SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १५ जाराधना और केवलज्ञान अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सव्वट्टसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओहिंतो अनंतरं चयं चड़त्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई भवंति अड्ढाई जाव अपरिभूयाई तहप्पगारे कुलेसु पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । एवं जहा उववाइए दढप्पण्णत्तव्वया सच्चैव वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा जाव केवलवरणाणदंसणे समुपजिहिति । कठिन शब्दार्थ - अविराहिय सामण्णे- अविराधित श्रामण्य ( चारित्र की विराधना किये बिना) । भावार्थ- वहां से च्यव कर मनुष्य होगा यावत् चारित्र की विराधना किये बिना ( आराधक होकर ) काल के समय काल करके सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा और चारित्र की विराधना किये बिना, काल के समय काल करके सनत्कुमार देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा । जिस प्रकार सनत्कुमार देवलोक के विषय में कहा, उसी प्रकार ब्रह्मलोक, महाशुक्र, आनत और आरण देवलोकों के विषय में कहना चाहिये। वहां से च्यव कर मनुष्य होगा यावत् चारित्र की विराधना किये बिना काल करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न होगा। वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा । जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यावत् उसे उत्तम केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होगा । विवेचन - इस सूत्र में चारित्र की आराधना कही है, उसके विषय में कहा है कि'आराहणा य एत्थं चरणपडिवत्तिसमयओ पभिई । 44 Jain Education International २४९ आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालनं विहिणा ।। " अर्थ - चारित्र स्वीकार करने के समय से लेकर मरण- पर्यन्त निरतिचार चारित्र का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy