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________________ भगवती सूत्र-स. १४ उ. ४ जीव अजीव परिणाम परिणामे य अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं गिरवसेसं भाणियव्वं । * मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ ®. ॥ चोदसमसए चउत्थो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-णिरवसेसं-परिपूर्ण । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा गया ? ७ उत्तर-हे गौतम ! परिणाम दो प्रकार का कहा गया है । यथा-जीव परिणाम और अजीव परिणाम । इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनो सूत्र का तेरहवा परिणाम-पद सम्पूर्ण कहना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--परिणाम का लक्षण इस प्रकार है-- "परिणामो हयन्तिरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानं । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥" अर्थात्-द्रव्य की अवस्थान्तर प्राप्ति को 'परिणाम' कहते हैं । द्रव्य का सर्वथा एक रूप में रहना अथवा विनाश हो जाना यह 'परिणाम' शब्द का अर्थ नहीं है। परिणाम के दो भेद हैं-जीव परिणाम और अजीव परिणाम । जीव परिणाम के दस प्रकार है । यथा-१ गति, २ इन्द्रिय, ३ कषाय, ४ लेश्या, ५ योग, ६ उपयोग, ७ ज्ञान ८ दर्शन, ९ चारित्र और १० वेद । अजीव परिणाम के भी दस भेद हैं । वे इस प्रकार हैं१ बन्धन, २ गति, ३ संस्थान, ४ भेद, ५ वर्ण, ६ गन्ध, ७ रस, ८ स्पर्श, ९ अगुरुलघु और १० शब्द परिणाम । ॥ चौदहवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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