SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३०८ भगवती सूत्र-शः ५४ उ. ४ जीव अजीव परिणाम जाता है । वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा वह अशाश्वत है, क्योंकि पर्याय विनश्वर हैं । ___ जो परमाणु विवक्षित परिणाम से रहित होकर पुन: उस परिणाम को कभी भी प्राप्त नहीं होता, वह परमाणु उस परिणाम की अपेक्षा चरम' कहलाता है। जो परमाणु उस परिणाम को पुनः प्राप्त होता हैं, वह उस अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है । द्रव्य की अपेक्षा परमाणु चरम नहीं, अचरम है, क्योंकि विवक्षित परिणाम से रहित बना हुआ परमाणु सघातपरिणाम को प्राप्त हो कर कालान्तर में पुनः परमाणु परिणाम को प्राप्त होता है । __क्षेत्रादेश से (क्षेत्र की अपेक्षा) परमाणु कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है । जिस क्षेत्र में किसी केवलज्ञानी ने केवली-समुद्घात की थी, उस समय जो परमाणु वहां रहा हुआ था, अब समुद्घात प्राप्त उस केवलज्ञानी के सम्बन्ध विशिष्ट से वह परमाणु : किसी भी समय उस क्षेत्र का आश्रय नहीं करता, क्योंकि वे समुद्घात प्राप्त केवली निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं । वे उस क्षेत्र में पुनः कभी भी नहीं आयेंगे, इसलिये क्षेत्र की अपेक्षा परमाणु 'चरम' कहलाता है। विशेषण रहित क्षेत्र की अपेक्षा परमाणु फिर उस क्षेत्र में अवगाढ़ होता है, इसलिये 'अचरम' कहलाता है। काल की अपेक्षा कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है । यथा-जिस प्रातःकाल आदि समय में केवली ने समुद्घात किया था, उस काल में जो परमाणु रहा हुआ था, वह परमाणु उस केवलीसमुद्घात विशिष्ट काल को पुनः प्राप्त नहीं करता । क्योंकि वे केवलज्ञानी तो मोक्ष चले गये । अतएव पुनः कभी समुद्घात नहीं करेंगे । इसलिये उस अपेक्षा काल से चरम है ओर विशेषण रहित काल की अपेक्षा परमाणु अचरम है । भाव की अपेक्षा परमाणु चरम भी है और अचरम भी है । यथा-केवलीसमुद्घात के समय जो परमाणु वर्णादि भाव विशेष को प्राप्त हुआ था, वह परमाणु विवक्षित केवलीसमुद्घात विशिष्ट वर्णादि परिणाम की अपेक्षा चरम है। क्योंकि उस केवलज्ञानी के निर्वाण प्राप्त कर लेने से वह परमाणु पुनः विशिष्ट परिणाम को प्राप्त नहीं होता। जीव अजीव परिणाम ७ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? । ७ उत्तर-गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा-जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy