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भगवती सूत्र-श. १३ उ. ८ कम-प्रकृति
गये हैं । इन बारह भेदों का विस्तृत अर्थ दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में स्कन्दक परिव्राजक के प्रकरण में दिया गया है।
पण्डित-मरण के दो भेद किये गये हैं । यथा-पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान ।
पादपोपगमन मरण-संथारा करके कटे हुए वृक्ष के समान जिम स्थान पर, जिम रूप में एक वार लेट जाय, फिर उसी स्थान पर उसी रूप में लेटे रहना और उसी रूप में समभाव पूर्वक मरण हो जाना-'पादपोपगमन मरण' है। इस मरण में हाथ-पैर हिलाने एवं आँख टमकारने तक का भी आगार नहीं होता।
भक्तप्रत्याख्यान-यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग करने के बाद समभावपूर्वक जो मृत्यु होती है, उसे 'भक्त-प्रत्याख्यान मरण' कहते हैं। इसे ''भवत-परिज्ञा' भी कहते हैं।
उपर्युक्त दोनों पण्डित-मरणों के निर्दारिम और अनिहारिम ये दो-दो भेद है। ग्रामादि के एक भाग में संथारा किया जाय, जहाँ से मृत कलेवर को ग्रामादि से बाहर ले जाना पड़े, उसे 'निभरिम' कहते हैं। पर्वत की गफा आदि में जो मंथारा किया जाय, जहाँ से मृत कलेवर को बाहर न लेजाना पड़े, उसे 'अनिहारिम' कहते हैं । पादपोपगमनमरण अवश्य अप्रतिकर्म होता है । इस मरण में हाथ, पैर आदि दिलाने एवं हलन-चलनादि कुछ भी नहीं किया जाता है । भक्तप्रत्याख्यान मरण अवश्य मप्रतिकर्म होता है। उसमें हाथ, पैर आदि हिलाने का आगार रहता है ।
॥ तेरहवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ।
शतक १३ उद्देशक ८
कर्म-प्रकृति १ प्रश्न-कइ णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? .
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