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भगवती सूत्र-श. १४ उ. १ लेण्या में परिवर्तन
१९ उत्तर-हां गौतम ! कृष्णलेशी होकर यावत् उत्पन्न होता है । प्रश्न-हे भगवन् ! इस का क्या कारण है ? ।
उत्तर-हे गौतम ! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए कृष्ण-लेश्या रूप से परिणमते हैं और कृष्णलेश्या से परिणत होने के बाद, वह जीव कृष्णलेश्या वाले नैरपिकों में उत्पन्न होता है । इस कार ग यावत् पूर्वोक्त रूप से कहा गया है।
२० प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होकर जीव नीललेश्या वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ?
२० उत्तर-हाँ गौतम ! यावत् उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! इस का क्या कारण है ?
उत्तर-हे गौतम ! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए और विशुद्धि को प्राप्त होते हुए, वह जीव नीललेश्या रूप में परिणत होता है।
और नीललेश्या रूप से परिणत होने के बाद वह नीललेशी नैरयिकों में उत्पन्न होता है । इसलिये हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है ।
२१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेशी, नीललेशी यावत् शुक्ललेशी होकर कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार नीललेश्या के विषय में कहा गया, उसी प्रकार कापोत लेश्या के विषय में कहना चाहिये, यावत् इस कारण उत्पन्न होते हैं-तक कहना चाहिए ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं।
विवेचन-लेश्या स्थान का तात्पर्य-उसी 'लेण्या के अवान्तर भेद' है । प्रगस्त लेश्या स्थान जब अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे 'संक्लिश्यमान' कहलाते हैं और अप्रशस्त लेश्या-स्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे 'विशुद्धयमान' कहलाते हैं । इसलिये प्रशस्त और अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में यथायोग्य मंक्लिश्यमानता और विशुद्धयमानता समझनी चाहिये।
॥ तेरहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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