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भगवती सूत्र - १४ उ १ नैरमिक अनन्तरोपपन्नंकादि
में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो समय की विग्रह गति होती है। जब कोई जीव, भरत क्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में वायव्य कोण ( विदिशा ) में उत्पन्न होता है, तब एक समय में समश्रेणी द्वारा नीचे जाता है। दूसरे समय में पश्चिम दिशा में जाता है और तीसरे समय में तिर्च्छा वायव्य कोण में रहे अपने उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है । इस प्रकार नैरयिक जीवों की शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय कहा गया है। एकेन्द्रिय जीवों की चार समय की विग्रह-गति इस प्रकार होती है-जीव की गति, श्रेणी के अनुसार होती है । इसलिये अनाड़ी से बाहर रहा हुआ एकेन्द्रिय जीव जब दूसरे भव में जाता है, तब पहले समय में सनाड़ी से बाहर अधोलोक की विदिशा ने दिशा की ओर जाता है । दूसरे समय में लोक के मध्यभाग में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊँचा ( ऊर्ध्व - लोक में ) जाता है । और चौथे समय में त्रसनाड़ी से निकल कर दिया में व्यवस्थित स्थान में जाता है । यह बात सामान्य रूप से बहुत एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई है और इसी प्रकार गति करते हैं, अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय की भी विग्रह गति संभव है । वह इस प्रकार सम्भवित होती है। पहले समय में त्रसनाड़ी से बाहर, अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है। दूसरे समय में लोक के मध्यभाग में प्रवेश करता है । तीसरे समय में ऊर्वलोक में जाता है। चौथे समय में वहाँ से दिया की ओर जाता है। और पाँचवें समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्ति स्थान में जाता है । इस प्रकार यह पांच समय की विग्रहगति कही गई है। कहा भी है
"विदिसाउ दिसि पढमे बीए पइसरइ नाडिमज्झम्मि । उड़ढं तइए तुरिए उनीह विदिसं तु पंचमए ॥ "
यह गति सम्भवित रूप से बताई गई है, किन्तु जीव उत्कृष्ट चार समय की ही गति करते हैं, जो ऊपर बतला दी गई ।
नैरायिक अनन्तरोपपन्नकादि
५ प्रश्न - णेरड्या णं भंते! किं अणंतरोववण्णगा, परंपरोववण्णगा, अनंतर परंपरअणुववण्णगा ?
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