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________________ भगवती सूत्र-य. १४ : भैरवकों की शीघ्र गति कठिन शब्दार्थ- सोहा - शीघ्र, पसारेज्जा-फैलावे, आउंटेज्जा-संकुचित करे, उण्णिमिसियं खुली हुई, णिउणसिप्पोवगए - शिल्पशास्त्र में निपुण, विविखण्णं- फैलाई हुई ( खोली हुई), अच्छि आँख, णिम्मिसेज्जा बन्द करे ( मीचे ) । भावार्थ-४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीवों की शीघ्रगति किस प्रकार की कही गई है और उनकी शीघ्रगति का विषय कैसा कहा गया है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! जैसे कोई बलिष्ठ, युगवान् ( सुषम-दुषमादि काल में उत्पन्न हुआ विशिष्ट बल वाला) यावत् निपुण पुरुष, शिल्पशास्त्र का ज्ञाता हो, वह अपने संकुचित हाथ को शीघ्रता से पसारे ( फैलावे ) और पसारे हुए हाथ को संकुचित करे, खुली हुई मुट्ठी बन्द करे और बन्द मुट्ठी खोले, खुली हुई आँख बन्द करे और बन्द आँख उघाड़े, तो हे भगवन् ! नैरयिक जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति और शीघ्रगति का विषय होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि नैरयिक जीव, एक समय की ( ऋजुगति से ) दो या तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! नरयिक जीवों की इस प्रकार की शीघ्र गति और शीघ्रगति का विषय कहा गया है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिये । विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिये । शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिये । २२७९ विवेचन - यहाँ एक भव से दूसरे भव में जाने को 'गति' कहा है। नैरयिक जीव, नरक गति में एक समय, दो समय और तीन समय की गति से उत्पन्न होते हैं । उसमें एक समय की ऋजुगति होती है और दो और तीन समय की 'विग्रह गति' होती है । इस गति को यहाँ 'शीघ्र गति' कहा है। हाथ को फैलाने और संकोच करने में तो असंख्यात समय लगते हैं, इसलिये उनको शीघ्रगति नहीं कहा है। जब जीव, समश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति स्थान • जाकर उत्पन्न होता है, तब उसके एक समय की ऋजुगति होती है और जब विषम श्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है, तब दो अथवा तीन समय की विग्रह गति होती है और एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट चार समय की विग्रह-गति होती है । जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह पहले समय में नीचे आता है। दुसरे समय में तिच्र्च्छा उत्पत्तिस्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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