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भगवती सूत्र-श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि
पालन करना 'आराधना' कहा गया है ।
यद्यपि यहाँ बारित्र प्रतिपत्ति के भव, विराधना युक्त अग्निकुमार देवों को छोड़ कर भवनपति और ज्योतिषी देवों के दस कहे हैं और सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक अविराधित सात भव और आठवां सिद्धि-गमन रूप अन्तिम भव । इस प्रकार ये आठ भव होते हैं । विराधित और अविराधित दोनों को मिलाने से अठारह भव होते हैं । किन्तु आठ भव तक ही चारित्र की प्राप्ति होती है, यह सिद्धान्त पक्ष है।
यहाँ जो दस भव चारित्र-विराधना के बतलाये गये हैं, वे द्रव्य-चारित्र की अपेक्षा समझना चाहिए अर्थात् उनमें उसे भाव-चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। चारित्र-क्रिया की विराधना होने से उसको विराधक बतलाया है । जैसे अभव्य जीव चारित्र क्रिया के आराधक होकर ही नवग्रैवेयक में जाते हैं, उनको वास्तविक चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार यहाँ भी दस भवों का चारित्र द्रव्य चारित्र समझना चाहिए। इस प्रकार समझने से सिद्धान्त पक्ष में किसी प्रकार का दोप नहीं आता।
अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि
. ४९-तपणं से दढप्पइण्णे केवली अप्पणो तीअदुधं आभोएहिइ, अप्प० २ आभोइत्ता समणे णिग्गंथे सदावेहिति, सम० २ सद्दावेत्ता एवं वदिहिइ-'एवं खलु अहं अजो! इओ चिराईयाए अद्धाए गोसाले णामं मंखलिपुत्ते होत्था, समणघायए जाव छउ. मत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! अणाईयं अण. वदग्गं दीहमधं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिए, तं मा णं अन्जो ! तुम्भं केइ भवउ आयरियपडिणीयए, उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए
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