वह धीरे धीरे पीछे हटने लगा। तएणं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लजिय जाव पच्चोसक्कमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एहि ताव अयंपुला ! एत्तओं । तएणं से अयंपुले आजीवियोवासए आजी. वियथेरेहिं एवं वुत्ते समाणे जेणेव आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता आजीविए थेरे वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता णचासण्णे जाव पज्जुवामइ । “अयंपुला इ!” आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी-'से णूणं ते अयंपुला ! गुब्बरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किंसंठिया हल्ला एण्णता ? तएणं तव अयं पुला ! दोच्चं पि अयमेया० तं चेव सव् भाणियव्वं, For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ आजीविकोपासक अपुल जाव सावत्थि णयरीं मज्झमज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए । से णूणं ते अयंपुला ! अट्ठे समट्टे ? हंता अस्थि । जं पि य अयंपुला ! तव धम्मायरिए धम्मो एसए गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि अत्रकूणहत्थगए जाव अंजलिं करेमाणे विहर, तत्थ वि णं भगवं इमाई अटु चरिमाई पण्णवेइ, तं जहा- चरिमे पाणे, जाव अंतं करिस्स' | जे विय अयंपुला ! तव धम्मायरिए धम्मोवएस गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया० जाव विहरइ, तत्थ वि भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाई पण्णवे । से किं तं पाणए ? २ जाव तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । तं गच्छ णं तुमं अयंपुला ! एस चैव तव धम्मायरिए धम्मो एसए गोसाले मंखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए' त्ति । २४५२ कठिन शब्दार्थ - एत्तओ - यहाँ । भावार्थ-तब आजीविक स्थविरों ने, आजीविकोपासक अयंपुल को लज्जित होकर पीछे जाते हुए देखा तो उसे सम्बोधन कर कहा - " हे अयंपुल ! यहाँ आओ ।" आजीविक स्थविरों से सम्बोधित होकर अयंपुल उनके पास आया और उन्हें वन्दना नमस्कार कर के उन के समीप बैठ कर पर्युपासना करने लगा । तब आजीविक स्थविरों ने उससे कहा - " हे अयंपुल ! आज पिछली रात्रि के समय यावत् तुझे ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि 'हल्ला' का आकार कैसा होता है, यावत् में मेरे धर्माचार्य गोशालक को पूछ कर निर्णय करूं," यावत् तू आया है । " हे अयंपुल ! यह बात सत्य है ?" (अयंपुल ने कहा ) "हाँ, सत्य है ।" For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ आजीविकोपासक अयंपुल हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक हालाहला कुम्भारिन की दूकान में आम्रफल हाथ में लेकर यावत् अञ्जलि करते हुए विचरते हैं। वे भगवान् गोशालक आठ चरम की प्ररूपणा करते हैं । यथा-चरमपानक यावत् वे सब दुःखों का अन्त करेंगे । हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी मिश्रित शीतल पानी से अपने शरीर का सिंचन करते हुए विचरते हैं। इस विषय में भी वे भगवान् चार पानक और चार अपानक की प्ररूपणा करते हैं, यावत् वे सिद्ध होते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं, अतः हे अयंपुल ! तू जा और तेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक को अपना प्रश्न पूछ । ३१-तपणं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहि एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुडे उट्टाए उट्टेइ, उट्टाए उद्वेत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तएणं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंवकूणगएडावणट्टयाए एगंतमंते मंगारं कुवंति । तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ, संगारं पडिच्छित्ता अंबकूणगं एगतमंते एडेइ । तएणं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ,तेणेव उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो० जाव पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ-संगारं-संकेत, एगंतमते-एकान्त स्थान । भावार्थ-३१-आजीविक स्थविरों के कहने पर अयंपुल हृष्टतुष्ट हुआ और गोशालक के पास जाने लगा, तब आजीविक-स्थविरों ने गोशालक को उस For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ आजीविकोपासक अयंपुल आम्रफल को एकान्त में डालने के लिए संकेत किया। उसका संकेत जान कर गोशालक ने आम्रफल को एक ओर डाल दिया । इसके पश्चात् अयंपुल गोशालक के पास गया और उसे तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् पर्युपासना करने लगा । २४५४ 'अयंपुलाई !' गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी - ' से णूर्ण अयंपुला ! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए । से णूर्ण अयंपुला ! अडे समट्टे ? हंता अस्थि, तं णो खलु एस अंबकूणए, अवचोयए णं एसे । किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता ? वंसीमूलमंठिया हल्ला पण्णत्ता । ati area रे वीरगा । वीणं वाएहि रे वीरगा । तपणं से अयंपुले ! आजीवियोवास गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारुवं वागरणं वागरिए समाणे हट्ट तुडे जाव हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंद णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता परिणाई पुच्छड़, पसिणाई पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियह, अट्ठाई परियादियत्ता उडाए उडेइ, उट्टाए उट्टेत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वंदह णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता जाव पडिगए । · भावार्थ- गोशालक ने अयंपुल से पूछा - "हे अयंपुल ! रात्रि के पिछले पहर में यावत् तुझे संकल्प उत्पन्न हुआ, जिससे तू मेरे पास आया है, क्या यह बात सत्य है ?" "हाँ भगवन् ! सत्य है ।" "हे अयंपुल ! मेरे हाथ में आम की गुठली नहीं थी, आम्रफल की छाल थी । हे अयंपुल ! तुझे 'हल्ला' का आकार जानने की इच्छा हुई थी, उसका उत्तर यह है कि बांस के मूल के For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ प्रतिष्ठा की महती लालसा २४५५ आकार 'हल्ला' होती है। (तत्पश्चात् उन्माद के वश गोशालक कहता है) "हे वीरा!बीणा बजाओ। हे वीरा! वीणा बजाओ।" तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक से अपने प्रश्न का उत्तर सुन कर हृष्टतुष्ट चित्त वाले अयंपुल ने उसे वन्दन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, अर्थ ग्रहण किया और गोशालक को वन्दन-नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर चला गया। विवेचन-'हल्ला' का आकार वंशी-मूल संस्थित लिखा है तथा लोक प्रसिद्ध तृण गोवालिका के समान बतलाया है। प्रतिष्ठा की महती लालसा _____३२-तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएइ, आभोइत्ता आजीविए थेरे सद्दावेइ, आजीविए थेरे सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेह, सुरभिणा गंधोदएणं पहावित्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लूहेह, गायाइं लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपह, स० २ अणुलिंपित्ता महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं णियंसेह, मह० २ णियंसित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेह, स० २ करिता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेह, पुरि० २ दुरूहित्ता सावत्थीए णयरीए सिंघाडग० जाव पहेसु महया महया सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलि. For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५६ भगवती सूत्र-श. १५ प्रतिष्ठा की महती लालसा पुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसई पगासेमाणे विहरिता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थयराणं चरिमे तित्थयरे सिद्धे, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे'-इड्ढिसकारसमुदएणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह । तएणं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलि. पुत्तस्स एयमढें विणएणं पडिसुणेति । कठिन शब्दार्थ-हंसलक्खणं-हंस के चिन्ह वाला अथवा हंम के समान वेत, पडसाडगं-पटशाटक (वस्त्र),णियंसेह-पहिनावें, सीयं -शिविका, णीहरणं-निकालना, आभोएइजानकर, सुरभिणा-सुगंधित, गायाइं लूहेइ-गात्रों को पोंछना, महरिहं-महामूल्यवान् । भावार्थ-३२-मंखलिपुत्र गोशालक ने अपना मरण-काल निकट जान कर आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! जब मैं काल-धर्म को प्राप्त हो जाऊँ, तब सुगन्धित गन्धोदक से मुझे स्नान कराना, फिर सुकुमाल गन्ध-काषायिक वस्त्र से मेरे शरीर को पोंछना और सरस गोशीर्ष-चन्दन से शरीर का विलेपन करना । फिर हंस के चिन्ह वाला महामूल्यवान् पटशाटक पहनाना, फिर सभी अलंकारों से विभूषित करना। इसके बाद हजार पुरुषों से उठाने योग्य शिविका में बिठाना । शिविका में बिठा कर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् राजमार्गों में उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना-"मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिन-प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचर कर, इस अवसर्पिणी काल के चौवीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर हो कर सिद्ध हुआ है यावत् समस्त दुःखों से रहित हुआ है।" इस प्रकार ऋद्धि और सत्कार के समुदाय से मेरे शरीर को बाहर निकालना। आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक की बात को विनय पूर्वक स्वीकार किया। For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी मूत्र-श. ५. सम्यग्दर्शन और अंतिम आदेश २४५७ सम्यगदर्शन और अंतिम आदेश ३३-तएणं तस्स गोसालस्म मंग्वलिपुत्तस्म सत्तरत्तंसि परिणममाणंणि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था-'णो खलु अहं जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसई पगासे. माणे विहरंति, अहं णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए, समणमारए, समणपडिणीए, आयरिय उवज्झायाणं अयसकारए, अवण्णकारए अकित्तिकारए, बहहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमोणे, वुप्पाएमाणे, विहरित्ता सएणं तेएणं अण्णाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं । समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरई' कठिन शब्दार्थ-समणघायए-श्रमण-घातक, दाह्नक्कतीए-दाह की उत्पत्ति से । भावार्थ-३३-तत्पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुई और उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुआ कि “मैं वास्तव में जिन नहीं हूं, तथापि मैं जिन-प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा हूं। मैं श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी) आचार्य, उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवाद एवं अपकीति करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक हूं। मैं अत्यधिक असद्भावना पूर्ण मिथ्याभिनिवेश से अपने आपको, दूसरों को For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५८ भगवती सूत्र-श. १५ सम्यग्दर्शन और अंतिम आदेश और स्व-पर उभय को व्युद्ग्राहित (भ्रान्त) करता हुआ, व्युत्पादित (मिथ्यात्व युक्त) करता हुआ विचरा और अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से व्याप्त तथा दाह से जलता हुआ छद्मस्थ अवस्था में ही सात रात्रि के अन्त में काल करूंगा। वास्तव में श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं और जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।" ___ एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता, आजीविए थेरे सद्दावेड, आजी. विए थेरे सदावित्ता उच्चावयसवहसाविए पकरेइ, उच्चा० २ पकरित्ता एवं वयासी-'णो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरिए, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते, समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी, जाव जिणसदं पगासेमाणे विहरइ, तं तुम्भं णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता वामे पाए सुंबेणं बंधह, वा० २ बंधित्ता तिखुत्तो मुहे उट्ठहह, ति० २ उठुहित्ता मावत्थीए गयरीए सिंघाडग० जाव पहेसु आकड्ढविकडिंढ करेमाणा महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-'णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी, जाव विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते, समणघायए, जाव छउमत्थे चेव कालगए। समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी, जाव विहरई'-महया अणिइडी असकारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेजाह' For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र--- १५ सम्यग्दर्शन और अतिम आदेश एवं वंदित्ता कालगए । कठिन शब्दार्थ - - संत्रेण --मुज्ज की रस्सी से शब्द कहना, आकडूविर्काट्ट-इधर-उधर घसीटते हुए । भावार्थ - इस प्रकार विचार कर गोशालक ने आजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और अनेक प्रकार की शपथ दिला कर कहा- 'मैं वास्तव में जिन नहीं हूं, फिर भी जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा हूं । में वही मंखलिपुत्र गोशालक हूं। मैं श्रमणों की घात करने वाला हूं यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊँगा । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।' इसलिये हे देवानुप्रियो ! जब मैं काल-धर्म को प्राप्त हो जाऊँ, तब मेरे बायें पैर को मुञ्ज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुँह में थूकना, फिर श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक यावत् राजमार्गों में मुझे घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए कहना कि - "हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है, किन्तु जिन प्रलापी और जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरा है । यह श्रमणों की घात करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं और जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं । इस प्रकार बिना ऋद्धि और असत्कार पूर्वक मेरे मृत शरीर का निष्क्रमण करना, " - ऐसा कह कर गोशालक काल-धर्म को प्राप्त हो गया । २४५९ उट्ठहह उच्छुभह थूकना अथवा विवेचन - मिथ्यात्व एक ऐसा भयंकर शत्रु है, जो आत्मा को भान भूला देता है । मिथ्यात्व के वश गोशालक ने कैसे-कैसे अकार्य किये । किन्तु जब उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब उसकी अवस्था ही पलट जाती है । सम्यक्त्व का माहात्म्य अपरम्पार है । गोशालक ने अपने मानापमान की परवाह न करते हुए, आजीविक स्थविरों के सामने अपनी वास्तविक स्थिति प्रकट कर दी । यदि आयुष्य की स्थिति कुछ और होती, तो निश्चित ही वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में आ गिरता और अपने अपराधों की सच्चे अन्तःकरण पूर्वक क्षमा याचना करता । For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६० भगवती सूत्र-श. १५ आदेश का दाम्भिक पालन आदेश का दाम्भिक पालन - ३४-तएणं आजीविया थेरा गोसालं मखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराई पिहेंति, दुवाराइं पिहित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकागवणरस बहुमज्झ. देसभाए सावत्थि णयरिं आलिहंति, सा० २ आलिहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पाए मुंवेणं बंधइ, वा० २ बंधित्ता तिक्खुत्तो मुहे उट्ठहंति, उट्ठहित्ता सावत्थीए णयरीए सिंघा. डग० जाव पहेसु आकड्ढविकइिंढ करेमाणा, णीयं णीयं सदेणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासी-'णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी, जाव विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए, जाव छउमत्थे चेव कालगए । समणे भगवं महावीरे जिणे, जिणप्पलावी जाव विहरइ, सवहपडिमोक्खणगं करेंति, स० २ करित्ता दोच्चं पि पूयासक्कारथिरीकरणट्ठयाए गोसालप्स मंखलिपुत्तस्स वामाओ पायाओ मुंवं मुयंति, मुंवं मुड़त्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवारवयणाई अवगुणंति, अवगुणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेति, तं चेव जाव महया इड्ढि-सक्कारसमुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स णीहरणं करेंति । For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--ग. १५ भगवान् का राग और लोकापवाद कठिन शब्दार्थ-पिहेंति-वन्द किये, आलिहंति-आलेग्बन किया, अवगुणंति-खोलते हैं। भावार्थ-३४-तत्पश्चात आजीविक स्थविरों ने गोशालक को काल-धर्म प्राप्त हुआ जान कर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिये, दुकान के बीच में (भूमि पर) श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया, फिर गोशालक के बायें पाँव को मञ्ज की रस्सी से बांधा। तीन बार उसके मुंह में थका और उस चित्रित की हुई श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटक यावत् राजमार्गों में उसे घसीटते हुए मन्द स्वर से उद्घोषणा करते हुए, इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं, किन्तु जिन-प्रलापी हो कर यावत् विचरा है । यह श्रमण-घातक मंखलिपुत्र गोशालक यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं और जिन-प्रलापा हो कर यावत् विचरते हैं।" इस प्रकार कह कर वे स्थविर, गोशालप. द्वारा दिलाई हुई शपथ से मुक्त हुए। तत्पश्चात् गोशालक की पूजासत्कार स्थिर रखने के लिये उसके पाँव की रस्सी खोली और दुकान के द्वार खोले । फिर गोशालक के शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराया इत्यादि पूर्वोक्त कथनानुसार यावत् महाऋद्धि-सत्कार से मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया। भगवान् का रोग और लोकापवाद ३५-तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ सावत्थीओ णयरीओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वहियो जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढिय. गामे णामं णयरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स णय For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र - श. १५ भगवान् का रोग और लोकापवाद रस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सालकोट्टए णामं are होत्था, वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ । तस्स णं सालकोगस्स णं चेइयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महेंगे मालुयाकच्छए या होत्या, किहे कि होभासे जाव णिउरंबभूए, पत्तिए, पुफिए, फलिए, हरियगरेरिज्जमाणे, सिरीए अई अईव उवसोभेमाणे चिह्न । तत्थ णं मेंढियगामे णयरे रेवई णामं गाहावइणी परिवसर, अड्ढा जाव अपरिभूया । तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव जेणेव मेंढियगामे णयरे जेणेव सालकोए चेइए जाव परिसा पडिगया । २४३२ भावार्थ - ३५ - किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकल कर अन्य देशों में विचरने लगे। उस काल उस समय मेंढिक ग्राम नामक नगर था ( वर्णन ) । उस मेटिक ग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में शाल-कोष्ठक नामक उद्यान था ( वर्णन ) यावत् पृथ्वी शिलापट था । उस शाल- कोष्ठक उद्यान के निकट एक मालुका (एक वीज वाले वृक्षों का वन ) महा-कच्छ था । वह श्याम, श्याम कान्ति वाला यावत् महामेघ के समूह के समान था । वह पत्र, पुष्प, फल और हरितवर्ण से देदीप्यमान और अत्यन्त सुशोभित था । उस मेंढिक ग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी । वह आढ्य यावत् अपरिभूत थी । अन्यदा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से विहार करते हुए मेंटिक ग्राम नगर के बाहर शाल-कोष्ठक उद्यान में पधारे, यावत् परिषद् वन्दना कर के लौट गई । For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ सिह अनगार का शोक २४६३ तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउम्भूए उज्जले जाव दुरहियासे, पित्तज्जरपरिगयसरीरे, दाहवक्कंतीए यावि विहरइ, अवियाई लोहियवच्चाई पि पकरेइ, चाउवणं वागरेइ-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगय. सरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करिस्सइ ।' कठिन शब्दार्थ-रोगायंके-रोगातंक-पीड़ाकारी रोग और व्याधि, पाउम्भ ए-प्रकट हुआ, दुरहियासे-कठिनाई से सहन करने योग्य, अवियाई लोहियवच्चाई पि पकरेइ-रक्त युक्त दस्त भी लगने लगे। भावार्थ-उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शरीर में महापीड़ाकारी, अत्यन्त दाह करने वाला यावत् कष्टपूर्वक सहन करने योग्य तथा जिसने पित्तज्वर के द्वारा शरीर को व्याप्त किया है एवं जिससे अत्यन्त दाह होता है, ऐसा रोग उत्पन्न हुआ। उस रोग के कारण रक्त-राद (पीब) युक्त दस्त लगने लगे। भगवान् के शरीर की ऐसी दशा जान कर चारों वर्ण के मनुष्य इस प्रकार कहने लगे-"श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, गोशालक के तप-तेन से पराभूत पित्तज्वर एवं ज्वर से पीड़ित हो कर छह मास के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में मृत्यु प्राप्त करेंगे।" सिंह अनगार का शोक तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सौहे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए मालुया. For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६४ भगवती सूत्र-श. १५ सिंह अनगार का शोक कच्छगस्स अदूरसामंते छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ जाव विहरइ। तएणं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु ममं धम्मायरियम्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए, उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्सइ, वदिस्संति य णं अण्णतित्थिया--'छउमत्थे चेव कालगए' । इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमिए पच्चोरहह आयावणभूमिओ पच्चोरुहित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसइ, मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसित्ता महया महया सदेणं कुहुकुहुस्स परुण्णे । ____ कठिन शब्दार्थ-माणंतरियाए-ध्यानान्तर-एक ध्यान पूरा होने के बाद और दूसरा ध्यान प्रारम्भ होने के पूर्व, कुहुकुहस्स परुणे-'कुहुकुहु' शब्द (हृदय में दुःख न समाने से फूट फूट) कर रोते हुए। भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी 'सिंह' नाम के अनगार थे। वे प्रकृति से भद्र और विनीत थे । वे मालका कच्छ के निकट निरन्तर बेला-बेला के तप से दोनों हाथों को ऊपर उठा कर यावत् आतापना लेते थे। जब सिंह अनगार एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारंभ करने वाले थे, उस समय उन्हें विचार उत्पन्न हुआ-"मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर स्वामी के शरीर में अत्यन्त दाहक और महापीडाकारी रोग उत्पन्न हुआ है, इत्यादि यावत् वे छद्मस्थ अवस्था में काल करेंगे, तब अन्यतीथिक कहेंगे कि 'वे छद्मस्थ अवस्था में काल-धर्म को प्राप्त हो गये,"-इस प्रकार के महा मानसिक For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १५ सिंह अनगार का शोक दुःख से पीड़ित बने हुए वे सिंह अनगार, आतापना भूमि से नीचे उतरे और मालुका कन्छ में प्रवेश कर के आवेगपूर्वक अत्यन्त रुदन करने लगे। ... 'अजों ति समणे भगवं महावीर समणे णिग्गंथे आमंतेइ, आमंतित्ता एवं वयासी-एवं खलु अजो ! ममं अंतेवासी सीहे णामं अणगारे पगड़भदए तं चेव सव्वं भाणियब्वं, जाव परुग्णे, तं गच्छह णं अजो ! तुम्भे सीहं अणगारं सहह । तएणं ते समणा णिग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति मंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ साल कोट्टयाओ चेइयाओ पडि. णिक्खमंति, सा० २ पडिणिक्खमित्ता जेणेव मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सीहं अणगारं एवं वयासी-सीहा ! धम्मायरिया सद्दावेंति' । तएणं से सीहे अणगारे समणेहिं णिग्गंथेहिं सद्धि मालुयाकच्छगाओ पडिणिक्खमइ, पडिक्खमित्ता जेणेव सालकोट्टए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं जाव पज्जुवासइ । भावार्थ-उसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुला कर कहा-“हे आर्यो ! मेरा अन्तेवासी सिंह अनगार अत्यन्त रुदन कर रहा है। इसलिये हे आर्यो ! तुम जाओ और सिंह अनगार को यहाँ लिवा For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ सिंह अनगार को सान्त्वना लाओ !" भगवान् को वन्दना - नमस्कार कर के वे श्रमण-निर्ग्रन्थ शालकोष्ठक उद्यान से चल कर मालुका कच्छ में सिंह अनगार के समीप आये और कहने लगे - " हे सिंह ! धर्माचार्य तुम्हें बुलाते हैं ।" तब सिंह अनगार उन श्रमणनिर्ग्रन्थों के साथ मालुका कच्छ से निकल कर शालकोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये और भगवान् को तोन बार प्रदक्षिणा कर के यावत् पर्युपासना करने लगे । सिंह अनगार को सान्त्वना 'सीहाई !' समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं वयासी." से णूणं ते सीहा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव परुण्णे, से णूणं ते सीहा ! अट्ठे समट्टे” ? "हंता अस्थि" । तं णो खलु अहं सीहा । गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेपणं अण्णाइट्टे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव कालं करिस्से, अहं णं अण्णाई अद्ध सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छहणं तुम सीहा ! मेंढियगामं णयरं, रेवईए गाहावइणीए गिहे, तत्थ णं रेवईए गाहावहणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं णो अट्टो, अस्थि से अपणे पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसर, तमाहराहि, एपणं अट्टो' । कठिन शब्दार्थ- पारिया सिए - परिवासित - कल का बनाया हुआ - बासी । भावार्थ- श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा - " हे सिंह ! ध्यानारत २४६६ For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ रेवती के घर २४६७ रिका में वर्तते हुए तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ यावत् अत्यन्त रुदन करने लगे, हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?” (उत्तर) "हाँ, भगवन् ! सत्य है ।" "हे सिंह ! गोशालक के तप-तेज द्वारा पराभूत हो कर में छह मास के अन्त में यावत् काल नहीं करूंगा। मैं साढे पन्द्रह वर्ष तक जिनपने गंधहस्ती के समान विचरूँगा । हे सिंह ! तू मेंढिक ग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जा । उस रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिये दो कोहला के फलों को संस्कारित कर तैयार किया है, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, परन्तु उसके वहाँ मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला विजोरापाक जो कल तैयार किया हुआ है, उसे ला । वह मेरे लिए उपयुक्त है।" रेवती के घर तएणं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुटु० जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, मु० २ पडिलेहित्ता जहा गोयमसामी जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ सालकोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिरखमित्ता अतुरिय० जाव जेणेव मेंढियगामे णयरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मेंढियगामं णयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव रेवईए गाहावइणीए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता रेवईए For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६८ भगवती सूत्र-ग. १५ रेवती के घर गाहावइणीए गिहं अणुप्पवितु । तएणं सा रेवई गाहावइणी सीहं अणगारं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ-तुट० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुटेइ, अभुट्टित्ता सीहं अणगारं सत्तट्टपयाई अणुगच्छड़ स० २ अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ आ० २ करित्ता वंदइ णमंसह वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-'संदिसंतु णं देवाणु. प्पिया ! किमागमणप्पओयणं' ? तएणं से सीहे अणगारे रेवइं गाहावइणिं एवं वयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समणरस भगवओ महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं णो अट्ठो, अस्थि ते अण्णे पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए एयमाहराहि, तेणं अट्ठों। कठिन शब्दार्थ-अतुरियमचवलमसंभंत-शीघ्रता, चपलता एवं संभ्रांति रहित किमागमणप्पओयणं-आगमन का क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से आदेश पा कर सिंह अनगार प्रसन्न एवं सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लित हुए और भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर के त्वरा, चपलता और उतावल से रहित, मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया यावत् गौतम स्वामी के समान भगवान को वन्दना-नमस्कार कर के शाल-कोष्ठक उद्यान से निकल कर, त्वरा और शीघ्रता रहित यावत् मेंढिक ग्राम नगर के मध्यभाग में हो कर रेवती गाथापत्नी के घर पहुंचे और घर में प्रवेश किया। सिंह अनगार को आते हुए देख कर रेवती गाथापत्नी प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुई । वह शीघ्र ही अपने आसन पर से उठी और सात-आठ चरण, सिंह अनगार के सामने गई और तीन वार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोली-"हे देवानुप्रिय ! आपके पधारने का प्रयोजन क्या है ?" तब सिंह अनगार ने कहा For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ रेवती को आश्चर्य और औषधि दान " हे रेवती ! तुमने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के लिये जो कोहले के दो फल संस्कारित कर के तैयार किये हैं, उनसे मेरा प्रयोजन नहीं हैं, किन्तु मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला बिजोरा - पाक जो कल का बनाया हुआ है, वह मुझे दो, उसी से प्रयोजन है । विवेचन इस प्रकरण के मूलपाठ में 'दुवे कवोयसरीरा' तथा 'कुक्कुडमंसए' पाठ आया है । जिसका अर्थ है - कपांत अर्थात् कबूतर पक्षी के शरीर के वर्ण के समान वर्ण है जिसका ऐसा फल अर्थात् कुष्मांड - कोहला फल । 'मज्जारकडए कुक्कुडमंसए' का अर्थ हैमार्जार नामक उदरवायु को शांत करने वाला कुकुंट मांस अर्थात् विजौरे का गिर अथवा मार्जार का अर्थ है - विरालिका नामक वनस्पति विशेष, उससे भावित विजौरे का गिर अर्थात् विजौरा पाक | २४६९ कोई-कोई 'कवोयसरीरा' का अर्थ 'कबूतर पक्षी का शरीर ऐसा अर्थ करते हैं तथा ' मज्जारकडए कुक्कुडमंसए' का अर्थ-विलाव द्वारा मारे हुए कुकडे (मुर्गे ) का मांस - करते हैं, किन्तु यह अर्थ गलत है । जो लोग आगम- रहस्य के ज्ञाता नहीं हैं अथवा जो जानबूझ कर आगम का विपरीत अर्थ करके लोगों को श्रद्धा-भ्रष्ट करना चाहते हैं, वे ही ऐसा आगम विपरीत अर्थ करते हैं । इस विषय में स्वर्गीय शतावधानी पं. मु. श्री रत्नचन्द्रजी महाराज साहब ने 'रेवती दान समालोचना' नामक एक पुस्तक लिखी है । उसमें इस विषय पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है । जिज्ञासुओं को वह पुस्तक अवश्य देखनी चाहिए । रेवती को आश्चर्य और औषधि दान तपणं सा रेवई गाह्रावणी सीहं अणगारं एवं क्यासी- 'केस सीहा ! सेणाणी वा वस्सी वा, जेणं तव एस अट्ठे मम ताव रहस्सकडे हव्वमखाए, जओ गं तुमं जाणासि ? एवं जहा खंदए जाव जओ णं अहं जाणामि । तरणं सा रेवई गाहावड़णी For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ रोगोपशमन सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयमहं सोचा णिसम्म हट्टतुट्टा जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छछ, तेणेव उवागच्छित्ता पत्तगं मोएइ, पत्तगं मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छह, तेणेव उवागच्छित्ता सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं संमं णिस्सिरइ ? तरणं ती रेवईए गाहावरणीय तेणं दव्वसुधेणं जाव दाणे सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए णिबधे, जहा विजयस्स जाव जम्मजीवियफले रेवईए गाहावइणीए रेवई ० २ । २४७० भावार्थ - रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार की बात सुन कर कहा - "हे सिंह ! ऐसे कौन ज्ञानी और तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरी यह गुप्त बात जानी और तुम से कहा, जिससे कि तुम जानते हो ।" दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में स्कन्दक के अधिकार वर्णन अनुसार यावत् भगवान् के कहने से मैं जानता हूं- ऐसा सिंह अनगार ने कहा । सिंह अनगार की बात सुन कर रेवती गाथापत्नी अत्यन्त हृष्ट एवं सन्तुष्ट हुई । उसने रसोई घर में आ कर पात्र को खोला और सिंह अनगार के निकट आ कर वह सारा पाक उनके पात्र में डाल दिया । रेवती गृहपत्नी के द्रव्य की शुद्धि युक्त प्रशस्त भावों से दिये गए दान से सिंह अनगार को प्रतिलाभित करने से रेवती गाथापत्नी ने देव का आयुष्य बांधा यावत् इसी शतक में कथित विजय गाथापति के समान 'रेवती ने जन्म और जीवन का फल प्राप्त किया है' - ऐसी उद्घोषणा हुई । रोगोपशमन तर से सोहे अणगारे रेवईए गाहावड़णीए गिहाओ पडि - For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ रोगोपशमन २४७१ गिक्खमइ, पडिणिक्खमिता मेंढियगामं णयरं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणस्म भगवओ महावीरस्म पाणिसि तं सव्वं संम गिस्विरइ । तएणं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणझोववण्णे विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोटुगंसि परिववइ । तएणं समणस्म भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते. हटे जाए आरोग्गे, बलियसरीरे, तुट्टा समणा, तुट्टाओ समणीओ, तुट्टा सावया, तुट्ठाओ सावियाओ, तुट्टा देवा, तुट्ठाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए तुढे 'हटे जाए समणे भगवं महावीरे' हटे० २। भावार्थ-तत्पश्चात् वे सिंह अनगार रेवती गाथापत्नी के घर से निकल कर मेंढिक ग्राम नगर के मध्य होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और गौतम स्वामी के समान यावत् आहार-पानी दिखाया। फिर वह सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में भली प्रकार रख दिया। इसके बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मी (आसक्ति) रहित यावत् तृष्णा रहित, बिल में सर्प प्रवेश के समान उस आहार को शरीर रूप कोठे में डाल दिया। उस आहार को खाने के बाद श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वह महापीडाकारी रोग शीघ्र ही शांत हो गया। वे हृष्ट, रोग रहित और बलवान् शरीर वाले हो गये । इससे समी श्रमण तुष्ट (प्रसन्न) हुए, श्रमणियां तुष्ट हुई, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुई और देव, मनुष्य, असुरों सहित समग्र विश्व सन्तुष्ट हुआ। For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७२ भगवती सूत्र-ग. १५ मनानुभूति की गति सर्वानुभूति की गति ३६ प्रश्न-'भंते' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयामी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवामी पाईणजाणवए सव्वाणुभूईणामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए, से णं भंते ! तया गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उबवण्णे ? । ___३६ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सब्बाणुभूइणामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए, से णं तया गोसालेणं मंखलिपुत्तण भासरासीकए समाणे उड्ढे चंदिम-सूरिय० जाव वंभ-लंतक महामुक्के कप्पे वीइवत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववणे । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं मवाणुभूइस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरो. वमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं सव्वाणुभूई देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिम्झिहिति जाव अंतं करेहिति । कठिन शब्दार्थ-वीइवइत्ता-उल्लंघन करके । भावार्थ-३६ प्रश्न-भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर के इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी पूर्व देश में उत्पन्न मर्यानुभूति अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ५५ सुनक्षत्र अनगार की गति २४७३ विनीत था और जिसे मंखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से जला कर भस्म कर दिया था, वह मर कर कहां गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी पूर्व देशोत्पन्न सर्वानुभुति अनगार, गोशालक के तप-तेज से भस्म हो कर ऊंचा चन्द्र और सूर्य को यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुक्र कल्प को उल्लंघन कर, सहस्रार कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ है । वहाँ के कई देवों की स्थिति अठारह सागरोपम को कही गई है । सर्वानुभूति देव की स्थिति भी अठारह सागरोपम की है । वहाँ का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर वह सर्वानुभूति देव, वहाँ से च्यव कर यावत् महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा। सुनक्षत्र अनगार की गति ३७ प्रश्न-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवए मुणखत्ते णामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए, से णं भंते ! तया णं गोसालेणं मंखलिपुत्तेण तवेणं तेएणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववण्णे ? ३७ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी सुणक्खत्ते णाम अणगारे पगइभदए जाब विणीए. से णं तया गोसालेणं मंखलि. पुतेण तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता सयमेव पंच महन्वयाई आरुहइ, सयमेय० २ आरुहित्ता समणा य For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७४ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक की गति समणीओ य खामेइ, खामित्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते काल. मासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूरिय० जाव आणय-पाणया रणकप्पे वीइवइत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे । तत्थ णं अस्थेगइ. याणं देवाणं वावीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं सुणक्खत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई, सेसं जहा सव्वाणुभूइस्स जाव अंतं काहिइ। कठिन शब्दार्थ-उड्ढे-ऊँचा । भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कोशल देशोत्पन्न भद्र प्रकृति और विनीत सुनक्षत्र नामक अनगार को जब गोशालक ने तप तेज से परितापित किया, तब वह काल कर के कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी सुनक्षत्र अनगार, गोशालक के तप-तेज से परितापित होकर मेरे पास आया, मुझे वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महावतों का उच्चारण किया और श्रमण-श्रमणियों को खमाया, फिर आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त कर, काल के समय में काल करके ऊँचे चन्द्र और सूर्य को यावत् आणत, प्राणत और आरण कल्प को उल्लंघन कर अच्युत देवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। उनमें सुनक्षत्र देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। शेष सभी सर्वानुभूति अनगारवत् यावत् वह सभी दुःखों का अन्त करेगा। गोशालक की गति ३८ प्रश्न-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवता सूत्र-स. १५ गाशालक का भावा मनुष्य-भव २४७५ णामं मंखलिपुत्ते से णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवणे ? ___३८ उत्तर-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले णामं मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किचा उइदं चंदिम मृरिय० जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववणे । तत्थ णं अत्यगइयाणं देवाणं वावीमं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। कठिन शब्दार्थ-कुसिस्से-वृशिप्य । भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक था। वह काल के समय में काल कर के कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक, जो श्रमणों की घात करने वाला था यावत् वह छद्मस्थावस्था में ही काल के समय में काल कर के ऊँचा चन्द्र और सूर्य का उल्लंघन कर यावत् अच्युत कल्प में देवपने उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कहीं गई है। उनमें गोशालक देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। गोशालक का भावी मनुष्य-भव ३९ प्रश्न-से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक का भावी मनुप्य-भव आउखएणं ३ जाव कहिं उववजिहिति ? ३९ उत्तर-गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु सयदुवारे णयरे संमुइस्स रण्णो भदाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीइक्कंताणं जाव सुरूवे दारए पयाहिति । कठिन शब्दार्थ-विझगिरिपायमूले-विन्ध्य पर्वत की तलहटी में, दारए-बालक । भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन ! गोशालक का जीव देवलोक की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर, देवलोक से च्यव कर यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? ३९ उत्तर-हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, विन्ध्य पर्वत की तलहटी में पुण्ड्र देश के शतद्वार नामक नगर में, सन्मति नाम के राजा की भद्रा भार्या की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वह नौ मास और साढ़ा सात रात्रि-दिवस व्यतीत होने पर यावत् एक सुन्दर बालक को जन्म देगी। ४० ज रयणिं च णं से दारए जाइहिति, तं रयणिं च णं सयद्वारे णयरे सभितरवाहिरिए भारग्गमो य कुंभग्गसो य एउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति । तएणं तस्स दारगरस अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते जाव संपत्ते वारसाहदिवसे अयमेयारूवं गोण्णं गुणणिफण्णं णामधेनं काहिंति-'जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंमि समाणमि सयदुवार णयरे सम्भितर For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-.., गोशालक का भावी मनुप्य-भव २८७७ वाहिरिए जाव रयणवासे बुढे. तं होउ णं अम्हें इमस्म दारगस्स णामधेनं महापउमे महा० २' । तएणं तस्स दारगम्स अम्मापियरो णामधेनं करेहिंति ‘महापउमे' ति । कठिन शब्दार्थ-भार गसो-भार प्रमाण, प उमवासे-पद्म वर्मा (कमलों की बपा) । भावार्थ-४०-जिस रात्रि में उस बालक का जन्म होगा, उस रात्रि में शतद्वार नगर के भीतर और बाहर अनेक भार प्रमाण और अनेक कुंभ प्रमाण पदों (कमलों) और रत्नों की वृष्टि होगी। उस समय उस बालक के मातापिता ग्यारह दिन बीत जाने पर बारहवें दिन नामकरण करेंगे । वे गुणयुक्त, गुण-निष्पन्न नाम कि-हमारे इस बालक का जन्म हुआ तब शप्तद्वार नगर के बाहर और भीतर यावत् पद्मों और रत्नों की दृष्टि हुई थी, इसलिये इस बालक : का नाम 'महापद्म' होवे-ऐसा विचार कर उस बालक के माता-पिता 'महापद्म' यह नाम देंगे। विवेचन-पुरुप जितने बोझ को उठा सके, उसे अथवा एक सौ बीस पल प्रमाण वजन को 'भार' या 'भारक' कहते हैं, यही भार प्रमाण कहलाता है । कुम्भ प्रमाण के तीन भेद किये हैं । यथा-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट 1 साठ आढ़क प्रमाण का जघन्य कुम्भ, अस्मी आढ़क प्रमाण का मध्यम कुम्भ और सौ आढ़क प्रमाण का उत्कृष्ट कुम्भ होता है। तएणं तं महापउमं दारगं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहि करण-दिवस-णवखत्त-मुहत्तंसि महया महया रायाभिसेगेणं अभिसिंचेहिति । से णं तत्थ राया भविस्सइ, महयाहिमवंत० वण्णओ जाव विहरिस्सइ । तएणं तस्स महापउ. For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७८ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक का भावी मनुष्य-भव मस्स रणो अण्णया कयाइ दो देवा महड्ढिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं काहिति । तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य । तएणं सयदुवारे णयरे वहवे राईसर-तलवर० जाव सत्थवाहप्पभिईओ अण्णमण्णं सदावेहिति, अण्णमण्णं सहावेत्ता एवं वदेहिंति-'जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रण्णो दो देवा महड्ढिया जाव सेणाकम्मं करेंति, तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रण्णो दोच्च पि णामधेजे 'देवसेणे देवसेणे' । तएणं तस्स महापउमस्स रण्णो दोच्चे वि णामधेजे भविस्सइ 'देवसेणे' त्ति २ । कठिन शब्दार्थ-सेणाकम्म-सैनिक कर्म । भावार्थ-जब वह महापद्म बालक कुछ अधिक आठ वर्ष का होगा, तब उसके माता-पिता शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में अत्यन्त बड़ा राज्याभिषेक करेंगे। वह महापद्म राजा महाहिमवान् आदि पर्वत के समान बलशाली होगा, इत्यादि वर्णन यावत् वह विचरेगा। किसी दिन उस महापद्म राजा के महद्धिक यावत् महासुख वाले दो देव सेना-कर्म करेंगे। उन देवों के नाम इस प्रकार हैं-पूर्णभद्र और माणिभद्र । शतद्वार नगर में बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज, तलवर यावत् सार्थवाह प्रमुख परस्पर इस प्रकार कहेंगे कि-"हे देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा के पूर्णभद्र और माणिभद्र ये दो महद्धिक यावत् महासुख वाले देव, सेनाकर्म करते हैं, इसलिये हे-देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' हो । तब उस महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' होगा। For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १५ गोगालक का भावी मनुष्य-भव २४७९ ४१-तएणं तस्स देवमेणम्स रण्णो अण्णा कयाइ सेए संखतलविमलसण्णिगासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पजिस्सइ । तएणं से देवमेणे राया तं सेयं संखतलविमलसण्णिगाम चउदंतं हत्थिरयणं दृरूढे समाणे सयदुवारं णयरं मझमझेणं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिजाहिति, णिजाहिति य । तएणं सयदुवारे णयरे बहवे राई. सर० जाव पभिईओ अण्णमण्णं सदावेहिति, अण्णमण्णं सद्दावेत्ता वदेहिति-जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेए संखतलविमलसण्णिगामे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पण्णे, तं होउ णं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो तच्चे वि णामधेजे 'विमलवाहणे विमलवाहणे' । तएणं तस्स देवसेणस्स रण्णो तच्चे वि णामधेज्जे 'विमलवाहणे' त्ति । कठिन शब्दार्थ-संखतलविमलसण्णिगासे-शंख के दल-खण्ड अथवा तल के समान निर्मल । ४१ भावार्थ-किसी दिन देवसेन राजा के यहाँ शंख-खण्ड अथवा शंख तल के समान निर्मल और श्वेत ऐसे चार दांतों वाला एक हस्तीरत्न उपस्थित होगा। देवसेन राजा, उस हस्तीरत्न पर चढ़ कर शतद्वार नगर के मध्य में होकर बार-बार आवागमन करेगा। तब नगर के बहुत-से माण्डलिक राजा यावत् सार्थवाह आदि परस्पर इस प्रकार कहेंगे-“हे देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' हो।" तब देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होगा। For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८० भगवती सूत्र-श. १५ विमलवाहन का अनार्यपन विमलवाहन का अनार्यपन ४२-तएणं से विमलवाहणे राया अण्णया कयाइ समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छ विप्पडिवजिहिइ, अप्पेगइए आउसे हिइ, अप्पेगइए अवहसिहिइ, अप्पेगइए णिच्छोडेहिइ अप्पेगड़ए णिभत्थेहिइ, अप्पेगइए बंधेहिइ, अप्पेगइए णिरुंभेहिइ, अप्पेगइयाणं छविच्छेयं करेहिइ, अप्पेगइए पमारेहिइ, अप्पेगइयाणं उद्दवेहिइ, अप्पेगइयाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं आच्छिदिहिह, विच्छिदिहिइ, भिंदिहिह, अवहरिहिइ, अप्पेगइयाणं भत्तपाणं वोच्छिंदिहिइ, अप्पेगइए णिण्णयरे करेहिइ, अप्पेगइए णिव्विसए करेहिइ । ___ कठिन शब्दार्थ-विप्पडिज्जिहिड्-विपरीताचरण करेगा, आउसे हिइ-आक्रोश वचन कहेगा, अवहसि हिइ-हँसी करेगा, णिच्छोडेहिइ-पृथक् करेगा, णिमत्थेहिइ-दुर्वचन बोलेगा, णिरुंभेहिइ-रोकेगा, उद्दवेहिइ-उपद्रव करेगा, अवहरिहिइ-उछाल देगा, णिण्णयरे-नगर के बाहर निकालेगा। ४२ भावार्थ-किसी समय विमल वाहन राजा, श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ मिथ्या अर्थात् अनार्यपन का आचरण करेगा। कई श्रमण-निर्ग्रन्थों को आक्रोश करेगा, किन्ही की हंसी करेगा, कइयों को एक दूसरे से पृथक् करेगा, कइयों की भर्त्सना करेगा, कुछ श्रमणों को बांधेगा, कुछ को रोकेगा, कुछ के अवयव का छेदन करेगा, कुछ को मारेगा, कइयों को उपद्रव करेगा । किन्ही के वस्त्र, पात्र कम्बल और पादपोंछन को तोड़-फोड़ और नष्ट करेगा, अपहरण करेगा, बहुतों के आहार-पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश से बाहर निकाल देगा। For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ विमलवाहन का अनार्यपन - विवेचन-राजादि पदार्थ-समुदाय को राज्य कहते हैं । जैसा कि कहा है ; स्वाम्यमात्यश्च राष्टं च, कोशो दुर्ग बलं सुहृत् । सप्तांगमुच्यते राज्यं, बुद्धिसत्त्व समाश्रयम् ।। अथ-राजा, मन्त्री. राष्ट्र कोश, दुग (किला ) बल (सेना) और मित्रवर्ग-इन सात के समूह को 'राज्य' कहते हैं । जनपद अर्थात् राज्य के एक देश को 'राष्ट्र' कहते हैं । तएणं सयदुवारे णयरे बहवे राईसर० जाव वदिहिंति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलवाहणे गया समणेहिं णिग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवण्णे अप्पेगइए आउस्सइ जाव णिचिसए करेइ, तं णो खलु देवाणुप्पिया ! एयं अम्हं सेयं, णो खलु एयं विमलवाहणस्स रण्णो सेयं, णो खलु एयं रजस्स वा रट्टम्स वा वलस्म वा वाहणस्स.वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स वा सेयं, जण्णं विमलवाहणे राया समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवण्णे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं विमलवाहणं रायं एयमटुं विण्णवित्तए, त्तिकटु अण्णमण्णस्स अंतियं एयमटुं पडिमुणेति, अ० २ पडि.. सुणित्ता जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धा. वेंति, ज० २ वद्धावेत्ता एवं वदिहिंति-‘एवं खलु देवाणुप्पिया समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवण्णा अप्पेगइए आउस्संति जाव अप्पेगइए णिविसए करोति, तं णो खलु एयं देवाणुप्पियाणं सेयं, णो खलु एयं अम्हं लेयं, णो खलु एयं रजस्स वा जाव जणवयस्स For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८२ भगवती सूत्र-श. १५ विमलवाहन का अनायेपन वा सेयं, ज णं देवाणुप्पिया ! समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडि. वण्णा, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया ! एयस्स अटुस्स अकरणयाए । कठिन शब्दार्थ-विण्णवित्तए-निवेदन करें, अण्णमण्णस्स-अन्योन्य (एक दूसरे गे) विरमंतु-निवृत्त होवें (रुकें)। भावार्थ-उस समय शतद्वार नगर में बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज यावत् सार्थवाह आदि परस्पर इस प्रकार कहेंगे-“हे देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमण-निर्ग्रथों के साथ अनार्यपन स्वीकार किया है यावत् कितने ही श्रमणों को देश से बाहर निकालता है। अतः हे देवानुप्रियो ! यह अपने लिये श्रेयस्कर नहीं है और न विमलवाहन राजा तथा इस राज्य, राष्ट्र, बल (सेना), वाहन, पुर, अन्तःपुर और देश के लिये ही श्रेयस्कर है। इसलिये हे देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा को इस विषय में निवेदन करना, अपने लिये श्रेयस्कर है । इस प्रकार विचार कर तथा एक दूसरे से निश्चय कर, वे विमलवाहन राजा के पास पहुंचेंगे और दोनों हाथ जोड़ कर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से सम्मानित कर के वे इस प्रकार कहेंगे-“हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ आप, अनार्यपन का आचरण करते हुए उन पर आक्रोश करते हैं यावत् देश से बाहर निकालते हैं। हे देवानुप्रिय ! यह कार्य आपके लिये, हमारे लिये और इस राज्य यावत् देश के लिये श्रेयस्कर नहीं है । आपका श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ अनार्यपन का आचरण उचित नहीं है । इसलिये हे देवानुप्रिय ! आप इस दुराचरण को बन्द कीजिये। ४३-तएणं से विमलवाहणे राया तेहिं बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभिईहिं एयमद्वं विण्णत्ते समाणे ‘णो धम्मो त्ति ‘णो तवो' त्ति मिच्छाविणएणं एयमढे पडिसुणेहिति । तस्स णं सयदुवारस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सुभूमि For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी सूत्र-ग. १५ विमलवाहन का अनार्यपन २४८३ भागे णामं उजाणे भविस्सइ । मन्योउय० वण्णओ । तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउप्पए सुमंगले णामं अणगारे जाइसंपण्णे० जहा धम्मघोसस्स वण्णओ जाव संखित्तविउलतेय. लेस्से, तिण्णाणोवगए, सुभूमिभागस्स उजाणरस अदरसामंते छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं जाव आयावेमाणे विहरिस्सइ । . - कठिन शब्दार्थ-पउप्पए-प्रपत्र । भावार्थ-४३ जब वे बहुत से माण्डलिक राजा, युवराज यावत् सार्थवाह आदि राजा से निवेदन करेंगे, तब वह विमलवाहन राजा "धर्म नहीं, तप नहीं"ऐसी बुद्धि होते हुए भी मिथ्या-विनय बता कर उनका निवेदन मान लेगा। ___ शतद्वार नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा में सुभूमि भाग नामक उद्यान होगा । वह सब ऋतुओं के फल-फूलों से युक्त होगा, इत्यादि वर्णन । उस काल उस समय में विमल नाम के तीर्थंकर के प्रपौत्र 'सुमंगल' नामक अनगार होंगे। वे जाति-सम्पन्न इत्यादि ग्यारहवें शतक के ग्यारहवें उद्देशक में धर्मघोष अनगार के वर्णन के समान यावत् संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाले, तीन ज्ञान सहित वे सुमंगल अनगार, सुभमि-भाग उद्यान से न अति दूर न अति निकट निरन्तर छठ-छठ तप के साथ यावत् आतापना लेते हुए विचरेंगे। विवेचन-यहाँ जो 'विमल' नामक तीर्थकर का कथन किया गया है, वे टीकाकार के अनुसार उत्सर्पिणी काल में इक्कीसवें तीर्थंकर होंगे-ऐसा समवायांग सूत्र से ज्ञात होता है । वे अवसर्पिणी काल के चौथे तीर्थकर के स्थान में प्राप्त होते हैं। उनसे पहले के तीर्थकरों के अन्तर काल में करोड़ों सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं और यह महापद्म राजा तो बारहवें देवलोक की बाईस सागरोपम की स्थिति पूर्ण कर के होगा । इसलिये इसकी संगति बैठना कठिन है, किन्तु इसकी संगति इस प्रकार वैठती है, बाईस सागरोपम की स्थिति के पश्चात् जो तीर्थंकर उत्सर्पिणी काल में होगा, उसका नाम 'विमल' होगा-ऐसा संभवित लगता है। वैसे महापुरुषों के अनेक नाम होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८४ भावतो सूत्र-स.१५ सुमंगल मुनि द्वारा विमल वाहन का विनाश सुमंगल मुनि द्वारा विमलवाहन का विनाश ४४-तएणं से विमलवाहणे राया अण्णया कयाइ रहचरियं काउं णिजाहिइ । तएणं से विमलवाहणे गया सुभूमिभागस्स उजाणम्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं टुं. छटेणं जाव आयावेमाणं पासिहिति, पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं णोल्लावेहिति । तएणं से सुमंगले अणंगारे विमलवाहणेणं रण्णा रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे सणियं सणियं उटेहिति, उद्वित्ता दोच्चं पि उड्ढं वाहाओ पगिझिय पगिझिय जाव आयावेमाणे विहरिस्सइ । तएणं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोच्चं पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति । कठिन शब्दार्थ-रहचरियं-रथचर्या, आयावेमाणे-आतापना लेते हुए, रहसिरेणंरथ के अग्र भाग से, गोल्लावेहिति-गिरा देंगे। - भावार्थ-४४ किसी दिन विमलवाहन राजा, रथचर्या करने के लिये निकलेगा, तव सुभूमि-भाग उद्यान से थोड़ी दूर रथचर्या करता हुआ वह राजा, निरन्तर छठ-छठ तप के साथ यावत् आतापना लेते हुए सुमंगल अनगार को देखेगा। उन्हें देखते ही वह कोपाविष्ट हो कर यावत् क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित होता हुआ रथ के अग्रभाग से सुमंगल अनगार को टक्कर मार कर नीचे गिरा देगा । जब विमलवाहन राजा रथ के अग्रभाग से सुमंगल अनगार को नीचे गिरा देगा, तब सुमंगल अनगार धीरे-धीरे उठेगे और दूसरी बार फिर आतापना For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र -ग. १५ मुमंगल मुनि द्वारा विमल वाहन का विदाग २४८.५ लेंगे। तब विमलवाहन राजा, सुमंगल अनगार को दूसरी बार रथ के अग्रभाग से अभिघात कर नीचे गिरा देगा। तपणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा दोच्चं पि रहसिरेणं णोल्लाविए ममाणे मणियं मणियं उट्टेहिति, उद्वित्ता ओहिं पउंजेहिति, ओहिं पउंजित्ता विमलवाहणरस रणो तीतद्धं ओहिगा आभोएहिति, आभोइत्ता विमलवाहणं गयं एवं वइहिति‘णो खलु तुमं विमलवाहणे राया, णो खलु तुमं देवसेणे राया, णो खलु तुमं महापउमे राया, तुमं णं इओ तच्चे भवग्गहणे गोसाले णामं मंखलिपुत्ते होत्था, समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तं जइ ते तया सव्वाणुभूइणा अणगारेणं पभुणा वि होऊणं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खियं अहियासियं जड़ ते तया सुणक्खतेणं अणगारेणं जाव अहियासियं, जइ ते तया समणेणं भगवया महावीरेणं पभुगा वि जाव अहिंयासियं, तं णो खलु ते अहं तहा सम्मं सहिस्सं जाव अहियासिस्स; अहं ते णवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेजामि। . कठिन शब्दार्थ-पभुणा-समर्थ होते हुए, तितिक्खियं-तितिक्षा की (सहन किया) सहयं-घोड़े सहित, सरह-रथ सहित, एगाहच्च-एक हो प्रहार में, कूडाहच्च-कूटाघात के समान (एक प्रहार में तिर टूट जाय वैसा), भासरासि-राख का ढेर । भावार्थ-तब सुमंगल अनगार धीरे-धीरे उठेंगे और अवधिज्ञान में उपयोग लगा कर विमलवाहन के अतीत-काल को देखेंगे। फिर वे विमलवाहन राजा से For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८६ भगवती सूत्र-श. १५ सुमंगल मुनि द्वारा विमलवाहन का विनाश इस प्रकार कहेंगे-"तू वास्तव में विमलवाहन राजा नहीं है, तू देवसेन राजा नहीं है और तू महापद्म राजा भी नहीं है । तू इससे पूर्व तीसरे भव में श्रमणों की घात करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक था और तू छद्मस्थ अवस्था में ही मरा था। उस समय सर्वानुभूति अनगार ने समर्थ होते हुए भी तेरे अपराध को सम्यक प्रकार से सहन किया था, क्षमा किया था, तितिक्षा की थी और उसको अध्यासित (सहन) किया था। इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी यावत् अध्यासित किया था। उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भी समर्थ होते हुए यावत् सहन किया था। परन्तु में इस प्रकार सहन यावत् अध्यासित नहीं करूंगा। मैं तुझे अपने तप तेज से घोड़ा, रथ और सारथि सहित एक ही प्रहार में कूटाघात की तरह राख का ढेर कर दूंगा। ४५-तपणं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं तच्चं पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति । तएणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तच्चं पि रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमिओ पच्चोरुहइ, आ० २ पच्चो. रुहित्ता तेयासमुग्धाएणं समोहण्णिहिति, तेयासमुग्घाएणं समोहणित्ता सत्तट्ठ पयाइं पच्चोसक्किहिति, सत्तट्ट पयाई पच्चोसक्कित्ता विमलवाहणं रायं सहयं सरहं समारहियं तवेणं तेएणं जाव भासरासिं करोहिति । कठिन शब्दार्थ-पच्चोसक्किहिति-पीछे हटेंगे । भावार्थ-४५ जब सुमंगल अनगार, विमलवाहन राजा से ऐसा कहेंगे तब वह अत्यन्त कुपित होगा यावत् क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित होगा। तब वह For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगवती सूत्र-ग. ५ मुमंगल मुनि द्वारा विमलवाहन का विनाश २४८७ तीसरी बार सुमंगल अनगार को रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर गिरा देगा । जब विमलवाहन राजा, रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर सुमंगल अनगार को तीसरी बार गिरा देगा, तब सुमंगल अनगार, अत्यन्त कुपित यावत् क्रोधावेश से मिसमिसाहट करते हुए आतापना भूमि से नीचे उतर कर तेजस समुद्घात करेंगे और सात-आठ चरण पीछे हट कर विमलवाहन राजा को घोड़े, रथ और सारथि सहित जला कर भस्म कर देंगे। ४६ प्रश्न-सुमंगले णं भंते ! अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववज्जिहिति ? ___ ४६ उत्तर-गोयमा ! सुमंगले णं अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करित्ता वहहिं छह हम-दसम दुवालस० जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावमाणे बहुइं वासाइं सामण्णपरि- यागं पाउणेहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अण. सणाए जाव छेदेत्ता आलोइय-पडिवकंते समाहिपत्ते उड्ढं चंदिम० जाव गेवेजविमाणावाससयं वीइवइत्ता सव्वट्ठसिधे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति । तत्थ णं देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं सुमंगलस्स वि देवस्स अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । से णं भंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति । कठिन शब्दार्थ--अजहण्णमणुक्कोसेणं-अजघन्य अनुत्कृष्ट । For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८८ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक का भव-भ्रमण ~ ___ भावार्थ-४६ प्रश्न-हे भगवन् ! सुमंगल अनगार, घोड़े रथ और सारथि सहित विमलवाहन राजा को भस्म का ढेर कर के वे स्वयं काल कर के कहाँ जावेंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? ४६ उत्तर-हे गौतम ! विमलवाहन राजा को घोड़े, रथ और सारथि सहित भस्म करने के पश्चात् सुमंगल अनगार बेला, तेला, चौला, पचौला यावत् विचित्र प्रकार के तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करेंगे। फिर एक मास की सलेखना से साठ भक्त अनशन का छेदन करेंगे और आलोचना, प्रतिक्रमण कर के समाधिस्थ हो काल करेंगे, वे ऊंचे चन्द्र सूर्य यावत् तीसरे त्रिक के एक सौ ग्रेवेयक विमानावासों का उल्लंघन कर के सर्वार्थ-सिद्ध महाविमान में देवपने उत्पन्न होंगे। वहां देवों की अजयन्यानुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्टता से रहित) तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। वहां सुमंगल देव की भी परिपूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति होगी। वहाँ का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर सुमंगल देव महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होंगे यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे। विवेचन-सर्वार्थसिद्ध देवलोक में जघन्य और उत्कृष्ट इस तरह दो प्रकार की स्थिति नहीं है, किन्तु जघन्य और उत्कृष्टता से रहित सभी देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति होती है। गोशालक का भव-भ्रमण . ४७ प्रश्न-विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहए जाव भासरासीकए समाणे कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजि. हिति ? ४७ उत्तर-गोयमा ! विमलवाहणे णे राया सुमंगलेणं अण For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-पू, १५ गोगालक का भव भ्रमण ४८९ गारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसत्तमाए पुटवीए उकोसकालट्ठिइयंसि णरयंसि गेरइयत्ताए उववजिहिति । से णं तओ अगंतरं उब्वट्टित्ता मच्छेसु उववजिहिति । तत्थ वि णं मत्थवझे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंमि णरगंसि णेरइयत्ताए उववजिहिति । से णं तओ अणंतरं उबट्टित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किचा छटीए तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिड्यंसि गरगंसि जेरइयत्ताए उववजिहिति । से णं तओहितो जाव उव्वट्टित्ता इथियासु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाह० जाव दोच्चं पि छट्ठीए तमाए पुढवीए उकोसकाल० जाव उव्वट्टित्ता दोच्चं पि इत्थियासु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवझे जाव किच्चा पंचमाए धूमप्पभाए पुटवीए उक्कोसकाल. जाव उव्वट्टित्ता उरएसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चं पि पंचमाए जाव उव्वट्टित्ता दोच्चं पि उरएसु उववजिहिति जाव किचा चउत्थीए पकप्पभाए पुढवीए उक्कोस. कालट्ठिड्यंसि जाव उवट्टित्ता सीहेसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे तहेव जाव किच्चा दोच्चं पि च उत्थीए पंक० जाव उव्वट्टित्ता दोच्चं पि सीहेसु उववजिहिति जाव किच्चा तचाए For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९० भगवती सूत्र-श. १५ गोगालक का भव-भ्रमण वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल० जाव उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चं पि तचाए वालुय० जाव उव्वट्टित्ता दोच्चं पि पक्खीसु उववजिहिति जाव किच्चा दोचाए सक्करप्पभाए जाव उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थ० जाव किच्चा दोच्चं पि दोच्चाए सक्करप्पभाए जाव उवट्टित्ता दोच्चं पि सरीसवेसु उववजिहिति, जाव किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्विइयंसि णरगंसि गेरइयत्ताए उववजिहिति, जाव उव्वट्टित्ता सणीसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा असण्णीसु उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चं पि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखेजइ. भागट्ठिइयंसि णरगंसि णेरड्यत्ताए उववज्जिहिति । कठिन शब्दार्थ-सत्थवज्झे-शस्त्रवध्य-शस्त्र से मारा जाने योग्य, दाहवक्कंतीएदाह ज्वर की वेदना से। भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! सुमंगल अनगार के द्वारा घोड़े, रथ और सारथि सहित भस्म किया हुआ विमलवाहन राजा कहाँ जायेगा, कहाँ उत्पन्न होगा? ४७ उत्तर-हे गौतम ! सुमंगल अनगार के द्वारा घोड़े, रथ और सारथि सहित यावत् भस्म किया जाने पर विमलवाहन राजा, अधःसप्तम पृथ्वी में, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकों में नैरयिक प से उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् उद्वर्त कर (निकल कर) मत्स्थों में उत्पन्न , ।। वहाँ शस्त्र के द्वारा वध होने पर दाह ज्वर की पीड़ा से काल कर के मारो बार फिर अधःसप्तम For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १५ गोशालक का भव-भ्रमण उत्पन्न होगा । वहाँ पृथ्वी में, उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावासों में, नरयिक रूप से से यावत् निकल कर फिर दूसरी बार मत्स्यों में जन्मेगा । वहाँ पर भी शस्त्र से मारा जा कर यावत् छठी तमः प्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक होगा । वहाँ से यावत् निकल कर स्त्री रूप से उत्पन्न होगा । वहाँ भी शस्त्राघात से मर कर दूसरी बार छठी तमःप्रभा नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ से यावत् निकल कर फिर दूसरी बार स्त्री रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ भी शस्त्राघात से मर कर यावत् पांचवीं धूमप्रभा नरक में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला नैरयिक होगा । वहाँ से यावत् निकल कर उरःपरिसर्पों में उत्पन्न होगा । वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाने पर दूसरी बार पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् निकल कर दूसरी बार फिर उरः परिसर्पों में उत्पन्न होगा । वहाँ से यावत् काल करके चौथी पंकप्रभा नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाला नैरयिक होगा । वहाँ से यावत् निकल कर सिंहों में उत्पन्न होगा । वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जा कर यावत् दूसरी बार चौथी नरक में उत्पन्न होगा । वहाँ से यावत् निकल कर दूसरी बार सिहों में उत्पन्न होगा । वहाँ से यावत् काल कर के तीसरी बालुकाप्रभा नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाला नैरयिक होगा । वहाँ से यावत् निकल कर पक्षियों में उत्पन्न होगा। वहां भी शस्त्र से मारा जा कर यावत् काल कर के दूसरी बार तीसरी नरक में उत्पन्न होगा। वहां से यावत् निकल कर दूसरी बार पक्षियों में उत्पन्न होगा। वहां से यावत् काल करके दूसरी शर्कराप्रभा नरक में उत्पन्न होगा । वहां से यावत् निकल कर सरीसृपों में उत्पन्न होगा। वहां भी शस्त्र से मारा जा कर यावत् दूसरी बार शर्कराप्रमा में उत्पन्न होगा। वहां से यावत् निकल कर दूसरी बार सरीसृपों में उत्पन्न होगा। वहां से यावत् काल कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावासों में उत्पन्न होगा। वहां से यावत् निकल कर संज्ञी जीवों में उत्पन्न होगा। वहां भी शस्त्र द्वारा मारा जा कर यावत् काल कर के असंज्ञी जीवों में उत्पन्न होगा । For Personal & Private Use Only २४९? Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का भव- भ्रमण वहाँ भी शस्त्र से मारा जा कर यावत् काल कर के दूसरी बार रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा । २४९२ विवेचन - यहाँ विमलवाहन राजा के नरकों में उत्पन्न होने का क्रम बतलाया है । असंज्ञी आदि जीव रत्नप्रभा आदि नरकों में इसी प्रकार उत्पन्न होते हैं। यथा "" अस्सण्णी खलु पढमं, दोच्चं च सिरीसिवा तइय पवखी । सीहा जंति चउत्थि, उरगा पुण पंचम पुढवि ।। छट्ठ च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सत्तम पुढव || "1 अर्थ - असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं। सरीसृप दूसरी, पक्षी तीसरी, सिंह चौथी, सर्व पांचवीं, स्त्री छठी और मच्छ तथा मनुष्य सातवीं नरक तक जा सकते हैं । से णं तओ जाव उब्वट्टित्ता जाई इमाई खहयरविहाणाई भवंति, तं जहा - चम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, विययपक्खीणं तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उदाइत्ता उदाइत्ता तत्थेव तत्थेव भुजो भुज्जो पच्चायाहिति । सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा जाईं इमाई भुयपरिसम्पविहाणाईं भवंति तं जहा - गोहाणं, णउलाणं जहा पण्णवणापए जाव जाहगाणं, चउप्पांइयाणं, + तेसु अणेगसय सहस्सखुत्तो० सेसं जहा - खह राणं जाव किचा जाई इमाई उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं जहा - अहीणं, अयगराणं, आसालियाणं, महोरगाणं, तेसु अणेग + 'चउप्पाइयाणं' शब्द भगवती की अन्य प्रतियों में नहीं है, परंतु प्रज्ञापना में है- डोशी । For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगपती सूत्र-म. १५ गोगालक का भव-भ्रमण २४५३ सयसह० जाव किच्चा जाइं इमाइं च उप्पयविहाणाई भवंति, तं जहाएगखुराणं दुखुराणं गंडीपयाणं सणहपयाणं तेसु अणेगसयसहस्स० जाव किचा जाई इमाई जलयरविहाणाई भवंति, तं जहा-मच्छाणं, कच्छमाणं जाव मुसुमाराणं तेसु अणेगमयसहस्स० जाव किचा जाई इमाई चउरिंदियविहाणाई भवंति, तं जहा-अंधियाणं, पोत्तियाणं जहा पण्णवणापए, जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसय० जाव किच्चा जाइं इमाई तेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा-उवचियाणं जाव हत्यिसोडाणं, तेसु अणेग० जाव किचा जाई इमाई बेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा-पुलाकिमियाणं जाव समुद्दलिक्खाणं तेसु अणेगसय० जाव किच्चा जाई। भावार्थ-वहाँ से यावत् निकल कर खेचर जीवों के जो ये भेद है, यथाचर्म-पक्षी, लोम-पक्षी, समुद्गक पक्षी और वितत-पक्षी उनमें अनेक लाख बार मर कर वहीं बारबार उत्पन्न होता रहेगा। सर्वत्र शस्त्र से मारा जाने पर दाह की उत्पत्ति से काल-समय काल करेगा। और भुजपरिसों के जो भेद हैं यथा-गोह, नकुल (नोलिया) इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद के अनुसार उन सभी में उत्पन्न होगा यावत् जाहक चौपाये जीवों में अनेक लाख बार मर कर वहीं बारबार उत्पन्न होगा। शेष सब खेचरवत जानना चाहिये यावत काल करके उरपरिसॉं के इन भेदों में उत्पन्न होगा, यथा-सर्प, अजगर, आशालिका और महोरग, इनमें अनेक लाख बार मर कर इन चतुष्पद जीवों के भेदों में उत्पन्न होगा, यथा-एकखुर वाला, दो खुर वाला, गण्डीपद और सनखपद् । उनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। वहाँ से काल कर के इन जलचर जीवों के भेदों में उत्पन्न होगा, यथा-कच्छप यावत् सुंसुमार, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९४ भगवती सूत्र - श. १५ गोशालक का भव - भ्रमण फिर चतुरिन्द्रिय जीवों के भेदों में उत्पन्न होगा । यथा-अन्धिक, पौत्रिक इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद के अनुसार- यावत् गोमय कीटों में अनेक लाख बार उत्पन्न होगा । वहाँ से काल करके तेइन्द्रिय जीवों के भेद, यथा-उपचित यावत् हस्तीशौण्ड, इनमें उत्पन्न होगा, वहाँ से काल करके बेइन्द्रिय जीवों के भेद यथा-पुला कृमि यावत् समुद्रलिक्षा, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा । विवेचन - चर्म के पांखों वाले पक्षियों को 'चर्म- पक्षी' कहते हैं, यथा- चमगादड़ आदि । रोम की पांखों वाले पक्षियों को 'रोम पक्षी' (लोम पक्षी ) कहते हैं । ये दोनों तरह के पक्षी, मनुष्य क्षेत्र के भीतर और बाहर होते हैं । समुद्गक पक्षी (जिनकी पांखे हमेशा पेटी की तरह बन्द ही रहती हैं) और विततपक्षी (जिनकी पांखे हमेशा विस्तृत खुला हुई ही रहती हैं) ये दोनों प्रकार के पक्षी मनुष्य क्षेत्र से बाहर ही होते हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों में उत्पन्न होने का जो यहाँ लाखों भवों का कथन किया है, वह सान्तर समझना चाहिये, निरन्तर नहीं। क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के भव निरन्तर सात-आठ से अधिक नहीं किये जा सकते। जैसा कि कहा है:"पंचिदियतिरियनरा सत्तट्टभवा भवग्गहेणं ' " अर्थ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्य के निरन्तर सात-आठ भव ही किये जा सकते हैं । इमाई वणरसइविहाणारं भवंति, तं जहा - रुक्खाणं गुच्छाणं जाव कुहणाणं, तेसु अणेगसय० जाव पचायाइस्सह । उस्सणं चणं कडुयरुक्खेसु कडुयवल्लीसु सव्वत्थ वि णं सत्यवज्झे जाव किचा जाईं इमाई वाउकाइयविहाणाई भवंति तं जहा - पाईण - वायाणं जाव सुद्धवायाणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जाव किना जाई इमाई तेउकाइयविहाणाई भवंति तं जहा - इंगालाणं जाव For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ गोशालक का शव-भ्रमण २४९५ सूरकंतमणिणिस्सियाणं, तेमु अणेगमयसहस्स० जाव किचा जाई इमाइं आउक्काइयविहाणाइं भवंति, तं जहा-उस्साणं जाव खातोदगाणं,तेसु अगेगमय. जाव पवायाइस्मइ । उम्मण्णं च णं खारोदएसु, खातोदएसु; सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा जाई इमाई पुढविक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा-पुढवीणं, सक्कराणं जाव सूरकंताणं, तेसु अणेगसय० जाव पञ्चायाहिति, उस्सण्णं च णं खरवायरपुढविक्काइएसु, सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किचा। ___ भावार्थ-फिर वनस्पति के भेद, यथा-वृक्ष, गुच्छ यावत् कुहुना, इनमें अनेक लाख बार मर कर उत्पन्न होगा और विशेष करके कटुरस वाले वृक्षों और बेलों में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों पर शस्त्र से मारा जायगा । उसके बाद वायुकायिक जीवों के भेद, यथा-पूर्ववायु यावत् शुद्धवायु, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। फिर ते उकाय के भेद, यथा-अंगार यावत् सूर्यकान्तमणि से निःश्रित अग्नि, उनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। फिर अप्काय के भेद, यथा-अवश्याय यावत् खाई का पानी, उनमें अनेक लाख बार-विशेष कर खारे पानी और खाई के पानी में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्र द्वारा मारा जायेगा। फिर पृथ्वीकायिक के भेद, यथा-पृथ्वी, शर्करा, यावत् सूर्यकान्तमणि, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा और विशेष कर खर-बादर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होगा। सर्वत्र शस्त्र से वध होगा, यावत् काल करके रायगिहे णयरे वाहिं खरियत्ताए उववजिहिइ । तत्थ वि णं सत्थवझे जाव किच्चा दुच्चं पि रायगिहे णयरे अंतो खरियत्ताए For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९६ भगवतो सूत्र-श. १५ गोशालक का भव-भ्रमण उववजिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किचा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले वेभेले सण्णिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पचायाहिति । तएणं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुवकबालभावं जोवणगमगुप्पतं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्संति । सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्टा कंता जाव अणुमया-भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडओ विव सुमारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उहं जाव परिस्सहोवसग्गा फुसंतु । तएणं सा दारिया अण्णया कयाइ गुब्बिणी ससुरकुलाओ कुलघरं णिजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किचा दाहिणिल्लेसु अग्गिकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति । कठिन शब्दार्थ-तेल्लकेला-तेल का भाजन, चेलपेडा-वस्त्र की पेटी । भावार्थ-फिर वह राजगृह नगर के बाहर (सामान्य) वेश्यापने उत्पन्न होगा। वहाँ शस्त्र से मारा जाने पर काल करके दूसरी बार राजगृह के भीतर (विशिष्ट) वेश्यापने उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विन्ध्य पर्वत के पास बिभेल नामक ग्राम में, ब्राह्मण कुल में पुत्री रूप से उत्पन्न होगा। वह पुत्री जब बाल्यावस्था का त्याग कर यौवन अवस्था को प्राप्त होगी, तब उसके माता-पिता उचित द्रव्य और उचित विनय द्वारा पति को भार्या रूप से अर्पण करेंगे । वह उसकी स्त्री होगी। वह इष्ट, कान्त यावत् अनुमत, आभूषणों के करण्डिये तुल्य, तेल की For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रा १५ गोशालक का भव-भ्रमण कूपी के समान अत्यन्त सुरक्षित, वस्त्र की पेटी के समान सुसंगृहीत, रत्न करण्डिये के समान सुरक्षित, शीत, उष्ण यावत् परीषद् उपसर्ग उसे स्पर्श न करें, इस प्रकार अत्यन्त संगोपित होगी। वह ब्राह्मण पुत्री गर्भवती होगी और अपने ससुराल से पीहर जाती हुई मार्ग में दावाग्नि की ज्वाला से जल कर मरेगी और दक्षिण दिशा के अग्निकुमार देवों में देव रूप से उत्पन्न होगी । २८९७ ४८ - से णं तओहिंतो अगंतरं उब्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, माणुस्सं विग्गहं लभित्ता केवलं वोहिं बुज्झिहिति, के० २ बुज्झित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति । तत्थ वि य णं विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा दाहिपिल्लेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओ - हिंतो जाव उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं तं चेत्र जाव तत्थ विणं विराहियसामण्णे कालमासे जाव किवा दाहिणिल्लेसु नागकुमारेसु देवे देवत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओहिंतो अनंतरं • एवं एएणं अभिलावेणं दाहिणिल्लेसु सुवण्णकुमारेसु, एवं विज्जु - कुमारेसु, एवं अग्गिकुमारवज्जं जाव दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु, सेणं तओ जाव उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, जाव विराहियसामण्णे जोइसिएस देवेसु उववज्जिहिति । भावार्थ - ४८ वहाँ से च्यव कर मनुष्य के शरीर को धारण करके केवल For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९८ भगवती सूत्र-श. १५ आराधना और केवलज्ञान मना बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त करेगा। तत्पश्चात् मुण्डित हो कर अगारवास का त्याग कर के अनगारवास को ग्रहण करेगा। वहां श्रामण्य (चारित्र) को विराधना कर के मर कर दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा और संयम लेकर यावत् विराधना कर के काल कर दक्षिगनिकाय के नागकुमार देवों में देवपने उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा यावत् संयम की विराधना कर के दक्षिणनिकाय के सुवर्णकुमार देवों में उत्पन्न होगा। इसी प्रकार विद्युत्कुमार देवों में यावत् अग्निकुमार देवों को छोड़ कर दक्षिणनिकाय के स्तनितकुमारों तक यावत् वहां से निकल कर मनुष्य होगा यावत् चारित्र की विराधना कर के ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होगा। आराधना और केवलज्ञान से णं तओ अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, जाव अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवताए उपजिहिति । से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, केवलं बोहिं बुझिहिति, तत्थ वि णं अवि. राहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चो ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति । से णं तओ चहत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । तत्थ वि णं अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सणंकुमारे कप्पे देवताए उववजिहिति । से णं तओहिंतो एवं जहा सणंकुमारे तहा बंभलोए महासुक्के आणए आरणे । से णं तओ जाव For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १५ जाराधना और केवलज्ञान अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओहिंतो अनंतरं चयं चड़त्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई भवंति अड्ढाई जाव अपरिभूयाई तहप्पगारे कुलेसु पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । एवं जहा उववाइए दढप्पण्णत्तव्वया सच्चैव वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा जाव केवलवरणाणदंसणे समुपजिहिति । कठिन शब्दार्थ - अविराहिय सामण्णे- अविराधित श्रामण्य ( चारित्र की विराधना किये बिना) । भावार्थ- वहां से च्यव कर मनुष्य होगा यावत् चारित्र की विराधना किये बिना ( आराधक होकर ) काल के समय काल करके सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा और चारित्र की विराधना किये बिना, काल के समय काल करके सनत्कुमार देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा । जिस प्रकार सनत्कुमार देवलोक के विषय में कहा, उसी प्रकार ब्रह्मलोक, महाशुक्र, आनत और आरण देवलोकों के विषय में कहना चाहिये। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा यावत् चारित्र की विराधना किये बिना काल करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यावत् उसे उत्तम केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होगा । विवेचन - इस सूत्र में चारित्र की आराधना कही है, उसके विषय में कहा है कि'आराहणा य एत्थं चरणपडिवत्तिसमयओ पभिई । 44 २४९ आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालनं विहिणा ।। " अर्थ - चारित्र स्वीकार करने के समय से लेकर मरण- पर्यन्त निरतिचार चारित्र का For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०० भगवती सूत्र-श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि पालन करना 'आराधना' कहा गया है । यद्यपि यहाँ बारित्र प्रतिपत्ति के भव, विराधना युक्त अग्निकुमार देवों को छोड़ कर भवनपति और ज्योतिषी देवों के दस कहे हैं और सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक अविराधित सात भव और आठवां सिद्धि-गमन रूप अन्तिम भव । इस प्रकार ये आठ भव होते हैं । विराधित और अविराधित दोनों को मिलाने से अठारह भव होते हैं । किन्तु आठ भव तक ही चारित्र की प्राप्ति होती है, यह सिद्धान्त पक्ष है। यहाँ जो दस भव चारित्र-विराधना के बतलाये गये हैं, वे द्रव्य-चारित्र की अपेक्षा समझना चाहिए अर्थात् उनमें उसे भाव-चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। चारित्र-क्रिया की विराधना होने से उसको विराधक बतलाया है । जैसे अभव्य जीव चारित्र क्रिया के आराधक होकर ही नवग्रैवेयक में जाते हैं, उनको वास्तविक चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार यहाँ भी दस भवों का चारित्र द्रव्य चारित्र समझना चाहिए। इस प्रकार समझने से सिद्धान्त पक्ष में किसी प्रकार का दोप नहीं आता। अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि . ४९-तपणं से दढप्पइण्णे केवली अप्पणो तीअदुधं आभोएहिइ, अप्प० २ आभोइत्ता समणे णिग्गंथे सदावेहिति, सम० २ सद्दावेत्ता एवं वदिहिइ-'एवं खलु अहं अजो! इओ चिराईयाए अद्धाए गोसाले णामं मंखलिपुत्ते होत्था, समणघायए जाव छउ. मत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! अणाईयं अण. वदग्गं दीहमधं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिए, तं मा णं अन्जो ! तुम्भं केइ भवउ आयरियपडिणीयए, उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि २५०१ ." मा णं से वि एवं चेव अणाईयं, अणवदग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति जहा णं अहं । तएणं ते समणा णिग्गंथा दढ. प्पइण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयमढें मोचा णिमम्म भीया तत्था तसिया संसारभउम्बिग्गा दढप्पइण्णं केवलिं वंदिहिंति, णमंसिहिति वंदित्ता णमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोइएहिंति णिदिहिंति जाव पडिवजिहिंति। तएणं दढप्पइण्णे केवली बहूई वासाइं केवल. परियागं पाउणिहिति. बहूहिं० २ पाउणित्ता अप्पणो आउमेसं जाणेत्ता भत्तं पञ्चक्वाहिति, एवं जहा उववाइए जाव सव्वदुक्खाण. मंतं काहिति । 8 मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ * ॥ तेयणिसग्गो समत्तो । ॥ समत्तं पण्णरसमं सयं ॥ कठिन शब्दार्थ-आभोएहिइ-देखेंगे, पडिणीयए-प्रत्यनीक (विरोधी) । भावार्थ-४९-वे दृढ़प्रतिज्ञ केवली अपने अतीत काल को देखेंगे। देख कर श्रमण-निर्ग्रन्थों को सम्बोधन कर इस प्रकार कहेंगे-'हे आर्यों ! आज से बहुत काल पहले मैं मंखलिपुत्र गोशालक था। मैंने श्रमणों की घात की थी यावत् छद्मस्थावस्था में काल-धर्म को प्राप्त हुआ था । हे आर्यो ! मैं अनादि अनन्त और दीर्घमार्ग वाले चार गति रूप संसार अटवी में भटका था। इसलिये For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि हे आर्यो ! तुम में से कोई भी आचार्य - प्रत्यनीक ( आचार्य के द्वेषी ) मत होना, आचार्य और उपाध्याय के अपयश करने वाले, अकीर्ति करने वाले मत होना और मेरे समान उपाध्याय प्रत्यनीक मत होना, अवर्णवाद करने वाले और अनादि अनन्त यावत् संसार अटवी में भ्रमण मत करना । दृढ़प्रतिज्ञ केवली की बात सुन कर और हृदय में अवधारण कर के वे श्रमण-निर्ग्रथ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढ़प्रतिज्ञ केवली को वन्दना - नमस्कार करेंगे, वन्दना - नमस्कार करके पापस्थान की आलोचना और निन्दा करेंगे, यावत् तपःकर्म को स्वीकार करेंगे । दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवल पर्याय का पालन करेंगे और शेष आयुष्य थोड़ा रहा जान कर भक्तप्रत्याख्यान करेंगे। इस प्रकार औपपातिक सूत्रानुसार यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । तेजनिसर्ग समाप्त || पन्द्रहवां शतक सम्पूर्ण || २५.२ For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ अहिगरणि जरा कम्मे जावतियं गंगदत्त सुमिणे य । उवओग लोग बलि ओहि दीव उदही दिसा थणिया । भावार्थ-सोलहवें शतक में चौदह उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में अधिकरणी-एरण आदि विषयक कथन है। दूसरे में जरा आदि अर्थ विषयक । तीसरे में कर्म विषयक कथन है । चौथे उद्देशक के प्रारंभ में 'जावतिय' शब्द होने से इस उद्देशक का नाम 'जावतिय' है। पांचवें उद्देशक में गंगदत्त देव विषयक, छठे में स्वप्न विषयक, सातवें में उपयोग विषयक, आठवें में लोक स्वरूप विषयक, नौवें में बलीन्द्र विषयक, दसवें में अवधिज्ञान विषयक, ग्यारहवें में द्वीपकुमार विषयक, बारहवें में उदधिकुमार विषयक, तेरहवें में दिशाकुमार विषयक और चौदहवें में स्तनितकुमार विषयक कथन हैं। For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक १ आघात से वायुकाय की उत्पत्ति १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-अत्थि ण भंते ! अहिंगरणिंसि वाउयाए वक्क मइ ? १ उत्तर-हंता अत्थि। प्रश्न-से भंते ! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? उत्तर-गोयमा ! पुढे उद्दाइ, णो अपुढे उद्दाइ । प्रश्न-से भंते ! किं ससरीरीणिक्खमइ, असरीरी णिक्खमइ ? उत्तर-एवं जहा खंदए जाव से तेणटेणं णो असरीरी णिक्खमई'। कठिन शब्दार्थ-वक्कमइ-उत्पन्न होता है, पुढे-स्पर्शित होकर, णिक्खमइनिकल कर जाता है। भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-"हे भगवन् ! क्या अधिकरणी (एरण) पर (हथोड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है ?" १ उत्तर-"हां गौतम ! होता है ।" प्रश्न-हे भगवन् ! उस वायुकाय का किसी दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर वह मरता है या स्पर्श हुए बिना ही मरता है ? उत्तर-'हे गौतम ! उसका दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर ही मरता है, स्पर्श हुए बिना नहीं मरता।" For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. १ अग्निकाय की स्थिति प्रश्न-हे भगवन् ! जब वाय काय मरता है, तो क्या शरीर सहित भवान्तर में जाता है या शरीर रहित ? - उत्तर-हे गौतम ! इस विषय में दूसरे शतक के प्रथम (स्कन्दक) उद्देशक के अनुसार, यावत् शरीर रहित होकर नहीं जाता-तक जानना चाहिये। विवेचन-एरण पर हथोड़ा मारते ममय एरण और हथोड़े के अभिघात से वायुकाय उत्पन्न होता है, वह अचित्त होता है। किन्तु उममे सचित्त वायु को हिसा होती है । उत्पन्न होते ममय वह अचेतन होता है और पोछे वह सचेतन हो जाता है। पृथ्वी कायादि पाँच स्थावर जीवों के साथ जब विजातीय जीवों का तथा विजातीय स्पर्श वाल पदार्थों का संघर्ष होता है, तब उनके शरीर का घात होता हैं या बिना स्पर्श आदि से ही? इस आशय को लेकर दूसरा अन्तर्प्रश्न किया गया है । जिसके उत्तर में कहा गया है कि किमी दूसरे पदार्थ (अचित्त वायु आदि) का स्पर्श होने पर वायु काय के जीव मरते हैं, बिना स्पर्श हुए नहीं। यह कथन सोपक्रम आयुष्य का अपेक्षा से है । जीव तंजस और कार्मण शरीर की अपेक्षा शरीर-सहित भवान्तर में जाता है और औदारिक शरीर आदि का अपेक्षा शरीर-रहित होकर भवान्तर में जाता है । अग्निकाय की स्थिति २ प्रश्न-इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवड्यं कालं संचिट्ठइ ? २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उनकोसेणं तिण्णि राइंदियाई । अण्णे वि तत्थ वाउयाए वक्कमइ, ण विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलइ । कठिन शब्दार्थ-इंगालकारिया-सिगड़ी। २ प्रश्न-हे भगवन् ! सिगड़ी में अग्निकाय कितने काल तक सचित्त For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०६ भगवती सूत्र - श. १६ उ. १ तप्त लोह को पकड़ने में कितनी क्रिया ? रहता है ? २ उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन तक सचित्त रहता है । वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं। क्योंकि arrate के बिना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं रहता । विवेचन - अग्निकाय के सम्बन्ध में जो प्रश्न किया है, उसका आशय यह है कि अग्निकाय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि की है। 'यत्राग्निस्तत्रवायु : ' - इस नियम के अनुसार अग्निकाय के साथ वायुकाय के जीव भी उत्पन्न होते हैं । तप्त लोह को पकड़ने में कितनी क्रिया ? ३ प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोसि अयोमएणं संडास - ए उन्हमाणे वा पविमाणे वा कइ किरिए ? ३ उत्तर - गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोसि अयोमरणं संडासरणं उव्विहिति वा पव्विहिति वा, तावं च णं से पुरिसे काइगाए जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरिया हिं पुट्टे, जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो अए णिव्वत्तिए, अयकोट्ठे णिव्वत्तिए, संडासए णिव्वत्तिए, इंगाला णिव्वत्तिया, इंगालकड्ढणी णिव्वत्तिया भत्था णिव्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा । " ४ प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोट्टाओ अयोमएणं संडास For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ १ तप्त लोह को पकड़ने में कितनी किया ? २५०७ एणं गहाय अहिकरासि उक्विमाणे वा णिक्खिमाणे वा कइ किरिए ? ४ उत्तर - गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्टाओ जाव णिक्खिवइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाड़वायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुट्टे, जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो अयो णिव्वत्तिए, सडासए णिव्वत्तिए, चम्मेट्टे णिव्वत्तिए, मुट्ठिए णिव्वत्तिए, अधिकरणी णिव्वत्तिया, अधिकरणिखोडी णिव्वत्तिया, उदगदोणी णिव्वत्तिया, अधिकरणसाला णिव्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्टा | कठिन शब्दार्थ-अयकोट्ठसि - लोहा तपाने को भट्टी, उब्विहमाणे परिवहमाणे-ऊँचानीचा करते हुए, णिव्वत्तिए - निवर्तित - (निष्पन्न हुई - बनी ) उक्खियमाणे णिक्खिवमाणेनिकालते प्रक्षेप करते । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! लोहा तपाने की भट्टी में तपे हुए लोहे को, लोहे की संडासी से पकड़ कर ऊँचा- नीचा करने वाले पुरुष को कितनी किया लगती है ? ३ उत्तर - हे गौतम! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्टी में लोहे की संडासी से लोहे को ऊंचा या नीचा करता है, तबतक कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी क्रिया तक पाँच क्रिया लगती है। जिन जीवों के शरीर से लोहा, लोहे की भट्टी, सण्डासी, अंगारे निकालने की सलाई और धमण बनी है, उन सभी जीवों को भी कायिकी यावत् पाँच किया लगती है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! लोहे की भट्टी में से लोहे को संडासी से पकड़ कर एरण पर रखते और उठाते हुए पुरुष को कितनी क्रिया लगती है ? ४ उत्तर - हे गौतम! जब तक लोहे की भट्टी में से लोहे को लेकर For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०८ भगवती सूत्र - श. १ उः १६ जीव और अधिकरण यावत् रखता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी तक पांच क्रिया लगती है। जिन जीवों के शरीर से लोहा, सण्डासी, घन, हथोड़ा, एरण, एरण का लकड़ा बना है और गर्म लोहे का ठण्डा करने की द्रोणी ( कुण्डी ) तथा अधिकरणशाला (लोहार का कारखाना) बना है, उन जीवों को भी कायिकी यावत् पांच क्रिया लगती है । विवेचन - पांच क्रियाओं के नाम इस प्रकार है -१ काइया ( कायिकी ) २ अहिगरजिया (आधिकरणिकी) ३ पाउसिया ? (प्राद्वेषिकी) ४ परितावणिया ( पारितापनिकी) ५ पाणाइवाइया (प्राणातिपातिकी) । काया से होने वाली क्रिया 'कायिकी क्रिया' कहलाती हैं। जिस अनुष्ठान विशेष से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा, नरक गति का अधिकारी होता है, वह 'अधिकरण' कहलाता है । उससे होने वाली क्रिया 'आधिकरणिकी' क्रिया कहलाती है । कर्म बन्धन के कारणभूत मत्सर भाव को 'प्रद्वेष' कहते हैं । उससे होने वाली क्रिया 'प्राद्वेषिकं ! ' कहलाती है । ताड़ना आदि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा पहुंचाना 'परिताप' है । उससे • होने वाली क्रिया 'पारितापनिकी' क्रिया कहलाती है । इन्द्रिय आदि प्राण हैं, उनके अतिपात अर्थात् विनाश से लगने वाली क्रिया 'प्राणातिपातिकी' कहलाती है । जीव और अधिकरण ५ प्रश्न - जीवे णं भंते! किं अधिकरणी, अधिकरणं ? ५ उत्तर - गोयमा । जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि' ? उत्तर - गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणट्टेणं जाव अधिकरणं पि । For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १६ उ. १ जीव और अधिकरण २५०१ ६ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! किं अधिकरणी अधिकरणं ? ६ उत्तर-गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । एवं जहेव जीवे तहेव णेरइए वि । एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए । ७ प्रश्न-जीवे णं भंते ! किं माहिकरणी, णिरहिकरणी ? ७ उत्तर-गोयमा ! माहिकरणी, णो णिरहिकरणी । प्रश्न-से केणटेणं-पुच्छा। उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणटेणं जाव ण णरहिकरणी । एवं जाव वेमाणिए । ८ प्रश्न-जीवे णं भंते ! किं आयाहिकरणी, पराहिकरणी, तदुभयाहिकरणी ? ___८ उत्तर-गोयमा ! आयाहिकरणी वि, पराहिकरणी वि, तदु. भयाहिकरणी वि। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ जाव 'तदुभयाहिकरणी वि'? उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव तदुभया. हिकरणी वि । एवं जाव वेमाणिए । __९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! अधिकरणे किं आयप्पयोगणिव्वत्तिए परप्पयोगणिव्वत्तिए, तदुभयप्पयोगणिव्वत्तिए ? ९ उत्तर-गोयमा ! आयप्पयोगणिवत्तिए वि, परप्पयोग For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २५१० भगता सूत्र-श. १६ उ. १ जीव और अधिकरण णिवत्तिए वि तदुभयप्पयोगणिबत्तिए वि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणटेणं जाव तदुभयप्पयोगणिव्वत्तिए वि । एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-अविरति पडुच्च-जिसने मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति नहीं रोकी-संयमित नहीं की इसलिए । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। ६ प्रश्न-हे भगवन ! नरयिक जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? ६ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। जिस प्रकार जीव के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार नरयिक के विषय में भी जानना चाहिये, यावत् निरन्तर वैमानिक तक जानना चाहिये। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी ? ७ उत्तर-हे गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव आत्माधिकरणी है, पराधिकरणी है या तदुभयाधिकरणी है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी है, पराधिकरणी भी है For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १६ उ. १ जीव और अधिकरण २५११ और तदुभयाधिकरणी भी है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किसलिए कहा गया कि यावत् जीव तदुभयाधिकरणी भी है ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा यावत् तदु मयाधिकरणी भी है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से होता है, पर-प्रयोग से होता है या तदुभय-प्रयोग से होता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से भी होता है, पर-प्रयोग से भी होता है और तदुभय-प्रयोग से भी होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा यावत् तदुभय-प्रयोग से भी होता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये । विवेचन-हिंसादि पापकर्म के कारणभूत एवं दुर्गति के निमित्तभूत पदार्थों को 'अधिकरण' कहते हैं । अधिकरण के दो भेद हैं-१ आन्तरिक और २ वाह्य । शरीर, इन्द्रियां आदि आन्तरिक अधिकरण हैं । हल, कुदाली आदि शस्त्र और धन, धान्य आदि परिग्रह रूप वस्तुएँ बाह्य अधिकरण हैं। ये बाह्य और आन्तरिक अधिकरण जिन के हों, वह 'अधिकरणी' कहलाता है । इसलिये संसारी जीव के शरीरादि होने के कारण जीव अधिकरणी है और शरीरादि अधिकरणों से कथंचित् अभिन्न होने से जीव अधिकरण भी है । अतः सशरीरी जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है । अविरति की अपेक्षा से जीव, अधिकरण भी है और अधिकरणी भी । जो जीव विरत है, उसके शरीरादि होने पर भी वह अधिकरणी और अधिकरण नहीं है । क्योंकि उन पर उसका ममत्व-भाव नहीं है। जो जीव अविरत है, उसके ममत्व होने से वह अधिकरणी और अधिकरण कहलाता है । ___ शरीरादि अधिकरण सहित जीव साधिकरणो कहलाता है । संसारी जीव के शरीर, इन्द्रिय आदि रूप आंतरिक अधिकरण तो सदा साथ ही रहते हैं। शस्त्रादि बाह्य अधिकरण निश्चित् रूप से सदा साथ नहीं भी होते । किंतु अविरति रूप ममत्व-भाव सदा साथ रहता है । इसलिये शस्त्र आदि वाह्य अधिकरण की अपेक्षा भी जीव साधिकरणो कहलाता है। संयती पुरुषों में अविरति का अभाव होने से शरीर आदि होते हुए भी उनमें साधिकरणपना For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१२ भगवती सूत्र - श. १६ उ १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण नहीं है । पापारम्भ में स्वयं प्रवृत्ति करना 'आत्माधिकरणी' कहलाता है । दूसरे से पापारम्भ करवाना 'पराधिकरणी' कहलाता है । स्वयं पापारम्भ करना और दूसरों से भी करवाना 'तदुभयाधिकरणी' कहलाता है । यह सब अविरति की अपेक्षा से है । हिंसादि पापकार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मन के व्यापार से उत्पन्न अधिकरण 'आत्मप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है । दूसरे को हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने से उत्पन्न हुआ वचनादि अधिकरण 'परप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है । आत्मा द्वारा और दूसरे को प्रवृत्ति कराने द्वारा उत्पन्न हुआ अधिकरण 'तदुभयप्रयोग निर्वर्तित' कहलाता है । स्थावरादि जीवों में वचनादि का व्यापार नहीं होता है, तथापि उनमें अविरति भाव की अपेक्षा से परप्रयोग निर्वर्तितादि अधिकरण कहा गया है । शरीर इन्द्रियाँ योग और अधिकरण १० प्रश्न – कइ णं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता ? १० उत्तर - गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए जाव कम्मए । ११ प्रश्न - क णं भंते! इंदिया पण्णत्ता ? ११ उत्तर - गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा- सोईदिए जाव फासिंदिए । १२ प्रश्न - कवि णं भंते! जोए पण्णत्ते ? १२ उत्तर - गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा -मणजोए व जोए कायजोए । For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण २५१३ कठिन शब्दार्थ-जोए-योग (मन वचन और काया की प्रवृत्ति )। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! शरीर पाँच प्रकार के कहे गये हैं । यथा-औदारिक यावत् कार्मण। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! पाँच कही गई है। यथा-श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय । १२ प्रश्न-हे भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! योग तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा-मन योग, वचन योग और काय योग । १३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्तमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं ? १३ उत्तर-गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'अधिकरणी वि अधिकरणं पि' ? ___ उत्तर-गोयमा ! अविरतिं पडुच, से तेणटेणं जाव अधिकरणं पि। १४ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरणं ? १४ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव मणुस्से । एवं वेउब्वियसरीरं पि, णवरं जस्स अस्थि । For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१४ भगवती सूत्र - श. १६ उ. १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण १५ जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं णिव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी - पुच्छा | १५ उत्तर - गोयमा ! अधिकरणी वि अधिकरणं पि । प्रश्न - सेकेण्डेणं जाव अधिकरणं पि ? उत्तर - गोयमा ! पमायं पडुच्च, से तेणट्टेणं जाव अधिकरणं पि । एवं मणुस्से वि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, णवरं सव्यजीवाणं भाणियव्वं, एवं कम्मगसरीरं । कठिन शब्दार्थ- पमायं-प्रमाद (मद्य विषय कषायादि से दूषित दशा ) । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? १३ उत्तर - हे गौतम! अधिकरणी भी है और अधिकरण भी । प्रश्न - हे भगवन् ! वह अधिकरणी और अधिकरण क्यों है ? उत्तर - हे गौतम ! अविरति के कारण यावत् अधिकरण भी है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता हुआ पृथ्वीकायिक जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? १४ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिये और इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी जानना चाहिये । जिन जीवों के जो शरीर हो उनके वही कहना चाहिये । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक शरीर बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? १५ उत्तर - हे गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी । प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण उसे अधिकरणी और अधिकरण कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १६ उ १ शरीर इन्द्रियां योग और अधिकरण उत्तर - हे गौतम! प्रमाद की अपेक्षा वह अधिकरणी और अधिकरण है । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में जानना चाहिये । तैजस शरीर का कथन औदारिक शरीर के समान जानना चाहिये । परन्तु तैजस शरीर सभी जीवों के होता है । कार्मण शरीर के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । २५१५ १६ प्रश्न - जीवे णं भंते! सोइंदियं णिव्वत्तेमाणे किं अधि करणी, अधिकरणं ? १६ उत्तर - एवं जहेब ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं पि भाणियव्वं, णवरं जस्म अस्थि सोइंदियं, एवं चक्खिदियघाणिंदिय जिम्मिदिय- फासिंदियाण वि, णवरं जाणियन्वं जस्स जं अस्थि । १७ प्रश्न - जीवे णं भंते! मणजोगं णिव्वत्तेमाणे किं अधि करणी, अधिकरणं ? १७ उत्तर - एवं जहेव सोइंदियं तहेव णिरवसेसं, वइजोगो एवं चैव, णवरं एगिंदियवज्जाणं । एवं कायजोगो वि, णवरं सव्वजीवाणं जाव वेमाणिए । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति || सोलसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय को बाँधता हुआ जीव, अधिकरण है या अधिकरण ? For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१६ - भगवती सूत्र-श. १६ उ. १ गरीर इन्द्रिया योग आर आधकरण - १६ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक शरीर के समान यह भी जानना चाहिये । परन्तु जिन जीवों के श्रोत्रेन्द्रिय हो, उनकी अपेक्षा ही यह कथन है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में भी जानना चाहिये । जिन जीवों के जितनी इन्द्रियाँ हों, उनके विषय में उस प्रकार जानना चाहिये। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! मनोयोग को बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? १७ उत्तर-हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय के समान जानो, वचन-योग के विषय में भी इसी प्रकार जानो, परन्तु वचन-योग में एकेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिये । काय-योग के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । काय-योग सभी जीवों के होता है । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेचन-पांच शरीर, पांच इन्द्रियाँ और तीन योग, इन तेरह बोलों की अपेक्षा यहाँ प्रश्न किये गये हैं। देव और नैरयिक जीवों में औदारिक शरीर नहीं होता. इसलिये नरयिक और देवों को छोड़ कर पृथ्वीकायिक आदि दण्डकों के विषय में प्रश्न किया गया है। नैरयिक, देव, वायुकाय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, इनमें वैक्रिय-शरीर होता है। इनमें से नैरयिक और देवों को भवप्रत्यय वैक्रिय शरीर होता है । उन्हें जन्म से ही यह शरीर प्राप्त होता है । पञ्चेंद्रिय तिर्यंच और मनुष्य को लब्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर होता है। जिन्हें वैक्रिय शरीर करने की शक्ति प्राप्त हुई हो, उन्हीं को होता है । वायुकाय को भी वैक्रिय शक्ति प्राप्त होने से उसके वैक्रिय शरीर होता है। __ आहारक शरीर संयत मनुष्य में ही होता है । इसलिये मूल प्रश्न मनुष्य के विषय में ही करना चाहिये । प्रथम प्रश्न सामान्य जीवों की अपेक्षा किया गया है । इसका कारण यह है कि यहां क्रम का अनुसरण किया है, क्योंकि यहां प्रत्येक प्रश्न सामान्य जीव समूह को अपेक्षा किया गया है और फिर दण्डकों के क्रम से प्रश्न किया गया है । आहारक शरीर For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. २ जरा शारीरिक और शोक मानसिक संयति जीवों में ही होता है। उनमें अविरति का अभाव होने पर भी प्रमाद रूप अधिकरण है। ॥ सोलहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक २ जरा शारीरिक और शोक मानसिक १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किं जरा, सोगे? १ उत्तर-गोयमा ! जीवाणं जरा वि सोगे वि ? प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव 'सोगे वि' ? उत्तर-गोयमा ! जे णं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं जरा, जे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेति, तेसि णं जीवाणं सोगे, से तेणटेणं जाव सोगे वि । एवं गैरइयाण वि एवं जाव थणियकुमाराणं । २ प्रश्न-पुढविकाइयाणं मंते ! किं जरा, सोगे ? २ उत्तर-गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, णो सोगे । For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१८ भगवती सूत्र - श. १६ उ. २ जरा शारीरिक और शोक मानसिक प्रश्न-से केणट्टेणं जाव 'णो सोगे' ? उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदेंति, णो माणसं वेदवेदेंति, से तेणद्वेणं जाव णो सोगे । एवं जाव चउरिंदियाणं । सेसाणं जहा जीवाणं जाव वेमाणियाणं । 'सेवं भंते' ! सेवं भंते! त्ति जाव पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ - जरा - बुढ़ापा, सोगे-शोक- खेद, दीनता । भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में यावत् इस प्रकार पूछा - हे भगवन् ! जीवों के जरा और शोक होता है । १ उत्तर - हाँ गौतम ! जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? उत्तर - हे गौतम ! जो जीव, शारीरिक वेदना वेदते हैं, उन जीवों के जरा होती है और जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं, उन जीवों के शोक होता है । इस कारण ऐसा कहा गया है कि जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है । इसी प्रकार नैरयिकों यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । २ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा और शोक होता है ? २ उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक नहीं होता । प्रश्न - हे भगवन् ! उन्हें शोक क्यों नहीं होता ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक वेदना नहीं वेदते, अतः उनके जरा होती है, शोक नहीं होता। इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिये । शेष जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान जानना चाहिये यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये । हे For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ. २अवग्रह पांच प्रकार का भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् पर्युपासना करते हैं । विवेचन - जरा (वृद्धावस्था) शारीरिक दुःख रूप है और शोक ( खेद - दीनता) मानसिक दुःख रूप है । इसलिये जिन जीवों के मनोयोग नहीं है, उन्हें केवल जरा होती और मनोयोग वाले जीवों को जरा और शोक दोनों होते हैं । अवग्रह पाँच प्रकार का ३- तेणं काले तेणं समर्पणं सबके देविंदे देवराया वज्रपाणी पुरंदरे जाव मुंजमाणे विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीव दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोरमाणे आभोएमाणे पासइ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे । एवं जहा ईसाणे तइयसए तहेव सक्के वि । वरं आभिओगे ण सदावेति, हरी पायत्ताणिया हिवई सुघोसा घंटा, पालओ विमाणकारी, पालगं विमाणं, उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे, दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरपव्वए, सेसं तं चैव जाव णामगं सावेत्ता पज्जुवासइ | धम्मकहा जाव परिसा पडिगया । तणं से सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्टः समणं भगवं महावीरं वंदन णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी २५१९ ४ प्रश्न - कविहे णं भंते ! उग्गहे पण्णत्ते ? ४ उत्तर - सका ! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तं जहा -१ देवि For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ. २ अवग्रह पाँच प्रकार का दोहे २ रायोग्गहे ३ गाहाबड़ उग्गहे ४ सागारियउग्गहे ५ साहमियउग्गहे । जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा णिग्गंथा विहति एएसि णं अहं उग्गहं अणुजाणामीति कट्ट समणं भगवं महावीरं वंद णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ, दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए । 1 कठिन शब्दार्थ- वज्जपाणी-वज्रपाणि-जिसके हाथ में वज्र है, केवलकप्पं- संपूर्ण आभोएमा - जानता हुआ, समझता हुआ, पासइ देखा, उग्गहे - अवग्रह ( स्वामित्व ) । भावार्थ - ३ उस काल उस समय में शक देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर यावत् भोग भोगता हुआ विचरता था । अपने विशाल अवधिज्ञान से वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को देख रहा था । उसने जम्बूद्वीप में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को देखा । यहाँ तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कथित ईशानेन्द्र की वक्तव्यता के समान शक्रेन्द्र की वक्तव्यता कहनी चाहिये । विशेषता यह है कि यहाँ शकेन्द्र आभियोगिक देवों को नहीं बुलाता, इसका सेनापति हरि नैगमेषी देव है | सुघोषा घण्टा है । विमान का बनाने वाला पालक देव है । विमान का नाम पालक है । इसके निकलने का मार्ग उत्तर दिशा है। दक्षिण पूर्व (अग्निकोण) में रतिकर पर्वत है । शेष सभी उसी प्रकार कहना चाहिये । यावत् शक्रेन्द्र अपना नाम सुना कर भगवान् की पर्युपासना करने लगा । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने धर्म-कथा कही यावत् परिषद् लौट गई । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म-कथा सुनकर देवेन्द्र देवराज शत्र हृष्ट एवं सन्तुष्ट हुआ । उसने भगवान् को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा | ४ प्रश्न - हे भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? २५२० ४ उत्तर - हे शक्र ! अवग्रह पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा-देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गाथापति ( गृहपति ) अवग्रह, सागारिकावग्रह और साधर्मिकावग्रह | ( तत्पश्चात् शकेन्द्र ने इस प्रकार निवेदन किया कि ) हे भगवन् ! आज-कल For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १६ उ. २ देवेन्द्र की भाषा जो ये श्रमण-निर्ग्रन्थ विचरते हैं, उनको में अवग्रह को अनुज्ञा देता हूँ। ऐसा कह कर शक्रेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके उस दिव्य यान विमान पर बैठ कर जिधर से आया था, उधर वापिस चला गया । विवेचन - अवग्रह का अर्थ है - स्वामित्व । उसके पाँच भेद बतलाये गये हैं । यथादेवेन्द्रावग्रह - शकेन्द्र और ईशानेन्द्र, इन दोनों का स्वामीपन अनुक्रम से दक्षिण लोकाई और उत्तर लोकार्द्ध में है । इसलिये उनकी आज्ञा लेना - 'देवेन्द्रावग्रह' कहलाता है । राजावग्रहभरनादि क्षेत्रों के छह खण्डों पर चक्रवर्ती का अवग्रह होता है । गाथापति ( गृहपति) का अवग्रह जैसे माण्डलिक राजा का अपने अधीन देश पर अवग्रह होता है । सागारिक अवग्रहजैसे गृहस्थ का अपने घर पर अवग्रह होता है । साथमिक अवग्रह- समान धर्म वाले साधु, परस्पर साधर्मिक कहलाते हैं, उनका पाँच कोस तक क्षेत्र में साधर्मिकावग्रह होता है । अर्थात् शेष-काल में एक माम और चातुर्मास में चार महिने तक साधर्मिकावग्रह होता है । दाई कोस दक्षिण की ओर, दाई कोस उत्तर की ओर, इस प्रकार पाँच कोस और ढ़ाई कोस पूर्व की ओर तथा हाई कोस पश्चिम की ओर, इस प्रकार पाँच कोस का अवग्रह होता है | २५२१ देवेन्द्र की भाषा ५ प्रश्न - 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदन मंस, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - 'जं णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया तुम्भे णं एवं वदइ, सच्चे णं एसमडे ? ५ उत्तर - हंता सच्चे । ६ प्रश्न - सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं सम्माबाई, मिच्छावाई ? For Personal & Private Use Only • Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२२ भगवती सूत्र-श. १६ उ. २ देवेन्द्र की भाषा -- - - - - ६ उत्तर-गोयमा ! सम्मावाई, णो मिच्छावाई । ७ प्रश्न-सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया किं सच्चं भासं भासइ, मोसं भासं भासइ, सच्चामोसं भासं भासइ, असच्चामोसं भासं भासइ ? ७ उत्तर-गोयमा ! सच्चं पि भासं भासइ जाव असच्चामोसं पि भासं भासइ। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा कहकर भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछाहे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र ने आप से पूर्वोक्त रूप से अवग्रह सम्बन्धी जो कहा, वह अर्थ सत्य है ? ५ उत्तर-हाँ गौतम ! वह अर्थ सत्य है । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र सत्यवादी है या मिथ्यावादी ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वह सत्यवादी है, मिथ्यावादी नहीं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र, सत्य-भाषा बोलता है, मषा भाषा बोलता है, सत्य मृषा भाषा बोलता है अथवा असत्यामृषा भाषा बोलता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! वह सत्य भाषा भी बोलता है यावत् असत्यामृषा भाषा भी बोलता है ? ८ प्रश्न-सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया कि सावज्जं भासं भासइ, अणवज्जं भासं भासइ ? ८ उत्तर-गोयमा ! सावज्जं पि भासं भासइ, अणवज पि भासं भासइ। For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगवता सूत्र-श. १६ उ. २ देवेन्द्र की भाषा २५२३ ___ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सावज पि जाव अणवज्ज पि भासं भासइ ? ___उत्तर-गोयमा ! जाहे णं सक्के देविंदे देवगया मुहुमकायं अणिहित्ता णं भासं भासइ ताहे णं सबके देविंदे देवगया सावज्जं भामं भासह, जाहे णं सक्के देविंदे देवराया मुहुमकायं णिजूहित्ता णं भासं भासइ ताहे णं सक्के देविंद देवराया अणवज्ज भासं भासइ, से तेणटेणं जाव भासइ । कठिन शब्दार्थ-सावज्ज-सावद्य (पापयुवत) अगवज्ज-निरवद्य (निप्पाप) णिहितामुग्व पर हाथ आदि लगा कर, सुहुमकायं-वस्त्र । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र क्या सावध (पापयुक्त) भाषा बोलता है या निरवद्य (पाप रहित) भाषा बोलता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वह सावध भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि शकेन्द्र सावध भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है ? उत्तर-हे गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र, सूक्ष्मकाय अर्थात् हाथ अथवा वस्त्र से मुख ढके बिना बोलता है, तब वह सावध भाषा बोलता है । जब वह हाथ अथवा वस्त्र से मुख को ढक कर बोलता है, तब वह निरवद्य भाषा बोलता है । इसलिये ऐसा कहा गया है कि शक्र, सावद्य भाषा भी बोलता है, और निरवद्य भाषा भी बोलता है । विवेचन-हाथ अथवा वस्त्र आदि से मुख ढक कर बोलने वाला निरवद्य भाषा बोलता है । क्योंकि उसका वायुकायादि जीवों को बचाने का प्रयत्न होने से वह यत्नापूर्वक बोलता है । उघाड़े मुख (हस्त या वस्त्रादि से मुंह ढके बिना) बोलने वाला सावध भाषा For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२४ भगवती सूत्र - श. १६ उ २ केन्द्र भवसिद्धिक है x कर्म का कर्त्ता चतन्य है बोलता है, क्योंकि उसका जीव संरक्षण का प्रयत्न नहीं होने से वह असावधानीपूर्वक बोलता है । शक्रेन्द्र भवसिद्धिक है ९ प्रश्न - सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए, अभवसिद्धीए, सम्मदिट्टीए ९ उत्तर - एवं जहा मोउद्देसए सणकुमारो जाव णो अचरिमे । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है ? या मिथ्यादृष्टि, इत्यादि प्रश्न ? ९ उत्तर - हे गौतम! तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में सनत्कुमार के वर्णन के अनुसार यहां भी जानना चाहिये यावत् वह अचरम नहीं है । कर्म का कर्ता चैतन्य है १० प्रश्न - जीवाणं भंते ! किं चेयकडा कम्मा कज्जंति, अचेय." कडा कम्मा कज्जेति ? १० उत्तर - गोयमा ! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, णो अकडा कम्मा कज्जति । प्रश्न - सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव 'कज्जंति' ? उत्तर - गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १६ उ. २ कर्म का कत्ता चतन्य है २५२५ पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला · तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा कम्मा ममणाउसो ! दुट्टाणेमु, दुसेजासु, दुण्णिसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, णस्थि अचेय. कडा कम्मा समणा उसो ! आयके से वहाए होड़, संकप्प से वहाए होइ, मरणंते मे वहाए होइ तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति पत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! से तेणटेणं जाव कम्मा कज्जति, एवं णेरड्याण वि, एवं जाव वेमाणियाणं । . के सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति । जाब विहरइ ॐ ॥ सोलसमए सए वीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-चेयकडा-चैतन्यकृत, अचेयकडा-अचैतन्यकृत, बोंदिचिया-शरीर रूप में संचित होना, आयंके-आतंक ( रोग), वहाए-वध के लिए। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं या अचैतन्यकृत ? - १० उत्तर-हे गौतम ! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते ? उत्तर-हे गौतम ! जीवों के जो पुद्गल आहार रूप से, शरीर रूप से और कलेवर रूप से उपचित (सञ्चित) हुए हैं, वे पुद्गल उस उस रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं हैं। वे पुद्गल दुःस्थान रूप से, दुःशय्या रूप से और दुनिषद्या रूप से तथा तथा रूप से परिणत होते हैं । इसलिये हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचैतन्यकत नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२६ भगवती सूत्र-स. १६ उ. : कर्म-बन्ध वे पुद्गल आतंक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते है । वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते है । वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिये होते हैं । इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणों ! कर्म अचैतन्यकृत नहीं हैं। इसी प्रकार नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--जिस प्रकार जीवों के आहारादि रूप से संचित किये हुए पुद्गल, आहारादि रूप से परिणत होते हैं, उसी प्रकार कर्म रूप से संचित किये हुए पुद्गल, कर्म रूप से परिणत होते हैं । वे कर्म-पुद्गल शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि से युक्त स्थान म और दुःखोत्पादक शय्या (वसति-उपाश्रय) में तथा दुःखकारक निषद्या (स्वाध्याय भूमि ) में दुःखोत्पादक रूप से परिणत होते हैं । दुःख जीवों को ही होता है, अजीवों को नहीं । इसलिए यह निश्चित है कि दुःख के हेतुभूत कर्मों को जीवों ने ही मंचित किया हैं । वे कर्म पुद्गल आतङ्क (रोग) रूप से, संकल्प (भयादि विकल्प) रूप से और मरणान्त (उपघातादि) रूप से अर्थात् रोगादि जनक असातावेदनीय रूप से परिणत होते हैं और वे वध के हेतुभूत होते हैं । वध जीव का ही होता है । अतः वध के हेतुभूत असातावेदनीय पुद्गल जीवकृत हैं । अतः ऐसा कहा गया है कि-कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते । ॥ सोलहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक ३ कर्म-बन्ध १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ णं भंते ! कम्म For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १६ उ. ३ कर्म-वन्ध पयडीओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर-गोयमा ! अट्ट कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिजं जाव अंतराइयं, एवं जाव वेमाणियाणं । २ प्रश्न-जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं वेदेमाणे कह कम्मपयडीओ वेदेति ? २ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पयडीओ-एवं जहा पण्णवणाए वेयावेउदेसओ सो चेव गिरवसेसो भाणियव्यो । वेदाबंधो वि तहेव, बंधावेदो वि तहेव, बंधाबंधो वि तहेव भाणियव्वो जाव वेमाणि. याणं ति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' त्ति ! जाव विहरइ । कठिन शब्दार्थ-वेदेमाणे-वेदता हुआ। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! कर्म-प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिये । २ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव कितनी कर्म-प्रकृतियाँ वेदता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्म-प्रकृतियां वेदता है । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का सत्ताईसवां 'वेदावेद' नामक पद सम्पूर्ण कहना चाहिए । इसी प्रकार 'वेदाबन्ध' 'बन्धावेद' और 'बन्धाबन्ध' उद्देशक भी यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में से किसी एक कर्म प्रकृति को वेदता For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२८ भगवता सूत्र-श. १६ उ ३ अब छेदन में लगने वाली क्रिय। हुआ जीव दुसरी कितनी प्रकृतियों को वेदता है, इस विषयक विचार प्रज्ञापना सूत्र के सत्तावीसवें वेदावेद पद में किया गया है । ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है और जब मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है, तब मोहनीय कर्म के सिवाय सात कर्म-प्रकृतियों को वेदता है । औधिक (सामान्य जीव) दण्डक के समान मनुष्य दण्डक के विषय में जानना चाहिये, इत्यादि वर्णन वहां में जान लेना नाहिये । प्रज्ञापना सूत्र के छब्बीसवें 'वेदाबन्ध' पद में यह विचार किया गया है कि किसी एक कर्म-प्रकृति को वेदता हुआ जीव, कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधता है ? ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीत्र, सात आठ, छह या एक कर्म प्रकृति को बांधता है । जब जीव आयुप्य कर्म का बंध करता है तब आठ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है। जब आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करता, तब सात कर्म-प्रकृतियों को बांधता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में आयुष्य और मोहनीय के सिवाय छह कर्म-प्रकृतियों को बांधता है। उपशान्त-मोहादि दो गुणस्थानों में एक वेदनीय-कर्म को बांधता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए । ___प्रज्ञापना सूत्र के पच्चीसवें 'वन्धावेद' पद में यह प्रतिपादन किया गया है कि किसी एक कर्म प्रकृति को बांधता हुआ जीव, कितनी कर्म-प्रकृतियाँ वेदता है । ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता हुआ जीव अवश्य आठों कर्मों को वेदता है, इत्यादि वर्णन वहां से जान लेना चाहिये। प्रज्ञापना सूत्र के चौवीसवें 'वन्धाबन्ध' पद में यह प्रतिपादन किया गया है कि किसी एक कर्म प्रकृति को बांधता हुआ जीव, कितनी कर्म-प्रकृतियों को बांधता है । ज्ञानावरणीय-कर्म को वांधता हुआ जीव सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियों को बांधता है । आयुष्य नहीं वांधता तव सात, आयुष्य सहित आठ और मोहनीय तथा आयुप्य विना छह प्रकृतियों को बांधता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिये । अर्श छेदन में लगने वाली क्रिया ६-तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ णयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १३ ३ ३ अर्स छेदन में लगने वाली शिया २५२५ वहिया जणवयविहारं विहग्इ । तेण कालणं तेणं समएणं उल्लुय. तीरे णामं णयर होत्था, वण्णओ । तम्म णं उल्लुयतीरम्स णयरस्त वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिमिभाए पत्थ णं एगजंवृए णामं चेहए होत्था, वण्णओ । तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुदि चरमाणे जाव एगजंबूप समोसढे जाव परिसा पडि. गया। भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमं सइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी ४ प्रश्न-अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं जाव आयावेमाणस्स तस्स णं पुरच्छिमेणं अवड्ढे दिवसं णो कप्पइ हत्थं वा पायं वा जाव ऊरं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, पञ्चच्छिमेणं से अवड्ढे दिवसं कप्पइ हत्थं वा पायं वा जाव ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारत्तए वा । तस्स णं असि. याओ लंवति, तं चैव वेजे अदक्खु, ईसिं पाडेइ, ईसिं पाडेत्ता अंसियाओ छिंदेजा, से णूणं भंते ! जे छिंदइ तस्स किरिया कजइ, जस्स छिजड़ णो तस्स किरिया कजइ णण्णत्थेगेणं धम्मंतराइएणं? ४ उत्तर-हंता गोयमा ! जे छिंदइ जाव धम्मंतराइएणं । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ सोलसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ३ अशं छेदन में लगने वाली क्रिया कठिन शब्दार्थ-अवड्ढे-अपार्द्ध-अर्द्धदिवस । भावार्थ-३ किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशीलक उद्यान से निकल कर बाहर दूसरे देशों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में उल्लुक तीर नामक नगर था (वर्णन) :::.: उल्लुक तीर नगर के बाहर ईशान कोण में 'एकजम्बक' नामक उद्यान (वर्णन) । श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरते हुए यावत् किसी दिन एकजम्बूक नाम उद्यान में पधारे यावत् परिषद् लौट गई । इसके पश्चात् 'हे भगवन् !' ऐसा कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा ४ प्रश्न-हे भगवन् ! निरन्तर छठ-छठ के तपपूर्वक यावत् आतापना लेते हुए भावित्मा अनगार को दिवस के पूर्वभाग में अपने हाथ, पैर यावत् उरु (जंघा) को संकोचना या फैलाना नहीं कल्पता है और दिन के पश्चिम भाग में हाथ, पैर यावत् उरु को संकोचना और फैलाना कल्पता है ? इस प्रकार कायोत्सर्ग में रहे हुए भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श (मस्सा) लटकता हो, उस अर्श को देख कर कोई वैद्य उसे काटने के लिये उस ऋषि को भूमि पर सुलावे और उसके अर्श को काटे, तो हे भगवन् ! अर्श काटने वाले उस वैद्य को क्रिया लगती है या जिसका अर्श काटा जा रहा है, उस ऋषि को धर्मान्तराय रूप क्रिया के सिवाय दूसरो भी क्रिया लगती है ? ४ उत्तर-हां, गौतम ! जो काटता है, उसे (शुभ) क्रिया लगती है और जिसका अर्श काटा जाता है, उसे धर्मान्तराय के सिवाय दूसरी कोई क्रिया नहीं लगती। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निरन्तर बेले-बेले के तपपूर्वक आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को कायोत्सर्ग का अभिग्रह होने से, कायोत्सर्ग की अवस्था में रहे हुए होने के कारण दिन के पूर्व भाग में हस्त आदि अवयवों का संकोचना और पसारना नहीं कल्पना है। किन्तु दिन For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-१. १६ उ. ४ नयिकों की निगरा की श्रमणों से तुलना २५३१ के पिछले भाग में कायोत्सर्ग नहीं होने से हस्तादि अवयवों को संकुचित करना ओर फैलाना कल्पना है । कायोत्सर्ग में रहे हुए उन भावितात्मा अनगार की नासिका में अर्श लटकता हो और उस देख कर कोई वैद्य उम माध को भूमि पर मुला कर अर्श को काटे, तो उस वैद्य में धर्म वृद्धि होने मे उस मत्कार्य में प्रवृति रूप शुभ क्रिया लगती है और साधु निापार हाने से उमको शुभ क्रिया भी नहीं लगती, परन्तु शुभ-ध्यान का विच्छेद (अन्तराय) होने से एव अशं छदन का अनुमोदन करने मे उसे धर्मान्तराय होती है । ॥ सोलहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक ४ नैरयिकों की निजरा की श्रमणों से तुलना १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-जावइयं णं भंते ! अण्ण. गिलायए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा (वाससएहिं वा) खवयंति ? १ उत्तर-णो इणटे समटे । २ प्रश्न-जावइयं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससरण वा वास For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३२ भगवती सूत्र-स. १६ उ. ४ नैर थिकों को निर्जरा की श्रमणों मे तुलना सएहिं वा वाससहस्सेण वा खवयंति ? २ उत्तर-णो इणटे समटे । ३ प्रश्न-जावइयं णं भंते ! छट्टभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससहस्सेण वा वास सहस्से हिं वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति ? ३ उत्तर-णो इणटे समटे। ४ प्रश्न-जावइयं णं भंते ! अट्ठमभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा खवयंति ? ४ उत्तर-णो इणटे समढे। ५ प्रश्न-जावइयं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ? ५ उत्तर-णो इणट्टे समझे। कठिन शब्दार्थ-जावइयं-जितने, अण्णगिलायए-अन्न के बिना ग्लानि को प्राप्त होने वाला, एवइयं-इतने, खवयंति-क्षय करता है । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! अन्नग्लायक (अन्न के बिना ग्लान होने वाला अर्थात् भूख को सहन नहीं कर सकने वाला)श्रमण-निर्ग्रन्थ, जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव, नरक में एक वर्ष में, अनेक वर्षों में या सौ वर्षों में खपाता है ? For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवती मूत्र-ग. १६ उ. ४ नयिकों की निजंग की धमणां से तुलना ५३३ १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । २ प्रश्न-हे भगवन् ! चतुर्थभक्त (एक उपवास) करने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव नरक में सौ वर्षों में, अनेक सौ वर्षों में या हजार वर्षों में खपाता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ... ३ प्रश्न-हे भगवन् ! छठ-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म क्षय करता है, उतने कर्म नरयिक, नरक में एक हजार वर्षों में, अनेक हजार वर्षों में या एक लाख वर्ष में क्षय करता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! अष्टम-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक, नरक में एक लाख वर्षों में, अनेक लाख वर्षों में या एक करोड़ वर्ष में नष्ट करता है ? __४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! दशम-भक्त करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव, नरक में एक करोड़ वर्ष में, अनेक करोड़ वर्षों में या कोटाकोटि वर्षों में खपाता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । विवेचन-'अन्नग्लायक' का अर्थ वह साधु है जो भूख से इतना आतुर हो जाता है कि पहर दिन आवे अर्थात् गृहस्थों के घर में रसोई वन जाय तब तक भी भूख सहने में असमर्थ बन जाता है । इसलिये गृहस्थों के घर से पहले दिन का बना हुआ बासी कूरादि (अन्न, भात-पके हुए चावल) ला कर प्रातःकाल ही खाता है, कूरगडुक मुनि की तरह । ऐसे मुनि को 'अन्नग्लायक' कहते हैं । ६ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जावइयं अण्णगिलायए समणे जिग्गंथे कम्मं गिजरेइ एवइयं कम्मं गरएसु रहया For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३४ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नै गयिकों की निर्जरा की भ्रमणों से तुलना वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा णो खवयंति, जावइयं चउत्थभत्तिए-एवं तं चेव पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव वासकोडाकोडीए वा णो खवयंति' ? ६ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे जुण्णे जराजज्ज रियदेहे सिढिलतयावलितरंगसंपिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेढी उण्हाभिहए तण्हाभिहए आउरे झुझिए पिवासिए दुबले किलंते एगं महं कोसंबगंडियं सुक्कं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं वाइधं अप. त्तियं मुंडेण परसुणा अवक्कमेज्जा, तएणं से पुरिसे महंताई महंताई सदाई करेइ, णो महंताई महंताई दलाइं अवदालेइ, एवामेव गोयमा ! णेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाई चिक्कणीकयाई-एवं जहा छट्ठसए जाव णो महापज्जवसाणा भवंति । से जहाणामए केइ पुरिसे अहिकरणिं आउडेमाणे महया० जाव णो महापज्जवसाणा भवंति। ___कठिन शब्दार्थ-जुण्णे-जीर्ण (वृद्ध), झंझिए-भूखा, जडिलं-जटिल, जराजज्जरियदेहे-जरा (वृद्धावस्था) से जर्जरित देह वाला, सिढिल तयावलितरंगसंपणिद्धगत्ते-शिथिल होने के कारण त्वचा में जिसके सिलवटें पड़ गई, ऐसे गात्र वाला, पविरलपरिसडियदंतसेढी-जिसके कई दाँत गिर कर मुंह में थोड़ से दाँत रहे हैं, उण्हाभिहए -उष्णता मे व्याकुल, आउरे-आतुर, पिवासिए-प्यासा, किलंते-क्लाँत, तण्हाभिहए-प्यास से पीड़ित । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि 'अन्नग्लायक श्रमणनिर्ग्रन्थ जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म नैरयिक जीव, नरक में एक वर्ष में या अनेक वर्षों में भी नहीं खपा सकता है और चतुर्थ-भक्त करने वाला श्रमण For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नै रयिकों की निर्जरा की श्रमणों ने तुलना २५३५ निग्रन्थ इत्यादि यावत् कोटाकोटि वर्षों में भी नहीं क्षय कर सकता, इत्यादि प्रश्न । ६ उत्तर-हे गौतम ! जैसे एक वृद्ध पुरुष है। वृद्धावस्था के कारण उसका शरीर जरित है, चमड़ी ढीली होने से सिकुड़ कर सिलवटों (झुरियों) से व्याप्त है, जिसके दांत विरल (थोड़े) रह गये हैं, अथवा सभी दांत गिर गये है, जो गर्मी से व्याकुल हो रहा है, जो प्यास से पीड़ित है, जो आतुर (रोगी) भूखा, प्यासा, दुर्बल और मानसिक क्लेश से युक्त है। एक बड़ी कोशम्ब नामक वृक्ष की सूखी, टेढ़ी मेढ़ी, गांठगठिलो, चिकनी, बांकी और निराधार रही हुई गण्डिका (गांठ गठिली जड़) पर एक कुण्ठित (जिसकी धार तीखी नहीं, भौंथरी हो गई है ऐसे) कुल्हाड़े से, वह वृद्ध पुरुष जोर-जोर से शब्द (हुंकारध्वनि) करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़े नहीं कर सकता। इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिक जीवों ने अपने पाप-कर्म गाढ़े किये हैं, चिकने किये हैं, इत्यादि छठे शतक के पहले उद्देशकानुसार । इस कारण वे नयिक जीव, अत्यन्त वेदना वेदते हुए भी महानिर्जरा और महापर्यवसान (मोक्ष रूप फल)वाले नहीं होते। जिस प्रकार कोई पुरुष एरण पर धन की चोट मारता हुआ जोर-जोर से शब्द करता हुआ, एरण के स्थूल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार नरयिक जीव, गाढ़ कर्म वाले होते हैं। इसलिये वे यावत् महापर्यवसान वाले नहीं होते। विवेधन-महा कष्ट में पड़ा हुआ नरयिक बहुत लम्बे समय में भी उतने कर्मों का क्षय नहीं कर सकता, जितने कर्मों का क्षय साधु, अल्प कष्ट से और अल्प काल में ही कर देता है । यह बात कैसे समझी जाय ? इसके समाधान के लियं मूलपाठ में वृद्ध और तरुण पुरुष का दृष्टान्त दे कर स्पष्ट किया गया है । इसका विस्तृत वर्णन छठे शतक के प्रथम उद्देशक में किया गया है । से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी पिउण For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३६ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ४ नैरयिकों की निर्जरा को श्रमणा में तुलना सिप्पोवगए एगं महं सामलिगंडियं उल्लं अजडिलं अगंठिल्लं अचिक्कणं अवाइधं सपत्तियं तिक्खेण परसुणा अकमेजा, तएणं से णं पुरिसे णो महंताई महंताई सदाई करेइ, महंताई महंताई दलाई अबदालेइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहा. वादराई कम्माइं सिढिलीकयाइं णिट्टियाई कयाइं जाव खिप्पामेव परिविद्वत्थाई भवंति जावइयं तावइयं जाव महापजवसाणा भवंति । से जहा वा केइ पुरिसे सुकतणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेजा एवं जहा छट्टसए तहा अयोकवल्ले वि जाव महापज्जवसाणा भवंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-'जावइयं अण्णइलायए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ-तं चेव जाव वासकोडाकोडीए वा णो खवयंति । ® से भंते ! सेवं भंते ! त्ति । जाव विहरइ * ॥ सोलसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-णिउणसिप्पोवगए-निपुण शिल्पी-कलाकार । भावार्थ-जिस प्रकार कोई तरुण बलवान यावत् मेधावी और निपुण शिल्पकार पुरुष, शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठिल (गांठ रहित) अचिक्वण (चिकनास रहित) सीधी और आधार वाली गण्डिका पर तीक्ष्ण कुल्हाड़े द्वारा प्रहार करे, तो वह जोर-जोर से शब्द किये बिना ही (सरलता से) उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है, इसी प्रकार हे गौतम ! जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने अपने कर्मों को यथा-स्थूल शिथिल यावत् निष्ठित किये हैं यावत् वे कर्म For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत मूत्र--ग. १६ उ ५ शकेन्द्र के प्रश्न और भगवान् के उत्तर २५३७ शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और वे श्रम ग-निग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं। ___ हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष, सूखे हुए घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले, तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथा-बादर कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे कोई पुरुष, पानी की बूंद को तपाये हुए लोह के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथा-बादर कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते है । छठे शतक के प्रथम उद्देशकानुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं । इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि 'अन्नग्लायक श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों को क्षय करता है, इत्यादि यावत् उतने कर्मों को नैरयिक जीव, कोटाकोटि वर्षों में भी नहीं खपाते।' हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ सोलहवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक १६ उद्देशक शकेन्द्र के प्रश्न और भगवान के उत्तर १-तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे णामं णयरे होत्था, वण्णओ। एगजंबूर चेइए, वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३८ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ५ गक्रन्द्र के प्रश्न ओर भगवान् के उत्तर सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ । तेणं कालेणं तेणं समरणं सक्के देविंदे देवराया वजाणी एवं जहेव वितियउद्देसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए ? उत्तर-णो इणटे समढे। प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए जाव महसखे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए ? उत्तर-हंता पभू। प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए० एवं एएणं अभिलावेणं २ गमित्तए, एवं ३ भासित्तए वा वागरित्तए वा ४ उम्मिसावेत्तए वा णिमिसावेत्तए वा ५ आउंटावेत्तए वा पमारेत्तए वा ६ ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेइत्तए वा एवं ७ विउवित्तए वा एवं ८ परियारावेत्तए वा जाव उत्तर-हंता पभू । इमाइं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छड, इमाई०२ पुन्छित्ता संभतियवंदणऍणं वंदह, संभतिय० २ वंदित्ता तमेव दिव्वं जाण. विमाणं दुरूहह, दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए । For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ केन्द्र के प्रश्न और भगवान् के उत्तर २५३९ ___ कठिन शब्दार्थ-आगमित्तए-आ सकता है, वागरित्तए-उत्तर देना, उम्मिसावेत्तए गिमिसावेत्तए-आँख खोलने और बन्द करने, संभंतिय-उत्सुकता पूर्वक अथवा शीघ्र ही । भावार्थ-उस काल उस समय में उल्लकतीर नामक नगर था (वर्णन)। एकजम्बूक नामक उद्यान था (वर्णन) । श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहां पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करती है। उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि शक्र इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशकवत दिव्य यान-विमान से यहां आया और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा प्रश्न-“हे भगवन ! कोई महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना यहां आने में समर्थ है ? उत्तर-हे शक ! यह अर्थ समर्थ नहीं। प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ है ? उत्तर-हाँ शक ! समर्थ है। प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, इसी प्रकार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके गमन करने, बोलने, उत्तर देने, आंख खोलने और बन्द करने, शरीर के अवयवों को संकोचने और फैलाने में, स्थान, शय्या, निषद्या और स्वाध्याय-भूमि को भोगने, वैक्रिय करने और परिचारणा (विषयोपभोग) करने में समर्थ है ? उत्तर-हां शक ! यावत् समर्थ है। देवेन्द्र देवराज शक्र पूर्वोक्त सक्षिप्त आठ प्रश्न पूछ कर उत्सुकतापूर्वक (शीघ्र ही) भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उस दिव्य-यान विमान पर चढ़ कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। विवेचन-कोई भी संसारी जीव, बाहरी पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी क्रिया नहीं कर सकता, यह तो निश्चित बात है । किन्तु देव ता महद्धिक होता है, इसलिए वह कदाचित् बाहरी पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही गमनादि क्रिया कर सकता हो, इस For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४० भगवती सूत्र - श. १६ उ ५ द्र के आगमन का कारण सम्भावना से शक्रेन्द्र ने ये आठ प्रश्न किये हैं । शकेन्द्र इतनी शीघ्रतापूर्वक पीछे क्यों लोटा ? इसका कारण जानने के लिए गौतम स्वामी भगवान् से आगे प्रश्न करते हैं; - शक्रेन्द्र के आगमन का कारण २ प्रश्न - 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदs णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - अण्णया णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदइ णमंसइ सकारेइ जाव पज्जु - वासर, किण्णं भंते! अज्ज सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ट उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छर, पुच्छित्ता संभतियवंदणएणं वंदइ णमंस, २ जाव पडिगए ? २ उत्तर - 'गोयमा' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - ' एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महा सुके कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा महड्डिया जाव महेस खा एगविमानंसि देवत्ताए उववण्णा, तं जहा - मायिमिच्छदिट्टिउववण्णए य अमाथिसम्मदिट्टिउववण्णए य । तएणं से मायिमिच्छ दिग्विण्ण देवे तं अमायिसम्मदिट्टिउववण्णगं देवं एवं वयासी - 'परिणममाणा पोग्गला णो परिणया, अपरिणयाः परिणमंतीति पोग्गला णो परिणया, अपरिणया' । तरणं से अमायिसम्म दिट्टि उबवण्ण देवे तं मायिमिच्छदिट्टिउवैवण्णगं देवं एवं वयासी For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १६ उ. ५ गक्रेन्द्र के आगमन का कारण २५४१ 'परिणममाणा पोग्गला परिणया णो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया' । तं मायिमिच्छदिदिउववण्णगं एवं पडिहणइ । कठिन शब्दार्थ-अण्णया--किमी दिन, उक्खित्तपसिणवागरणाई-उत्क्षिप्त अर्थात शीघ्रता से पूछे गये प्रश्न और उनका 'व्याकरण' (उत्तर) पडिहणइ-पराभव किया (निरुत्तर किया)। ___ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब कभी देवेन्द्र देवराज शक्र आता है, तब आप देवानप्रिय को वन्दन-नमस्कार सत्कार यावत् पर्युपासना करता है, परन्तु हे भगवन् ! आज तो देवेन्द्र देवराज शक्र, आप देवानप्रिय को संक्षेप में आठ प्रश्न पूछ कर और उत्सुकतापूर्वक वन्दना-नमस्कार करके शीघ्र ही चला गया, इसका क्या कारण है ? २ उत्तर-हे गौतम ! उस काल उस समय में महाशक कल्प के 'महामामान्य' नामक विमान में महद्धिक यावत् महासुख वाले दो देव, एक ही “विमान में देवपने उत्पन्न हुए। उनमें से एक मायोमिथ्या-दृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अनायी सम्यग्दृष्टि । उस मायी मिथ्यादृष्टि देव ने अमायो सम्यगदृष्टि देव से इस प्रकार कहा कि-"परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' नहीं कहलाते, अपरिणत कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिये वे 'परिणत नहीं, अपरिणत हैं ।" यह सुन कर अमायो सम्यग्दृष्टि देव ने मायो मिथ्यादष्टि देव से कहा-"परिणमते हए पुदगल परिणत' कहलाते हैं, 'अपरिणत' नहीं कहलाते, क्योंकि वे परिणमते हैं।" इस प्रकार कह कर अमायो सम्यग्दृष्टि देव ने मायी मिथ्यादृष्टि देव को प्रतिहत (पराजित) किया। विवेचन-मिथ्यादृष्टि देव का कथन है कि जो पुद्गल परिणत हो रहे हैं, उन्हें 'परिणत' नहीं कहना चाहिये, क्योंकि वर्तमान काल और भूतकाल का परस्पर विरोध है। इसलिये उन्हें 'अपरिणत' कहना चाहिये। सम्यग्दृष्टि देव ने उत्तर दिया कि परिणमते हुए पुद्गलों को 'परिणत' कहना चाहिये, अपरिणत नहीं, क्योंकि जो परिणमते हैं, उसका For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४२ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ शक्रेन्द्र के आगमन का कारण अमुक अंश परिणत हो चुका है, वे सर्वथा अपरिणत नहीं रहे । परिणमते हैं-' यह कथन उस परिणाम के सद्भाव में ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । जब कि परिणाम का सद्भाव मान लिया गया हो, तो अमुक अंश में उनका परिणतपना भी अवश्य मानना ही चाहियं । यदि अमुक अंश में परिणमन होने पर भी उसका परिणमन न माना जाय, तो परिणतपने का सर्वथा अभाव हो जायगा : एवं पडिहणित्ता ओहिं पउंजइ, ओहिं पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, ममं आभोएत्ता अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे. जेणेव भारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे णयरे, जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विह. रइ, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जु. वासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं० परियारो जहा सूरियाभस्स जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे, जेणेव उल्लुयतीरे णयरे, जेणेव एगजंदुए चेइए, जेणेव ममं अतियं तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तएणं से सक्के देविंदे देव. राया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणु. भागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता संभंतिय जाव पडिगए। भावार्थ-इसके पश्चात् अमायो सम्यगदृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर मुझे देखा । उसे विचार उत्पन्न हुआ कि इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १६ उ ५ गंगदत्त देव के प्रश्न में उल्लुकतीर नामक नगर के एकजम्बूक उद्यान में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यथायोग्य अवग्रह ले कर विचरते हैं, अतः मुझे वहां जा कर भगवान् को वन्दना नमस्कार यावत् पर्युपासना करना और उपर्युक्त प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है । ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ, सूर्याम देव के समान यावत् निर्घोष-निनादित ध्वनिपूर्वक, इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में उल्लुकतीर नामक नगर के एकजम्बूक उद्यान में मेरे निकट आने के लिए चला । मेरी ओर आते हुए उस देव की तथाविध दिव्य देवद्ध, दिव्य देव द्युति, दिव्य देवप्रभा और दिव्य तेजोराशि को सहन नहीं करता हुआ देवेन्द्र देवराज शक यहां आया और संक्षेप में आठ प्रश्न पूछ कर और शीघ्रता पूर्वक वन्दनानमस्कार कर यावत् चला गया । 4 २५४३ विवेचनाकेन्द्र का जीव, पूर्वभव में कार्तिक नाम का सेठ था । वह अभिनव ( तत्काल का ) बना हुआ सेठ था ओर गंगदत्त भी सेठ था । वह जीर्ण ( पहले का) सेठ था । इन दोनों में प्रायः मत्सर-भाव रहता था । पूर्व के मात्सर्य भाव से गंगदत्त देव की ऋद्धि शकेन्द्र से सहन नहीं हुई। आतुरता का यही कारण प्रतीत होता है । गंगदत्त देव के प्रश्न ३ - जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयम परिकहेइ तावं चणं से देवे तं देसं हव्वमागए । तरणं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदर णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न - एवं खलु भंते ! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छदिट्टिउववण्ण‍ देवे ममं एवं वयासी - 'परिणममाणा For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४४ भगवती सूत्र-7. १६ उ. ५ गंगदत्त देव के प्रश्न पोग्गला णो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला णो परिणया, अपरिणया' । तपणं अहं तं मायिमिच्छदिटिउववष्णगं देवं एवं वयामी-'परिणममाणा पोग्गला परिणया, णो अपरिणया; परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया, से कहमेयं भंते ! एवं? उत्तर-'गंगदत्ता' दि समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयामी-'अहं पि मं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि ४-परिणममाणा पोग्गला जाव णो अपरिणया, सच्चमेसे अटे। तपणं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्टं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णचासण्णे जाव पज्जुवासह। ४-तएणं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्मं परिकहेइ जाव आराहए भवइ । तएणं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट. तुढे उठाए उढेइ, उट्ठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न-अहं णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए ? उत्तर-एवं जहा सूरियाभो जाव बत्तीसइविहं पट्टविहिं For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गंगदत्त देव के प्रश्न . . २५४५ उवदं सेइ, उवदंमेत्ता जाव तामेव दिसं पडिगए । कठिन शब्दार्थ-जाव - जब तक, हव्वमागए-अभी आया, शीघ्र आया । ___ भावार्थ-जिस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी, गौतम स्वामी को उपर्युक्त बात कह रहे थे, उसी समय शीघ्र ही वह सम्यगदष्टि देव वहां आया और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा को और वन्दना-नमस्कार कर के पूछा; -- ३ प्रश्न-हे भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य नामक विमान में उत्पन्न हुए मायोमिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा-"परिणमते हुए पुद्गल' परिणत' नहीं कहे जाकर अपरिणत कहे जाते है, क्योंकि वे पुद्गल अभी परि. णम रहे हैं। इसलिये वे 'परिणत' नहीं कहे जाते हैं।" उसके उत्तर में मैंने उस मायी मिथ्यादृष्टि देव से कहा-“ परिणमते हुए पुद्गल परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, वे अपरिणत नहीं, परिणत कहलाते हैं ।" हे भगवन् ! मेरा यह कथन कैसा है ? __३ उत्तर-'हे गंगदत्त ! में भी इसी प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् 'अपरिणत' नहीं, परिणत हैं । यह अर्थ सत्य है । इसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी का उत्तर सुन कर एवं अवधारण कर वह गंगदत्त देव हृष्ट-तुष्ट हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया और न अति दूर न अति निकट बैठ कर भगवान् को पर्युपासना करने लगा। ४ प्रश्न-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गंगदत्त देव और महती परिषद् को धर्म-कथा कही यावत्-जिसे सुन कर जीव आराधक बनते हैं । गंगदत्त देव, भगवान् से धर्म सुन कर और अवधारण कर के हृष्ट-तुष्ट हुआ और खड़े होकर भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या अभवसिद्धिक ?" ४ उत्तर-हे गंगदत्त ! राजप्रश्नीय सूत्र के सूर्याभ देव वत् यावत् वह For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४६ ... भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्व भव गंगदत्त देव बत्तीस प्रकार का नाटक दिखा कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। गंगदत्त का पूर्वभव __५ प्रश्न-भते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी-गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवजुती जाव अणुप्पविट्ठा ? ५ उत्तर-गोयमा ! सरीरं गया, सरीरं अणुप्पविट्टा, कूडागारसालादिटुंतो जाव सरीरं अणुप्पविट्ठा । अहो णं भंते ! गंगदत्ते देवे महिइिढए जाव महेसक्खे । ६ प्रश्न-गंगदत्तेणं भंते ! देवेणं सा दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवजुती किण्णा लद्धा जाव गंगदत्तेणं सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागया ? ६ उतर-'गोयमा दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेण समएणं इहेव जंबु. द्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे णामं णयरे होत्था, वण्णओ। सहसंबवणे उजाणे, वण्णओ । तत्थ णं हथिणापुरे गयरे गंगदत्ते णाम गाहावई परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए । तेणं कालेणं For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्वभव २५४७ तेणं समगणं मुणिमुब्बए अग्हा आइगरं जाव मव्वष्णू सव्वदग्मिी आगामगएणं चक्केणं जाव पकाइटजमाणेणं प० २ मीसगणसंपरिबुडे पुत्राणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं० जाव जेणेव महसंदवणे उजाणे जाव विहरइ । परिमा णिग्गया जाव पज्जुवासइ । तएणं मे गंगदत्ते माहावइ इमीसे कहाए लट्टे ममाणे हट्टतुट जाव कय. बलि जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पायविहारचारेणं हथिणापुरं णयरं मझमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव महसंक्वणे उजाणे जेणेव मुणिसुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो आयाहिण० जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ-पडिज्जमाणेणं-खींचे जाते हुए। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! उस गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई ? ५ उत्तर-हे गौतम ! वह दिव्य देवद्धि यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हुई । यहां कुटागार शाला का दृष्टांत समझना चाहिये यावत् 'वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई।' अहो ! भगवन् ! यह गंगवत देव महद्धिक यावत् महासुख वाला है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवति यावत् किस प्रकार प्राप्त हुई यावत् अभिसमन्वागत (सम्मुख) हुई ? ६ उत्तर-'हे गौतम ! उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर था (वर्णन) । वहां सहस्त्रान बन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर नगर में आठप यावत् अपरिभूत सा गंगवत्त For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४८ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गादत्त का पूर्वभव नामक गाथापति रहता था। उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी, आकाशगत चक्र सहित यावत् देवों द्वारा खींचे जाते हुए धर्मध्वज युक्त शिष्य-समुदाय से सम्परिवृत्त पूर्वानुपूर्वी विचरते हुए और ग्रामानुग्राम जाते हुए यावत् मुनिसुव्रत अरिहन्त यावत् सहस्राम्र वन उद्यान में पधारे यावत् यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर विचरने लगे। परिषद् वन्दन करने के लिये आई यावत् पर्युपासना करने लगी। गंगदत्त गाथापति ने भगवान् श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पधारने की बात सुनी । वह अति हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् बलिकर्म किया और शरीर को अलंकृत कर अपने घर से पैदल ही निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य में होता हुआ सहस्राम्र वन उद्यान में श्री मनिसुव्रत स्वामी की सेवा में पहुँचा । तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत तीन प्रकार से पर्युपासना करने लगा। ७-तएणं मुणिसुव्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावइस्स तीसे य महति० जाव परिसा पडिगया। तएणं से गंगदत्ते गाहावइ मुणि. सुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ट० उट्टाए उद्वेइ उट्ठाए उठ्ठित्ता मुणिसुव्वयं अरहं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमं. सित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भे वदह, जं णवरं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुर्युवे ठावेमि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे जाव पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध । ८-तएणं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुव्वएणं अरहया एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट० मुणिसुव्वयं अरहं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता गमं. For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शः १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्वमव २५४९ सित्ता मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतिया ओ सहमंववणाओ उजाणाओ पडिणिकावमड, पडिणिकम्वमित्ता, जेणेव हथिणापुरे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छड, तेणेव उवागच्छित्ता विउलं अमणं पाणं जाव उवक्खडावेइ, उवक्वडावेत्ता मित्त-गाइ-णियग० जाव आमंतेड़, आमतेत्ता तओ पन्छा बहाए जहा पूरणे जाव जेट्टपुत्तं कुर्युवे ठावेड़। कठिन शब्दार्थ-उववखडावेइ-पकाया, मम्कारित किया। ७ भावार्थ-श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने उस गंगदत्त गाथापति को तथा उस महती परिषद को धर्म कथा कही यावत् परिषद् चली गई । श्री मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर और अवधारण कर के गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हो कर खड़ा हुआ और भगवान को वन्दना-नमस्कार कर के इस प्रकार बोला-"हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनों पर श्रद्धा करता हूं यावत् आप के. उपदेश पर विश्वास करता हूं। हे भगवन् ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का अधिकार दे कर आप देवानुप्रिय के समीप प्रवजित होना चाहता हूँ।" श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने कहा-हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो । धर्म कार्य में विलम्ब मत करो। ८-श्री मुनिसुव्रत स्वामी का कथन सुन कर गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हुआ और भगवान् को वन्दना-नमस्कार कर सहस्राम्र वन उद्यान से निकल कर अपने घर आया। उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवा कर अपने मित्र, जाति, स्वजन आदि को निमन्त्रित किया, फिर स्नान कर के तीसरे शतक के दूसरे उद्देशक के पूर्ण सेठ के समान अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया। For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ गंगदत्त का पूर्व भव तं मित्तणाइ जाव जेट्टपुत्तं च आपुच्छइ, आपुग्छिता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहइ, पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहित्ता मित्त-गाइ-णियग० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेण य समणु. गम्ममाणमग्गे सविड्ढिए जाव णाइयरवेणं हस्थिणापुरं मझ मझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागन्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थगगइसए पासइ । एवं जहा उदायणो जाव सयमेव आभरणे ओमुयइ स० २ ओमुय. इत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, स० २ करेत्ता जेणेव मुणिसुब्बए अरहा एवं जहेव उदायणे तहेव पव्वइए तहेव एकारस अंगाई अहिजइ जाव मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेइ, सटुिं० २ छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उववाय. सभाए देवसयणिजसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववण्णे । तएणं से गंगदत्ते देवे अहुणोववण्णमेत्तए समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्त. भावं गच्छद, तं जहा-आहारपजत्तीए जाव भासामणपजत्तीए । एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्या देविड्ढी जाव अभि. समण्णागया। ९ प्रश्न-गंगदत्तस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? ९ उत्तर-गोयमा ! सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र. १६ उ ५ गंगदल का पूर्वभव १० प्रश्न - गंगदत्ते णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्ख एणं० १ १० उत्तर - जाव महाविदेहे वासे सिज्झिeिs जाव अंत काहि । २५५१ * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति || सोलसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर, अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार द्वारा तथा ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुसरण किया जाता हुआ सर्व ऋद्धि सहित यावत् वादिन्त्र के घोषपूर्वक हस्तिनापुर के मध्य में हो कर सहस्रा वन उद्यान की ओर चला । तीर्थंकर भगवान् के छत्रादि अतिशय देख कर यावत् (तेरहवें शतक के छठे उद्देशक में कथित ) उदायन राजा के समान यावत् स्वयमेव आभूषण उतारे और स्वयमेव पञ्चमुष्टिक लोच किया । इसके बाद श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पास जा कर, उदायन राजा के समान दीक्षा ली यावत् गंगदत्त अनगार ने ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा यावत् एक मास की संलेखना से साठ भक्त अनशन का छेदन किया और आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक काल कर के महाशुक्र कल्प में महासामान्य नामक विमान की उपपात सभा के देव-शयनीय में यावत् गंगदत्त देवपने उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् तत्काल उत्पन्न हुआ वह गंगदत्त देव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । - आहारपर्याप्ति यावत् भाषा मन पर्याप्ति । इस प्रकार हे गौतम ! उस गंगदत्त देव को वह दिव्य देवद्ध पूर्वोक्त प्रकार से यावत् प्राप्त हुई है । यथा ९ प्रश्न - हे भगवन् ! उस गंगदत्त देव की स्थिति कितने काल की कही गई ? For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५२. ... . भगवती सूत्र-स..११ ३...६ स्वप्न की अवस्था और प्रकार ९ उत्तर-हे गौतम ! उसकी स्थिति १७ सागरोपम की कही गई । १० प्रश्न-हे भगवन ! 'वह गंगवन देव वहां का आयष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर च्यव कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा ? १० उत्तर-हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामो यावत् विचरते हैं। विवेचन-देवों में भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति मम्मिलित बंधता है । इसलिय 'पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त'-ऐसा कहा गया । ॥ सोलहवें शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक १६ उद्देशक स्वप्न की अवस्था और प्रकार १ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! सुविणदंसणे पण्णत्ते ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे पण्णत्ते, तं जहा१ अहातच्चे २ पयाणे ३ चिंत्तासुविणे ४ तविवरीए ५ अवत्तदंसणे । २ प्रश्न-सुत्ते णं भंते ! सुविणं पासइ, जागरे सुविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ ? For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि । भगवती सूत्र - ४६ ३ ६ स्वप्न की अवस्था और प्रकार २ उत्तर - गोयमा ! णो सुत्ते सुविणं पासइ, णो जागरे सुविणं पासइ, सुत्त जागरे सुविणं पास | २५५३ ३ प्रश्न- जीवा णं भंते ! किं सुत्ता, जागरा, सुत्तजागरा ? ३ उत्तर - गोयमा ! जीवा सुत्ता वि, जागरा वि, सुत्तजागरा ४ प्रश्न - णेरड्या णं भंते ! किं सुत्ता- पुच्छा ? ४ उत्तर - गोयमा ! णेरड्या सुत्ता, णो जागरा, जो सुत्तजागरा | एवं जाव चउरिं दिया । ५ प्रश्न - पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! किं सुत्ता- पुच्छा ? ५ उत्तर - गोयमा ! सुत्ता, णो जागरा, सुत्तजागरा वि । मनुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा णेरइया | कठिन शब्दार्थ - अहात च्चे- यथातथ्य पयाणे प्रतान (विस्तृत), तव्विवरीएतद्विपरीत, अवत्त-अव्यक्त, सुविणं स्वप्न । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! स्वप्न-दर्शन कितने प्रकार का कहा है ? १ उत्तर - हे गौतम ! स्वप्न-दर्शन पांच प्रकार का कहा गया है, यथा१ यथातथ्य स्वप्न-दर्शन २ प्रतान स्वप्न-दर्शन ३ चिन्ता स्वप्न-दर्शन ४ तद्विपरीत स्वप्न-दर्शन और ५ अव्यक्त स्वप्न-दर्शन । २ प्रश्न - हे भगवन् ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न देखता है, जागता हुआ देखता है या सुप्त जाग्रत ( सोता-जागता ) प्राणी स्वप्न देखता है ? २ उत्तर - हे गौतम! सोता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता, जागता हुआ For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५४ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ स्वप्न की अवस्था और प्रकार प्राणी भी स्वप्न नहीं देखता, सुप्त-जाग्रत प्राणी स्वप्न देखता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव सोये हुए हैं, जाग्रत हैं या सुप्तजाग्रत हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जीव सुप्त भी हैं, जाग्रत भी हैं और सुप्तजाग्रत भी हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक सुप्त हैं इत्यादि प्रश्न । ४ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक सुप्त हैं, जाग्रत नहीं और सुप्तजाग्रत भी नहीं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना चाहिये ।। ५ प्रश्न-हे भगवन ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव सुप्त हैं, इत्यादि प्रश्न । __५ उत्तर-हे गौतम ! वे सुप्त हैं, जाग्रत नहीं हैं, सुप्तजाग्रत हैं । मनुष्य के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान जानना चाहिये। विवेचन-सुप्त अवस्था में किसी भी अर्थ के विकल्प का अनुभव करना 'स्वप्न' कहलाता है। इसके पांच भेद हैं । यथा- १ यथातथ्य स्वप्न-दर्शन-स्वप्न में जिस वस्तु-स्वरूप का दर्शन हुआ, जाग्रत होने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभा-शुभ फल की प्राप्ति होना-'यथातथ्य स्वप्न-दर्शन' कहलाता है । इसके दो भेद हैं । यथा-दृष्टार्थाविसंवादी और फलाविसंवादी । स्वप्न में देखे हुए अर्थ के अनुसार जाग्रतावस्था में घटना घटित होना 'दष्टार्थाविसंवादी' स्वप्न है । जैसे-किसी मनुष्य ने स्वप्न में देखा कि किसी ने मेरे हाथ में फल दिया। जाग्रत होने पर उसी प्रकार का बनाव बने अर्थात् उसके हाथ में कोई फल दे । स्वप्न के अनुसार जिसका फल (परिणाम) अवश्य मिले, वह 'फलाविसंवादी' स्वप्न है । जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने आपको हाथी-घोड़े आदि पर बैठा देखा और जाग्रत होने पर कालान्तर में उसे धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति हो । (२) प्रतान स्वप्न-दर्शन-प्रतान का अर्थ है विस्तार-विस्तार वाला स्वप्न देखना 'प्रतान स्वप्न-दर्शन' है । यह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी। (३) चिन्ता स्वप्न-दर्शन-जाग्रतावस्था में जिस वस्तु की चिन्ता रही हो अथवा जिस अर्थ का चिन्तन किया हो, स्वप्न में उसी को देखना 'चिन्ता स्वप्न-दर्शन' है । For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-स. १६ उ. ६ साधु भी स्वप्न देखते हैं ? २५५५ (४) तद् विपरीत स्वप्न-दर्शन--स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जाग्रत होने पर उसमे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना 'तद् विपरीत स्वप्न-दर्शन' है । जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने शरीर को अशचि पदार्थ से लिप्त देखा. किन्तु जाग्रतावस्था में कोई पुरुप उसके शरीर को शुचि-पदार्थ से लिप्त करे । (५) अव्यक्त स्वप्न-दर्शन-स्वप्न विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना 'अव्यवत स्वप्न दर्शन' है। सुप्त और जाग्रत, द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का कहा गया है । निद्रा लेना द्रव्य से सोना है और विरति रहित अवस्था भाव से सोना है । स्वप्न सम्बन्धी प्रश्न द्रव्य-निद्रा की अपेक्षा से किया गया है । सुप्त, जाग्रत सम्बन्धी प्रश्न विरति की अपेक्षा से है । जो जीव सर्व विरति से रहित हैं, वे भाव से सोये हुए हैं । जो जीव सर्व-विरत हैं, वे भाव से जाग्रत हैं और जो जीव देगविरत हैं वे सुप्त जाग्रत (सोते-जागते ) हैं । साधु भी स्वप्न देखते हैं ? ६ प्रश्न-संवुडे णं भंते ! सुविणं पासइ, असंवुडे सुविणं पासइ, संवुडासंवुडे सुविणं पासइ ? ... ६ उत्तर-गोयमा ! संवुडे वि सुविणं पासइ, असंवुडे वि सुविणं पासइ, संवुडासंवुडे वि सुविणं पासइ । संखुडे सुविणं पासइ अहा. तच्चं पासइ । असंवुडे सुविणं पासइ तहा वा तं होजा, अण्णहा वा तं होजा । संवुडासंवुडे सुविणं पासइ एवं चेव। . ७ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं संवुडा, असंवुडा, संवुडासंवुडा ? ७ उत्तर-गोयमा ! जीवा संवुडा वि, असंवुडा वि, संवुडासंवुडा वि । एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव .भाणियब्यो । For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो.मूत्र-श १६.उ. ६ स्वप्न के प्रकार कठिन शब्दार्थ-संवुडे-संवृत, संवुडासंबडे-संवृतासंवृत (श्रावक)। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! संवत जीव स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है या संवृतासंवृत जीव स्वप्न देखता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! संवृत भी स्वप्न देखता है, असंवृत भी स्वप्न देखता है और संवतासंवृत भी स्वप्न देखता है । संवत जीव यथातथ्य (सत्य ) स्वप्न देखता है । असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य भी होता है और असत्य भी । संवृतासंवृत के स्वप्न असंवृत के समान जानना चाहिये । ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव सवृत हैं, असंवृत हैं या संवृतासंवृत हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं और संवृतासंवत भी है। जिस प्रकार सुप्त जीवों का दण्डक कहा, उसी प्रकार इनका भी कहना चाहिये। विवेचन-जिसने आश्रव द्वारों का निरोध कर दिया है, वह सर्वविरत मुनि संवृत' कहलाता है । संवृत में और जाग्रत में केवल गाब्दिक भेद है, अर्थ की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । सर्वविरति युक्त मुनि बोध का अपेक्षा 'जाग्रत' कहलाता है और तथाविध बोध से युक्त मुनि सर्वविरति की अपेक्षा संवृत कहलाता है । यहाँ संवृत शब्द से विशिष्टतर संवृतत्व युक्त मुनि का ग्रहण किया गया है। वह प्रायः कर्म-मल क्षीण होने से और देव. के अनुग्रह युक्त होने से यथातथ्य स्वप्न देखता है। दूसरे संवृतासंवृत और असंवृत तो यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार के स्वप्न देखते हैं। स्वप्न के प्रकार ८ प्रश्न-कइ णं भंते ! सुविणा पण्णता ? ८ उत्तर-गोयमा ! बायालीसं सुविणा पण्णत्ता । ९ प्रश्न-कइ णं भंते ! महासुविणा पण्णेत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ तीर्थकरादि की माता के स्वप्न २५५७ ९ उत्तर-गोयमा ! तीमं महासुविणा पण्णत्ता । १० प्रश्न-कई णं भंते ! मव्वसुविणा पण्णता ? १० उत्तर-गोयमा ! बावत्तरि सव्वसुविणा पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ-बावरि-बहत्तर । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन ! स्वप्न कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! स्वप्न बयालीस प्रकार के कहे गये है। ९ प्रश्न-हे भगवन ! महास्वप्न कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! महास्वप्न तीस प्रकार के कहे गये हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! सभी स्वप्न कितने कहे गये हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! सभी स्वप्न बहत्तर कहे गये हैं। विवेचन-वैसे तो स्वप्न असंख्यात प्रकार के हो सकते हैं, किन्तु विशिष्ट फल के , मूचक स्वप्नों की अपेक्षा वयालीस बतलाये गये हैं और महत्तम फल के सूचक होने से तीस महास्वप्न बतलाये गये हैं। इन दोनों को मिला कर स्वप्नों की संख्या बहत्तर बतलाई गई हैं। . तीर्थंकरादि की माता के स्वप्न ११ प्रश्न-तित्थयरमायरो णं भंते ! तित्थयरंसि गम्भं वक्कममाणंसि कइ महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति ? ११ उत्तर-गोयमा ! तित्थयरमायरो णं तित्थयरंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे पासित्ता णं पडिवुझंति, तं जहा-गय उसभ सीह अभिसेय जाव सिहिं च । For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५८ भगवती सूत्र-स. १६ उ. ६ तीर्थ फरादि की माता के स्वप्न १२ प्रश्न-चक्कवट्टिमायरो णं भंते ! चक्कवर्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि कइ महासुविणे पासित्ता णं पडिवुझंति ? १२ उत्तर-गोयमा ! चक्कवट्टिमायरो चक्कवटिसि जाव वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं०, एवं जहा तित्थयरमायरो जाव सिहिं च । १३ प्रश्न-वासुदेवमायरो णं-पुच्छा । १३ उत्तर-गोयमा ! वासुदेवमायरो जाव ववकममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडि. बुझंति । १४ प्रश्न-बलदेवमायरो-पुच्छा। १४ उत्तर-गोयमा ! बलदेवमायरो जाव एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति । १५ प्रश्न-मंडलियमायरो णं भंते !-पुच्छा। १५ उत्तर-गोयमा ! मंडलियमायरो जाव एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं जाव पडिबुझंति । कठिन शब्दार्थ-पडिवुझंति-जाग्रत होते ।। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! जब तीर्थंकर का जीव गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माता कितने महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जब तीर्थंकर का जीव गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माता इन तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न देख कर जाग्रत For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ भ. महावीर के दस महास्वप्न २५५९ होती है । यथा-हाथी, वृषभ, सिंह यावत् अग्नि । १२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब चक्रवर्ती का जीव गर्भ में आता है, तब चक्रवर्ती की माता कितने महास्वप्न देव कर जाग्रत होती है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! चक्रवर्ती को माता, तीर्थकर की माता के समान चौदह महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है, यथा-हाथी यावत् अग्नि । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! जब वासुदेव का जीव गर्भ में आता है, तब वासुदेव को माता कितने महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी सात महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब बलदेव का जीव गर्भ में आता है, तब बलदेव की माता कितने स्वप्न देख कर जाग्रत होती है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! बलदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी चार महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है। __ १५ प्रश्न-हे भगवन् ! माण्डलिक राजा का जीव जब गर्भ में आता हैं, तब उनकी माता कितने महास्वप्न देख कर जाग्रत होती है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! चौदह महास्वप्नों में से किसी एक महास्वप्न को देख कर जाग्रत होती है । विवेचन-जब तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती का जीव नरक से निकल कर आता है, तो उनकी माता 'भवन' देखती है और जब देवलोक से च्यव कर आता है, तो 'विमान' देखती है। भ. महावीर के दस महास्वप्न १६-समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ भ. महावीर के दस महास्वप्न इमे दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं जहा-१ एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं पडिबुद्धे । २ एगं च णं महं सुकिल्लपक्वगं पुंसकोइलं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ३ एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंस. कोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिवुधे । ४ एगं च णं महं दामदुर्ग सब्बरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । ५ एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिवुधे । ६ एगं च णं महं पउमसरं सबओ समंता कुसुमियं सुविणे० । ७ एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुयाहिं तिण्णं सुविणे पासित्ता० । .८ एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंत सुविणे पामित्ता० । ९ एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेणं णियगेणं अतेणं माणुमुत्तरं पव्वयं सबओ समंता आवेढियं-परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । १० एगं च णं महं मंदरे पाए मंदरचूलियाए उवरिं सीहासण. वरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे । कठिन शब्दार्थ-पुंसकोइलगं-पुस्कोकिल अर्थात् पुरुष जाति का कोयल, दामदुर्गमाला युगल (दो मालाएँ), उम्मोवीयीसहस्सकलियं-हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त आवेढियं-चारों आर से वेष्टित, परिवेढियं-परिवेष्टित अर्थात् बारंवार वेष्टित। १६ भावार्थ-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपनी छद्मस्थावस्था को अन्तिम रात्रि में, इन दस महास्वप्नों को देख कर जाग्रत हुए । यथा-(१) एक महान् भयंकर और तेजस्वी रूप वाले, ताड़वृक्ष के समान लम्बे पिशाच को पराजित किया-ऐसा स्वप्न देख कर जाग्रत हुए। (२) एक महान् श्वेत पंखों For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ६ भगवान् के स्वप्न के फल २५६१ वाले स्कोकिल (नर जाति के कोयल) को स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए। (३) एक महान चित्र-विचित्र पंखों वाले स्कोकिल को स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए । (४) स्वप्न में एक महान् सर्व रत्न मय मालायुगल को देख कर जाग्रत हुए। (५) स्वप्न में श्वेत वर्ण के एक महान गो-वर्ग को देख कर जाग्रत हुए। (६) चारों ओर से कुसुमित एक महान पदम सरोवर को देख कर जाग्रत हुए । (७) हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को अपनी भुजाओं से तिरे-ऐसा स्वप्न देख कर जाग्रत हुए। (८) जाज्वल्यमान तेजस्वी महान् सूर्य स्वप्न में देख कर जाग्रत हुए। (९) महान् मानुषोत्तर पर्वत को नील वंडूर्य मणि के समान अपने अन्तर भाग (आँतों) से चारों ओर से आवेष्टित-परिवेष्टित देख कर जाग्रत हुए। (१०) महान् मंदर (सुमेरु) पर्वत की मन्दर-चूलिका पर श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे हुए अपने आप को देख कर जाग्रत हुए। विवेचन-यहाँ मूलपाठ में-'छ उमत्थकालियाए अंतिम राइसि'-शब्द है। इन शब्दों का अर्थ किन्हीं प्रतियों में इस प्रकार किया है-"छद्मस्थावस्था की अन्तिम रात्रि में भगवान ने ये स्वप्न देखे थे । अर्थात जिस गत्रि में ये स्वप्न देखें थे, उस के बाद उसी दिन भगवान को केवलज्ञान हो गया था ।" किन्ही प्रतियों में ऐसा अर्थ किया है-“छद्मस्थावस्था की रात्रि के अन्तिम भाग में (पिछले पहर में )स्वप्न देखे थे।" यहाँ किसी रात्रि विशेष का निर्देश नहीं किया गया है। किन्तु महापुरुषों द्वारा देखे हुए शुभ स्वप्नों का फल तत्काल ही मिला करता है । अत: उपर्युक्त दोनों अर्थों में से पहला अर्थ ही मैक मालूम होता है। भगवान् के स्वप्न के फल १७-१ जणं समणं भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्त. धरं तालपिसायं सुविणे पराजियं जाव पडिबुधे, तणं समणेणं For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६२ भगवता सूत्र-श. १: उ. ६ भगवान् क स्वप्न के फल भगवया महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलाओ उग्धायिए । २ जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुकिल्ल जाव पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे सुकन्झाणोवगए विहरइ । ३ जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त जाव पडिबुद्धे, तण्णं समण भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमइयं दुवालगं गणिपिडगं आघवेड़, पण्णवेइ, परूवेइ, दंमेइ, णिदंसेइ, उवदंसेइ; तं जहा१ आयारं २ सूयगडं जाव १२ दिहिवायं । ४ जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडि. वुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे दुविहे धम्मे पण्णवेइ, तं जहाअगोरधम्मं वा अणगारधम्मं वा । ५ जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेयं गोवग्गं जाव पडिबुद्धे, तणं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे, तं जहा-१ समणा २ सम णीओ ३ सावया ४ सावियाओ। कठिन शब्दार्थ-उग्घायिए-नष्ट किया। भावार्थ-१७ प्रथम स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भयंकर और तेजस्वी रूप वाले, . ताड़वृक्ष जितने ऊँचे एक पिशाच को पराजित किया हुआ देखा । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मोहनीय कर्म को समूल नष्ट किया। दूसरे स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी, एक महान श्वेत पंख वाले पुंस्कोकिल को देख कर जाग्रत हुए, इसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर स्वामी शुक्लध्यान प्राप्त कर विचरे । तीसरे स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने एक महान चित्र-विचित्र पंखों वाले पुंस्कोकिल को For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र-श. १६ उ. ६ भगवान् के स्वप्न के फल २५६३ देखा । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने विवित्र स्वसमय और परसमय के विविध विचार युक्त द्वादशांग गणिपिटक का कथन किया, प्रज्ञप्त किया, प्ररूपित किया, दिखलाया, निदर्शन किया और उपदर्शन किया, यथा-आचार, सूत्रकृत यावत् दृष्टिवाद । चौथे स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी, सर्वरत्न मय एक महान् माला-युगल को देख कर जाग्रत हुए । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दो प्रकार का धर्म कहा। यथा-अगार धर्म और अनगार धर्म । पांचवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने महान् और श्वेतवर्ण का एक गोवर्ग देखा । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चार प्रकार का संघ हुआ, यथा-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका । ६-जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं परमसरं जाव पडि. बुद्धे तणं ममणे जाव वीरे चउबिहे देवे पण्णवेइ, तं जहा१ भवणवासी २ वाणमंतरे ३ जोइसिए ४ वेमाणिए । ७ जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सागरं जाव पडिबुद्धे तण्णं समणेणं भगवया महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे जाव संसारकंतारे तिण्णे । ८ जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणयरं जाव पडिबुद्धे तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अणते अणुत्तरे जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे । ९ जण्णं समणे जाव वीरे एगं महं हरिवेरुलिय जाव पडिबुद्धे तण्णं समणस्स भगवओ महावीररस ओराला कित्ति-वण्ण-सह-सिलोया सदेवमणुयासुरे लोए परिभमंति. For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६४ भगवती सूत्र-श. ५६ उ. ६ भगवान् के स्वप्न के फल इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति० २ । १० जणं समणे भगवं महावीरे मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए जाव परिबुद्धे, तणं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए केवली. पण्णत्तं धम्मं आघवेइ जाव उवदंसेइ । कठिन शब्दार्थ-ओराला-उदार । " भावार्थ- छठे स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कुसुमित एक महान् पद्मसरोवर को देखा । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक-इन चार प्रकार के देवों का कथन किया । सातवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महा सागर को अपनी भुजाओं से तिरा देखा। इसका फल यह है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनादि अनन्त यावत् संसारकान्तार को तिर गये । आठवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी, तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य देख कर जाग्रत हुए । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनन्त, अनुत्तर, निरावरण, निाधात, समग्र और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। नौवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने एक महान् मानुषोत्तर पर्वत को नील वैडूर्यमणि के समान अपनी आंतों से चारों ओर आवेष्टित-परिवेष्टित किया। इसका फल यह है कि देवलोक, मनुष्यलोक और असुरलोक में-भगवान् महावीर स्वामी केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक है-इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उदारकीति, स्तुति, सम्मान और यश को प्राप्त हुए । दसवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर स्वामी, एक महान् मेरु पर्वत की मन्दर चूलिका पर सिंहासन पर बैठे हुए अपने आपको देख कर जाग्रत हुए । इसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने केवलज्ञानी हो कर देव, मनुष्य और असुरों से युक्त परिषद में धर्मोपदेश दिया यावत् उपदर्शित किया। For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता मूत्र-दा. १६ उ. ६ मोक्ष फल-दायक स्वप्न मोक्ष फल-दायक स्वप्न १८-इत्थी वा पुरिमे वा सुविणंत गं महं हयपतिं वा गय. पंतिं वा जाव वसभपंति वा पासमाणे पासइ. दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिइ अप्पाणं मण्गड, नम्वणामेव बुझाइ, तेणेव भवग्गहणणं मिझइ जाव अंतं करेड़ । __१९-इत्थी वा पुरिमे वा सुविणते एगं महं दामिणि पाईण पडिणायतं दुहओ ममुद्दे पुढे पासमाणे पामड़, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिइ अप्पाणं मण्णह, तखणामेव वुझइ, तेणेव भवग्गहणणं जाव अंतं करे । ____२०-इत्थी वा पुरिसे वा एगं मह रज्जु पाईणपडिणायतं दुहओ लोगते पुटुं पासमाणे पामइ, छिंदमाणे छिंदइ, छिण्णमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव जाव अंतं करेइ। २१-इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं किण्हसुत्तगं वा जाव सुकिल्लसुत्तगं वा पासमाणे पासइ, उग्गोवेगाणे उग्गोवेइ, उग्गोवियमिइ अप्पाणं मण्णइ, तबखणामेव जाव अंतं करेइ। २२-इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं अयरासिं वा तंबरासिं वा तउयरासिं वा सीसगरासिं वा पासमाणे पासइ, दुरूह. माणे दुरूहइ, दुरूढमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुझइ, For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ 3. ६ मोक्ष फल-दायक स्वप्न दोच्चे भवग्गहणे सिज्झइ जाव अंत करे । कठिन शब्दार्थ-सुविणंते-स्वप्न के अंत में, हयपति-अश्व पंक्ति, दुरूहमाणे ऊपर चढ़ता हुआ, तक्खणामेव-तत्काल, दामिणि-रस्मी. पाईणपडिणायतं-पूर्व-पश्चिम लम्बा, संवेल्लेमाणे-समेटता हुआ, रज्जु-रस्सी, उग्गोवेमाणे-सुलझाता हुआ। भावार्थ-१८-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् अश्व पंक्ति, गज पंक्ति यावत् वृषभ पंक्ति देखे और उस पर चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने-ऐसा स्वप्न देख कर तुरन्त जाग्रत होवे, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । १९-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक बड़ो रस्सी को समुद्र के पूर्व और पश्चिम तक विस्तृत देखे और उसे अपने हाथों से तमेटे, फिर अनुभव करे कि 'मैने रस्से को समेट लिया है। इस प्रकार स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । २०-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में दोनों ओर लोकान्त को स्पर्श की हुई तथा पूर्व और पश्चिम लम्बी एक बड़ी रस्सी देखे और उसे काट डाले, एवं 'मैने उसे काट दिया है'-ऐसा अपने आपको माने और ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् समस्त दुखों का अन्त करता है। २१-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् काले सूत अथवा यावत् श्वेत सूत के उलझे हुए पिण्ड को सुलझावे और-'मैंने इसको सुलझा दिया है'-ऐसा अपने आपको माने । ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। २२-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् लोह राशि, ताम्बे का ढेर, कथीर का ढेर और शीशे का ढेर देखे और उस पर चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने । ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह दूसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-म. १६ उ. ६ मोक्ष फल-दायक स्वप्न २५६७ ___२३-इत्थी वा पुरिसे वा मुविणंते एगे महं हिरणरामि वा सुवण्णरामि वा रयणगसि वा वइररासि वा पासमाणे पासइ, दुरूह. माणे दुरूहइ, दुरूढमिइ अप्पाणं मण्णइ. तवखणामेव वुज्झइ, तेणेव भवग्गहणणं सिन्झइ जाव अंतं करेइ । २४-इत्थी व पुरिमे वा सुविणते पगं महं तणगसिं वा जाव तेयगिमग्गे जाव अवकरणसिं वा पासमाणे पामइ, विक्खिरमाणे विक्खिग्इ, विविखणमिइ अप्पाणं मणइ, तवखणामेव बुज्झइ. तेणेव जाव अंतं करेइ । २५-इत्थी वा पुरिमे वा सुविणंत एगं महं सरथंभे वा वीरणथं वा वंसीमूलथंभ वा वल्लीमूलथं वा पासमाणे पासइ, उम्मूले. माणे उम्मूलेइ, उम्मूलियमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुझ्इ जेणेव जाव अंतं करेइ । .. २६-इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंभ वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासइ, उप्पाडेमाणे उप्पा. डेइ, उप्पाडियमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ तेणेव जाव अंतं करेइ। ___ २७-इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सुरावियडकुंभं वा सोवीरवियडकुंभ वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे पासइ, भिंदमाणे भिंदइ, भिण्णमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ, For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५६८ -भमक्ती-मूत्र-स.-१३ उ. ६ मोक्ष फ.म-दायक स्वप्न दोच्चेणं भव जाव अंतं करेइ । ___कठिन शब्दार्थ-अवकररासिं-कचरे का ढेर । भावार्थ-२३-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् चांदी का ढेर, सोने का ढेर, रत्नों का ढेर और वज्रों का ढेर देखे और उस पर चढ़े तथा अपने आप को उस पर चढ़ा हआ माने । ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है। २४-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान घास का ढेर तथा तेजोनिसर्ग नामक पन्द्रहवें शतक के अनुसार यावत् कचरे का ढेर देखे और उसको बिखेर दे एवं 'मैंने बिखेर दिया है'-ऐसा अपने आपको माने । ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। २५-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् सर-स्तम्भ; वीरण. स्तम्भ, वंशीमूल स्तम्भ और वल्लिमूल स्तम्भ को देखे और उनको जड़ से उखाड़ कर फेंक दे तथा 'मैंने इन को उखाड़ कर फेंक दिया है'-ऐसा माने और स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । २६-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान क्षीर कुम्भ, दधि कुम्भ, घृत कुम्भ और मधु कुम्भ देखे और उसे उठावे तया "मैंने इनको उठा लिया है"-ऐसा अपने आपको समझे, ऐसे स्वप्न को देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है। २७-कोई स्त्री या पुरुष,स्वप्न के अन्त में एक मदिरा का बड़ा कुम्भ, सौवीर का बड़ा कुम्भ, तेल का कुम्भ, चर्बी का कुम्भ देखे और उसे फोड़ डाले, तथा-"मैंने इसे फोड़ डाला है"-ऐसा माने । इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह दो भव में मोक्ष जाता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. १६ उ. ६ मोक्ष फल-दायक स्वप्न २५५ २८-इत्थी वा पुरिसे वा मुविणते एर्ग महं पउमसरं कुसुमियं पाममाणे पामइ, ओगाहमाणे आगाहड, आगाढमिइ अप्पाणं मण्णइ. तावणामेव० तेणेव जाव अंतं करेइ । २९-इत्थी वा जाव मुविणंते एगं महं सागरं उम्मीवीयी जाव कलियं पासमाणे पामइ, तरमाणे तरइ, तिण्णमिइ अप्पाणं मण्णइ, तखणामेव०, तेणेव जाव अंतं करेइ।। ३०-इत्थी वा जाव सुविणंते एगं महं भवणं सव्वरयणांमयं पासमाणे पासइ, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसह, अणुप्पविट्टमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ. तेणेव जाव अंतं करेइ । ३१-इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं विमाणं सव्व. रयणामयं पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिइ अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव जाव अंतं करे। भावार्थ-२८ कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में कुसुमित महान् पद्मसरोवर देखे और उसमें प्रवेश करे तथा “मैंने इसमें प्रवेश किया है"ऐसा माने, इस प्रकार स्वप्न, देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है। २९-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त महासागर को देखे और उसे तिर जाय तथा "मैं इसे तिर गया हूँ"- . ऐसा माने, इस प्रकार स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है। ३०-कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में सर्व रत्नमय भवन देखे और For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ ६ गन्ध के पुद्गल बहते हैं उसमें प्रवेश करे तथा-'मैंने इसमें प्रवेश किया है" - ऐसा माने, ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जावत हो, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । २५७० ३१ - कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में सर्वरत्नमय एक महान् विमान देखे और उस पर चढ़े तथा - " मैं इसके ऊपर चढ़ गया हूँ" - ऐसा माने। इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो, तो वह उसी भव में मोक्ष जाता है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । विवेचन -- ऊपर स्वप्न सम्बन्धी चौदह सूत्र कहे हैं । उनमें से लोह के ढ़ेर आदि तथा मदिरा आदि के घट को देखने वाला पुरुष दूसरे भव में अर्थात् मनुष्य सम्बन्धी दूसरे भव में मोक्ष जाता है । शेष बारह सूत्रों में कथित पदार्थों को देखने वाला पुरुष उसी भव में मोक्ष जाता है । गन्ध के पुद्गल बहते हैं ३२ प्रश्न - अह भंते! कोट्टपुडाण वा जाव केयइपुडाण वा अणुत्रायंसि उभिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोडे वाइ जाव केयई वाइ ? ३२ उत्तर - गोयमा ! णो कोट्टे वाह जाव णो केयई वाह, घाणसहगया पोग्गला वाह । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति || सोलसमे सए छट्टो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र-स. १६ उ. ७ उपयोग के भेद २५७१ कठिन शब्दार्थ-उभिज्जमाणाण-खोलते हुए। भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष कोष्ठपुट (गन्ध द्रव्य का पुड़ा) यावत् केतकीपुट को खोल रहा हो अथवा यावत् एक स्थान से दूसरे स्थान ले कर जाता हो और अनुकूल हवा चलती हो, तो क्या कोष्ठ द्रव्य बहता (फैलता) है या यावत् केतकीपुट वायु में बहता है. ? ..... .... ३२ उत्तर-हे गौतम ! कोष्ठपुट यावत् केतकीपुट नहीं बहते, किन्तु गन्ध के पुद्गल बहते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . विवेचन-कोष्ठपुट आदि सुगन्धित द्रव्य अनुकूल हवा की ओर ले जाये जाते हों, - तो उनको मुगन्ध हवा में फैल कर घ्राणग्राह्य होती है। .. . ॥ सोलहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ।। शतक १६ उद्देशक ७ उपयोग के भेद १ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! उवओगे पण्णत्ते ? १ उत्तर-गोयमा ! दुविहे उवओगे पण्णत्ते, एवं जहा उव. योगपदं पण्णवणाए तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं, पासणयापदं च For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७२ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ७ उपयोग के भेद णिरवसेसं णेयव्वं । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ सोलसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का कहा है ? १ उत्तर-हे गौतम ! उपयोग दो प्रकार का कहा है। यहां प्रज्ञापना सूत्र का २९ वां उपयोग-पद और तीसवां 'पासणया' पद सम्पूर्ण कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-चेतना शक्ति के व्यापार को 'उपयोग' कहते हैं । उसके दो भेद हैंसाकारोपयोग और अनाकारोपयोग । साकारोपयोग के आठ भेद हैं । यथा-पांच ज्ञान और तीन अज्ञान । अनाकारापयोग के चक्षुदर्शन आदि चार भेद हैं। इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के उनतीसवें पद से जानना चाहिये। पश्यतो भावः पश्यत्ता' अर्थात् उत्कृष्ट बोध के परिणाम को 'पश्यत्ता' कहते हैं । उसके दो भेद हैं । साकार पश्यता और अनाकार पश्यता । साकार पश्यत्ता के छह भद हैं । यथा-मतिज्ञान को छोड़ कर चार ज्ञान और मतिअज्ञान को छोड़ कर दो अज्ञान । अनाकार पश्यत्ता के तीन भेद हैं । यथा-अचक्षुदर्शन को छोड़ कर शेष तीन दर्शन । यद्यपि 'पश्यत्ता' और उपयोग, ये दोनों साकार और अनाकार के भेद से तुल्य हैं, तथापि नहीं स्पष्ट या अस्पष्ट कालिक वोध हो अथवा वर्तमानकालिक बोध हो, उसे 'उपयोग' कहते हैं और त्रैकालिक स्पष्ट बोध को 'पश्यत्ता' कहते हैं । अर्थात् उपयोग में कालिक अथवा वर्तमान कालिक स्पष्ट अथवा अस्पष्ट बोध होता है और पश्यत्ता में कालिक स्पष्ट बोध होता है । पश्यता और उपयोग में यही अन्तर है। शंका-यहां अनाकार पश्यत्ता में चक्षुदर्शन को ग्रहण किया है, अचक्षुदर्शन को ग्रहण नहीं किया, इसका क्या कारण है ? For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व २०७३ समाधान-प्रकृष्ट ईक्षण (प्रकर्पता युक्त देखने) को 'पश्यना' कहते हैं। इस प्रकार की पश्यत्ता वक्षुदर्शन में घटित हो सकती है, अचक्षुदर्शन में घटित नहीं हो सकता । क्योंकि चाइन्द्रिय के उपयोग का काल, शेष इन्द्रियों के उपयोग के काल से अल्प है। प्रकृष्ट ईक्षण चक्षुरिन्द्रिय का ही होता है । इसलिये 'पञ्चत्ता' में चक्षुदर्शन को ही ग्रहण किया गया है । दूसरी इन्द्रियों के दर्शन को ग्रहण नहीं किया गया है। 'पश्यत्ता' शब्द 'दृशिर-प्रेक्षणे' धातु से बना है। 'दृश्' धातु का अर्थ 'प्रेक्षण' अर्थात् प्रकृष्ट ईक्षण (प्रकर्पता युक्त देखना) है। ॥ सोलहवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व .. १ प्रश्न-केमहालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? १ उत्तर-गोयमा ! महतिमहालए जहा बारसमसए तहेव जाव असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवणं । . २ प्रश्न-लोयस्स णं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा ? २ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७४ भगवती सूत्र-१६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व णियमं एगिदियदेसा य, अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियस्स य देसे एवं जहा दसमसए अग्गेयी दिसा तहेव, णवरं देसेसु अणिदियाणं आइल्लविरहिओ । जे अरूवी अजीवा ते छविहा, अद्धासमयो णत्थि । सेसं तं चेव गिरवसेसं। ३ प्रश्न-लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमंते किं जीवा०? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं पञ्चच्छिमिल्ले वि उत्तरिल्ले वि । ४ प्रश्न-लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि जीवपएसा वि जाव अजीवपएसा वि । जे जीवदेसा ते णियमं एगिंदियदेसा य अणिदियदेसा य, अहवा एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य वेइंदि. यस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य वेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव पंचिंदियाणं । जे जीवप्पएसा ते णियमं एगिदियप्पएसा य अणिदियप्पएसा य, अहवा एगिं. दियप्पएसा य अर्णिदियप्पएसा य वेइंदियस्स पएसा य, अहवा एगिंदियपएसा य अणिदियप्पएसा य वेइंदियाण य पएसा, एवं आइल्ल. विरहिओ जाव पंचिंदियाणं । अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव णिरवसेंस। ५ प्रश्न-लोगस्स णं भंते ! हेडिल्ले चरिमंते किंजीवा० पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ उ.८ लोक के अन्त मे जीव का अस्तित्व २५७५ ५ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि जाव अजीवप्पएसा वि, जे जीवदेमा ते णियमं एगिदियदेसा, अहवा एगिंदियदेसा य वेइंदियस्स देसे, अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियाण य देसा, एवं मझिल्लविरहिओ जाव आणदियाणं । पएसा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव । अजीवा जहेव उवरिल्ले चरिमंते तहेव । कठिन शब्दार्थ-केमहालए-कितना बड़ा, आइल्ल-आदि का-पहले का, अद्धासमयोकाल, हेटिल्ले-नीचे के, पुरच्छिमिल्ले-पूर्व का, चरिमते-अंतिम किनारा । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक कितना बड़ा कहा है ? १ उत्तर-है गौतम ! लोक अत्यन्त बड़ा कहा है। वक्तव्यता बारहवें . शतक के सातवें उद्देशक के अनुसार यावत् उस लोक का परिक्षेप (परिधि) असंख्येय कोटाकोटि योजन है । २ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के पूर्व चरमान्त में जीव हैं, जीव के देश हैं, जीव प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! वहाँ जीव नहीं, परन्तु जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव है, अजीव के देश ह और अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और एक बेइंद्रिय जीव का एक देश है, इत्यादि दसवें शतक के पहले उद्देशक में कथित आग्नेयी दिशा की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिए । विशेषता यह है कि-बहुत देशों के विषय में अनिन्द्रियों के सम्बन्ध में प्रथम भंग नहीं कहना चाहिए, तथा वहां जो अरूपी अजीव हैं, वे छह प्रकार के कहे गये हैं, क्योंकि वहां अद्धासमय (काल) नहीं है । शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के दक्षिण दिशा के चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न ? For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७६ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व ३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से सभी कहना चाहिए । इसी प्रकार पश्चिम चरमान्त और उत्तर चरमान्त के विषय में भी कहना चाहिए । ४ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के उपरिम चरमान्त में जीव है, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वहां जोव नहीं हैं किन्तु जीव के देश है, जीव के प्रदेश हैं यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं । जो जीव के देश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रियों और अनिन्द्रियों के देश हैं । अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश और एक बेइन्द्रिय का एक देश है। २ अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश और बेइन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार बीच के भांगे को छोड़ कर द्विक-संयोगी सभी भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत पंचेन्द्रिय तक कहना चाहिए । जहाँ जो जीव प्रदेश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रियों के प्रदेश और अनिन्द्रियों के प्रदेश हैं । १ अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश और एक बेइन्द्रिय के प्रदेश हैं। २ अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश और बेइन्द्रियों के प्रदेश है । इस प्रकार प्रथम भंग के अतिरिक्त शेष सभी भंग कहने चाहिये। इसी प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तक कहना चाहिये। दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित तमा दिशा की वक्तव्यता के अनुसार यहाँ पर अजीवों की वक्तव्यता कहनी चाहिये। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के अधस्तन (नीचे के) चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न ? ५ उत्तर-हे गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं, जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव देश हैं और अजीव प्रदेश हैं । जो जीव देश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रियों के देश हैं। अथवा एकेन्द्रियों के देश और बेइन्द्रिय का देश है। अथवा एकेन्द्रियों के देश और बेइन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार बीच के भंग को छोड़ कर शेष भंग कहने चाहिये यावत् अनिन्द्रियों तक कहना चाहिये । सभी प्रदेशों के विषय में पूर्व चरमान्त के प्रश्नोत्तर के अनुसार कहना चाहिये । परंतु उसमें प्रथम भंग नहीं कहना चाहिये। अजीवों के विषय में उपरिम चरमान्त के समान कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-१. १६ उ. ८ लोक के अन्त में गाय का अस्तित्व २५७७ विवेचन-पूर्व दिशा का चरमान्त विषम एक प्रदेश के प्रतर रूप है । इसलिये उसमे असंख्य प्रदेशावगाहो जीव का मदभाव नहीं हो सकता। इसलिये वहाँ जीव नहीं हैं, परन्तु जीव के देश और जीव के प्रदेगों का एक प्रदेश में भा अवगाह हो सकता है, इसलिये वहाँ जीव-देश ओर जीव-प्रदे होते हैं । इसी प्रकार वहाँ पुद्गल-म्कन्ध धर्मास्तिकाय आदि के देश और उनके प्रदेश होने से अजाब, अजीव-देश और अजीव-प्रदेश भी होते हैं । जो जीव देश हैं, वे पथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों के देग अवय होते हैं। यह प्रथम विकल्प है। द्विक-संयोगी विकल्प इस प्रकार है। अथवा एकेन्द्रियों के ब्रहत देश और बेइन्द्रिय कदाचित् होने से उसका एक देश होता है । यद्यपि लोकान्त में बेइन्द्रिय जीव नहीं होता, तथापि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाला बेइंद्रिय जीव मरण-समुद्घात द्वारा उत्पत्ति देश को प्राप्त होता है, इस अपेक्षा से यह विकल्प बनता है । इस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में आग्नेयी दिशा के विषय में जो भंग कह गये हैं, वे यहां कहने चाहिय । यथा-1 एकेन्द्रियों के देश और एक बंइन्द्रिय का देश । २ अथवा एकेन्द्रियों के देश और बेइन्द्रिय के देश ।। अथवा एकेन्द्रियों के देश और बेइन्द्रियों के देश । ४ अथवा-केन्द्रियों के देवा और एक तेइन्द्रिय का दश । ५ अथवा-एकेन्द्रियों के देश और तेइन्द्रिय के देश । ६ अथवा -एकेन्द्रियों के देश और तेइन्द्रियों के देश। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के तीन तीन भंग कहने चाहिये । अनिन्द्रिय के भंग भी इसी प्रकार समझने चाहिये । परन्तु आग्नेयी दिशा के विषय में वहाँ तीन भंग कहे हैं. उनमें से 'एकेन्द्रियों के देश ओर.. अनिन्द्रिय का देश' यह प्रथम भंग यहाँ नहीं कहना चाहिये । क्योंकि केवली-समुद्घात के समय आत्म-प्रदेश कपटाकार होते हैं. तब पूर्व-दिशा के चरमान्त में प्रदेशों की वृद्धिहानि होने से विषमता होती है। इसलिये लोक के दन्तक (दांतों में-विषम स्थानों) में अनिन्द्रिय जीव के (केवलज्ञानी के) बहुत देशों का सम्भव है, एक देश का नहीं । इसलिये ऊपर कहा हुआ भंग अनिन्द्रिय में लागू नहीं होता। अरूपी अजीवों के छह प्रकार कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं । १ धर्मास्तिकाय देश २ धर्मास्तिकाय प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय देश ४ अधर्मास्तिकाय प्रदेश ५ आकाशास्तिकाय देश क्षौर ६ आकांशास्तिकाय प्रदेश । समय क्षेत्र का अभाव होने से वहाँ अद्धासमय नहीं है। देश भंगों में एकेन्द्रिय सम्बन्धी असंयोगी एक भंग होता है । एकन्द्रिय के साथ क्रमशः बेइन्द्रिय, तेइंन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय के तीन-तीन भंग होते हैं । अनिन्द्रिय For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७८ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जाव का अस्तित्व के दो भंग होते हैं। इस प्रकार द्विक-संयोगो चोदह भंग होते हैं । इसा प्रकार प्रदेश भगों में असंयोगी एक और ट्रिक-संयोगी दस भंग होते हैं । लोक के ऊपर के चरमान्त में सिद्ध हैं। इसलिय वहाँ एकेन्द्रियों के देश और अनिन्द्रियों के देश होते हैं । इसलिये यह असंयोगी एक भंग होता है । द्विक-संयोगी दो-दो भंग कहने चाहिये, क्योंकि 'एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश तथा एक बेइन्द्रिय के देश' यह बीच का भंग घटित नहीं होता । क्योंकि कोई भी बेइन्द्रिय मरण-समदघात द्वारा मर कर ऊपर के चरमान्त में रहे हुए एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो, तो भी प्रदेश की हानिवृद्धि से होने वाला लोक-दन्तक (विषम भाग) नहीं होने से पूर्व चरमान्त के समान वहाँ बेइन्द्रिय के अनेक देश सम्भवित नहीं होते। पूर्व चरमान्त में तो प्रदेश को हानि-वृद्धि से होने वाला अनेक प्रतरात्मक लोक-दन्तक होने के कारण वहाँ बेइन्द्रिय जीवों के अनेक देश संभवित होते हैं । इसलिये ऊपर के चरमान्त में मध्यम भंग रहित द्विक-संयोगी दो-दो भग यावत् पञ्चेन्द्रिय तक जानने चाहिये। ___ 'एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश एवं बेइन्द्रिय का एक प्रदेश' यह प्रथम भंग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि वे इन्द्रिय का एक प्रदेश' असम्भव है, क्योंकि केवली. समुद्घात के समय लोकव्यापक अवस्था के अतिरिक्त जहाँ किसी भी जीव का एक प्रदेश होता है, वहाँ नियमतः उसके असंख्यात प्रदेश होते हैं। एकेन्द्रिय जीव तो लोक में सर्वत्र हाते ही हैं ओर अनिन्द्रिय (सिद्ध)लोक के ऊपर के चरमान्त में नित्य मिलते ही हैं। अतः एकेन्द्रिय और अनिन्द्रिय-दोनों को साथ असंयोगा आदि भंगों में लिये गये है । इसलिये यहाँ देश और प्रदेश आश्रयी भंगों में असंयोगी एक और द्विक-संयोगी आठ, ये नव-नव भंग होते हैं। जिस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में तमा-दिशा के विषय में अजीवों की वक्तव्यता कही गई, उसी प्रकार ऊपर के चरमान्त के विषय में भी कहनी चाहिये । यथारूपी अजीव के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल, ये चार भेद और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश, ये अरूपी के छह भेद, इस प्रकार अजीव के दस भेद होते हैं। नीचे के चरमान्त में 'एकेन्द्रियों के बहुत देश' यह असंयोगी एक ही भंग बनता है और द्विक-संयोगी वेइन्द्रिय के साथ दो भंग होते हैं । यथा-१ एकेन्द्रियों के बहुत देश और इन्द्रिय का एक देश । २ एकेन्द्रियों के बहुत देश और बेइन्द्रियों के वहुत देश । 'एकेन्द्रियों For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व २५४९ के बहुत देश और वेइन्द्रिय के बहुत देश' यह बीच का भंग लोक-दन्तक का अभाव होने से नहीं बनता है । इस प्रकार तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेंद्रिय और अनिन्द्रिय के साथ दोदो भंग होते हैं । इस प्रकार जीव-देश आश्रयो ग्यारह भंग होते हैं । यहाँ जीव-प्रदेश आश्रयी भंग इस प्रकार कहने चाहिये । यथा-एकेन्द्रियों के प्रदेश और बेइन्द्रिय के प्रदेश । एकेन्द्रियों के प्रदेश और वेइन्द्रियों के प्रदेश । इस प्रकार तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय के प्रदेश के विषय में भंग जानने चाहिये । केवल 'एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और वेइन्द्रिय का प्रदेश'-यह प्रथम भंग असम्भवित होने से घटित नहीं हो सकता । 'एकेद्रिय के बहुत प्रदेश'-इस असंयोगी एक भंग को मिलाने से जीव-प्रदेश आश्रयी ग्यारह भंग होते हैं । ऊपर के चरमान्त में कहे अनुसार रूपी अजीव के चार और अरूपी अजीव के छह, ये सब मिल कर अजीवों के दस भेद होते हैं। ६ प्रश्न-इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छ । ६ उत्तर-गोयमा ! णो जीवा, एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले, उवरिल्ले तहेव, जहा दसमसए विमला दिसा तहेव गिरवसेस । हेछिल्ले चरिमंते जहेव लोग स्म हेट्ठिल्ले चरिमंते तहेव, णवरं देसे पंचिंदिएसु तियभंगो त्ति सेसं तं चेव । एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सक्करप्पभाए वि, उवरिम हेछिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले । एवं जाव अहेसत्तमाए । एवं सोहम्मस्स वि जाव अच्चुयस्स । गेविजविमाणाणं एवं चेव, णवरं उवरिम हेडिल्लेसु चरिमंतेसु देसेसु पंचिंदियाण वि मझिल्लविरहिओ चेव, सेसं तहेव । एवं जहा गेवेज For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व विमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिप-भारा वि । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि प्रश्न । ६ उत्तर-हे गौतम ! वहां जीव नहीं है । जिस प्रकार लोक के चार चरमान्त कहे गये हैं, उसी प्रकार रत्नप्रभा के चार चरमान्तों के विषय मे यावत उत्तर के चरमान्त तक कहना चाहिये । दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित विमला दिशा की वक्तव्यता के अनुसार इस रत्नप्रभा के उपरिम चरमान्त के विषय में सम्पूर्ण कहना चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के अधस्तन चरमान्त का कथन, लोक के अधस्तन चरमान्त के समान कहना चाहिये । विशेषता यह है कि जीवदेशों के विषय में पञ्चेंद्रियों के तीन भंग कहने चाहिये । शेष सभी उसी प्रकार कहना चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के समान शर्कराप्रभा पृथ्वी के भी चार चरमान्त कहने चाहिये । रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमात के समान शर्कराप्रभा का ऊपर का और नीचे का चरमांत कहना चाहिये । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिये । सौधर्म देवलोक यावत् अच्युत देवलोक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । ग्रेवेयक विमानों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेषता यह है कि उनमें ऊपर के और नीचे के चरमान्त के विषय में, देश के सम्बन्ध में पञ्चेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना, शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये । वेयक विमानों के समान अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी का कथन भी करना चाहिये। विवेचन-रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्त का कथन लोक के चार चरमान्त के समान कहना चाहिये । दसवें शतक के प्रथम उद्देशक में जिस प्रकार विमला दिशा के सम्बन्ध में कहा गया, उसी प्रकार रत्नप्रभा के ऊपर के चरमान्त के विषय में कहना चाहिए। यथा-वहाँ जीव नहीं हैं, क्योंकि वह एक प्रदेश के प्रतर रूप होने से उसमें जीव नहीं समा सकते, परन्तु जीव-देश और जीव-प्रदेश रह सकते हैं। उम में जो जंव के देश हैं, बे अवश्य For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ लोक के अन्त में जीव का अस्तित्व २५८१ एकेन्द्रिय जीव के देश होते हैं । १ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत देश और वेइन्द्रिय का एक देश, २ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत देश और बेइन्द्रिय के बहुत देश, ३ अथवा-एकेन्दिय के बहुत देश और बेइन्द्रियों के बहुत देश-ये तीन भंग होते हैं। क्योकि रत्नप्रभा में बेइन्द्रिय होते हैं और वे एकेन्द्रियों की अपेक्षा थोड़ होते हैं। इसलिये उसके ऊपर के चरमांत में बेइन्द्रिय का एक देश अथवा बहुत देश सम्भवित हैं । इसी प्रकार तेइन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक प्रत्येक के तीन-तीन भंग, जीव-देश आश्रयी कहना चाहिये। वहाँ जो जीव के प्रदेश हैं, वे अवश्य एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं । १ अथवा-एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश और बेइन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं । २ अथवा-एकेन्द्रिय जीव के बहुत प्रदेश और वेइन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार ते इन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिम तक के भी दो-दो भंग जानने चाहिये । वहां रूपी अजीव के चार भेद और अरूपी अजीव के सात भेद होते हैं, क्योंकि वह समय-क्षेत्र के भीतर होने से वहाँ अद्धा-समय (काल) भी होता है । रत्नप्रभा के चरमान्त आश्रयी देश विधयक भंगों में असंयोगी एक और द्विक संयोगी पन्द्रह, ये कुल सोलह भंग होते हैं । तथा प्रदेशापेक्षा असंयोगी एक और द्विक संयोगी दस, य कुल ग्यारह भंग होते हैं । जिस प्रकार लोक के नीचे के चरमान्त का कथन किया गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त का भी कथन करना चाहिये । विशेषता यह है कि लोक के नीचे के चरमान्त में जीव-देश सम्बन्धी बेइन्द्रियादि के मध्यम भंग रहित दो-दो भंग कहे गये हैं, परन्तु यहां पञ्चेन्द्रिय के तीन भंग कहना चाहिये और पञ्चेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष जीवों के दो-दो भंग कहने चाहिये । क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में देव रूप पञ्चेन्द्रिय जीवों के गमनागमन से पञ्चेन्द्रिय का एक देश और पञ्चेन्द्रिय के बहुत देश सम्भवित होते हैं । इसलिये यहां पचेंन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिये । बेइन्द्रिय आदि तो रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में मरण-समुद्घात से जाते हैं, तभी उनका संभव होने से वहाँ उनका देश ही सम्भवित हैं, बहुत देश सम्भवित नहीं, क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त एक प्रतर रूप होने से बहुत देशों का हेतु नहीं बन सकता । रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्तों के समान शर्कराप्रभा आदि छह नरक, बारह देवलोक, नव ग्रेवेयक, पांच अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी, इनके पूर्वादि चारों चरमान्तों का कथन करना चाहिये ।। जिस प्रकार रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभादि For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८२ भगवती सूत्र-श. १६ उ ८ परमाणु की एक समय में गति शेष नरक और सौधर्म से लेकर अच्युत तक देवलोकों के ऊपर और नीचे के चरमान्त सम्बन्धी जीव-देश आश्रयी असंयोगी एक और द्विक-संयोगी ग्यारह. ये कुल बारह बारह भंग होते हैं। तथा प्रदेशापेक्षा असंयोगी एक और द्विक संयोगी दस, ये कूल ग्यारह-ग्यारह भंग होते हैं । अर्थात् शर्कराप्रभा के ऊपर का तथा नीचे का चरमान्त, रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त के समान जानना चाहिए। वहां बेइन्द्रिय आदि के जीव-देश की अपेक्षा मध्यम भंग रहित दो-दो भंग और पञ्चेन्द्रिय के तीन भंग होते हैं । जोव-प्रदेश की अपेक्षा वेइन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक सभी के प्रथम भंग रहित शेष दो-दो भंग होते हैं । अजीव आश्रयी रूपी अजीव के चार और अरूपी अजीव के छह भेद होते हैं। शर्कराप्रभा के समान शेष सभी नरक पृथ्वियों और सौधर्म से लेकर ईषत्प्राग्भारा की वक्तव्यता जाननी चाहिये । विशेषता यह है कि जीव-देश की अपेक्षा अच्युत देवलोक तक देवों का गमनागमन सम्भव होने से पञ्चेन्द्रिय के तीन भंग होते हैं और बेइन्द्रिय आदि के दो-दो भंग होते हैं । ग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानों में और ईपत्प्राग्भारा पृथ्वी में देवों का गमनागमन न होने से पञ्चेन्द्रिय के भी दो-दो भंग कहने चाहिये । परमाणु की एक समय में गति ७ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छइ, पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छइ, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव गच्छइ, उत्तरिल्लाओ० दाहिणिल्लं जाव गच्छइ, उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्टिल्लं चरिमंतं जाव गच्छइ, हेछिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छइ ? ७ उत्तर-हंता गोयमा ! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरच्छि. For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १६ उ. ८ वर्षा का पता लगाने में पाँच क्रिया २५८३ मिल्लं तं चेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं गच्छइ । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त में, पश्चिम चरमान्त से पूर्व चरमान्त में, दक्षिण चरमान्त से उत्तर चरमान्त में, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त में, ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त में और नीचे के चरमांत से ऊपर के चरमांत में जाता है ? ___७ उत्तर-हां गौतम ! परमाणु पुदगल एक समय में लोक के पूर्व चरमांत से पश्चिम चरमांत में यावत् नीचे के चरमांत से ऊपर के चरमांत में जाता है। वर्षा का पता लगाने में पाँच क्रिया ८ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! वासं वासइ, वासं णो वासईइ हत्थं वा पायं वा वाहुं वा उरुं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा कइ. किरिए ? ८ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वासइ वासं णो वासईइ, हत्थं वा जाव उरुं वा आउंटावेइ वा पसारेइ वा, तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे। कठिन शब्दार्थ-वासं-वर्षा, आउंटावेमाणे-संकोचित करते हुए। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! वर्षा बरसती है या नहीं-यह जानने के लिये कोई पुरुष अपने हाथ, पैर, बाहु या उरु को संकुचित करे या फैलावे, For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८४ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ अलोक में देव को भी गति नहीं तो उस पुरुष को कितनी क्रिया लगती है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वर्षा बरसती है या नहीं-यह जानने के लिये जो पुरुष अपने हाथ यावत् उरु को संकुचित करता है या पसारता है, उस पुरुष को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। अलोक में देव की भी गति नहीं ... ९ प्रश्न-देवे णं भंते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे लोगते ठिचा पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव उरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? ९ उत्तर-णो इणढे समढे। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-'देवे णं महिड्ढिए जाव लोगंते ठिचा णो पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव पसारेत्तए वा' ? उत्तर-गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गइपरियाए आहिजइ, अलोए णं णेवत्थि जीवा, णेवत्थि पोग्गला; से तेणटेणं जाव पसारेत्तए वा । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सोलसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ. ८ अलोक में देव की भी गति नहीं कठिन शब्दार्थ - णेव त्थि नहीं । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् उरु को संकोचने और पसारने में समर्थ है ? ९ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि महद्धिक देव लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् उरु को संकोचने और पसारने में समर्थ नहीं है ? उत्तर - हे गौतम! जीवों के अनुगत आहारोपचित, शरीरोपचित और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं। तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गति पर्याय कही गई है। अलोक में जीव नहीं है और पुद्गल भी नहीं है । इसलिये पूर्वोक्त देव यावत् पसारने में समर्थ नहीं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - जीवों के साथ रहे हुए पुद्गल, आहार रूप में, शरीर रूप में, कलेवर रूप में तथा श्वासोच्छ्वास आदि रूप में उपचित होते हैं अर्थात् पुद्गल सदा जीवानुगामी स्वभाव वाले होते हैं । जिस क्षेत्र में जोव होते हैं, वहीं पुद्गलों की गति होती है । इसी प्रकार पुद्गलों के आश्रित जीवों का और पुद्गलों का गति धम होता है । तात्पर्य यह है कि जिस क्षेत्र में पुद्गल होते हैं, उसी क्षेत्र में जीवों की और पुद्गलों की गति होती है । अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है, इसलिये वहाँ जीव और पुद्गल भी नहीं है और जीवों और पुद्गलों की गति भी नहीं होती । || सोलहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २५८५ For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक ₹ वैरोचनेन्द्र की सुधर्मा सभा कहां है ? १. प्रश्न - कहि णं भंते ! वलिस्स वडरोयणिदस्स वडरायणरणो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे जहेव चमरस्स जाव वायालीसं जोयणसहस्रसाई ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स वइरोयदिस्स वइरोयणरणो स्यगिंदे णामं उपायपव्वर पण्णत्ते । मतरस एकवीसे जोयणसए एवं पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स । पासायवडेंसगग्स वि तं चैव पमाणं, सीहासणं सपरिवारं बलिम्स परियारेणं. अट्टो तहेव, णवरं रुयगिंदप्पभाई ३, सेसं तं चैव, जब पलिचंचाए रायहाणी अण्णेसिं च जाव रुयगिंदसणं उप्पायपव्वयस्स उत्तरेणं छकोडिसए तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्सा ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स वहरोयदिस्स वइरोयणरणो वलिचंचा णामं रायहाणी पण्णत्ता । एवं जोयणसयसहस्सं पमाणं, तहेव जाव वलिपेदस्स उववाओ जाव आयरक्खा सव्वं तदेव निरवसेसं: णवरं साइरेगं सागरोवमं टिई पण्णत्ता, सेसं तं चैव जाव वली वइरोयणिंदे वली ० २ । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ || सोलसमे सए वो उस समत्तो || For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ५ वैरोचनेन्द्र की सुधर्मा सभा कहां है ? २५८७ कठिन शब्दार्थ-उप्पायपव्वए-उत्पात पर्वत । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि को सुधर्मा सभा कहां कही गई है ? १ उत्तर-हे गौतम ! जम्न द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में तिरछा असंख्येय द्वीप-समद्रों को उल्लंघ कर इत्यादि दूसरे शतक के आठवें उद्देशक में. चमर की वक्तव्यता कहीं है, उसी प्रकार अरुणवर द्वीप की बाह्य वेदिका से अरुणवर समुद्र में बयालीस हजार योजन अवगाहन करने के पश्चात् वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात पर्वत है । वह उत्पात पर्वत १७२१ योजन ऊँचा है। शेष उसका सभी परिमाण तिगिच्छकूट पर्वत के समान जानना चाहिये । उसके प्रासादावतंसक का परिमाण भी उसी प्रकार जानना चाहिये। तथा बलि के परिवार सहित सपरिवार सिंहासन तथा रुचकेन्द्र नाम का अर्थ भी उसी प्रकार जानना चाहिये । विशेषता यह है कि यहां रुचकेन्द्र (रत्नविशेष) की प्रभा वाले उत्पलादि हैं। शेष सभी उसी प्रकार है यावत् वह बलिचंचा राजधानी तथा अन्यों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। उस रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत के उत्तर में छह सौ पचपन करोड़ तीस लाख, पचास हजार योजन अरुणोदय समुद्र में तिरछा जाने पर नीचे रत्नप्रभा पथ्वी में इत्यादि पूर्ववत् यावत् चालीस हजार योजन जाने के पश्चात् वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की 'बलिचंचा' नामक राजधानी है। उस राजधानी का विष्कम्भ (विस्तार) एक लाख योजन है । शेष सभी प्रमाण पूर्ववत् जानना चाहिये यावत् 'बलिपीठ' तक कहना चाहिये । तथा उपपात यावत् आत्म-रक्षक यह सभी पूर्ववत् कहना चाहिये । विशेषता यह है कि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की स्थिति सागरोपम से कुछ अधिक कही गई है। शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये, यावत् 'वैरोचनेन्द्र बलि है, वैरोचनेन्द्र बलि है'-तक कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८८ भगवती सूत्र-श. १६ उ. १० अवधिज्ञान के प्रकार विवेचन-जिस प्रकार दूसरे शतक के आठवें उद्देशक में चमरेन्द्र की मुधर्मा सभा के विषय में वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार बलि के विषय में भी कहनी चाहिये । वहाँ जिस प्रकार तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत का प्रमाण कहा है, उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र नामक उत्पात पर्वत का प्रमाण है। तिगिच्छकुट पर्वत के ऊपर रहे हुए प्रासादावतंसकों का जो प्रमाण कहा गया है, वही प्रमाण रुचकेंद्र नामक उत्पात पर्वत पर रहे हुए प्रासादावतंसकों का है। उन प्रासादावतंसकों के मध्यभाग में रहे हए बलि का सिंहासन तथा उसके परिवार के सिंहासनों का वर्णन चमरेन्द्र के समान जानना चाहिये । विशेषता यह है कि बलि के सामानिक देवों के सिंहासन साठ हजार हैं और आत्म-रक्षक देवों के आसन उनसे चौगुणा हैं । जिन प्रकार तिगिच्छकूट नाम का अन्वर्थ कहा गया, उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र का भी अन्वर्थ कहना चाहिये। वहाँ तिगिच्छकट में तिगिच्छरत्नों की प्रभा वाले उत्पलादि हैं । इसलिये तिगिच्छकूट कहलाता है। उसी प्रकार यहाँ रुचकेंद्र रत्नों की प्रभा वाले उत्पलादि हैं। इसलिये रुचकेंद्रकट कहलाता है। नगरी का प्रमाण कहने के पश्चात प्राकार उसके द्वार, उपकारिकालयन, द्वार के ऊपर के गृह, प्रासादावतंसक, मुधर्म सभा, चैत्य भवन (सिद्धायतन) उपपात सभा, हृद, अभिषेक सभा, आलंकारिक सभा और व्यवसाय सभा आदि का स्वरूप और प्रमाण वलिपीठ के वर्णन तक कहना चाहिये । ॥ सोलहवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक १० अवधिज्ञान के प्रकार १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! ओही पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! दुविहा ओही पण्णत्ता । ओहीपदं गिरव For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १६ उ ११ द्वीपकुमारों की वक्तव्यता सेसं भाणियव्वं । * सेवं भंते! मेवं भंते ! जाव विहरs || सोलममे मए दममो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - ओही-अवधि | भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा है ? १ उत्तर - हे गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा है। यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का ३३ वाँ अवधिपद सम्पूर्ण कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन अवधि दो प्रकार का कहा गया है । यथा-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक | देव और नरयिकों के भवप्रत्ययिक अवधि होता है और मनुष्य तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों के क्षायोपशमिक अवधि होता है । इसका विशेष विवरण प्रज्ञापना सूत्र ३३ वें अवधपद में है । || सोलहवें शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण || २५८९ शतक १६ उद्देशक ११ द्वीपकुमारों की वक्तव्यता १ प्रश्न - दीवकुमाराणं भंते! सव्वे समाहारा, सव्वे समुस्सा For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९० भगवती सूत्र-श. १६ उ. ११ डीपकुमारों की वक्तव्यता सणिसासा? १ उत्तर-णो इणटे समढे । एवं जहा पढमसए विइयउद्देसए दीवकुमाराणं वत्तव्वया तहेव जाव समाउया, समुस्सासणिस्सासा । २ प्रश्न-दीवकुमारो णं भंते ! कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा१ कण्हलेस्सा जाव ४ तेउलेस्सा। ___३ प्रश्न-एएसिं णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउ. लेस्सा असंखेजगुणा, णीललेस्सा विमेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसा. हिया। ४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेसाणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पड्ढिया वा महड्ढिया वा ? ४ उत्तर-गोयमा ! कण्हलेस्साहितो णीललेस्सा महड्ढिया जाव सव्वमहड्ढिया तेउलेस्सा। 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ * ॥ सोलसमे सए इक्कारसमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-समाउया-समान आयुष्य वाले । For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ११ द्वीपकुमारों की वक्तव्यता २५९१ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! समी द्वीपकुमार, समान आहार वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । यहां प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक में द्वीपकुमारों की जो वक्तव्यता कही, वह सभी कहनी चाहिये यावत् कितने ही विषम आयुष्य वाले और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं-यहां तक कहना चाहिये। २ प्रश्न-हे भगवन् ! द्वीपकुमारों के कितनी लेश्याएँ कही हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! उनके चार लेश्याएँ कही हैं। यथा-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या । ३ प्रश्न-हे भगवन ! कृष्णलेश्या वाले यावत तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमारों में कौन किस से यावत् विशेषाधिक हैं ? .३ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़े द्वीपकुमार तेजोलेश्या वाले हैं, कापोतलेश्या वाले उनसे असंख्यात गुण हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं। ___४ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमारों में कौन किन से अल्पद्धिक और महद्धिक हैं ? ___४ उत्तर-हे गौतम ! कृष्णलेश्या वाले द्वीपकुमारों से नीललेश्या वाले द्वीपकुमार महद्धिक हैं यावत् तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमार सभी से महद्धिक हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विवरते हैं । ॥ सोलहवें शतक का ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक १२-१३-१४ उदधिकुमार दिशाकुमार स्तानतकुमार १ प्रश्न-उदहिकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा०? १ उत्तर-एवं चेव ! 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति । (१६.१२) एवं दिसाकुमारा वि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । (१६.१३) एवं थणियकुमारा वि । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ(१६-१४)। ॥ सोलसमे सए १२-१३-१४ उद्देसा समत्ता ॥ ॥ सोलसमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्य-समाहारा-समान आहार वाले । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी उदधिकुमार, समान आहार वाले है, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । १ उत्तर-हे गौतम ! सभी पूर्ववत् कहना चाहिये। . इसी प्रकार दिशाकुमारों के विषय में तेरहवां उद्देशक जानना चाहिये। इसी प्रकार स्तनित कुमारों के विषय में चौदहवां उद्देशक जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैयों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ सोलहवें शतक का बारहवां, तेरहवां, चौदहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ सोलहवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७. णमो सुयदेवयाए भगवईए कुंजर संजय सेलेसि किरिय ईसाण पुढवि दग वाऊ । एगिदिय णाग सुवण्ण विज्जु वायुऽग्गि सत्तरसे ॥ भावार्थ-१ कुंजर अर्थात् कोणिक राजा के हाथी के विषय में पहला उद्देशक, २ संयतादि के विषय में दूसरा, ३ शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार विषयक तीसरा, ४ क्रिया विषयक चौथा, ५ ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा के विषय में पांचवां, ६-७ पृथ्वीकाय के विषय में छठा और सातवां, ८-९ अप्काय के विषय में आठवां और नौवाँ, १०-११ वायुकाय के विषय में दसवां और ग्यारहवां, १२ एकेन्द्रिय जीवों के विषय में बारहवां, १३-१७ नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार और अग्निकुमार देवों के विषय मे क्रमशः तेरह से ले कर सतरह उद्देशक हैं । इस प्रकार सतरहवें शतक में सतरह उद्देशक कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक १ गजराज की गति-आगति १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-उदायी णं भंते ! हस्थिराया कओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववण्णे ? १ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारेहिंतो देवेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववण्णे । २ प्रश्न-उदायी णं भंते ! हत्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ ? २ उत्तर-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्टिइयंसि णिरयावासंसि णेरइयत्ताए उववजिहिइ । ३ प्रश्न-से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ ? ३ उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिह। ___४ प्रश्न-भूयाणंदे णं भंते ! हथिराया कओहिंतो अणंतरं उन्वट्टित्ता भूयाणंदे हत्थिरायत्ताए ? .. ४ उत्तर-एवं जहेव उदायी जाव अंतं काहिइ । कठिन शब्दार्थ-कओहितो-कहां से ? काहिइ-करेंगे । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १७ उ १ पुरुष और तील वृक्ष को क्रिया पूछा - " हे भगवन् ! उदायी नामक प्रधान गजराज, किस गति से मर कर यहाँ उत्पन्न हुआ ?" १ उत्तर - हे गौतम ! असुरकुमार देवों में से मर कर यहाँ उत्पन्न हुआ । २ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उदायी नामक प्रधान हस्ती यहाँ से काल करके कहाँ जायगा ? कहां उत्पन्न होगा ? २ उत्तर - हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावास में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! वह रत्नप्रभा पृथ्वी से अन्तर रहित निकल कर कहां जायगा, कहां उत्पन्न होगा ? ३ उत्तर - हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! भूतानन्द नामक प्रधान हस्ती, किस गति में से मर कर यहां उत्पन्न हुआ ? ४ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार उदायी नामक प्रधान हस्ती की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार भूतानन्द हस्तीराज की भी जाननी चाहिए यावत् वह सभी दुःखों का अन्त करेगा । २५९५ विवेचन - उदायी और भूतानन्द, ये दोनों श्रेणिक राजा के पुत्र कोणिक राजा के प्रधान हस्ती थे । पुरुष और ताल वृक्ष को क्रिया ५ प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! तालमारुहइ, तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेमा वा पवाडेमाणे वा कइ किरिए ? For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९६ . भगवती सूत्र-श । उ ५ पृरूप और ताल का को जिया ५ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तालमारुहइ, तालमारुहित्ता तालाओ तालफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे; जेसि पि णं सरीरेहिंतो ताले णिव्वत्तिए तालफले णिव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा । ६ प्रश्न-अहे णं भंते ! से तालफले अप्पणो गरुयत्ताए जाव पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाइं जाव जीवियाओ ववरोवेइ तएणं भंते ! से पुरिमे कइकिरिए ? | ६ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तालफले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिने काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे; जेसि पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो तले णिवत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुष्टा; जेसि पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तालफले णिवत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढा, जे वि य से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्टा । ___ ७ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कइकिरिए ? ७ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पच . For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भूत्र--१५ ५ पुप और ताल वृक्ष को क्रिया २५९७ लेइ वा, पवाडेइ वा तावं च णं मे पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरहिंतो मूले णिव्यत्तिए जाव वोए णिब्बत्तिए, ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। कठिन शब्दार्थ-तालमारुहइ-ताल के वृक्ष पर चढ़, पचालेमाणे-चलाता हुआ, पवाडेमाणे-नीचे गिराता हुअा, णिवत्तिए-उत्पन्न हुआ, निष्पन्न हुआ, गरुयत्ताए-भारीपन मे, ववरोवेइ-घात करने वाला हो, वोससाए-म्या भाविक रूप से । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन ! कोई पुरुष, ताड़ के वृक्ष पर चढ़े और उसके फलों को हिलावे या नीचे गिरावे, तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जब तक वह पुरुष, ताड़ के वृक्ष पर चढ़ कर ताड़ के फल को हिलाता है या नीचे गिराता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर द्वारा ताड़-वृक्ष और ताड़फल उत्पन्न हुआ है, उन जीवों को भी कायिको आदि पाँच क्रियाएँ लगती हैं। ६ उत्तर-हे भगवन् ! उस पुरुष के द्वारा हिलाने या तोड़ने पर वह ताड़-फल अपने भार के कारण यावत् नीचे गिरे और उस ताड़-फल द्वारा जो जीव यावत् जीवित से रहित हो जाते हैं, तो उससे उस फल तोड़ने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जब वह पुरुष उस फल को तोड़ता है और वह फल अपने भार से नीचे गिरता हुआ जीवों को यावत् जीवित से रहित करता है, तब वह पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवों के शरीर से ताड़-वृक्ष निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को यावत् चार क्रियाएँ लगती है। जिन जीवों के शरीर से ताड़-फल निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। जो जीव नीचे पड़ते हुए ताड़-फल के लिये स्वा For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९८ भगवती सूत्र-स. १७ उ. १ पुरुष और ताल वृक्ष को क्रिया भाविक रूप से उपकार होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष वृक्ष के मूल को हिलावें या नीचे गिरावे, तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! वक्ष के मल को हिलाने वाले या नीचे गिराने वाले पुरुष को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं और जिन जीवों के शरीर से मूल यावत् बीज निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। ८ प्रश्न-अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो मरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेइ तओ णं भंते ! से पुरिमे कइकिरिए ? . ८ उत्तर-गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे; जेसिं पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे णिव्वत्तिए जाव वीए णिव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चरहिं पुट्टा; जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले णिव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा; जे वि य णं से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवय. माणस्स उवग्गहे वटुंति ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। ९ प्रश्न-पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स कंदं पचालेइ० ? । ९ उत्तर-गोयमा ! तावं च णं से पुरिसे जाव पंचहिं किरि For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १. १७ उ १ पुरुष और ताल वृक्ष को क्रिया याहिं पुढे, जेमिं पिणं जीवाणं मगेरेहिंतो मूले णिव्वत्तिए जाव वीए णिव्वत्तिय ते विणं जीवा पंचहिं किरियाहिं पुट्टा । १० प्रश्न - अहं णं भंते ! से कंदे अपणो० ? १० उत्तर - जाव चउहिं पुढे जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले वित्तिए, खं णिव्यत्तिए जाव चउहिं पुट्टा जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे णिव्वत्तिए ते वि य णं जीवा जाव पंचहिं पुट्ठा; जेविय से जीवा अहे वीससाए पञ्च्चोवयमाणस्स जाव पंचहिं पुट्टा जहा कंदे, एवं जाव वीयं । भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! वह मूल अपने भार के कारण नीचे गिरे यावत् जीवों का हनन करे, तो उस मूल को हिलाने वाले यावत् नीचे गिराने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? २५९९ ८ उत्तरर हे गौतम! जब वह मूल अपने भार के कारण नीचे गिरता है और दूसरे जीवों को घात करता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं । जिन जीवों के शरीर से वह कन्द निष्पन्न हुआ है यावत् बीज निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं । तथा जो जीव नीचे गिरते हुए मूल के स्वाभाविक उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! कोई पुरुष, वृक्ष के कन्द को हिलावे या नीचे गिरावे, तो उसको कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम ! कन्द को हिलाने वाले या नीचे गिराने बाले पुरुष को काकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल यावत् ata froन हुआ है, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं । For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०० भगवती सूत्र-स. १७ उ. १ पुरुप और ताल वृक्ष को क्रिया १० प्रश्न-हे भगवन् ! वह कन्द अपने भार के कारण नीचे गिरे यावत् जीवों को घात करे, तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? १० उत्तर-हे गौतम! उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएं लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल, स्कन्ध आदि निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिको आदि पाँच क्रियाएँ लगती हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए उस कन्द के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं। कन्द के समान यावत् बीज तक कहना चाहिये । विवेचन-१- कोई पृरुप ताड़ वृक्ष को हिलाता है या उसके फल को नीचे गिराता है, तो ताड़-फल के जीवों की और ताड़-फल के आश्रित जीवों की हिमा करता है । जो प्राणातिपात रूप क्रिया करता है, वह कायिकी आदि चार क्रियाएँ भी अवश्य करता है । इसलिये उस पुरुष को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं । २-नाड़-वक्ष और ताड़फल के जीवों को भी पूर्वोक्त पांचों क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि वे स्पर्शादि द्वारा दूसरे जीवों को साक्षात् मारते हैं । ३-जब पुरुष ताड़-फल को हिलाता है या तोड़ता है, तत्पश्चात् जब वह फल अपने भार से नीचे गिरता है और उस द्वारा अन्य जीवों की हिंसा होती है, तब उस पुरुष को चार क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि फल के गिरने से हिसा होती है, उसमें पुरुप साक्षात् कारण नहीं है, परम्परा कारण है । इसलिये उसे प्राणातिपातिकी क्रिया के अतिरिक्त शेष चार क्रियाएँ लगती है । ४-इसी प्रकार ताड़ वृक्ष को भी चार क्रियाएँ लगती हैं। ५-ताड़ फल के जीवों को पांच क्रियाएं लगती हैं। क्योंकि वे प्राणातिपात में साक्षात् कारण होते हैं । ६-नीचे गिरते हुए ताड़-फल के लिये जो जीव उपकारक होते हैं, उन्हें भी पूर्वोक्त युक्ति से पांच क्रियाएँ लगती हैं। इस प्रकार फल के विषय में छह क्रियास्थान कहे गये हैं । इसी प्रकार मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीन के विषय में भी पूर्वोक्त छह क्रिया-स्थान समझने चाहिये । क्रिया विषयक विशेष विचार पांचवें शतक के छठे उद्देशक में 'धनुष से वाण फेंकने वाले पुरुप' के प्रकरण में किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १७ उ. १ शरीर इन्द्रियां योग . २६०१ शरीर इन्द्रियाँ योग ११ प्रश्न-कइ णं भंते ! सरोरगा पण्णत्ता ? ११ उत्तर-गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-१ ओरा. लिए जाव कम्मए । १२ प्रश्न-कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? १२ उत्तर-गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा-१ सोइं. दिए जाव ५ फासिदिए। १३ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! जोए पण्णते ? १३ उत्तर-गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-मणजोए, वयजोए, कायजोए। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर कितने कहे गये हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! शरीर पांच कहे गये हैं। यथा-औदारिक यावत् कार्मण। १२ प्रश्न-हे भगवन ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रियां पांच कही गई हैं। यथा-श्रोतेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! योग तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा-मनयोग, वचनयोग और काययोग । For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०२ भगवती सूत्र-ग. १७ उ. १ गरीर इन्दियो योग १४ प्रश्न-जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्तमाणे कइ. किरिए ? १४ उत्तर-गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए. सिय पंचकिरिए; एवं पुढविकाइए वि, एवं जाव मणुस्से । १५ प्रश्न-जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्तमाणा कइ. किरिया ? १५ उत्तर-गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि; एवं पुढ विकाइया वि, एवं जाव मणुस्सा । एवं वेउव्विय सरीरेण वि दो दंडगा, णवरं जस्स अस्थि वेउब्वियं, एवं जाव कम्मगसरीरं; एवं सोइंदियं जाव फासिदियं एवं मणयोगं, वयजोगं, कायजोगं, जस्स जं अत्थि तं भाणियव्यं; एए एगत्त-पहुत्तणं छन्वीसं दंडगा। कठिन शब्दार्थ-सिय-कदाचित् । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक शरीर को बनाता हुआ (बांधता हुआ) जीव कितनी क्रिया वाला होता है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक शरीर को बनाता हुआ जीव, कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार और पांच क्रिया वाला होता है। इसी प्रकार पृथ्वीकाय यावत् मनुष्य तक कहना चाहिए। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक शरीर बनाते हुए अनेक जीव, कितनी क्रिया वाले होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे कदाचित् तीन, चार और पांच क्रिया For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १७ उ. १ औदयिकादि भाव २६०३ वाले भी होते हैं। इसी प्रकार दण्डक क्रम से पृथ्वीकायिक से यावत् मनुष्य तक कहना चाहिये । इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी एक वचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो दण्डक कहने चाहिये, किंतु जिन जीवों के वैक्रिय शरीर हो, उन्हीं के विषय में कहना चाहिये। इसी प्रकार यावत् कार्मण शरीर तक कहना चाहिये। इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से यावत् स्पर्शनेन्द्रिय तक तथा इसी प्रकार मनयोग, वचनयोग और काययोग के विषय में, जिसके जो हो, उसके उस विषय में कहना चाहिये। ये सभी मिल कर एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी छन्वीस दण्डक कहने चाहिये । विवेचन-औदारिक गरीर आदि बनाता हुआ जीव जब तक दूसरे जीवों को परिताप आदि उत्पन्न नहीं करता, तब तक उसे कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी, ये तीन क्रियाएँ लगती हैं। जव दूसरे जीवों को परितापादि उत्पन्न करता है, तब पारितापनिको सहित चार क्रियाएं लगती हैं और जब जीव की हिंसा करता है, तब प्राणातिपातिकी सहित पांच क्रियाएँ लगती हैं । पांच शरीर, पांच इन्द्रियाँ और तीन योग, इनके एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी छब्बीस दण्डक होते हैं। औदयिकादि भाव १६ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! भावे पण्णत्ते ? १६ उत्तर-गोयमा ! छविहे भावे पण्णत्ते, तं जहा-१ उदइए, २ उवसमिए जाव ६ सण्णिवाइए। १७ प्रश्न-से किं तं उदइए ? १७ उत्तर-उदइए भावे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उदइए, उद For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०४ भगवती सुत्र-श ५.७ उ ५ औदारिका 'यणिफण्णे य; एवं एएणं अभिलावेणं जहा अणुओगदारे छण्णामं तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं जाव सेत्तं सण्णिवाइए भावे । * से भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ सत्तरसमसए पढमो उद्देसो समत्तो । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! भाव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ... १६ उत्तर-हे गौतम ! भाव छह प्रकार के कहे गये हैं । यथा-औदयिक, औपमिक यावत् सान्निपातिक । १७ प्रश्न-हे भगवन ! औदयिक भाव, कितने प्रकार का कहा गया है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! औदयिक भाव, दो प्रकार का कहा गया है, यथा-औदयिक और उदयनिष्पन्न । इस अभिलाप द्वारा अनुयोगद्वार सूत्रानुसार छह नामों की वक्तव्यता सान्निपातिक भाव तक कहनी चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-औदयिक भाव के दो भेद हैं-औदयिक और उदय निप्पन्न । आठ कम- . प्रकृतियों का उदय 'औदयिक' कहलाता है। उदय निप्पन्न के दो भेद हैं । यथा-जीवोदय निष्पन्न और अजोवोदय निष्पन्न । कर्म के उदय से जीव के होने वाले नारक, तिर्यच आदि पर्याय 'जीवोदय' निष्पन्न कहलाते हैं । कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय 'अजीवोदय निष्पन्न" कहलाते हैं । जैसे कि-औदारिकादि शरीर तथा औदारिकादि शरीर में रहे हए वर्णादि, ये औदारिक शरीर नामकमं के उदय से पुद्गल-द्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने मे 'अजीवोदप निप्पन्न' कहलाते हैं। ____ अनुयोगद्वार सूत्र में एक नाम से ले कर दस नाम आदि विषयक कथन है । उन में मे छह नाम की वक्तव्यता में छह भावों का स्वरूप बतलाया गया है । वहाँ मे जान लेना चाहिये। ॥ सतरहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक २ धर्मी अधर्मी और धर्माधर्मी १ प्रश्न - से पूर्ण भंते! मंजय- विरय-पडिहय-पच्चवखाय पावकम्मे धम्मे ठिए, असंजय- अविरय-अपडिहयपच्चवखायपावकम्मे अधम्मे ठिए, संजयासंजर धम्माधम्मे टिए ? १ उत्तर - हंता गोयमा ! संजय विरय जाव धम्माधम्मे ठिए । प्रश्न - एसि णं भंते! धम्मंसि वा अधम्मंसि वा, धम्माधम्मंसि वा चकिया के आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ? उत्तर- गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । प्रश्न - मे केणं खाइ अद्वेगं भंते ! एवं बुच्चइ - 'जाव धम्माधम्मे ठिए' । उत्तर - गोयमा ! संजय - विरय० जाव पावकम्मे धम्मे ठिए, धम्मं चेव उवसंपज्जित्ताणं विहरह; असंजय० जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए, अधम्मं चेव उवसंपजित्ता र्ण विहरह, संजया संजय धम्माधम्मे ठिए, धमाधम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, से तेणट्टेणं जाव ठिए । २ प्रश्न - जीवा णं भंते! किं धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माम्मे ठिया ? २ उत्तर - गोयमा ! जीवा धम्मे विटिया, अधम्मे विठिया, For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०६ भगवती सूत्र-श १७ उ. २ धर्मी अधर्मी और धर्माधर्मी धम्माधम्मे वि ठिया। ३ प्रश्न-णेरइआणं-पुच्छा। ३ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, णो धम्माधम्मे ठिया । एवं जाव चरिंदियाणं । ४ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं-पुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे वि ठिया । मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोइसिय माणिया जहा णेरड्या । कठिन शब्दार्थ-चक्किया-समर्थ है, आसइत्तए-बैठे। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया है, ऐसा जीव, धर्म में स्थित है ? असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव, अधर्म में स्थित है ? और संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थिर होता है ? १ उत्तर-हां, गौतम ! संयत, विरत जीव, धर्म में स्थित होता है यावत संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! धर्म में, अधर्म में और धर्माधर्म में कोई जीव बैठने यावत् सोने में समर्थ है ? उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् समर्थ नहीं है ? उत्तर-हे गौतम ! संयत, विरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान करने वाला जीव, धर्म में स्थित होता है और धर्म को ही स्वीकार कर विचरता है । इसी प्रकार असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव, अधर्म में स्थित होता है और अधर्म को ही For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १७ उ. २ बाल, पण्डित और बालपण्डित ६.७ स्वीकार कर विचरता है। संयतासंपत जीव, धर्माधर्म में स्थित होता है और देश-विरति स्वीकार कर विचरता है। इसलिये हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, धर्म में स्थित होते हैं, अधर्म में स्थित होते हैं या धर्माधर्म में स्थित होते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! जीव, धर्म में, अधर्म में और धर्माधर्म में स्थित होते हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, इत्यादि प्रश्न ? ३ उत्तर-हे गौतम ! नै रयिक न तो धर्म में स्थित हैं और न धर्माधर्म में स्थित हैं, वे अधर्म में स्थित है। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यच जीव, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तियंच जीव, धर्म में स्थिर नहीं हैं, अधर्म में स्थित हैं और धर्माधर्म में भी स्थित हैं। मनुष्यों के विषय में जीवों के समान जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान जानना चाहिये । विवेचन-सोना, बैठना आदि क्रियाएँ मूर्त आसनादि पर ही हो सकती हैं, धर्म, अधर्म और धर्माधर्म अमूर्त हैं, इसलिए इन पर बैठना, सोना आदि नहीं हो सकता। 'धर्म' शब्द से यहाँ चारित्र धर्म और अधर्म' शब्द से अविरति तथा धर्माधर्म' पद से देशविरति विवक्षित है। इसलिये इनमें कोई जीव सोना, बठना आदि क्रिया नहीं कर सकता। बाल, पण्डित और बालपण्डित ५ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति जाव परू. वेंति एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासया वालपंडिया, जस्स णं For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०८ भगवती सूत्र-श. १. उ. २ बाल, पण्डित और बालपण्डित एगपाणाए वि दंडे अणिक्खित्ते से णं 'एगंतवाले' त्ति वत्तव्वं सिया, से कहमेय भंते ! एवं ? ५ उत्तर-गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवं आइक्खंति जाव वत्तव्यं सिया; जे ते एवं आहंमु मिच्छं ते एवं आहंमु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि जाव परूवेमि ‘एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा वालपंडिया, जस्स णं एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते से णं णो 'एगंतवाले' त्ति वत्तव्वं सिया। . ६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं वाला, पंडिया, बालपंडिया ? ६ उत्तर-गोयमा ! वाला विं, पंडिया वि, वालपंडिया वि । ७ प्रश्न-णेरड्याणं-पुच्छा। ७ उत्तर-गोयमा ! णेरड्या वाला, णो पंडिया, णो बालपंडिया । एवं जाव चउरिदियाणं । ८ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्ख० पुच्छा । ८ उत्तर-गोयमा ! पंचिंदिय-तिरिक्व जोणिया बाला, णो पंडिया, वालपंडिया वि। मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोड़सिय-वेमाणिया जहा णेरइया । कठिन शब्दार्थ-आहेसु-कहा है, णिक्खित्ते-निक्षिप्त-डाला। भावार्थ-५ हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं कि-'श्रमण, पण्डित कहलाते हैं और श्रमणोपासक बाल-पण्डित कहलाते हैं, परन्तु जिस मनुष्य के एक भी जीव का वध अनिक्षिप्त (खुला) है, वह For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १७ उ. २ बाल, पण्डित और बालपण्डित २६०९ 'एकान्त बाल' कहलाता है, तो हे भगवन् ! अन्यतीथियों का यह कथन किस प्रकार सत्य हो सकता है. ? ५ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथियों ने जो इस प्रकार कहा है कि यावत् 'एकान्त बाल कहलाता है,' उनका यह कथन मिथ्या है । हे गौतम ! में इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपित करता हूँ कि 'श्रमण, पण्डित है ' और श्रमणोंपासक, वाल-पण्डित है, परन्तु जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध की विरति की है, वह जीव 'एकांत बाल' नहीं कहलाता, वह बाल-पंडित' कहलाता है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव बाल हैं, पण्डित हैं या बालपण्डित हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जीव बाल भी हैं, पण्डित भी हैं और बालपण्डित भी हैं। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के विषय में प्रश्न । ७ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक बाल हैं, पण्डित नहीं और बाल-पण्डित भी नहीं हैं। इस प्रकार दण्डक क्रम से यावत चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के विषय में प्रश्न । ८ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यच बाल हैं और बालपण्डित भी हैं, पण्डित नहीं है । मनुष्य, सामान्य जीवों के समान हैं। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों को नरयिकों के समान जानना चाहिये । 'विवेचन-'श्रमण, पण्डित (सर्वविरति चारित्र वाले) हैं और धमलोपासक, बालपण्डित (देश-विरति चारित्र वाले) हैं।' अन्यतीथिक, जिनमत सम्मत इन दो पक्षों का अनुवाद करके उनमें से द्वितीय पक्ष को दूषित करते हुए कहते हैं कि "जो जीव, सभी जीवों के वध की विरति बाला होते हुए भी जिसके एक भी जीव का वध अनिक्षिप्त (खुला) है, ऐसे श्रमणोपासक को भी 'एकान्त बाल' कहना चाहिये ।" श्रमण भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि अन्याथियों की यह मान्यता मिथ्या है । जिस जीव को एक जीव के वध की भी विरति हो, उसे भी एकान्त बाल नहीं कह कर -'बालपण्डित' कहना चाहिये । क्योंकि वह देशविरत है। जो देशविरत हो, उसे एकान्त बाल नहीं कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१० भगवती सूत्र-श १७ उ. २ जीव और आत्मा की अभिन्नता संयतादि और पण्डितादि शब्दों में यद्यपि शब्द की अपेक्षा भेद है, किन्तु अर्थ की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । केवल अपेक्षा भेद है । क्रिया को अपेक्षा संयतादि शब्दों का व्यपदेश होता है और बोध विशेप की अपेक्षा पण्डितादि शब्दों का व्यपदेश होता है। जीव और आत्मा की अभिन्नता ९ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति जाव परू. वेंति-'एवं खलु पाणाड्याए, मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया, पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादसणमल्लविवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया; उप्पत्तियाए जाव परिणामियाए वट्ट माणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया; उग्गहे ईहा अवाए, धारणाए वट्टमाणस्स जाव जीवाया; उट्ठाणे जाव परकम वट्टमाणस्स जाव जीवाया; णेग्इयत्ते, तिरिक्ख मणुस्स-देवत्ते वट्टमाणस्स जाव जीवाया, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए वट्टमाणस्स जाव जीवाया; एवं कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए; सम्मदिट्टिए ३, एवं चरखुदंसणे ४, आभिणिवोहियणाणे ५, मतिअण्णाणे ३, आहारसण्णाए ४ एवं ओरालियसरीरे ५, एवं मणोजोए ३, सागारोवओगे, अणागारोवओगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाया,' से कहमेयं भंते ! एवं ? For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र य १७ उ. २ जीव और आत्मा की अभिन्नता ९ उत्तर - गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवं आइक्वंति जाव मिच्छ्रं ते एवं आहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि जाव परूवेमि- 'एवं खलु पाणाइवाए जाब मिच्छादंसणसल्ले वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे, सच्चैव जीवाया जाव अणागारोवओगे माणस्स जाव सच्चेव जीवाया' । कठिन शब्दार्थ - उत्पत्तियाए - औत्पत्तिकी बुद्धि | । भावार्थ - २ - प्रश्न - हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते है कि प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में वर्तते हुए प्राणी का जीव अन्य है और उस जीव से जीवात्मा अन्य है । प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण में क्रोधविवेक ( क्रोध का त्याग ) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के त्याग में वर्तते हुए प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है । औत्पत्तिकी बुद्धि यावत् परिणामिकी बुद्धि में, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में और उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य है । नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवपने में, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय कर्म में, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ललेश्या में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान में, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान में आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा में, इसी प्रकार औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तेजस् शरीर और कार्मण शरीर में, मनयोग, वचनयोग और काययोग में और साकारोपयोग और अनाकारोपयोग में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे अन्य है, तो हे भगवन् ! यह किस प्रकार हो सकता है ? ९ उत्तर - हे गौतम! अन्यतीर्थिकों का पूर्वोक्त कथन मिथ्या है । हे For Personal & Private Use Only २६११ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१२ भगवती सूत्र - १७७ नहीं बना साक्षी गौतम ! में इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपित करता हूँ कि प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में वर्तमान प्राणी जीव है और वही जीवात्मा है यावत् अनाकारोपयोग में वर्तमान प्राणी जीव है और वही जीवात्मा है । विवेचन - "प्राणातिपातादि में प्रवर्तमान जीव अर्थात प्रकृति और जीवात्मा ( पुरुष ) ये दोनों परस्पर भिन्न हैं-" यह सांख्य दर्शन का मत है। सांख्य लोग प्रकृति को कर्ता और पुरुष को अकर्ता तथा भोक्ता मानते हैं । उपनिषद् भी जीव (अन्तःकरण विशिष्ट चैतन्य ) को कर्ता और जीवात्मा (ब्रह्म) को अकर्ता मानते हैं। उनके मतानुसार जीव और ब्रह्म का औधिक भेद है। यहाँ ये दोनों मत अन्यतीर्थिक रूप से ग्रहण किये गये है । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ( जैन सिद्धांत) का मन्तव्य है कि जीव अर्थात् जीव विशिष्ट शरीर और जोवात्मा (जीव ) ये कथचित् एक हैं । इन दोनों में अत्यन्त भेद नहीं है । अत्यन्त भेद मानने पर देह से स्पृष्ट वस्तु का ज्ञान जीव को नहीं हो सकेगा । तथा शरीर द्वारा किये हुए कर्मों का वेदन आत्मा को नहीं हो सकेगा। दूसरे के किये हुए कर्मों का दूसरे द्वारा संवेदन मानने पर अकृताभ्यागम दोप आयेगा तथा अत्यन्त अभेद मानने पर परलोक का अभाव हो जायगा । इसीलिये इनमें कथंचित् भेद और कथचित् अभेद है । रूपी, अरूपी नहीं बनता । सर्वज्ञ साक्षी १० प्रश्न - देवे णं भंते ! महिड्दिए जाव महेसक्खे पुब्वामेव रूवी भवित्ता पक्ष अरूविं विउच्चित्ताणं चिट्टित्तए ? १० उत्तर - णो इण समड़े । प्रश्न - से केणेणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'देवे णं जाव णो पक्ष अरूवि विउव्वित्ताणं चिट्टित्तए ? उत्तर - गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-]. १७ उ २ रूपी, अपी नही बनता सर्वज्ञ माक्षी २६१३ बुज्झामि, अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि, मए एयं णायं, मए एयं दिटुं, मम एयं बुधं, मए एयं अभिसमण्णागयं-'ज णं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मरस. सरागस्स, सवेयगस्स. समोहस्स, सलेसम्प्स, ससरीरस्स, ताओ मगगओ अविप्पमुक्कस्स एवं पण्णायह, तं जहा-कालते वा जाव सुविकलते वा सुभिगंधत्ते वा दुभिगंधत्ते वा तित्तते वा जाव महुरत्ते वा, कक्खडत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव चिट्टित्तए । ११ प्रश्न-सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुव्वामेव अरूवी भवित्ता पभू रूविं विउवित्ता णं चिट्ठित्तए ? ११ उत्तर-णो इणटे समढे जाव चिट्ठित्तए । गोयमा ! अहं एयं जाणामि जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स, अकम्मस्स, , अरागस्त, अवेदस्म, अमोहस्स, अलेमस्स, असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स णो एवं पण्णायइ, तं जहा-कालत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा से तेणटेणं जाव चिट्ठित्तए वा। ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ सत्तरसमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन-शब्दार्थ-पण्णायइ-ज्ञात होता है । १० प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, पहले रूपी होकर (मूर्त स्वरूप को धारण कर) पीछे अरूपीपन (अमूर्त रूप) की विक्रिया For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१४ भगवती सूत्र-स. १७ 3 २ रुपी, अन्नपी नहीं बनता - सर्वज साक्षी करके रहने में समर्थ है ? १० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि महद्धिक देव यावत् समर्थ नहीं है ? उत्तर-हे गौतम ! मैं यह जानता हूँ, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, में यह सर्वथा जानता हूँ। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित् जाना है और मैंने यह सर्वथा जाना है कि तथाप्रकार के रूप वाले, कर्म वाले, राग वाले, वेद वाले मोह वाले, लेश्या वाले, शरीर वाले और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा ही ज्ञात होता है । यथा-उस शरीर युक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगंधिपन या दुर्गन्धिपन, कटुपन यावत् मधुरपन तथा कर्कशपन अथवा यावत् रूझपन होता है । इस कारण हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से विक्रिया करने में समर्थ नहीं है । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वही जीव, पहले अरूपी होकर बाद में रूपी आकार की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं यावत् विकुर्वणा करने में समर्थ नहीं है । हे गौतम ! मैं यह जानता हूं कि तथाप्रकार के अरूपी, अकर्मो, अरागी, अवेदी, अमोही, अलेश्यी, अशरीरी और उस शरीर से विप्रमुक्त जीव के विषय में ऐसा ज्ञात नहीं होता कि जीव में कालापन यावत् रूक्षपन है। इस कारण हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त रूप से विकुर्वणा करने में समर्थ नहीं हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैयों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेचन-कोई महद्धिक देव भी पहले रूपी (मूर्त) होकर फिर अरूपी (अमूर्त) नहीं हो सकता । सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् ने इसी प्रकार इस तत्त्व को देखा है । शरीर युक्त जीव में ही कर्म पुद्गलों के सम्बन्ध से रूपीत्व आदि का ज्ञान होता है । जीव अरूपी-वर्णादि रहित होकर फिर रूपी नहीं हो सकता । क्योंकि कर्म रहित For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-. १७ उ. ३ शैलेगी अनगार की निष्कम्पता २६१५ जीव मुक्त होता है और मुक्त जीव को फिर से कर्मवन्ध नहीं होता। कर्मबन्ध के अभाव में शरीर की उत्पत्ति न होने से वर्णादि का अभाव होता है । अत: अरूपी होकर जीव फिर रूपी नहीं होता। ॥ सतरहवें शतक का दूमरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १७ उद्देशक ३ शैलेशी अनगार की निष्कापता १ प्रश्न-सेलेसिं पडिवण्णए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयइ, वेयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ? १ उत्तर-णो इणटे समटे, गण्णत्थ एगेणं परप्पयोगेणं । २ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! एयणा पण्णत्ता ? २ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता; तं जहा-१ दव्वेयणा २ खित्तेयणा ३ कालेयणा ४ भवेयणा ५ भावेयणा । ३ प्रश्न-दव्वेयणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! चउब्विहा पण्णत्ता। तं जहा-१ णेरड्य. दव्वेयणा, २ तिरिक्ख० ३ मणुस्स० ४ देवदव्वेयणा । For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१६ भगवती गुत्र-स. १७ उ ३ शैलेशी अनगार की निप्याम्पता ४ प्रश्न-से कणटेणं भंते ! एवं वुचइ–णेरड्यदव्वेयणा' २ ? ४ उत्तर-गोयमा ! जं णं णेरड्या णेरड्यदव्वे वहिसु वा, वटुंति वा, वट्टिस्संति वा ते णं तत्थ णेरड्या णेरड्यदब्वे वट्टमाणा णेरड्यदव्वेयणं एयंमु वा एयंति वा, एइस्संति वा, से तेणटेणं जाव दब्वेयणा। ५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-तिरिवखजोणिय. दव्वेयणा' २ ? ___५ उत्तर-एवं चेव, णवरं-तिरिक्खजोणियदव्वे भाणियव्वं, सेसं तं चेव, एवं जाव देवदव्वेयणा। ६ प्रश्न-खेत्तेयणा णं भंते ! कइविहा पण्णता ? ६ उत्तर-गोयमा ! चउविहा पणत्ता, तं जहा-१ णेरड्यखेत्तयणा जाव ४ देवखेत्तेयणा। ७ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयखेत्ते यणा' २ ? ७ उत्तर-एवं चेव, णवरं 'णेरइयखेत्तेयणा' भाणियव्वा; एवं जाव देवखेतेयणा, एवं कालेयणा वि, एवं भवेयणा वि, एवं भावे. यणा वि, एवं जाव देवभावेयणा । कठिन शब्दार्थ-समियं-निरन्तर, एयणा-एजना-कम्पन, वट्टिसु-वर्तता था। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार, सदा निरन्तर कम्पता है, विशेष कंपता है यावत् उन-उन भावों में परिणमता है ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । परप्रयोग को छोड़ कर For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मृत्र-दा. १७ ३.२ गलेगी अनगार की निष्कम्पता शैलेशी अवस्था में कम्पन नहीं होता। (शैलेशी अवस्था में आत्मा अत्यन्त स्थिर रहती है, कम्पित नहीं होती । उस अवस्था में पर-प्रयोग के बिना कम्पन नहीं होता।) २ प्रश्न-हे भगवन् ! एजना कितने प्रकार की कही गई है ? २ उत्तर-हे गौतम ! एजना पाँच प्रकार को कही गई है । यथा-द्रव्यएजना, क्षेत्र-एजना, काल-एजना भव-एजना और भाव-एजना। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! द्रव्य-एजना कितने प्रकार की कही गई है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार की कही गई है । यथा-नैरयिक द्रव्यएजना, लियंचयोनिक द्रव्य-एजना, मनुष्य द्रव्य-एजना और देव द्रव्य-एजना । ४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक द्रव्य-एजना कहने का क्या कारण है ? - ४ उत्तर-हे गौतम ! नै रयिक जीव, नैरयिक द्रव्य में वर्तित थे, वर्तते हैं और वर्तेगे। उन नैरयिक जीवों ने नरयिक द्रव्य में वर्तते हए नैरयिक द्रव्य की एजना पहले भी की थी, अभी करते हैं और भविष्य में करेंगे, इसीसे 'नरयिक द्रव्य-एजना' कहलाती है। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिक द्रव्य-एजना क्यों कहलाती है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यह भी पूर्वोक्त प्रकार से है। यहां नैरयिक द्रव्य के स्थान पर 'तिर्यंच-योनिक द्रव्य' कहना चाहिये, शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार मनुष्य द्रव्य-एजना और देव द्रव्य-एजना भी जाननी चाहिये। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षेत्र-एजना कितने प्रकार की कही गई है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार की कही गई है। यथा-नैरयिक क्षेत्र एजना यावत् देव क्षेत्र एजना। __७ प्रश्न-हे भगवन् ! 'नैरयिक क्षेत्र-एजना' क्यों कहलाती है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । यहाँ नरयिक द्रव्य-एजना के स्थान पर 'नरयिक क्षेत्र-एजना' कहनी चाहिये। इसी प्रकार यावत् देव क्षेत्र-एजना और इसी प्रकार काल-एजना, भव-एजना और भाव-एजना यावत् देव भाव एजना तक जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१८ भगवती सूत्र - श. १७ उ. ३ चलना के प्रकार विवेचन - योगों द्वारा आत्म- प्रदेशों का अथवा पुद्गल द्रव्यों का चलना ( काँपना ) 'एजना' कहलाती है। इसके द्रव्यादि पाँच भेद है । मनुष्यादि जीव द्रव्यों का अथवा मनुष्यादि जीव सहित पुद्गलों का कम्पन 'द्रव्य एजना' कहलाती है । मनुष्यादि क्षेत्र में रहे हुए जीव का कम्पन ' क्षेत्र एजना' कहलाती है । मनुष्यादि काल में रहे हुए जीव का कम्पन 'काल-एजना' कहलाती है। मनुष्यादि भव में रहे हुए जीव का कंपन 'भव-एजना' कहलाती है । और औदयिकादि भावों में रहे हुए जीव का कंपन 'भाव-एजना' कहलाती है । नैरयिक जीव, नरयिक शरीर में रह कर उस शरीर से जो एजना करते है. उमे 'नैरयिक द्रव्य - एजना' कहते हैं। इसी प्रकार नियंत्र, मनुष्य और देव सम्बन्धी द्रव्य एजना भी जान लेनी चाहिये । और इसी प्रकार क्षेत्रादि एजना के विषय में भी समझ लेना चाहिये । चलना के प्रकार ८ प्रश्न -कइविहा णं भंते ! चलणा पण्णत्ता ? ८ उत्तर - गोयमा ! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तं जहा - सरीर चलणा, इंदियचलणा, जोगचलणा । ९ प्रश्न - सरीरचलणा णं भंते ! कड़विहा पण्णत्ता ? ९ उत्तर - गोयमा ! पंचविद्या पण्णत्ता तं जहा - १ ओरालिय सरीरचलणा जाव ५ कम्मगसरीरचलणा । १० प्रश्न - इंदियचलणा णं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? १० उत्तर - गोयमा ! पंचविद्या पण्णत्ता, तं जहा - १ सोइंदिय चलणा जाव ५ फासिंदियचलणा । ११ प्रश्न - जोगचलणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १७ उ. ३ चल ना के प्रकार २६१९, ११ उत्तर-गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-मणजोगचलणा, वइजोगचलणा, कायजोगचलणा। कठिन शब्दार्थ-चलणा-चलायमान होना । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! चलना कितने प्रकार की कही गई है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! चलना तीन प्रकार की कही गई है। यथाशरीर चलना, इन्द्रिय चलना और योग चलना। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर चलना कितने प्रकार की कही गई है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! शरीर चलना पांच प्रकार की कही गई है। यथा-औदारिक शरीर चलना यावत् कार्मण शरीर चलना। . १० प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय चलना कितने प्रकार की कही गई है ? १० उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार की कही गई है । यथा-श्रोत्रेन्द्रिय चलना यावत् स्पर्शनेन्द्रिय चलना। ११ प्रश्न-हे भगवन ! योग चलना कितने प्रकार की कही गई है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! योग चलना तीन प्रकार की कही गई है । यथा- . मनोयोग चलना, वचन योग चलना और काय योग चलना । विवेचन-कम्पन का 'एजना' कहते हैं । वही एजना विशेष स्पष्ट हो तो उसे 'चलना' कहते हैं । सामान्यत: चलना के तीन भेद कहे गये हैं और उत्तर भेद तेरह हैं (पाँच शरीर, पाँच इन्द्रिय और तीन योग)। ___१२ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'ओरालियसरीर• चलणा' २? १२ उत्तर-गोयमा ! जं जं जीवा ओरालियसरीरे वट्टमाणा ओरालियसरीरपायोग्गाइं दवाई ओरालियसरीरत्ताए परिणामे For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२० भगवती सूत्र - प्रा. १७ उ ३ चलना के प्रकार माणा ओरालियसरीरचलणं चलिंसु वा, चलति वा, चलिस्संति वा से ते जाव 'ओरालि यसरीरचलणा' २ | १३ प्रश्न - सेकेण्डेणं भंते ! एवं वचः -- ' वे उव्वियसरीरचलणा' २ ? १३ उत्तर - एवं चैव, णवरं - वे उव्वियसरीरे वट्टमाणा, एवं जाव कम्मगसरीरचलणा । १४ प्रश्न - सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'सोइंदियचलणा' २१ १४ उत्तर - गोयमा ! जं णं जीवा सोइंदिये वट्टमाणा सोईदियपाओग्गाई दव्वाई सोइंदियत्ताए परिणामेमाणा सोइंदियचलणं चलिंसु वा, चलति वा चलिस्मेति वा मे तेणट्टेणं जाव सोइंदिय चलणा २ । एवं जाव फासिंदियचलणा । १५ प्रश्न - से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ - 'मणजोगचलणा' २ ? १५ उत्तर - गोयमा ! जं णं जीवा मणजोए वट्टमाणा मणजोगपाओग्गाई दव्वाई मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिंसु वा, चलति वा, चलिस्संति वा से तेण्डेणं जाव मणजोगचलणा २ । एवं वहजोगचलणा वि, एवं कायजोगचलणावि । भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! 'औदारिक शरीर चलना - कहने का क्या कारण है ? For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १७ उ. ३ संवेगादि धर्म का अंतिम फल २६२१ १२ उत्तर-हे गौतम ! जीव ने औदारिक शरीर में वर्तते हुए, औदा. रिक शरीर के योग्य द्रव्यों को, औदारिक शरीरपने परिणमाते हुए भूतकाल में औदारिक शरीर की चलना की थी, अभी करते हैं और आगे करेंगे, इसीलिये हे गौतम ! 'औदारिक शरीर चलना' कहलाती है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर चलना क्यों कहलाती है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त वक्तव्य । यहाँ औदारिक शरीर के स्थान पर 'वैक्रिय शरीर में वर्तते हुए-इत्यादि जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् कार्मण शरीर चलना तक जानना चाहिये । १४ प्रश्न-हे भगवन ! श्रोत्रेन्द्रिय चलना क्यों कहलाती है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय को धारण करते हुए जीवों ने श्रोत्रेन्द्रिय योग्य द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रियपने परिणमाते हुए श्रोत्रेन्द्रिय को चलना की थी, करते हैं और करेंगे, इसी से श्रोत्रेन्द्रिय चलना 'श्रोत्रेन्द्रिय चलना' कहलाती है। इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय चलना तक जानना चाहिये। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! मनोयोग चलना क्यों कहलाती है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! मनोयोग को धारण करते हुए जीवों ने मनोयोग्य द्रव्यों को मनोयोगपने परिणमाते हुए मनोयोग को चलना की थी, करते हैं और करेंगे । इसलिये मनोयोग चलना कहलाती है। इसी प्रकार वचन-योग चलना तथा काय-योग चलना भी जाननी चाहिये । संवेगादि धर्म का अंतिम फल . १६ प्रश्न- अह भंते ! संवेगे, णिव्वेए, गुरु-साहम्मियसुस्सूसणया, आलोयणया, जिंदणया, गरहणया, खमावणया,सुयसहायता, विउसमणया, भावे अप्पडिबद्धया, विणिवट्टणया, विविचसयणासण For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२२ भगवती सूत्र-ग. १७ उ. ३ सवेगादि धर्म का अंतिम फल सेवणया, सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, जोगपञ्चक्खाणे, सरीरपच्चक्खाणे, कसायपञ्चक्खाणे, संभोगपञ्चरखाणे, उवहिपञ्चक्खाणे, भत्तपञ्चक्खाणे, खमा, विरागया, भावसच्चे, जोग. सच्चे, करणसच्चे, मणसमण्णाहरणया, वइसमण्णाहरणया. काय. समण्णाहरणया, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, णाणसंपण्णया, दंसणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया, वेदणअहियासणया, मारणंतियअहियासणया-एए णं भंते ! पया किं पञ्जवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो? १६ उत्तर-गोयमा ! संवेगे, णिव्येए जाव मारणंतियअहिया सणया-एए णं मिद्धिपजवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो ! सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । जाव विहरइ * ॥ सत्तरसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ ____ कठिन-शब्दार्थ-संवेगे-संवेग (मोक्ष को अभिलापा), णिवेए-निवद (मंसार एवं भोग की अरुचि), विउसमणया-कपाय की उपशांतता । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! संवेग, निर्वेद, गुरु-सार्मिक शुश्रूषा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, क्षमापना, श्रुत सहायता, व्युपशमना, भाव अप्रतिबद्धता, विनिवर्तना, विविक्त-शयनासन सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय संवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संवर, योग प्रत्याख्यान, शरीर प्रत्याख्यान, कषाय प्रत्याख्यान, सम्भोग प्रत्याख्यान, उपधि प्रत्याख्यान, भक्त प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भाव-सत्य, योग-सत्य, करणसत्य, मन समन्बाहरण, वचन समन्वाहरण, काय समन्वाहरण, क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदना अध्यासनता, मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल क्या है ? For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १७ उ. ३ संवेगादि का अंतिम फल २६२३ १६ उत्तर-हे गौतम ! संवेग, निवेद यावत् मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल मोक्ष कहा गया है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-यहाँ मवेग आदि ४९ पद कहे गये हैं, उनका अन्तिम फल मोक्ष है । इन पदों में जो कठिन पद हैं, उनका शब्दार्थ मात्र यहां दिया जाता है। संवेग-मोक्ष की भभिलापा । निर्वेद-मंमार मे विरक्ति । गुरुसार्मिक शुश्रूपा-गुरु महाराज और साधर्मी बन्धुओं की सेवा करना । आलोचना-गुरु महाराज के सामने अपने पापों को प्रकट करना । निन्दाआत्म-साक्षी मे अपने दोपों की निन्दा करना । गहरे-गुरु के सामने अपने दोषों को निन्दा करना । क्षमापना-अपने अपराधों की क्षमा मांगना नथा अपने प्रति किये गये अपराधों की दसरों को क्षमा देना । व्यपशमना-उपशान्नता। श्रत महायता-श्रत का अभ्यास । भावअप्रतिवद्धता-हास्यादि भावों में आसक्ति नहीं रखना। विनिवर्तना-पापों से निवृत होना । विविक्तशयनासनता-स्त्री, पुरुष और नपुंसक से रहित स्थान और आसन का सेवन करना। श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों का संवर (अपने-अपने विषय में जाती हुई इन्द्रियों को रोकना)। योग प्रत्याख्यान - मन, वचन और काया के अशुभ योगों को रोकना । शरीर प्रत्याख्यान-शरीर में आमक्ति भाव का त्याग करना । कपाय प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करना । सम्भोग प्रत्याख्यान-साधु एक मण्डली में बैठ कर भोजन करते हैं, उसे 'सम्भोग' कहते हैं। जिनकल्पादि स्वीकार करके उस सम्भोग का त्याग करना 'सम्भोग प्रत्याख्यान' कहलाता है। उपधिप्रत्याख्यान-अधिक वस्त्रादि का त्याग करना । भक्तप्रत्याख्यान-आहारादि का त्याग करना । करण सत्य-प्रतिलेखन आदि क्रियाएं यथार्थ रूप से करना । मन, वचन और काया को वश में रखना-क्रमशः मन समन्वाहरण, वचन समन्वाहरण और काया समन्वाहरण कहलाता है। क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों का त्याग करना-क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विवेक है । वेदनाध्यासनताक्षुधादि वेदना को सहन करना। मारणान्तिकाध्यासनता-मारणान्तिक कष्ट आने पर भी सहनशीलता रखना। उपर्युक्त पदों का सेवन करने से जीव को मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है । , ॥ सतरहवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक ४ आत्म-स्पृष्ट क्रिया १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे जाव एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? १ उत्तर-हंता, अस्थि । २ प्रश्न-सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कज्जइ ? २ उत्तर-गोयमा ! पुट्टा कज्जइ, णो अपुट्ठा कजइ । एवं जहा पढमसए छठ्ठद्देसए जाव णो अणाणुपुब्धिकडा' ति वत्तव्वं सिया, एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं जीवाणं एगिदियाण य णिव्याघारणं छदिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसि, सिय पंचदिमि; सेसाणं णियमं छदिसि । ३ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजइ ? ३ उत्तर-हंता, अस्थि । ४ प्रश्न-सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कज्जइ ? । ४ उत्तर-जहा पाणाइवाएणं दंडओ एवं मुसावारण वि, एवं अदिण्णादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि । एवं पए पंच दंडगा। कठिन शब्दार्य-अणाणुपुग्विकडा-अनुक्रम रहित किये हुए । भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय में राजगृह नगर में गौतम स्वामी For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १७ उ. ४ आत्म-स्पृष्ट क्रिया ने इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! जीव प्राणातिपात क्रिया करते हैं ?" १ उत्तर-हां गौतम ! करते हैं। २ प्रश्न -हे भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट (आत्मा द्वारा स्पर्श की हुई) को जाती है या अस्पष्ट ? २ उत्तर-हे गौतम ! वह स्पष्ट की जाती है, अस्पष्ट नहीं, इत्यादि प्रथम शतक के छठे उद्देशक के अनुसार यावत् वह क्रिया अनुक्रम से की जाती है, बिना अनुक्रम नहीं। इस प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये । विशेषता यह है कि जीव और एकेन्द्रिय निर्व्याघात की अपेक्षा छह दिशा से आये हुए कर्म करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा, कदाचित् चार दिशा और कदाचित् पाँच दिशा से आये हुए कर्म करते हैं। शेष सभी अवश्य ही छह दिशा से आये हुए कर्म करते हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव मृषावाद क्रिया (कर्म) करते है ? ३ उत्तर-हाँ गौतम ! करते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! वह क्रिया स्पष्ट की जाती या अस्पृष्ट ? ४ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात के समान मषावाद, अदत्तादान, मथुन और परिग्रह के विषय में भी जानना चाहिये । ये पाँच दण्डक हुए। विवेचन-जीव प्राणातिपातादि जो क्रिया (कर्म ) करते हैं, वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है. अस्पृष्ट नहीं । सभी जीवों के नियमा छह दिशा की अपेक्षा क्रिया की जाती है । किन्तु औधिक (सामान्य) जीव-दण्डक में और एकेन्द्रियों में निर्व्याघात हो तो छह दिशा से क्रिया की जाती है। व्याघात की अपेक्षा जव एकेन्द्रिय जीव, लोक के अन्त में रहे हुए होते हैं, तव ऊपर और आस-पास की दिशा में अलोक होने के कारण कम आने का संभव नहीं है, इसलिये वे यथा-सम्भव कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से और कदाचित् पांच दिशा से आये हुए कर्म करते हैं । शेष जीव, लोक के मध्य भाग में होने के कारण नियम से छह दिशा से आये हुए कर्म करते हैं। क्योंकि लोक के मध्य में व्याघात नहीं हाता । प्राणातिपातादि पांच पापकर्म के स्पृष्ट और अस्पृष्ट विषयक पांच दण्ड क हैं । For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२६ भगवती सूत्र-श १७ उ ४ आत्म-स्पष्ट किया. ५ प्रश्न-जं समयं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजइ ? ५ उत्तर-एवं तहेव जाव वत्तव्वं सिया जाव वेमाणियाणं, एवं जाव परिग्गहेणं, एवं एए वि पंच दंडगा। ६ प्रश्न-जं देसेणं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ०? ६ उत्तर-एवं चेव जाव परिग्गहेणं, एए वि पंच दंडगा । ७ प्रश्न-जं पएसं णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया । कजइ सा भंते किं पुट्ठा कन्जइ ?-एवं तहेव दंडओ। ७ उत्तर-एवं जाव परिग्गहेणं । एवं एए वीस दंडगा। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस समय जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस समय वे स्पष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार यावत् वे 'अनानुपूर्वीकृत' नहीं हैंतक जानना चाहिये और इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक तथा इसी प्रकार यावत् परिग्रह तक जानना चाहिये। ये पूर्ववत् पांच दण्डक होते हैं। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस क्षेत्र में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उसी क्षेत्र में स्पष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट ? ६ उत्तर-हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार यावत् परिग्रह तक जानना चाहिये। ये पांच दण्डक हुए। ___७ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रदेश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस प्रदेश में स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट ? ७ उत्तर-हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार यावत् परिग्रह तक जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १७ उ. ४ आत्मकृत मुख दुःख और वेदना २६९७ इस प्रकार ये सब बीस दण्डक हुए। विवेचन-ओघिक पांच दण्डक है । 'जं समयं' का अर्थ है-जिस समय में' । अनः समय की अपेक्षा पाँच दण्डक हैं । 'जं देसं' का अर्थ है-जिस क्षेत्र में' । अतः क्षेत्र सम्बन्धी पांच दण्डक हैं। 'जं पएम' का अर्थ है-'जिस प्रदेश में' | यहां ‘प्रदेश' शब्द से क्षेत्र का छोटा विभाग लिया गया है। अत: प्रदेश आश्रयी पांच दण्डक हैं । इस प्रकार कुल बीस दण्डक होते हैं। आत्मकृत सुख दुःख और वेदना ८ प्रश्न-जीवाणं भंते ! किं अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुवखे, तदुभयकडे दुक्खे ? ८ उत्तर-गोयमा ! अत्तकडे दुक्खे, णो परकडे दुवखे, णो तदुभयकडे दुक्खे; एवं जाव वेमाणियाणं । ९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेएंति, परकडं दुक्खं वेएंति, तदुभयकडं दुक्खं वेएंति ? । ९ उत्तर-गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेएंति. णो परकडं दुक्खं वेएंति, णो तदुभयकडं दुक्खं वेएंति; एवं जाव वेमाणियाणं । १० प्रश्न-जीवाणं भंते ! अत्तकडा वेयणा, परकडा वेयणापुच्छा । १० उत्तर-गोयमा ! अत्तकडा वेयणा, णो परकडा वेयणा, णो तदुभयकडा वेयणा । एवं जाव वेमाणियाणं । ११ प्रश्न-जीवाणं भंते ! किं अत्तकडे वेयणं वेएंति, परकडं For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२८ भगवती सूत्र--ग. १७ उ. ४ आत्मकृत सुखदुःख और वेदना वेयणं वेएंति, तदुभयकडं वेयणं वेएंति ? ___११ उत्तर-गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेयणं वेएंति, णो परकडं, णो तदुभयकडं; एवं जाव वेमाणियाणं । * मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ सत्तरसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ।। कठिन शब्दार्थ-अत्तकडे-आत्मकृत। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के जो दुःख है वह आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जीवों के जो दुःख है, वह आत्मकृत है, परकृत नहीं और उभयकृत भी नहीं है। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये । ९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दुःख वेदते हैं। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के जो वेदना है, वह आत्मकृत है, परकृत है या उभयकृत है ? १० उत्तर-हे गौतम ! जीवों के वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं और उभयकृत भी नहीं है । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते हैं या उभयकृत वेदना वेदते हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत और उभयकृत वेदना नहीं वेदते । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १७ उ. ५ ईशानेन्द्र की सुधमा सभा हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - यहां 'दुःख' शब्द से दुःख का अथवा दुःख के हेतुभूत कर्मो का ग्रहण होता है । 'वेदना' साता और अमाता दोनों रूप होती है। इसलिये वेदना शब्द से सुख और दुःख दोनों का अथवा सुख और दुःख दोनों के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है । || सतरहवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २६२९ शतक १७ उद्देशक ५ ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा १ प्रश्न - कहिं णं भते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उड्ढ चंदिम-सूरिय० जहा ठाणपदे जाव मज्झे ईसाणवडेंस । से ईसावडेंस महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई एवं जहा दसमसए सक्कविमाणवत्तब्वया सा इह वि ईसाणस्स णिरवसेसा भाणियव्वा जाव आयरक्ख चि । ठिई सातिरेगाई दो सागरोवमाई, For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३. भगवती सूत्र-श. १७ उ. ५ ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा सेमं तं चेव जाव ईसाणे देविंदे देवराया २ । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ सत्तरसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-ईसाणव.सए-ईशानावतंसक । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान को सुधर्मा सभा कहां कही गई है ? १ उत्तर-हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त समरमणीय भूमि-भाग से ऊपर चन्द्र और सूर्य को उल्लंघ कर आगे जाने पर यावत् प्रज्ञापना सूत्र के 'स्थान' नामक दूसरे पद के अनुसार यावत् मध्यभाग में ईशानावतंसक विमान है । वह ईशानावतंसक महा विमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा और चौड़ा है, इत्यादि यावत् दसवें शतक के छठे उद्देशक में शक्रेन्द्र के विमान को वक्तव्यता के अनुसार ईशान के विषय में यावत् आत्मरक्षक देवों की सम्पूर्ण वक्तव्यता तक जाननी चाहिये। ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक है, शेष सब पूर्ववत् यावत् यह देवेन्द्र देवराज ईशान है, तक जाननी चाहिए। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ सतरहवें शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ W IAR For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक नरक पृथिवीकायिक जीवों का मरण-समुद्घात १ प्रश्न - पुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते । किं पुवि उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेजा, पुवि संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेजा ? १ उत्तर - गोयमा ! पुव्वि वा उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा, पुत्रि वा संपाउणत्ता पच्छा उववज्जेजा ? प्रश्न - सेकेण्डेणं जाव पच्छा उववज्जेज्जा ? उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइयाणं तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा - वेणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्धाए । मारणंतियसमुग्धारणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ, सव्वेण वा समोहण, देसेण वा समोहणमाणे पुवि संपाउणित्ता पच्छ उववज्जिज्जा, सब्वेणं समोहणमाणे पुव्वि उववज्जेत्ता पच्छा संपाउणेज्जा; से तेणट्टेणं जाव उववज्जिज्जा । २ प्रश्न - पुढविकाइए णं भंते ! इमीले रयणप्पभाए पुढवीए जाब समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवि० १ २ उत्तर एवं चेव ईसाणे वि एवं जाव अच्चुय गेविज For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३२ भगवती सूत्र-ग १७ 3. ६ नारक पृथिवीकायिक जीवों का मरण-समद्घात विमाणे, अणुत्तरविमाणे; ईसिपमाराए य एवं चेव । ३ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुटवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० ? ३ उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए पुढविकाइओ उववाइओ एवं सकरप्पभाए वि पुढविक्काइओ उबवाएयब्बो जाव ईसिप-भागए. एवं जहा रयणप्पभाए वत्तव्वया भणिया, एवं जाव अहे.सत्तमाप समोहए ईसिप-भाराए उववाएयव्वो, सेसं तं चेव । ** सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति ४ ॥ सत्तरसमे मए छटो उद्देसो ममत्तो ।। कठिन शब्दार्थ-समोहए-ममबहन-जिमने ममद्घात की है, संपाउणेज्जा-पुद्गलों को ग्रहण करे । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्म-कल्प में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते है और पीछे आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं या पहले आहार ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे पुद्गल ग्रहण करते हैं, अथवा पहले पुद्गल ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों में तीन समुद्घात कही गई है। यथा-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात और मारणान्तिक-समुद्घात । जब पृथ्वीकायिक जीव, मारणान्तिक- समुद्घात करता है, तब वह 'देश' से भी For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १७ उ ६ नारक पृथिवीकायिक जीवों का मरण-समुद्घात २६३३ समुद्घात करता है और 'सर्व' से भी समुदघात करता है । जब देश समुद्घात करता है, तब पहले पुद्गल ग्रहण करता है और पीछे उत्पन्न होता है। जब सर्व से समुद्घात करता है, तब पहले उत्पन्न होता है और पीछे पुद्गल ग्रहण करता है । इस कारण यावत् पीछे उत्पन्न होता है । २ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वी कायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके ईशान-कल्प में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् (सौधर्म के समान ) ईशान-कल्प और इसी प्रकार यावत् अच्युत, अवेयक विमान, अनुत्तर विमान और ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के विषय में भी जानना चाहिये । ___ ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, शर्कराप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्म-कल्प में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? ३ उत्तर-जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के पृथ्वीकायिक जीवों का उत्पाद कहा, उसी प्रकार शक राप्रभा के पृथ्वीकायिक जीवों का भी उत्पाद यावत् ई पत्रागभारा पृथ्वी तक जानना चाहिये । जिस प्रकार रत्नप्रभा के पृथ्वी कायिक जीवों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में • मरण-समुद्घात से समवहत जीव का ईषत्प्रागभारा पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जब जीव मरण-समुद्घात करके, अपने शरीर को सर्वथा छोड़ कर, गेंद के समान एक साथ-सभी आत्म-प्रदेशों के साथ उत्पत्ति स्थान में जाता है, तब पहले उत्पन्न होता है और पीछे पुद्गल ग्रहण रूप आहार लेता है । किंतु जब मरण-समुद्घात करके ईलिका गति से उत्पत्ति स्थान में जाता है, तब पहले आहार लेता है और पीछे उत्पन्न होता है। For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३४ भगवती सूत्र-श. १७ उ. ७ ऊर्ध्व लोकस्थ पृथ्वीकायिक का मरण-समुद्घात मारणान्तिक समुद्घात कर के जब जीव ईलिका गति से उत्पत्ति स्थान में जाता है, उस समय जोव के कुछ अंश पूर्व शरीर में रहते हैं और कुछ अंश उत्पत्ति स्थान में जाते हैं । इसे 'देश-समुद्घात' कहते हैं । जब जीव मारणान्तिक-समुद्घात से निवृत्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है, तब सभी आत्म-प्रदेशों को खींच कर गेंद की गति के समान एक साथ उत्पत्ति स्थान में जाता है, उसे 'सर्व-समुद्घात' कहते हैं । . ॥ सतरहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १७ उद्देशक ७ ऊर्वलोकस्थ पृथ्वीकायिक का मरण-समुद्घात १ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुवि०-सेसं तं चेव ।। __१ उत्तर-जहा रयणप्पभाए पुढविकाइए सव्वकप्पेमु जाव ईसिप्पन्भाराए ताव उववाइओ, एवं सोहम्मपुढविकाइओ वि सत्तसु वि पुढवीसु उववाएयवो जाव अहेसत्तमाए; एवं जहा सोहम्म. पुढविकाहओ सव्वपुढवीसु उववाइओ, एवं जाव ईसिपम्भारापुढवि For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १७ उ ७ ऊलोकस्य पृथ्वीकायिक का मरण-समुद्घात २६३५ काइओ सव्वपुढवीसु उववाएयव्वो जाव अहेसत्तमाए । * सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति * ।। सत्तरसमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ -उववाएयव्यो-उपपात कहना चाहिए। । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-कल्प में मरण-समुद्घात करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं ? . १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के, पृथ्वीकायिक जीवों का सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में उत्पाद कहा गया, उसी प्रकार सौधर्म-कल्प के पृथ्वीकायिक जीवों का सातों नरक पृथ्वियों में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये । इसी प्रकार सौधर्म-कल्प के पश्वीकायिक जीवों के समान सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के पृथ्वीकायिक जीवों का सभी पृथ्वियों में यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ सतरहवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक अधो अप्कायिक का मरण-समुद्घात १ प्रश्न - आउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए० ? १ उत्तर - एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओ वि सव्वकप्पे जाव ईसिप भाराए तहेव उववायव्वो, एवं जहा रयणप्पभआउकाइओ उववाइओ तहा जाव अहेसत्तमपुढविआउकाइओ उववायव्वो, एवं जाव ईसिप भाराए । * सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति || सत्तरसमे सए अट्टम उसी समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! जो अष्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्म- कल्प में अष्कायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न | १ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार अष्कायिक जीवों के विषय में भी सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक उत्पाद कहना चाहिये । रत्नप्रभा के अष्कायिक जीवों के उत्पाद के समान यावत् अधः सप्तम पृथ्वी के अप्कायिक जीवों तक का यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ सत्रहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण || For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक ₹ ऊर्ध्वलोकस्थ अप्कायिक का मरण-समुद्घात १ प्रश्न - आउक्काइए णं भंते! मोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलएसु आउकाइयत्ताए उववजित्तर से णं भंते ० ? १ उत्तर - सेसं तं चैव, एवं जाव असत्तमाए । जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव ईसिप भाराआउकाइओ जाव असत्त माए उबवायच्यो । * सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।। सत्तरसमे स णमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - घणोदहिवलएसु-घनोदधि वलयों में । भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म कल्प में मरण-समुद्घात करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि-वलयों में अष्कायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । १ उत्तर - हे गौतम ! शेष सभी पूर्ववत् यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिए। जिस प्रकार सौधर्म कल्प के अष्कायिक जीवों का नरक पृथ्वियों में उत्पाद कहा, उसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक अष्कायिक जीवों का उत्पाद यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । || सत्रहवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक १० अधो वायुकायिक का मरण-समुद्घात १ प्रश्न-वाउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं० ? १ उत्तर-जहा पुढविकाइओ तहा वाउकाइओ वि, णवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया - पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए जाव वेरबियसमुग्घाए । मारणंतियसमुग्घाए णं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ०, सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समोहओ ईसिपब्भाराए उववाएयव्यो। 8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ सत्तरसमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्म-कल्प में वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । १ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के समान वायुकायिक जीवों का भी कथन करना चाहिये । विशेष में वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात होती है । यथा-वेदना-समुद्घात यावत् वैक्रिय समुद्घात । वे वायुकायिक जीव मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर देश से समुद्घात करते हैं, इत्यादि पूर्ववत् यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में समुद्घात कर.....। वायुकायिक जीवों का उत्पाद ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १७ उ. ११ ऊर्च वायुकायिक का मरण-समुद्घात २६३१ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ सत्रहवें शतक का दसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १७ उद्देशक ११ ऊर्ध्व वायुकायिक का मरण-समुद्घात १ प्रश्न-वाउपकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए, तणुवाए, घणवायवलएसु, तणुवायवलएसु, वाउकाइयत्ताए उवजित्तए से णं भंते ! ०? १ उत्तर-सेसं तं चेव, एवं जहा सोहम्मे वाउचकाइओ सत्तसु वि पुढवीसु उबवाइओ एवं जाव ईसिप्प भाराए वाउक्काइओ अहेसत्तमाए जाव उववाएयव्यो । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ सत्तरसमे सए इक्कारसमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-तणुवायवलएसु-तनुवात वलयों में । For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४० भगवती सूत्र-श. १७ : १२ जीवों के आहारादि की सम-विषमत भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, सौधर्म- कल्प में समुद्घात कर के इस रत्नप्रमा पृथ्वी के घनवात, तनुवात, घनवातबलय और तनुवातवलयों में वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । १ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । जिस प्रकार सौधर्म - कल्प के वायुकायिक जीवों का उत्पाद सातों पृथ्वियों में कहा, उसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के वायुकायिक जीवों का उत्पाद यावत् अधः सप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ सत्रहवें शतक का ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १७ उद्देशक १२ जीवों के आहारादि की सम-विषमता १ प्रश्न - एगिंदिया णं भंते ! सच्चे समाहारा ? १ उत्तर - एवं जहा पढमसए विइयउद्देसर पुढविक्काइयाणं तवया भणिया सा चैव एगिंदियाणं इह भाणियव्वा जाव समा उया, समोववष्णगा। २ प्रश्न - एगिंदियाणं भंते ! कह लेस्साओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-म. १७ उ. .१२ जीवों के आहारादि की सम-विषमता २६४१ - कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । .. ३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगिंदियाणं कण्हलेस्साणं जाव विसेसाहिया वा ? ३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा एगिदियाणं तेउलेस्सा. काउलेस्सा अणंतगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसा. हिया । ४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं इड्ढी० ? ४ उत्तर-जहेव दीवकुमाराणं । @ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति * ॥ सत्तरसमे सए वारसमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-समाहारा-ममान आहार वाले। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी एकेन्द्रिय जीव समान आहार वाले है ? समान शरीर वाले हैं, इत्यादि प्रश्न । १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक में पृथ्वीकायिक जीवों की वक्तव्यता के समान यहाँ एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी जानना चाहिये यावत् वे न तो समान आयुष्य वाले हैं और न एक साथ उत्पन्न हुए हैं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के लेश्याएँ कितनी कही गई हैं? २ उत्तर-हे गौतम ! चार लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रियों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १७ उ. १३ नागकुमारादि के आहार की सम-विषमता ३ उत्तर - हे गौतम! सब से थोड़े एकेन्द्रिय जीव तेजोलेश्या वाले हैं । उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्त गुण हैं, कापोतलेश्या वालों से नोललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रियों में अल्प ऋद्धि वाला कौन है और महाऋद्धि वाला कौन है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! सोलहवें शतक के ग्यारहवें उद्देशक में द्वीपकुमारों में लेश्या की ऋद्धि कही गई है, तदनुसार एकेन्द्रियों में भी जानना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । || सत्रहवें शतक का बारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण || २६४२ शतक १७ उद्देशक १३ नागकुमारादि के आहार की सम-विषमता १ प्रश्न - नागकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा० ? १ उत्तर - जहा सोलसमसर दीवकुमारुद्देसे तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव इड्ढीति । ।। सत्तरसमे सए तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी नागकुमार समान आहार वाले हैं, इत्यादि प्रश्न ? For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १७ उ. १४, १५ नागकुमारादि के आहार की सम-विषमता २६४३ १ उत्तर - हे गौतम ! सोलहवें शतक के ग्यारहवें द्वीपकुमार उद्देशक के अनुसार यावत् ऋद्धि पर्यंत जानना चाहिये । शतक १७ उद्देशक १४ १ प्रश्न - सुवण्णकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा० ? १ उत्तर - एवं चेव । || सत्तरसमे सए चोसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी सुवर्णकुमार समान आहार वाले हैं, इत्यादि प्रश्न | १ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् । शतक १७ उद्देशक १५ १ प्रश्न - विज्जुकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा० ? १ उत्तर - एवं चेव । | सत्तरसमे सप पण्णरसमो उद्देस समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी विद्युत्कुमार समान आहार वाले हैं, इत्यादि प्रश्न | १ उत्तर - है गौतम ! पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७ उद्देशक १६ १ प्रश्न-वायुकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा० ? १ उत्तर-एवं चेव । ॥ सत्तरसमे सए सोलसमो उद्देसो समत्तो ॥ १ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी वायुकुमार समान आहार वाले हैं, इत्यादि १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । - प्रश्न। शतक १७ उद्देशक१७ १ प्रश्न-अग्गिकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा० ? १ उत्तर-एवं चेव । ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति • ॥ सत्तरसमे सए सत्तरसमो उद्देसो समत्तो ।। १ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी अग्निकुमार समान आहार वाले हैं, इत्यादि प्रश्न। १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। सत्रहवां शतक समाप्त For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र के प्रथम भाग में शतक १-२ पृ. १ से ५३२ तक द्वितीय भाग में शतक ३ से ६ पृ. ५३३ से १०७६ तक तृतीय भाग में शतक ७-८ पृ. १०७७ से १५७० तक चतुर्थ भाग में - शतक ९ से १२ पृ. १५७१ से २१३४ तक पंचम भोग में शतक १३ से १७ पृ. २१३५ से २६४६ तक For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरक्षकसी For Personal & Private Use Only..