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________________ भगवती सूत्र - श. १५ अपने उदाहरण से उपदेश दान और सिद्धि हे आर्यो ! तुम में से कोई भी आचार्य - प्रत्यनीक ( आचार्य के द्वेषी ) मत होना, आचार्य और उपाध्याय के अपयश करने वाले, अकीर्ति करने वाले मत होना और मेरे समान उपाध्याय प्रत्यनीक मत होना, अवर्णवाद करने वाले और अनादि अनन्त यावत् संसार अटवी में भ्रमण मत करना । दृढ़प्रतिज्ञ केवली की बात सुन कर और हृदय में अवधारण कर के वे श्रमण-निर्ग्रथ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढ़प्रतिज्ञ केवली को वन्दना - नमस्कार करेंगे, वन्दना - नमस्कार करके पापस्थान की आलोचना और निन्दा करेंगे, यावत् तपःकर्म को स्वीकार करेंगे । दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवल पर्याय का पालन करेंगे और शेष आयुष्य थोड़ा रहा जान कर भक्तप्रत्याख्यान करेंगे। इस प्रकार औपपातिक सूत्रानुसार यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं । तेजनिसर्ग समाप्त || पन्द्रहवां शतक सम्पूर्ण || २५.२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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