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भगवती सूत्र-श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि
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." मा णं से वि एवं चेव अणाईयं, अणवदग्गं जाव संसारकंतारं
अणुपरियट्टिहिति जहा णं अहं । तएणं ते समणा णिग्गंथा दढ. प्पइण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयमढें मोचा णिमम्म भीया तत्था तसिया संसारभउम्बिग्गा दढप्पइण्णं केवलिं वंदिहिंति, णमंसिहिति वंदित्ता णमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोइएहिंति णिदिहिंति जाव पडिवजिहिंति। तएणं दढप्पइण्णे केवली बहूई वासाइं केवल. परियागं पाउणिहिति. बहूहिं० २ पाउणित्ता अप्पणो आउमेसं जाणेत्ता भत्तं पञ्चक्वाहिति, एवं जहा उववाइए जाव सव्वदुक्खाण. मंतं काहिति ।
8 मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ *
॥ तेयणिसग्गो समत्तो ।
॥ समत्तं पण्णरसमं सयं ॥ कठिन शब्दार्थ-आभोएहिइ-देखेंगे, पडिणीयए-प्रत्यनीक (विरोधी) ।
भावार्थ-४९-वे दृढ़प्रतिज्ञ केवली अपने अतीत काल को देखेंगे। देख कर श्रमण-निर्ग्रन्थों को सम्बोधन कर इस प्रकार कहेंगे-'हे आर्यों ! आज से बहुत काल पहले मैं मंखलिपुत्र गोशालक था। मैंने श्रमणों की घात की थी यावत् छद्मस्थावस्था में काल-धर्म को प्राप्त हुआ था । हे आर्यो ! मैं अनादि अनन्त और दीर्घमार्ग वाले चार गति रूप संसार अटवी में भटका था। इसलिये
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