SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१५ भगवती सूत्र-श. १३ उ. ! नरयिकों में दृष्टि १५ उत्तर-गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि णेरड्या उववजंति, मिच्छा. दिट्टी वि णेरइया उववजंति, णो सम्मामिच्छदिट्ठी जेरइया उववजंति। १६ प्रश्र-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु किं सम्मदिट्टी णेरड्या उबटुंति । १६ उत्तर-एवं चेव। कठिन शब्दार्थ-सम्मामिच्छविट्ठी-सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि)। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) नरयिक उत्पन्न होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं और मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तते हैं, इत्यादि प्रश्न । १६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व के समान जानना चाहिये, अर्थात् सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि उद्वर्तते हैं, परंतु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं उद्वर्तते । विवेचन-'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवस्था में काल नहीं करता-ऐसा सिद्धान्त वाक्य है । १७ प्रश्न-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy